Thursday, 5 June 2014

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य अध्याय सतरावा

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी


संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य

अध्याय सतरावा
।। श्रीगुरुवे नम: ।।
श्रीपरमरहस्य ग्रंथ सुंदर। वीरशैवधर्माचें तत्त्वमंदिर। चतुर्दश भुवनें आणि त्रिलोक परिकर। नांदती जयामाजीं।।१।। कीं मूळ मातृका षोडश। पूर्ण झाल्या येथवर विशेष। अनक्षरा मातृका सावकाश। निरोपुं आतां।।२।। शिवचंद्राच्या ह्या सोळा कळा। भवदु:खतप्त जीवां निवविती सकळां। ही सतरावी जीवनकळा। अक्षय असे निश्चयें।।३।। येथीचें जें ज्ञान। सर्व सुखांसीं असें कारण। म्हणोनि ठेवावें चित्त पूर्ण। श्रवणाठायीं।।४।। श्रवण-मनन-निजध्यासें। साक्षात् वस्तु भेटे विश्वासें। नातरी व्यर्थ आयासें। कां शिणवावें जीवातें।।५।। असो आतां येथ विशेष विस्तार। करणें नलगे मजला फार। वीर श्रोते परम चतुर। तरी सुचनार्थी बोलिलो।।६।। पुन: प्रश्न करी जगदंबा। सच्चिद्रूप शिवसांबा। शिवसंस्कार मूळस्तंभा। पुसेल ती।।७।।
देव्युवाच-
भगवन् सर्वदेवेश रहस्यं परमं श्रुतम्।
श्रोतुमीहे वीरशैवसंस्काराणामनुक्रम:।।१।।
जन्माद्यंतेष्टीपर्यंत। वीरशैव संस्कार समस्त। ऐकूं म्हणे विश्वस्त। गिरिजा देवी शंकरासीं।।८।। मूल संस्कार षोडश। त्यामाजीं असती मुख्य दश। त्यांहिमाजीं बहु विशेष। शिवदीक्षा जाणावी।।९।। जगदंबा म्हणे सदाशिवा। माझिया प्रश्नाते देवाधिदेवा। अनुलक्षोनि देआवा। उपदेश मज।।१०।।
शिव उवाच-
श्रुणु देवि प्रवक्ष्यामि संस्काराणामनुक्रम:।
एतत् श्रुत्वा च कृत्वा च लभेत्सा भक्तिरुत्तमा।।२।।
शिव म्हणे अंबेप्रति। तुझ्या प्रश्नें जडजीव उद्धरती। तेंचि मी तुजप्रति। सांगेन आतां।।११।। गर्भाधानापासून आघवे। संस्कार सोळा जाणावें। सांगेन आतां त्यांचीं नांवे। त्यांत मुख्य दहाचि।।१२।।
गर्भाधानं पुंसवनं सीमंतं जातकर्म च।
तन्नामकरणं चापि बहिर्निष्क्रमणं तथा।।३।।
चौलकर्म तथैवोक्तं वेदारंभो हि युक्तित:।
शिवदीक्षाविवाहश्च संस्कारा दशमुख्यका:।।४।।
गर्भाधान म्हणिजे ओटीभरण। तो पहिला संस्कार जाण। पिंड-उत्पत्तीस मूळ कारण। हेंचि असे।।१३।। पुंसवन संस्कार दुसरा। डोहाळे सीमंत म्हणती तिसरा। चौथियाचा असे उजियारा। जातकर्म म्हणोनि।।१४।। नामकरण पांचवा। बहिर्निष्क्रमण सहावा। चौलकर्म म्हणती सातवा। करावा संस्कार हा।।१५।। वेदारंभ आठवा संस्कार। बटूसीं करणें असे अनिवार। तयाविण ज्ञानप्रसार। होईल केqव।।१६।। नववा संस्कार शिवदीक्षा। अत्यावश्यक असे वीरशैवपक्षां। त्याविण संतोष विरूपाक्षा। न होयचि सर्वथा।।१७।। दीक्षा हा जातिसंस्कार। वीरशैवाचा मुख्य कुलाचार। त्याविण वर्ते जो पामर। भवि जाणावा निश्चयें।।१८।। शिवदीक्षेचीं लक्षणें। कथिती श्रुति-आगम-पुराणें। सालसें निरोपीन तुजकारणें। शैलात्मजे सुंदरी।।१९।।
दीयते ज्ञानसंबंध: क्षीयते पाशबंधनम्।
दानक्षपणसंयुक्ता दीक्षा तेनेह कीर्तिता।।५।।
निर्मल शिवैक्य ज्ञानेकुन। ज्या संस्कारें तुटे आशापाशबंधन। म्हणोनि दीक्षा म्हणती त्यालागून। दान क्षपण भावयोगें।।२०।। ती दीक्षा असे त्रिविध। अंतरात्मा करावया शुद्ध। त्याचीं नांवें विविध। शास्त्रांतरीं पाहावी।।२१।।
गर्भाष्टमे कृता दीक्षा मुख्या सा षोडशावधि:।
गौणी तदूध्र्वमधमा वीरशैवान्वयायिनाम्।।६।।
गर्भापासून आठवें वरुष। मुख्य दीक्षाकाल विशेष। मध्यम जाण वरुष षोडश। तयापुढें गौण तें।।२२।। जन्म झाल्यापासून। देहस्थ लिंगाची आठवण। तीच सुदृढ परिपूर्ण। येणें संस्कारें होये।।२३।। दीक्षेलागीं आचार्य आवाहन। प्रथम करावें जाण। अग्रासनीं बैसवोन। पूजा करावी भक्तिबळें।।२४।। ते आचार्य म्हणसी कोण। तयाची सांगेन मी निजखूण। ऐक तूं सावध होवोन। स्नेहभरें पार्वती।।२५।। षोडश अध्यायीं वर्णिले शिवगण। सातशें सत्तर असती नेमून। ते शिवाचारमार्गीं निपुण। रत असती एकनिष्ठें।।२६।। तया सकळ गणांमधीं। हे पांच आचार्य जाणते सुबुद्धि। तया पांचाविण दीक्षासिद्धि। करूं नये महामंत्रीं।।२७।। तेहिं चालविला शिवाचार। भूमंडळीं घेