संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी |
संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित
परमरहस्य
अध्याय अकरावा
परमरहस्य
अध्याय अकरावा
।।श्रीशिवाय नम:।।
मागील अध्यायीं जंगममाहात्म्य। श्रीपरमात्में वर्णिलें अत्युत्तम। परमरहस्य अनुपम। विशेषेकरून वर्णिलें।।१।।
देव्युवाच-
को भेदो नादरूपस्य बिंदुभेदस्तथैव च।
कलारूपमिदं देव ब्रूहि मे परमेश्वर।।१।।
पार्वती म्हणे देवाधिदेवा। नादरूपाचा भेद निवेदावा। बिंदुभेद तोहि दाखवावा। कळारूप तें कोण कैसें।।२।। त्याचा निरोपावा भेद। मी अज्ञानी मतिमंद। पुरवावा माझा हा छंद। कृपाळुत्वें परशिवा।।३।।
शिव उवाच-
नादो गुरुमुखं चैव बिंदुर्लिंगमुखं तथा।
कला चरमुखं ज्ञात्वा अर्पयेत् स प्रसादभाक्।।२।।
ईश्वर म्हणे पार्वतीप्रति। ऐक नादबिंदूची स्थिति। सूक्ष्म म्हणती जयाप्रति। तेंचि तुज निवेदितो।।४।। नाद तो जाणावा शब्द। तयाचें स्थान ध्यु:शुद्ध। गुरुत्वास तो प्रसिद्ध। आला असे जाण पां।।५।। म्हणोनि नाद गुरुच म्हणती। योगी योग्यां संकेतें जाणविती। अंतरीं आनंदें पोतीं भरती। मापें देती हर्षोनिया।।६।। बिंदूचा कैसा विचार असे। तोहि सदा लिंगरूप भासे। लिंग तो परब्रह्मचि असे। म्हणोनि बिंदु म्हणती तया।।७।। कला ती चरलिंगीं जाणावी। अव्यक्तां व्यक्तत्वास आणवी। क्रियारूप असोनि आघवी। मोक्षमार्गा दावीतसे।।८।। ऐसा कलेचा महिमा। शिव सांगे ऐके उमा। प्रश्नोत्तराची सीमा। न वदवे मुखानें।।९।। आतां सांगू मुख्य खूण। जेणें ज्ञान होय परिपूर्ण। ते संक्षेपेंकरून। निरोपुं आतां।।१०।। नाद तो गुरुमुखें जाणिजें। बिंदु तो लिंगमुखें ओळखिजें। कला तें जंगममुख म्हणिजें। ऐसा त्रिविध भेद हा।।११।। नाद बिंदु कला हे तिन्ही। गुरु लिंग जंगम जाणोनि। अर्पू जाणें भावें प्रसादमुखेंकरूनि। तोचि प्रसादी पुरुष।।१२।। तोचि प्रसादी महाज्ञानी। अज्ञानांधा होय तरणी। जयाचे संसर्गेकरूनि। ज्ञान होय मूढ जनां।।१३।। प्रसादी म्हणावें कोणासीं। गुरु लिंग आणि जंगमासीं। ऐक्य भावूनि मानसीं। वर्ते निर्मत्सरीं सदा।।१४।। ऐशा त्या नाद बिंदु कळा। प्रसादीं मिळाल्या सकळा। ऋद्धिसिद्धीचा पूर्ण मेळा। प्राप्त होय प्रसादिकां।।१५।। जे प्रसादिक होऊ इच्छिती। त्यांनीं शरण जावें गुरुप्रति। पाहूनिया शिष्याची आचारशक्ति। स्वशील द्यावें आवडीनें।।१६।। शील चालविण्याकरितां। पाहिजे कुटुंबाची श्रद्धा तत्त्वतां। स्वधर्माभिमानें वर्ततां। क्रिया राहे सतेज पैं।।१७।। क्रियाचारें जो तेज:पुंज। तया भितो यमराज। तपश्चर्येचें मूळ बीज। थोरी जाण क्रियेची।।१८।।
नादबिंदुकलारूपं तद्रूपं भुवि निर्मलम्।
गुरुजंगमलिंगाय ज्ञात्वा सततमर्पयेत्।।३।।
नादबिंदुकळारूप। हें गुरुलिंगजंगमाचें स्वरूप। जाणोनि नित्य अर्पण करी तो निजरूप। उत्तम जंगम।।१९।। नादबिंदुकलेचें रूप। वरी वर्णिलेंसे अमूप। त्रिविध ऐक्य भक्तिस्वरूप। जाणोनि अर्पी जंगम तो।।२०।।
एवं लिंगमुखं ज्ञात्वा अंगभावेन भावितम्।
जंगमस्य मुखं ज्ञात्वा संसारस्य न बंधनम्।।४।।
जंगममुख सर्व मुखाधिक। त्याचाहि भेद ऐक। देहभावनेस जाणिजें लिंगमुख। लिंगमुखें प्राण सुखी।।२१।। लिंगमुखीं जें जें होय अर्पण। तेणें अर्पणें सुखी होय आपण। परि लिंगार्पण जंगममुखें जाण। लिंगाचें मुख जंगम।।२२।। म्हणोनि जंगममुखेविण। लिंगासीं नव्हे अर्पण। यालागीं जंगम चैतन्यघन। परब्रह्मचि तो।।२३।। ऐसिया जंगमाचें करी जो पूजन। विश्वासें सद्भाव धरोन। त्यासीं नाहीं भवबंधन। तो चिद्रूप होय।।२४।। त्याचे मुखीचा प्रसाद चरणीचें तीर्थ। जो सेवी विश्वासें परम भक्त। त्यासीं कळिकाळ येती शरणागत। मा भवबंधन कैचें त्यां।।२५।।
प्रसादस्य मुखं ज्ञात्वा परं चेह न विद्यते।
त्रिविधैक्यमिदं देवि ज्ञातव्यं सोहऽमेव च।।५।।
ऐसा प्रसादमुखेंकरून। जो जाणोन भजे ऐक्यभावें सज्जन। त्यासीं इह पर जाण। इच्छिणें नाहीं।।२६।। गुरु लिंग जंगम त्रिविध। ऐक्यभावें भजे भावना शुद्ध। तोचि भक्त तोचि जंगम निबद्ध। तारक शिवाचारासीं।।२७।। तोचि मी मी तोचि जाणिजें। तया मज भेद न मानिजें। तयाचेनि देवपण माझें। ए-हवीं मी देव ना भक्त।।२८।। पाहतां मी निर्गुण निराकार। भक्तिसुखास्तव धरिला अवतार। त्याचें योगें मी देव साचार। तो भक्त म्हणोनि।।२९।। भक्तांगें देव देवांगें भक्त। एèहवीं तो देवभक्तनामाविण सदोदित। परि आपुलिया सुखां देव भक्त। आपणचि होवोनि ठेला।।३०।। देव भक्त एकचि असत। परि सापेक्ष ऐसी असे मात। नसतां देव कोठील भक्त। आपणचि सर्वत्र भरला असे।।३१।। तीच वस्तु इष्टलिंग प्राणqलग। होऊनि ठेली भावलिंग। भक्तिसुखालागीं रूपें अभंग। अनेक धरिली प्रभूनें।।३२।।
देव्युवाच-
इष्टलिंगमुखं किं वा प्राणलिंगमुखं तथा। भावलिंगमुखं चैव ब्रूहि मे परमेश्वर।।६।।
पार्वती म्हणे सदाशिवा। इष्ट प्राण आणि भावां। या लिंगत्रयीं प्राण अर्पावा। हें पूर्वी कथिलेसे।।३३।। तरी याचीं वदनें किती। तीं सांगावी मजप्रति। तरीच मी धन्य धन्य त्रिजगती। होईन सत्य स्वामिया।।३४।। इष्टलिंगासीं मुखे किती। निरोपावी कैलासपति। प्राणलिंगासीं कोण मुख गति। मुखे किती भावलिंगासीं।।३५।।
शिव उवाच-
इष्टलिंगमुखं पंच प्राणलिंगस्य तत्तथा।
पंच एव मुखं देवि भावलिंगस्य कीर्तितम्।।७।।
शंकर म्हणे वो गौरी। मीच वसे लिंगाभीतरीं। मम मुखेंचि निर्धारी। असती सर्व लिंगां।।३६।। इष्टलिंगासीं मुखें पांच जाण। प्राण अपान व्यान उदान समान। हे पांची प्राण पांच मुखें नेमून। इष्टलिंगासीं।।३७।। इष्टलिंगासीं प्राण। मिश्रित झाला आपण। म्हणोनि प्राणलिंग ऐसें उच्चारण। प्राणलिंगां बोलिजें।।३८।। इष्टलिंगासीं प्राण समरसला। म्हणोनि प्राणलिंग नांव पावला। त्याचीं पंचमुखें लाधला। समरसला यालागीं।।३९।। इष्टलिंगासीं भाव मिश्रित झाला। म्हणोनि भावलिंग नाम पावला। तोचि पांच मुखें लाधला। समरसला यालागीं।।४०।। पांची प्राणमुखेंकरून। जे जें होय अर्पण। तें तें इष्टलिंगासीं जाण। त्याचीं मुखें म्हणोनिया।।४१।। प्राणलिंग भावलिंग निगुती। इष्टलिंगीं मिश्रित असती। म्हणोनि तेंहि लाधती तृप्ति। जी होय इष्टलिंगासीं।।४२।। ऐसा इष्ट प्राण भाव लिंग। हे तिन्ही मिळोन एक अंग। करोनि पुजी तो पावे पद अभंग। जंगम अथवा भक्त।।४३।। त्रिविध ऐक्य मानोनि करी पूजा। तेणें संतोष वृषभध्वजां। होतसे अनायासे कैलासराजा। लिंगपूजा श्रेष्ठ ही।।४४।।
देव्युवाच-
इष्टप्राणादिलिंगानां पूजनस्य च को विधि:।
भावलिंगस्य का पूजा सर्वं कथय विस्तृतम्।।८।।
गिरिजा पुसे ईश्वरासीं। इष्टलिंगासीं पूजा कैसी। प्राणलिंग-भावलिंगासीं। पुजिजें कैसें।।४५।।
शिव उवाच-
अष्टविधार्चनं कुर्यात् इष्टलिंगस्य पूजने।
प्राणलिंगानुसंधानं प्राणलिंगस्य पूजनम्।।९।।
ऐक इष्टलिंगाचें पूजन। गंध धूप दीप अष्टविधार्चन। नैवेद्यफलतांबूलादि समर्पण। इष्टलिंगासीं कीजें।।४६।। बरवा त्रिकाळ साधून। एकान्त स्थानीं करी पूजन। गुरुरूप लिंगासीं भावून। पुजिजें वो देवी।।४७।। ऐक आणिकहि पूजन। घंटा चामर दर्पण। काडवाती कर्पूरदहन। अनेक विधार्चनीं पुजिजें।।४८।। ऐक प्राणलिंगाचें पूजन। ध्यान धरिजें मानस दृढावून। ध्यानीं लिंग आणिजें गुरुभावेंकुन। प्राणलिंगपूजन या नांव।।४९।। या षोडशोपचारें वोजें। मानसपूजा बरवी कीजें। येणेंपरी संतोषविजे। प्राणलिंगालागोनि।।५०।।
मनोलयपरे तत्त्वे भावलिंगस्य पूजनम्।
एतल्लिंगार्चनज्ञानं विशेषं श्रुणु पार्वति।।१०।।
मन तल्लीन ठेवोनि लिंगासरिसे। लिंगामाजीं समरसोनि असे। मनां मनपणाचा आठवु नसे। त्या नांव भावलिंगपूजा।।५१।। मनाचें रूप तें संकल्प विकल्प जाण। ते संकल्प विकल्प गेलिया निमोन। मग मनासीं कैंचे मनपण। त्या नांव मनोलयपूजा।।५२।। ऐसें मनोलयपूजन। तेंचि भावलिंगाचें अर्चन। घडे जया तयाचें विशेष ज्ञान। ऐक वो पार्वती।।५३।। या तिन्ही पूजा लिंगासींच घडती। त्रिविध भावें एकचि लिंगमूर्ति। ते गुरुत्वें ऐक्यस्थिति। पुजिजें एकत्वें।।५४।। ऐसें त्रिविध मिळोनि एक लिंग। तें श्रीगुरूचेंचि निजांग। म्हणोनि लिंगासीं जी पूजा कीजें चांग। ती गुरूसीं अर्पण होय।।५५।। म्हणोनि लिंग तें परमेश्वर पूर्ण। कां म्हणसी तरी गुरु-लिंगासीं नाहीं भिन्नपण। जें परब्रह्म तेंचि गुरु चैतन्यघन। यालागीं लिंग तें परब्रह्म।।५६।। ऐसी जो नित्य करी भावलिंगपूजा। तेणें वश केला कैलासराजा। स्वधर्माचा पाया मूळ बीजां। अधिकारी होय तो।।५७।। भावलिंग हेचि भक्ति-अंग। विश्वभरीं असे त्याचा वेग। प्राणिमात्रीं हें तत्त्व वसें चांग। म्हणोनि धर्मवृत्ति असे।।५८।। जयाची भावभक्ति निमाली। तुच्छत्वें बुद्धि फांकली। त्याचिया धर्मां भ्रष्टता आली। हें सांगणें कासया।।५९।। जो धर्मघ्न होय तर्कटी पूर्ण। धर्मज्ञें त्याचें न पाहावें वदन। पंक्तिसमागमें न करी भोजन। दुष्टां शासन हेचि पैं।।६०।।
देव्युवाच-
इष्टलिंगार्पितं किं वा प्राणलिंगार्पितं तथा।
भावलिंगार्पितं तद्वद् ब्रूहि मे परमेश्वर।।११।।
पार्वती म्हणे लिंगमूर्ति। लिंगत्रयाची अर्पणस्थिति। मज निरोपावी पशुपति। जग-उद्धाराकारणें।।६१।। इष्टलिंगासीं कोणा अर्पणें तृप्ति असे। प्राणलिंगीं तृप्ति कैसी वसे। भावलिंगीं तृप्ति जगदिशे। निरोपावी कैसी ती।।६२।।
शिव उवाच-
इष्टलिंगार्पितं अंगं प्राणलिंगार्पितं मन:।
भावलिंगार्पिता तृप्तिरित्यवेहि वरानने।।१२।।
शिव म्हणे गिरिजे ऐक खूण। इष्टलिंगां शरीर कीजें अर्पण। प्राणलिंगां अर्पिजें मन। भावलिंगासीं तृप्ति पैं।।६३।। देहबुद्धीचा सर्वस्वें त्याग कीजें। त्या नांव इष्टलिंगार्चन सहजें। मनाचें चंचळत्व अर्पिजें। प्राणलिंगार्चन त्या नांव।।६४।। जें जें घडें तयास तृप्ति। तें तें भावलिंगां अर्पणस्थिति। यापरी त्रिलिंगीं अर्पणगति। निरोपिली तुज।।६५।। आणिक सांगतो तुज एक। लक्ष देवोनि ऐक सम्यक्। इष्ट देह असे नैष्ठिक। जीवालागीं निश्चयें।।६६।। देह हा इष्टलिंगार्पित असे। इष्ट देहीं इष्टलिंग वसें। आन देहीं तो न वसें। अलिंगी जाण बोलती तया।।६७।। इष्टलिंग वीरशैवास। तयें त्यासी अर्पिलें शरीरास। प्राणलिंगार्पित मानस। तृप्ति जाण भावलिंगां।।६८।। लिंगधारी महायोगी। जे विनटले भावलिंगीं। तयाची इच्छा अहंता जगीं। न प्रवर्ते कालत्रयीं।।६९।। हे भेद चरलिंगाचे। दुजे स्थावर बोलती वाचे। भेदाभेद काढितां तयाचे। वाटे विस्मय मानसीं।।७०।। ज्या ज्या काळीं धर्महानी। शिवभक्तीते उच्छेदूनि। वीरशैवमार्गालागोनि। बुडविती वेळोवेळां।।७१।। त्याची करावया स्थापना। आचार्य गुरुरूपी जाणा। करिती ज्या भूलिंगांतूनि गर्जना। तीं चरलिंगें मानावी।।७२।। जेथून आचार्य प्रगटले। तें स्थान स्वायंभुवागमीं वर्णिलें। तें पाहिजे पाहिलें। प्रत्ययालागूनि।।७३।। हे आचार्य पांच असती। त्यांच्या अवतारीं विशेष शक्ति। ब्रह्मादि देव अनुसरती। पावन मार्ग तयांचा।।७४।। ते ज्या स्थानीं गुप्त होती। तीं स्थलें पवित्र असती। तीर्थें तयांसीच म्हणती। शिवस्थानांलागूनि।।७५।। त्या लिंगासीं चरलिंग। मानावें सत्य शास्त्रांग। वीरशैव आचारभंग। येणें नोव्हे कल्पांति।।७६।। वीरशैव धर्माचें मुख्य तत्त्व। शिवावांचून अन्य दैवत। न मानणें श्रेष्ठ अद्भुत। एक शिव सर्व कर्ता।।७७।। ज्या लिंगांसीं ईश्वरनाम। तीं चरलिंगें जाणावी उत्तम। वंद्य असे श्रीशैल्य धाम। वीरशैवां जाणावें।।७८।। अरण्यस्थानीं उदास। पूर्वी स्थापित लिंग विशेष। अर्चिती जया तापस। तींहि चरलिंगेंचि।।७९।। चरलिंगें स्थिर होती। तया स्थावर बोलती। कालांतरें प्रगटती। धर्महानी झालिया।।८०।। तया स्थावरांसीं वंदावें। भक्तिभावें अर्चवावें। प्रसिद्धपणें पुढें व्हावें। लिंगमाहात्म्य वाढवावया।।८१।।
देव्युवाच-
षट्स्थलं च कथं जातं षट्स्थलस्य च के गुणा:।
षट्स्थलानां तु भेदं हि कथयस्व ममानघ।।१३।।
पार्वती म्हणे स्वामी त्रिनयना। षट्स्थळ कैसें झालें सांगा खुणा। कोण गुण कैसा भेद प्राणां। निरोपावें स्वामी।।८२।।
शिव उवाच-
श्रुणु देवि प्रवक्ष्यामि गौप्याद्गौप्यतरं परम्।
यत् श्रुत्वा शुद्धचित्तेन न पुनर्जननं भुवि।।१४।।
शिव म्हणे ऐक गूढ गुह्याकार। षट्स्थळ तें अत्यंत गौप्य परात्पर। तें तुज निरोपीन साचार। परि सुचित्त होवोनि ऐक देवी।।८३।। हें निरोपुं नये भक्तिहीनासीं। जो कधीं नेणें गुरुलिंगजंगमासीं। भक्तिमार्गाचें प्रेम दिसें तुजपासीं। म्हणोनि निरोपुं तुज।।८४।।
महालिंगमिदं देवि मनोतीतमगोचरम्।
निर्नामनिर्गुणं नित्यं निरंजननिरामयम्।।१५।।
षट्स्थळाचें साही अंग साचें। तयामाजीं श्रेष्ठ जें सहावें मुळीचें। आधी ऐक महिमान तयाचें। अगम्य अगोचर।।८५।। पूर्वी जीं जीं लिंगें कथिली। सहा संख्येनें दाखविली। एक एकापासून झालीं। लिंगें जाण षड्विध।।८६।। सर्व लिंगांसीं आधार। महालिंग होय साचार। तयापासोनि ॐकार। प्राप्त होय योगियां।।८७।। ते मनातीत अगोचर। मन बुद्धि चित्त न पावती पार। नाना मत विवेक विचार। निमाले जेथें।।८८।। ते निर्नाम नामरूपातीत। निर्गुण सर्वगुणविरहित। ते नित्यानित्यासीं नातळत। नाम तरी महालिंग जाण।।८९।। श्रोते म्हणती अनाम निरोपिलें। पुन्हां महालिंग नाम कां स्थापिलें। तें भासावया खूण नाम लाविलें। ए-हवीं साचचि अनाम तें।।९०।। तें निरंजन निरामय महालिंग। तेंचि जाहलें साही लिंगांसीं अंग। आपणचि षट्स्थळ अभंग। होऊनि ठेलें।।९१।।
निर्मलं निष्कलं ज्ञेयं निर्भेदं निरुपाधिकम्।
अद्वैतानन्दसंपूर्णंमसादृश्यमिदं श्रुणु।।१६।।
तें निर्मळ त्रिमळातीत। तें निष्कळ कलाविरहित। भेदाभेदांसीं नातळत। उपाधिरहित तें।।९२।। अद्वैतानंद संपूर्ण निराश। समदृष्टी जया समसरिस। तो महालिंग वो विश्वास। धरूनि ऐक पां।।९३।।
महालिंगात् समाख्यातं प्रसादस्य समुद्भव:।
प्रसादलिंगाच्चैव जंगमस्य समुद्भव:।।१७।।
ऐसें महालिंग निरोपिलें। तेंचि प्रसादलिंग होवोनि ठेलें। प्रसादलिंगापासाव झालें। जंगमलिंग तें।।९४।। जंगमलिंगापासून। कोण लिंग झालें तेहि निरोपीन। तूं भक्तराज म्हणोन। तुज गुह्य चोरूं नये।।९५।।
तथा जंगमलिंगाच्च शिवलिंगसमुद्भव:।
शिवलिंगात्तथा देवि गुरुलिंगसमुद्भव:।।१८।।
जंगमलिंगापासोन वहिले। शिवलिंग उद्भवलें। शिवलिंगापासून जाहलें। श्रीगुरुलिंग तें।।९६।।
गुरुलिंगात्तथाचारलिंगस्यापि समुद्भव:।
षट्स्थलं तत्परिज्ञेयमेकीभावे विशेषत:।।१९।।
गुरुलिंगापासाव उद्भवलें। तें आचारलिंग होवोनि ठेलें। येणेंपरी षट्स्थळ झालें। एकचि महालिंग तें।।९७।। ही साहि लिंगे एकभावनें। गुरुमुखीं जाणोनि पुजणें। विधियुक्त सद्भावनें। निजनिष्ठें।।९८।।
प्राण आचारलिंगस्य गुरुलिंगं भवत्यपि।
प्राणस्तु गुरुलिंगस्य शिवलिंगं भवेत्तथा।।२०।।
साहि लिंगें येरयेराप्रति। प्राण होवोनि असती। आचारलिंगासीं प्राण पार्वती। गुरुलिंग जाणिजें।।९९।। गुरुलिंगासीं प्राण। शिवलिंग नेमस्त जाण। हें तुज निरोपितो गुह्य ज्ञान। तूं भक्तींत रत म्हणोनिया।।१००।।
प्राणश्च शिवलिंगस्य जंगमलिंगमेव च।
तत्तु जंगमलिंगस्य प्रसादं लिंगमेव हि।।२१।।
शिवलिंगासीं प्राण जाणिजें। जंगमलिंग तें बोलिजें। म्हणोनि मी न विसंबें सहजें। जंगमलिंगासीं।।१०१।। जंगमलिंगासीं मंत्र प्राण। तया जाणावें आवरण। जीवित्वाची मुख्य खूण। प्रसादलिंग होय।।१०२।।
तत्प्रसादगतप्राणमहालिंगमिदं श्रुणु।
अस्य प्राणसमाख्यातमेकभावसमन्वितम्।।२२।।
प्रसादलिंगासीं प्राण। महालिंग स्वयें जाण। या साहि लिंगांसीं नाहीं भिन्नपण। अभिन्न ऐक्यत्वें असती।।१०३।। महालिंगापासून उद्भवलें। महालिंगीं विलय पावलें। ऐसें हें सहा प्रकार वहिले। एका लिंगापासोनिया।।१०४।। महालिंगाचें बीज अकार। ॐकाररूपी निर्विकार। स्वयंस्फूर्तीचा होता चमत्कार। प्रगटतसे सर्वत्रीं।।१०५।। ऐसा हा षड्गुण-ऐश्वर्यसंपन्न। एकचि शिव परमपावन। तयावांचून महाप्रलयांतून। कोणी न राहती ब्रह्मादिक।।१०६।।
प्रभा वन्हेर्यथाऽभिन्ना तथैवात्रापि भाव्यते।
महालिंगस्थलं देवि षड्विधं व्याकृतं तथा।।२३।।
अग्नीस आणि अग्निकांतीस। भिन्न भेद नाहीं दोहीस। तेवि पांचा आणि महालिंगास। भेद नाहीं ऐक्यभावें।।१०७।। एकलें महालिंगचि जाण। षट्स्थळ झालें आपण। म्हणोनि नाहीं भावना भिन्न। तया महालिंगासीं।।१०८।। जरी षट्स्थल होवोनि ठेला। तरी भिन्न भेदासीं नाहीं आला। जरी वृक्ष शाखा उपशाखा झाला। तरी भेदावला नाहीं तो।।१०९।। जैसा ऊस कांडोकांडीं चढला। तरी तो उसपणा नाहीं मुकला। कांडी भिन्न दिसती परि त्याला। ऊसचि बोलिजें आघवा।।११०।। तैसा एकचि महालिंग। झाला षट्स्थळाचें अंग। परि तया नाहीं भिन्न भाग। वेगळेपणाचा।।१११।। म्हणोनि षट्स्थळांसीं। आणि महालिंगासीं। भेद नाहीं येरयेरांसीं। एकचि म्हणोनि।।११२।।
एवं लिंगं समाख्यातं षट्भेदात्तु यथाक्रमम्।
ज्ञात्वा लिंगार्चनं कुर्यात् प्राणाभेदेन मुक्तये।।२४।।
ऐसें एकभावें लिंगार्चन। करी सांडून भेदाचें भान। तैसें षडलिंगीं भजन। एकत्वें कीजें।।११३।। प्राणासीं लिंगासीं भेद नाहीं। हें जाणोनि पूजा करी जो पाही। तो निजभक्त त्याचे पायीं। तरे शिवाचार।।११४।। ऐसी अभेदक्रिया चुको न दिजे। तरी सहजें महालिंग होईजें। महालिंग झालिया तैसेचि असिजें। तेणें स्थिति।।११५।। तेणेंचि स्थिति असतां। तरी स्वयेंचि होईजे वस्तुता। निर्विकल्प झाल्याविण तत्त्वतां। नये हातां ती वस्तु।।११६।। शिवपूजा करावयाकारणें। भक्तिभावाप्रति पाळणें। इष्ट वस्तु विरोढून संतुष्ट होणें। इष्टलिंगें करोनिया।।११७।।
देव्युवाच-
इष्टलिंगस्य का भाषा को वा वर्णस्तथार्चनम्।
धारणं केन कर्तव्यमधिकारोऽत्र कस्य वै।।२५।।
पार्वती म्हणे जी महेशा। मज सांगा इष्ट भाषा। जेणें तुटे सर्वेशा। पुनर्जन्मबंधन।।११८।। इष्टलिंगाचा वर्ण कोण। कवण्या काळीं अर्चावें जाण। तयाचें व्हावें निरूपण। प्राणवल्लभा मजलागीं।।११९।। आणिक जया वर्णाप्रति। इष्टलिंगाची असे प्राप्ती। तयाची वर्णावी स्थिति। अधिकारपरत्वें मज।।१२०।।
शिव उवाच-
स्थूलदेहेषु यल्लिंगं तदिष्टं नीलवर्णकम्।
धार्यते भाविकै: सर्वै: भक्तियोगैकतत्परै:।।२६।।
स्थूलदेहीं जें लिंग असें। तया म्हणती इष्टलिंग विश्वासें। शास्त्रीं निरोपिलीं सौरसें। मूललिंग म्हणोनिया।।१२१।। हे इष्टलिंग नीलवर्ण। पूजेलागीं होय जाण। त्याप्रति करावें जतन। प्राणाहूनि अधिक पैं।।१२२।। जया भक्तिभाव असे अधिक। तेणें धारण करावें इष्टलिंग देख। तेही गुरु-आज्ञापूर्वक। शिवदीक्षाविधीनें।।१२३।। नारीनरां सकळिकां। येथें अधिकार असे देखा। तेथें वर्णाश्रमाचा उपखा। काढूं नये पैं।।१२४।।
उत्तमांगे गले वाऽपि कुक्षौ वक्षस्थलेऽपि वा ।
तथा हस्तस्थले वाऽपि प्राणलिंगं धरेत् सुधी:।।२७।।
लिंगधारणेचीं स्थानें। तुज सांगूं वरानने। मस्तकीं कंठीं असणें। अथवा हृदयावरी।।१२५।। हृदयावरी अथवा करस्थळीं। धारण करी वीरमंडळी। तेणें संतोषें मी चंद्रमौळी। देवी भक्तांकारणें।।१२६।। नाभीचे खाली लिंग येतां। दोष घडे लिंगधारकां तत्त्वतां। देहापासूनि वेगळे करितां। प्रायश्चित्त घेणें लागे पैं।।१२७।। त्रिकाळ करावें अर्चन। भावें बिल्वदळे वाहून। प्राणलिंगचि जाणून। इष्टलिंगां भजावें।।१२८।।
निर्विकल्पमिदं ज्ञेयं प्राणे लिंगं तु लीयते।
लिंगमेव परब्रह्म तस्य नाम चराचरम्।।२८।।
निर्विकल्प होओनि लिंगार्चन। कीजें लिंगीं तल्लीन होऊन। प्राण तो लिंगीं लयात नेवोन। तेंचि होऊन राहिजें।।१२९।। कां करी लिंग तें परब्रह्म। केवळ उत्तमाचे उत्तम। लिंग कैसें परब्रह्म घडें हें वर्म। ऐक निरोपुं वो देवी।।१३०।। सद्गुरूनें लिंग दिधलें जेव्हां हातीं। तेव्हां काय निरोपिलें शिष्याप्रति। हें लिंग जाणिजें माझीच मूर्ति। सद्भावें पुजिजें यासीं।।१३१।। जें जें लिंगासीं करी अर्पण। तें तें मजचि होय समर्पण। म्हणोनि मद्भावें करी पूजन। हें निरोपण श्रीगुरूचें।।१३२।। तंव गुरु आणि जंगम-लिंगासीं। भेद कैंचा उभयांसीं। लिंग तोचि गुरु ऐसें अनुभवासीं। आलें कीं वो देवी।।१३३।। आतां गुरु तोचि परब्रह्म। हें तूं जाणसी सहज वर्म। मागें निरोपिलें गुरु उत्तम। परब्रह्मचि तो।।१३४।। गुरु जंव परब्रह्म होय। तंव लिंगासीं ब्रह्मत्व केवि नये। म्हणोनि लिंग परब्रह्मचि पाहें। येणें न्यायें वो देवी।।१३५।। यालागीं लिंगासीं गुरुभावें पुजिजें। लिंगीं प्राण लयासीं नेईजें। यापरी लिंगीं लिंग होवोनि असिजें। सदाकाळ तद्रूप।।१३६।। एवं लिंग तें परब्रह्म। भाविजें जाणोनि हें वर्म। तैसेंचि षडलिंगें उत्तम। पुजिजें तेणेंचि भावें।।१३७।।
देव्युवाच-
महालिंगस्य के भेदा: प्रसादस्य तथा पुन:।
भेदा: जंगमलिंगस्य शिवqलगस्य ते तथा।।२९।।
गुरुलिंगस्य के भेदा: आचारस्य च के पुन:।
इति तत्त्वं न जानामि कारुण्याद् ब्रूहि शंकर।।३०।।
देवी म्हणे जी शंकरा। प्राणवल्लभा करुणाकरा। षडलिंगाचा भेद दातारा। गौरीहरा निरोपावा।।१३८।। महालिंग प्रसादलिंग। जंगम आणि शिवलिंग। गुरुलिंग आणि आचारलिंग। सहा लिंगें हेंचि कीं।।१३९।। हें कोण कोणापासाव झालें। कोण मुखीं कोण लिंग उत्पन्नलें। तें पाहिजे निरोपिलें। सर्वेश्वरा मजलागीं।।१४०।।
शिव उवाच-
महालिंगमिदं देवि प्रसादं लिंगमेव च।
तस्माज्जंगमलिंगं च शिवलिंगमभूत्तत:।।३१।।
ततो हि गुरुलिंगं च आचारं च तत: पुन:।
एकैकप्राणमाख्यातमेकैकेन समन्वितम्।।३२।।
शंकर म्हणे देवी ऐक। महालिंगापासून प्रसादलिंग देख। प्रसादलिंगापासाव नेमक। जंगमलिंग तें।।१४१।। जंगमलिंगापासोन। शिवलिंग झालें उत्पन्न। शिवलिंगापासून। गुरुलिंग तें।।१४२।। गुरुलिंगापासाव आचारलिंग जाण। हें उत्पन्नलें एकमेकाचे प्राण होऊन। म्हणोनि तें अभिन्न होऊन। असती भेदविरहित।।१४३।। महालिंगापासाव पांच लिंगें झालीं। तें पांच मुखीं पांच जन्मलीं। तीं पांच मुखें महालिंगाची भली। निरोपुं तुज ऐक।।१४४।। ईशान तत्पुरुष अघोर तीन। वामदेव सद्योजात हे पांच जाण। या पांच मुखांतून उत्पन्न। लिंगें झालीं ऐक पां।।१४५।।
एकैकमनुते यस्तु पंचाननसमुद्भव:।
प्रसादोद्भव ईशानात् तत्पुरुषाज्जंगमोद्भव:।।३३।।
शिवलिंगमघोराच्च वामदेवात्तथा गुरु:।
आचारस्योद्भवं चापि सद्योजातान्मिदं श्रुणु।।३४।।
एकेका मुखांतून। एकेक लिंग झालें उत्पन्न। कोण्या मुखांतून कोण। तें ऐक वो देवी।।१४६।। प्रसादलिंग ईशानमुखातून। तत्पुरुषीं जंगमलिंग उत्पन्न। शिवलिंग अघोरमुखापासोन। जाहलें जाण पां।।१४७।। गुरुलिंग वामदेवमुखातून। आचारलिंग सद्योजातापासून। ऐसीं पांच मुखांतून। प्रकाशलीं तीं।।१४८।। महालिंग आणि पांच लिंगें। हीं रूपा आलीं जयाचिये संयोगें। ती आणिक असती तीन लिंगें। तींहि ऐक निरोपुं तुज।।१४९।।
भावादित्रिषुलिंगेषु जगत्सृष्ट्यादिकारणम्।
एकैकाच्च द्वयं जातं नवलिंगस्य उद्भव:।।३५।।
सृष्टी तारावया चांग। विस्तारली षडलिंगें अभंग। एकेकापासाव स्वयं भाग। द्वय द्वय ते।।१५०।। साहीं लिंग तें तीन लिंगांपासोन। सहा आणि तीन नवलिंगे जाण। एकेकांपासोन दोन दोन। तें ऐक निरोपुं तुज।।१५१।।
आचारं गुरुलिंगं च इष्टलिंगाद्विजायते।
शिवं जंगमलिंगं च प्राणलिंगसमुद्भवम्।।३६।।
प्रसादं च महालिंगं भावलिंगाद्विनिर्गतम्।
एतानि शिवलिंगानि क्रमशो वर्णितानि ते।।३७।।
आचारलिंग गुरुलिंग जाण। हें झालें इष्टलिंगापासोन। शिवलिंग जंगमलिंग उत्पन्न। प्राणलिंगापासाव।।१५२।। प्रसादलिंग महालिंग ऐक। भावलिंगापासाव देख। तिन्ही आणि सहा नेमिक। खूण निरोपिली तुज।।१५३।। या नवलिंगांची खूण। विरळा जाणे कोणी सत्यशरण। जयाचें चरणीं तीर्थें पावन। त्याते वंदूं आपण आम्ही।।१५४।। हीं नवलिंगें स्वयंपूर्ण। असती इष्टलिंगरूप होऊन। ही धर्मशास्त्राची खूण। गुरुकृपें ओळखावी।।१५५।। इष्ट प्राण भाव हीं नांवे।अर्च्य लिंगां असती आघवे। जाणोनिया पूर्णभावें। वर्तावें वीरशैवें।।१५६।। सर्व पूजेचें सार प्रसिद्ध। एक लिंगपूजाफल अगाध। शिवागमीं वर्णिलें विशद। विष्णु आदि देवांतें।।१५७।। लिंगपूजेनें तापसी। नाम पावले ब्रह्मऋषि। ब्रह्मविचार तयें मानसीं। येत शिवकृपेनें।।१५८।। ऐसी जी लिंगपूजा श्रेष्ठ। सकल ब्रह्मांडीं ही बलिष्ठ। तेथें नसें कदा अनिष्ट। ग्रहदशा जाण पां।।१५९।। शिव सांगे भवानीप्रति। माझें धारण जे करिती। तया नसे अधोगति। पवित्र कैलास प्राप्त होय।।१६०।। तीं हीं नवलिंगें ऐक्यत्वें असती। येरयेरां मिश्रित वसती। तेंचि पुसें कर जोडूनि पार्वती। मिश्रित कैसी म्हणोनि।।१६१।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। उमा-महेश्वरसंवादीं वर्तत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृतार्थ मन्मथ।।१६२।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे षट्स्थलनवलिंगस्वरूपवर्णनं नाम एकादशोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक ३७, ओव्या १६२.
को भेदो नादरूपस्य बिंदुभेदस्तथैव च।
कलारूपमिदं देव ब्रूहि मे परमेश्वर।।१।।
पार्वती म्हणे देवाधिदेवा। नादरूपाचा भेद निवेदावा। बिंदुभेद तोहि दाखवावा। कळारूप तें कोण कैसें।।२।। त्याचा निरोपावा भेद। मी अज्ञानी मतिमंद। पुरवावा माझा हा छंद। कृपाळुत्वें परशिवा।।३।।
शिव उवाच-
नादो गुरुमुखं चैव बिंदुर्लिंगमुखं तथा।
कला चरमुखं ज्ञात्वा अर्पयेत् स प्रसादभाक्।।२।।
ईश्वर म्हणे पार्वतीप्रति। ऐक नादबिंदूची स्थिति। सूक्ष्म म्हणती जयाप्रति। तेंचि तुज निवेदितो।।४।। नाद तो जाणावा शब्द। तयाचें स्थान ध्यु:शुद्ध। गुरुत्वास तो प्रसिद्ध। आला असे जाण पां।।५।। म्हणोनि नाद गुरुच म्हणती। योगी योग्यां संकेतें जाणविती। अंतरीं आनंदें पोतीं भरती। मापें देती हर्षोनिया।।६।। बिंदूचा कैसा विचार असे। तोहि सदा लिंगरूप भासे। लिंग तो परब्रह्मचि असे। म्हणोनि बिंदु म्हणती तया।।७।। कला ती चरलिंगीं जाणावी। अव्यक्तां व्यक्तत्वास आणवी। क्रियारूप असोनि आघवी। मोक्षमार्गा दावीतसे।।८।। ऐसा कलेचा महिमा। शिव सांगे ऐके उमा। प्रश्नोत्तराची सीमा। न वदवे मुखानें।।९।। आतां सांगू मुख्य खूण। जेणें ज्ञान होय परिपूर्ण। ते संक्षेपेंकरून। निरोपुं आतां।।१०।। नाद तो गुरुमुखें जाणिजें। बिंदु तो लिंगमुखें ओळखिजें। कला तें जंगममुख म्हणिजें। ऐसा त्रिविध भेद हा।।११।। नाद बिंदु कला हे तिन्ही। गुरु लिंग जंगम जाणोनि। अर्पू जाणें भावें प्रसादमुखेंकरूनि। तोचि प्रसादी पुरुष।।१२।। तोचि प्रसादी महाज्ञानी। अज्ञानांधा होय तरणी। जयाचे संसर्गेकरूनि। ज्ञान होय मूढ जनां।।१३।। प्रसादी म्हणावें कोणासीं। गुरु लिंग आणि जंगमासीं। ऐक्य भावूनि मानसीं। वर्ते निर्मत्सरीं सदा।।१४।। ऐशा त्या नाद बिंदु कळा। प्रसादीं मिळाल्या सकळा। ऋद्धिसिद्धीचा पूर्ण मेळा। प्राप्त होय प्रसादिकां।।१५।। जे प्रसादिक होऊ इच्छिती। त्यांनीं शरण जावें गुरुप्रति। पाहूनिया शिष्याची आचारशक्ति। स्वशील द्यावें आवडीनें।।१६।। शील चालविण्याकरितां। पाहिजे कुटुंबाची श्रद्धा तत्त्वतां। स्वधर्माभिमानें वर्ततां। क्रिया राहे सतेज पैं।।१७।। क्रियाचारें जो तेज:पुंज। तया भितो यमराज। तपश्चर्येचें मूळ बीज। थोरी जाण क्रियेची।।१८।।
नादबिंदुकलारूपं तद्रूपं भुवि निर्मलम्।
गुरुजंगमलिंगाय ज्ञात्वा सततमर्पयेत्।।३।।
नादबिंदुकळारूप। हें गुरुलिंगजंगमाचें स्वरूप। जाणोनि नित्य अर्पण करी तो निजरूप। उत्तम जंगम।।१९।। नादबिंदुकलेचें रूप। वरी वर्णिलेंसे अमूप। त्रिविध ऐक्य भक्तिस्वरूप। जाणोनि अर्पी जंगम तो।।२०।।
एवं लिंगमुखं ज्ञात्वा अंगभावेन भावितम्।
जंगमस्य मुखं ज्ञात्वा संसारस्य न बंधनम्।।४।।
जंगममुख सर्व मुखाधिक। त्याचाहि भेद ऐक। देहभावनेस जाणिजें लिंगमुख। लिंगमुखें प्राण सुखी।।२१।। लिंगमुखीं जें जें होय अर्पण। तेणें अर्पणें सुखी होय आपण। परि लिंगार्पण जंगममुखें जाण। लिंगाचें मुख जंगम।।२२।। म्हणोनि जंगममुखेविण। लिंगासीं नव्हे अर्पण। यालागीं जंगम चैतन्यघन। परब्रह्मचि तो।।२३।। ऐसिया जंगमाचें करी जो पूजन। विश्वासें सद्भाव धरोन। त्यासीं नाहीं भवबंधन। तो चिद्रूप होय।।२४।। त्याचे मुखीचा प्रसाद चरणीचें तीर्थ। जो सेवी विश्वासें परम भक्त। त्यासीं कळिकाळ येती शरणागत। मा भवबंधन कैचें त्यां।।२५।।
प्रसादस्य मुखं ज्ञात्वा परं चेह न विद्यते।
त्रिविधैक्यमिदं देवि ज्ञातव्यं सोहऽमेव च।।५।।
ऐसा प्रसादमुखेंकरून। जो जाणोन भजे ऐक्यभावें सज्जन। त्यासीं इह पर जाण। इच्छिणें नाहीं।।२६।। गुरु लिंग जंगम त्रिविध। ऐक्यभावें भजे भावना शुद्ध। तोचि भक्त तोचि जंगम निबद्ध। तारक शिवाचारासीं।।२७।। तोचि मी मी तोचि जाणिजें। तया मज भेद न मानिजें। तयाचेनि देवपण माझें। ए-हवीं मी देव ना भक्त।।२८।। पाहतां मी निर्गुण निराकार। भक्तिसुखास्तव धरिला अवतार। त्याचें योगें मी देव साचार। तो भक्त म्हणोनि।।२९।। भक्तांगें देव देवांगें भक्त। एèहवीं तो देवभक्तनामाविण सदोदित। परि आपुलिया सुखां देव भक्त। आपणचि होवोनि ठेला।।३०।। देव भक्त एकचि असत। परि सापेक्ष ऐसी असे मात। नसतां देव कोठील भक्त। आपणचि सर्वत्र भरला असे।।३१।। तीच वस्तु इष्टलिंग प्राणqलग। होऊनि ठेली भावलिंग। भक्तिसुखालागीं रूपें अभंग। अनेक धरिली प्रभूनें।।३२।।
देव्युवाच-
इष्टलिंगमुखं किं वा प्राणलिंगमुखं तथा। भावलिंगमुखं चैव ब्रूहि मे परमेश्वर।।६।।
पार्वती म्हणे सदाशिवा। इष्ट प्राण आणि भावां। या लिंगत्रयीं प्राण अर्पावा। हें पूर्वी कथिलेसे।।३३।। तरी याचीं वदनें किती। तीं सांगावी मजप्रति। तरीच मी धन्य धन्य त्रिजगती। होईन सत्य स्वामिया।।३४।। इष्टलिंगासीं मुखे किती। निरोपावी कैलासपति। प्राणलिंगासीं कोण मुख गति। मुखे किती भावलिंगासीं।।३५।।
शिव उवाच-
इष्टलिंगमुखं पंच प्राणलिंगस्य तत्तथा।
पंच एव मुखं देवि भावलिंगस्य कीर्तितम्।।७।।
शंकर म्हणे वो गौरी। मीच वसे लिंगाभीतरीं। मम मुखेंचि निर्धारी। असती सर्व लिंगां।।३६।। इष्टलिंगासीं मुखें पांच जाण। प्राण अपान व्यान उदान समान। हे पांची प्राण पांच मुखें नेमून। इष्टलिंगासीं।।३७।। इष्टलिंगासीं प्राण। मिश्रित झाला आपण। म्हणोनि प्राणलिंग ऐसें उच्चारण। प्राणलिंगां बोलिजें।।३८।। इष्टलिंगासीं प्राण समरसला। म्हणोनि प्राणलिंग नांव पावला। त्याचीं पंचमुखें लाधला। समरसला यालागीं।।३९।। इष्टलिंगासीं भाव मिश्रित झाला। म्हणोनि भावलिंग नाम पावला। तोचि पांच मुखें लाधला। समरसला यालागीं।।४०।। पांची प्राणमुखेंकरून। जे जें होय अर्पण। तें तें इष्टलिंगासीं जाण। त्याचीं मुखें म्हणोनिया।।४१।। प्राणलिंग भावलिंग निगुती। इष्टलिंगीं मिश्रित असती। म्हणोनि तेंहि लाधती तृप्ति। जी होय इष्टलिंगासीं।।४२।। ऐसा इष्ट प्राण भाव लिंग। हे तिन्ही मिळोन एक अंग। करोनि पुजी तो पावे पद अभंग। जंगम अथवा भक्त।।४३।। त्रिविध ऐक्य मानोनि करी पूजा। तेणें संतोष वृषभध्वजां। होतसे अनायासे कैलासराजा। लिंगपूजा श्रेष्ठ ही।।४४।।
देव्युवाच-
इष्टप्राणादिलिंगानां पूजनस्य च को विधि:।
भावलिंगस्य का पूजा सर्वं कथय विस्तृतम्।।८।।
गिरिजा पुसे ईश्वरासीं। इष्टलिंगासीं पूजा कैसी। प्राणलिंग-भावलिंगासीं। पुजिजें कैसें।।४५।।
शिव उवाच-
अष्टविधार्चनं कुर्यात् इष्टलिंगस्य पूजने।
प्राणलिंगानुसंधानं प्राणलिंगस्य पूजनम्।।९।।
ऐक इष्टलिंगाचें पूजन। गंध धूप दीप अष्टविधार्चन। नैवेद्यफलतांबूलादि समर्पण। इष्टलिंगासीं कीजें।।४६।। बरवा त्रिकाळ साधून। एकान्त स्थानीं करी पूजन। गुरुरूप लिंगासीं भावून। पुजिजें वो देवी।।४७।। ऐक आणिकहि पूजन। घंटा चामर दर्पण। काडवाती कर्पूरदहन। अनेक विधार्चनीं पुजिजें।।४८।। ऐक प्राणलिंगाचें पूजन। ध्यान धरिजें मानस दृढावून। ध्यानीं लिंग आणिजें गुरुभावेंकुन। प्राणलिंगपूजन या नांव।।४९।। या षोडशोपचारें वोजें। मानसपूजा बरवी कीजें। येणेंपरी संतोषविजे। प्राणलिंगालागोनि।।५०।।
मनोलयपरे तत्त्वे भावलिंगस्य पूजनम्।
एतल्लिंगार्चनज्ञानं विशेषं श्रुणु पार्वति।।१०।।
मन तल्लीन ठेवोनि लिंगासरिसे। लिंगामाजीं समरसोनि असे। मनां मनपणाचा आठवु नसे। त्या नांव भावलिंगपूजा।।५१।। मनाचें रूप तें संकल्प विकल्प जाण। ते संकल्प विकल्प गेलिया निमोन। मग मनासीं कैंचे मनपण। त्या नांव मनोलयपूजा।।५२।। ऐसें मनोलयपूजन। तेंचि भावलिंगाचें अर्चन। घडे जया तयाचें विशेष ज्ञान। ऐक वो पार्वती।।५३।। या तिन्ही पूजा लिंगासींच घडती। त्रिविध भावें एकचि लिंगमूर्ति। ते गुरुत्वें ऐक्यस्थिति। पुजिजें एकत्वें।।५४।। ऐसें त्रिविध मिळोनि एक लिंग। तें श्रीगुरूचेंचि निजांग। म्हणोनि लिंगासीं जी पूजा कीजें चांग। ती गुरूसीं अर्पण होय।।५५।। म्हणोनि लिंग तें परमेश्वर पूर्ण। कां म्हणसी तरी गुरु-लिंगासीं नाहीं भिन्नपण। जें परब्रह्म तेंचि गुरु चैतन्यघन। यालागीं लिंग तें परब्रह्म।।५६।। ऐसी जो नित्य करी भावलिंगपूजा। तेणें वश केला कैलासराजा। स्वधर्माचा पाया मूळ बीजां। अधिकारी होय तो।।५७।। भावलिंग हेचि भक्ति-अंग। विश्वभरीं असे त्याचा वेग। प्राणिमात्रीं हें तत्त्व वसें चांग। म्हणोनि धर्मवृत्ति असे।।५८।। जयाची भावभक्ति निमाली। तुच्छत्वें बुद्धि फांकली। त्याचिया धर्मां भ्रष्टता आली। हें सांगणें कासया।।५९।। जो धर्मघ्न होय तर्कटी पूर्ण। धर्मज्ञें त्याचें न पाहावें वदन। पंक्तिसमागमें न करी भोजन। दुष्टां शासन हेचि पैं।।६०।।
देव्युवाच-
इष्टलिंगार्पितं किं वा प्राणलिंगार्पितं तथा।
भावलिंगार्पितं तद्वद् ब्रूहि मे परमेश्वर।।११।।
पार्वती म्हणे लिंगमूर्ति। लिंगत्रयाची अर्पणस्थिति। मज निरोपावी पशुपति। जग-उद्धाराकारणें।।६१।। इष्टलिंगासीं कोणा अर्पणें तृप्ति असे। प्राणलिंगीं तृप्ति कैसी वसे। भावलिंगीं तृप्ति जगदिशे। निरोपावी कैसी ती।।६२।।
शिव उवाच-
इष्टलिंगार्पितं अंगं प्राणलिंगार्पितं मन:।
भावलिंगार्पिता तृप्तिरित्यवेहि वरानने।।१२।।
शिव म्हणे गिरिजे ऐक खूण। इष्टलिंगां शरीर कीजें अर्पण। प्राणलिंगां अर्पिजें मन। भावलिंगासीं तृप्ति पैं।।६३।। देहबुद्धीचा सर्वस्वें त्याग कीजें। त्या नांव इष्टलिंगार्चन सहजें। मनाचें चंचळत्व अर्पिजें। प्राणलिंगार्चन त्या नांव।।६४।। जें जें घडें तयास तृप्ति। तें तें भावलिंगां अर्पणस्थिति। यापरी त्रिलिंगीं अर्पणगति। निरोपिली तुज।।६५।। आणिक सांगतो तुज एक। लक्ष देवोनि ऐक सम्यक्। इष्ट देह असे नैष्ठिक। जीवालागीं निश्चयें।।६६।। देह हा इष्टलिंगार्पित असे। इष्ट देहीं इष्टलिंग वसें। आन देहीं तो न वसें। अलिंगी जाण बोलती तया।।६७।। इष्टलिंग वीरशैवास। तयें त्यासी अर्पिलें शरीरास। प्राणलिंगार्पित मानस। तृप्ति जाण भावलिंगां।।६८।। लिंगधारी महायोगी। जे विनटले भावलिंगीं। तयाची इच्छा अहंता जगीं। न प्रवर्ते कालत्रयीं।।६९।। हे भेद चरलिंगाचे। दुजे स्थावर बोलती वाचे। भेदाभेद काढितां तयाचे। वाटे विस्मय मानसीं।।७०।। ज्या ज्या काळीं धर्महानी। शिवभक्तीते उच्छेदूनि। वीरशैवमार्गालागोनि। बुडविती वेळोवेळां।।७१।। त्याची करावया स्थापना। आचार्य गुरुरूपी जाणा। करिती ज्या भूलिंगांतूनि गर्जना। तीं चरलिंगें मानावी।।७२।। जेथून आचार्य प्रगटले। तें स्थान स्वायंभुवागमीं वर्णिलें। तें पाहिजे पाहिलें। प्रत्ययालागूनि।।७३।। हे आचार्य पांच असती। त्यांच्या अवतारीं विशेष शक्ति। ब्रह्मादि देव अनुसरती। पावन मार्ग तयांचा।।७४।। ते ज्या स्थानीं गुप्त होती। तीं स्थलें पवित्र असती। तीर्थें तयांसीच म्हणती। शिवस्थानांलागूनि।।७५।। त्या लिंगासीं चरलिंग। मानावें सत्य शास्त्रांग। वीरशैव आचारभंग। येणें नोव्हे कल्पांति।।७६।। वीरशैव धर्माचें मुख्य तत्त्व। शिवावांचून अन्य दैवत। न मानणें श्रेष्ठ अद्भुत। एक शिव सर्व कर्ता।।७७।। ज्या लिंगांसीं ईश्वरनाम। तीं चरलिंगें जाणावी उत्तम। वंद्य असे श्रीशैल्य धाम। वीरशैवां जाणावें।।७८।। अरण्यस्थानीं उदास। पूर्वी स्थापित लिंग विशेष। अर्चिती जया तापस। तींहि चरलिंगेंचि।।७९।। चरलिंगें स्थिर होती। तया स्थावर बोलती। कालांतरें प्रगटती। धर्महानी झालिया।।८०।। तया स्थावरांसीं वंदावें। भक्तिभावें अर्चवावें। प्रसिद्धपणें पुढें व्हावें। लिंगमाहात्म्य वाढवावया।।८१।।
देव्युवाच-
षट्स्थलं च कथं जातं षट्स्थलस्य च के गुणा:।
षट्स्थलानां तु भेदं हि कथयस्व ममानघ।।१३।।
पार्वती म्हणे स्वामी त्रिनयना। षट्स्थळ कैसें झालें सांगा खुणा। कोण गुण कैसा भेद प्राणां। निरोपावें स्वामी।।८२।।
शिव उवाच-
श्रुणु देवि प्रवक्ष्यामि गौप्याद्गौप्यतरं परम्।
यत् श्रुत्वा शुद्धचित्तेन न पुनर्जननं भुवि।।१४।।
शिव म्हणे ऐक गूढ गुह्याकार। षट्स्थळ तें अत्यंत गौप्य परात्पर। तें तुज निरोपीन साचार। परि सुचित्त होवोनि ऐक देवी।।८३।। हें निरोपुं नये भक्तिहीनासीं। जो कधीं नेणें गुरुलिंगजंगमासीं। भक्तिमार्गाचें प्रेम दिसें तुजपासीं। म्हणोनि निरोपुं तुज।।८४।।
महालिंगमिदं देवि मनोतीतमगोचरम्।
निर्नामनिर्गुणं नित्यं निरंजननिरामयम्।।१५।।
षट्स्थळाचें साही अंग साचें। तयामाजीं श्रेष्ठ जें सहावें मुळीचें। आधी ऐक महिमान तयाचें। अगम्य अगोचर।।८५।। पूर्वी जीं जीं लिंगें कथिली। सहा संख्येनें दाखविली। एक एकापासून झालीं। लिंगें जाण षड्विध।।८६।। सर्व लिंगांसीं आधार। महालिंग होय साचार। तयापासोनि ॐकार। प्राप्त होय योगियां।।८७।। ते मनातीत अगोचर। मन बुद्धि चित्त न पावती पार। नाना मत विवेक विचार। निमाले जेथें।।८८।। ते निर्नाम नामरूपातीत। निर्गुण सर्वगुणविरहित। ते नित्यानित्यासीं नातळत। नाम तरी महालिंग जाण।।८९।। श्रोते म्हणती अनाम निरोपिलें। पुन्हां महालिंग नाम कां स्थापिलें। तें भासावया खूण नाम लाविलें। ए-हवीं साचचि अनाम तें।।९०।। तें निरंजन निरामय महालिंग। तेंचि जाहलें साही लिंगांसीं अंग। आपणचि षट्स्थळ अभंग। होऊनि ठेलें।।९१।।
निर्मलं निष्कलं ज्ञेयं निर्भेदं निरुपाधिकम्।
अद्वैतानन्दसंपूर्णंमसादृश्यमिदं श्रुणु।।१६।।
तें निर्मळ त्रिमळातीत। तें निष्कळ कलाविरहित। भेदाभेदांसीं नातळत। उपाधिरहित तें।।९२।। अद्वैतानंद संपूर्ण निराश। समदृष्टी जया समसरिस। तो महालिंग वो विश्वास। धरूनि ऐक पां।।९३।।
महालिंगात् समाख्यातं प्रसादस्य समुद्भव:।
प्रसादलिंगाच्चैव जंगमस्य समुद्भव:।।१७।।
ऐसें महालिंग निरोपिलें। तेंचि प्रसादलिंग होवोनि ठेलें। प्रसादलिंगापासाव झालें। जंगमलिंग तें।।९४।। जंगमलिंगापासून। कोण लिंग झालें तेहि निरोपीन। तूं भक्तराज म्हणोन। तुज गुह्य चोरूं नये।।९५।।
तथा जंगमलिंगाच्च शिवलिंगसमुद्भव:।
शिवलिंगात्तथा देवि गुरुलिंगसमुद्भव:।।१८।।
जंगमलिंगापासोन वहिले। शिवलिंग उद्भवलें। शिवलिंगापासून जाहलें। श्रीगुरुलिंग तें।।९६।।
गुरुलिंगात्तथाचारलिंगस्यापि समुद्भव:।
षट्स्थलं तत्परिज्ञेयमेकीभावे विशेषत:।।१९।।
गुरुलिंगापासाव उद्भवलें। तें आचारलिंग होवोनि ठेलें। येणेंपरी षट्स्थळ झालें। एकचि महालिंग तें।।९७।। ही साहि लिंगे एकभावनें। गुरुमुखीं जाणोनि पुजणें। विधियुक्त सद्भावनें। निजनिष्ठें।।९८।।
प्राण आचारलिंगस्य गुरुलिंगं भवत्यपि।
प्राणस्तु गुरुलिंगस्य शिवलिंगं भवेत्तथा।।२०।।
साहि लिंगें येरयेराप्रति। प्राण होवोनि असती। आचारलिंगासीं प्राण पार्वती। गुरुलिंग जाणिजें।।९९।। गुरुलिंगासीं प्राण। शिवलिंग नेमस्त जाण। हें तुज निरोपितो गुह्य ज्ञान। तूं भक्तींत रत म्हणोनिया।।१००।।
प्राणश्च शिवलिंगस्य जंगमलिंगमेव च।
तत्तु जंगमलिंगस्य प्रसादं लिंगमेव हि।।२१।।
शिवलिंगासीं प्राण जाणिजें। जंगमलिंग तें बोलिजें। म्हणोनि मी न विसंबें सहजें। जंगमलिंगासीं।।१०१।। जंगमलिंगासीं मंत्र प्राण। तया जाणावें आवरण। जीवित्वाची मुख्य खूण। प्रसादलिंग होय।।१०२।।
तत्प्रसादगतप्राणमहालिंगमिदं श्रुणु।
अस्य प्राणसमाख्यातमेकभावसमन्वितम्।।२२।।
प्रसादलिंगासीं प्राण। महालिंग स्वयें जाण। या साहि लिंगांसीं नाहीं भिन्नपण। अभिन्न ऐक्यत्वें असती।।१०३।। महालिंगापासून उद्भवलें। महालिंगीं विलय पावलें। ऐसें हें सहा प्रकार वहिले। एका लिंगापासोनिया।।१०४।। महालिंगाचें बीज अकार। ॐकाररूपी निर्विकार। स्वयंस्फूर्तीचा होता चमत्कार। प्रगटतसे सर्वत्रीं।।१०५।। ऐसा हा षड्गुण-ऐश्वर्यसंपन्न। एकचि शिव परमपावन। तयावांचून महाप्रलयांतून। कोणी न राहती ब्रह्मादिक।।१०६।।
प्रभा वन्हेर्यथाऽभिन्ना तथैवात्रापि भाव्यते।
महालिंगस्थलं देवि षड्विधं व्याकृतं तथा।।२३।।
अग्नीस आणि अग्निकांतीस। भिन्न भेद नाहीं दोहीस। तेवि पांचा आणि महालिंगास। भेद नाहीं ऐक्यभावें।।१०७।। एकलें महालिंगचि जाण। षट्स्थळ झालें आपण। म्हणोनि नाहीं भावना भिन्न। तया महालिंगासीं।।१०८।। जरी षट्स्थल होवोनि ठेला। तरी भिन्न भेदासीं नाहीं आला। जरी वृक्ष शाखा उपशाखा झाला। तरी भेदावला नाहीं तो।।१०९।। जैसा ऊस कांडोकांडीं चढला। तरी तो उसपणा नाहीं मुकला। कांडी भिन्न दिसती परि त्याला। ऊसचि बोलिजें आघवा।।११०।। तैसा एकचि महालिंग। झाला षट्स्थळाचें अंग। परि तया नाहीं भिन्न भाग। वेगळेपणाचा।।१११।। म्हणोनि षट्स्थळांसीं। आणि महालिंगासीं। भेद नाहीं येरयेरांसीं। एकचि म्हणोनि।।११२।।
एवं लिंगं समाख्यातं षट्भेदात्तु यथाक्रमम्।
ज्ञात्वा लिंगार्चनं कुर्यात् प्राणाभेदेन मुक्तये।।२४।।
ऐसें एकभावें लिंगार्चन। करी सांडून भेदाचें भान। तैसें षडलिंगीं भजन। एकत्वें कीजें।।११३।। प्राणासीं लिंगासीं भेद नाहीं। हें जाणोनि पूजा करी जो पाही। तो निजभक्त त्याचे पायीं। तरे शिवाचार।।११४।। ऐसी अभेदक्रिया चुको न दिजे। तरी सहजें महालिंग होईजें। महालिंग झालिया तैसेचि असिजें। तेणें स्थिति।।११५।। तेणेंचि स्थिति असतां। तरी स्वयेंचि होईजे वस्तुता। निर्विकल्प झाल्याविण तत्त्वतां। नये हातां ती वस्तु।।११६।। शिवपूजा करावयाकारणें। भक्तिभावाप्रति पाळणें। इष्ट वस्तु विरोढून संतुष्ट होणें। इष्टलिंगें करोनिया।।११७।।
देव्युवाच-
इष्टलिंगस्य का भाषा को वा वर्णस्तथार्चनम्।
धारणं केन कर्तव्यमधिकारोऽत्र कस्य वै।।२५।।
पार्वती म्हणे जी महेशा। मज सांगा इष्ट भाषा। जेणें तुटे सर्वेशा। पुनर्जन्मबंधन।।११८।। इष्टलिंगाचा वर्ण कोण। कवण्या काळीं अर्चावें जाण। तयाचें व्हावें निरूपण। प्राणवल्लभा मजलागीं।।११९।। आणिक जया वर्णाप्रति। इष्टलिंगाची असे प्राप्ती। तयाची वर्णावी स्थिति। अधिकारपरत्वें मज।।१२०।।
शिव उवाच-
स्थूलदेहेषु यल्लिंगं तदिष्टं नीलवर्णकम्।
धार्यते भाविकै: सर्वै: भक्तियोगैकतत्परै:।।२६।।
स्थूलदेहीं जें लिंग असें। तया म्हणती इष्टलिंग विश्वासें। शास्त्रीं निरोपिलीं सौरसें। मूललिंग म्हणोनिया।।१२१।। हे इष्टलिंग नीलवर्ण। पूजेलागीं होय जाण। त्याप्रति करावें जतन। प्राणाहूनि अधिक पैं।।१२२।। जया भक्तिभाव असे अधिक। तेणें धारण करावें इष्टलिंग देख। तेही गुरु-आज्ञापूर्वक। शिवदीक्षाविधीनें।।१२३।। नारीनरां सकळिकां। येथें अधिकार असे देखा। तेथें वर्णाश्रमाचा उपखा। काढूं नये पैं।।१२४।।
उत्तमांगे गले वाऽपि कुक्षौ वक्षस्थलेऽपि वा ।
तथा हस्तस्थले वाऽपि प्राणलिंगं धरेत् सुधी:।।२७।।
लिंगधारणेचीं स्थानें। तुज सांगूं वरानने। मस्तकीं कंठीं असणें। अथवा हृदयावरी।।१२५।। हृदयावरी अथवा करस्थळीं। धारण करी वीरमंडळी। तेणें संतोषें मी चंद्रमौळी। देवी भक्तांकारणें।।१२६।। नाभीचे खाली लिंग येतां। दोष घडे लिंगधारकां तत्त्वतां। देहापासूनि वेगळे करितां। प्रायश्चित्त घेणें लागे पैं।।१२७।। त्रिकाळ करावें अर्चन। भावें बिल्वदळे वाहून। प्राणलिंगचि जाणून। इष्टलिंगां भजावें।।१२८।।
निर्विकल्पमिदं ज्ञेयं प्राणे लिंगं तु लीयते।
लिंगमेव परब्रह्म तस्य नाम चराचरम्।।२८।।
निर्विकल्प होओनि लिंगार्चन। कीजें लिंगीं तल्लीन होऊन। प्राण तो लिंगीं लयात नेवोन। तेंचि होऊन राहिजें।।१२९।। कां करी लिंग तें परब्रह्म। केवळ उत्तमाचे उत्तम। लिंग कैसें परब्रह्म घडें हें वर्म। ऐक निरोपुं वो देवी।।१३०।। सद्गुरूनें लिंग दिधलें जेव्हां हातीं। तेव्हां काय निरोपिलें शिष्याप्रति। हें लिंग जाणिजें माझीच मूर्ति। सद्भावें पुजिजें यासीं।।१३१।। जें जें लिंगासीं करी अर्पण। तें तें मजचि होय समर्पण। म्हणोनि मद्भावें करी पूजन। हें निरोपण श्रीगुरूचें।।१३२।। तंव गुरु आणि जंगम-लिंगासीं। भेद कैंचा उभयांसीं। लिंग तोचि गुरु ऐसें अनुभवासीं। आलें कीं वो देवी।।१३३।। आतां गुरु तोचि परब्रह्म। हें तूं जाणसी सहज वर्म। मागें निरोपिलें गुरु उत्तम। परब्रह्मचि तो।।१३४।। गुरु जंव परब्रह्म होय। तंव लिंगासीं ब्रह्मत्व केवि नये। म्हणोनि लिंग परब्रह्मचि पाहें। येणें न्यायें वो देवी।।१३५।। यालागीं लिंगासीं गुरुभावें पुजिजें। लिंगीं प्राण लयासीं नेईजें। यापरी लिंगीं लिंग होवोनि असिजें। सदाकाळ तद्रूप।।१३६।। एवं लिंग तें परब्रह्म। भाविजें जाणोनि हें वर्म। तैसेंचि षडलिंगें उत्तम। पुजिजें तेणेंचि भावें।।१३७।।
देव्युवाच-
महालिंगस्य के भेदा: प्रसादस्य तथा पुन:।
भेदा: जंगमलिंगस्य शिवqलगस्य ते तथा।।२९।।
गुरुलिंगस्य के भेदा: आचारस्य च के पुन:।
इति तत्त्वं न जानामि कारुण्याद् ब्रूहि शंकर।।३०।।
देवी म्हणे जी शंकरा। प्राणवल्लभा करुणाकरा। षडलिंगाचा भेद दातारा। गौरीहरा निरोपावा।।१३८।। महालिंग प्रसादलिंग। जंगम आणि शिवलिंग। गुरुलिंग आणि आचारलिंग। सहा लिंगें हेंचि कीं।।१३९।। हें कोण कोणापासाव झालें। कोण मुखीं कोण लिंग उत्पन्नलें। तें पाहिजे निरोपिलें। सर्वेश्वरा मजलागीं।।१४०।।
शिव उवाच-
महालिंगमिदं देवि प्रसादं लिंगमेव च।
तस्माज्जंगमलिंगं च शिवलिंगमभूत्तत:।।३१।।
ततो हि गुरुलिंगं च आचारं च तत: पुन:।
एकैकप्राणमाख्यातमेकैकेन समन्वितम्।।३२।।
शंकर म्हणे देवी ऐक। महालिंगापासून प्रसादलिंग देख। प्रसादलिंगापासाव नेमक। जंगमलिंग तें।।१४१।। जंगमलिंगापासोन। शिवलिंग झालें उत्पन्न। शिवलिंगापासून। गुरुलिंग तें।।१४२।। गुरुलिंगापासाव आचारलिंग जाण। हें उत्पन्नलें एकमेकाचे प्राण होऊन। म्हणोनि तें अभिन्न होऊन। असती भेदविरहित।।१४३।। महालिंगापासाव पांच लिंगें झालीं। तें पांच मुखीं पांच जन्मलीं। तीं पांच मुखें महालिंगाची भली। निरोपुं तुज ऐक।।१४४।। ईशान तत्पुरुष अघोर तीन। वामदेव सद्योजात हे पांच जाण। या पांच मुखांतून उत्पन्न। लिंगें झालीं ऐक पां।।१४५।।
एकैकमनुते यस्तु पंचाननसमुद्भव:।
प्रसादोद्भव ईशानात् तत्पुरुषाज्जंगमोद्भव:।।३३।।
शिवलिंगमघोराच्च वामदेवात्तथा गुरु:।
आचारस्योद्भवं चापि सद्योजातान्मिदं श्रुणु।।३४।।
एकेका मुखांतून। एकेक लिंग झालें उत्पन्न। कोण्या मुखांतून कोण। तें ऐक वो देवी।।१४६।। प्रसादलिंग ईशानमुखातून। तत्पुरुषीं जंगमलिंग उत्पन्न। शिवलिंग अघोरमुखापासोन। जाहलें जाण पां।।१४७।। गुरुलिंग वामदेवमुखातून। आचारलिंग सद्योजातापासून। ऐसीं पांच मुखांतून। प्रकाशलीं तीं।।१४८।। महालिंग आणि पांच लिंगें। हीं रूपा आलीं जयाचिये संयोगें। ती आणिक असती तीन लिंगें। तींहि ऐक निरोपुं तुज।।१४९।।
भावादित्रिषुलिंगेषु जगत्सृष्ट्यादिकारणम्।
एकैकाच्च द्वयं जातं नवलिंगस्य उद्भव:।।३५।।
सृष्टी तारावया चांग। विस्तारली षडलिंगें अभंग। एकेकापासाव स्वयं भाग। द्वय द्वय ते।।१५०।। साहीं लिंग तें तीन लिंगांपासोन। सहा आणि तीन नवलिंगे जाण। एकेकांपासोन दोन दोन। तें ऐक निरोपुं तुज।।१५१।।
आचारं गुरुलिंगं च इष्टलिंगाद्विजायते।
शिवं जंगमलिंगं च प्राणलिंगसमुद्भवम्।।३६।।
प्रसादं च महालिंगं भावलिंगाद्विनिर्गतम्।
एतानि शिवलिंगानि क्रमशो वर्णितानि ते।।३७।।
आचारलिंग गुरुलिंग जाण। हें झालें इष्टलिंगापासोन। शिवलिंग जंगमलिंग उत्पन्न। प्राणलिंगापासाव।।१५२।। प्रसादलिंग महालिंग ऐक। भावलिंगापासाव देख। तिन्ही आणि सहा नेमिक। खूण निरोपिली तुज।।१५३।। या नवलिंगांची खूण। विरळा जाणे कोणी सत्यशरण। जयाचें चरणीं तीर्थें पावन। त्याते वंदूं आपण आम्ही।।१५४।। हीं नवलिंगें स्वयंपूर्ण। असती इष्टलिंगरूप होऊन। ही धर्मशास्त्राची खूण। गुरुकृपें ओळखावी।।१५५।। इष्ट प्राण भाव हीं नांवे।अर्च्य लिंगां असती आघवे। जाणोनिया पूर्णभावें। वर्तावें वीरशैवें।।१५६।। सर्व पूजेचें सार प्रसिद्ध। एक लिंगपूजाफल अगाध। शिवागमीं वर्णिलें विशद। विष्णु आदि देवांतें।।१५७।। लिंगपूजेनें तापसी। नाम पावले ब्रह्मऋषि। ब्रह्मविचार तयें मानसीं। येत शिवकृपेनें।।१५८।। ऐसी जी लिंगपूजा श्रेष्ठ। सकल ब्रह्मांडीं ही बलिष्ठ। तेथें नसें कदा अनिष्ट। ग्रहदशा जाण पां।।१५९।। शिव सांगे भवानीप्रति। माझें धारण जे करिती। तया नसे अधोगति। पवित्र कैलास प्राप्त होय।।१६०।। तीं हीं नवलिंगें ऐक्यत्वें असती। येरयेरां मिश्रित वसती। तेंचि पुसें कर जोडूनि पार्वती। मिश्रित कैसी म्हणोनि।।१६१।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। उमा-महेश्वरसंवादीं वर्तत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृतार्थ मन्मथ।।१६२।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे षट्स्थलनवलिंगस्वरूपवर्णनं नाम एकादशोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक ३७, ओव्या १६२.
No comments:
Post a Comment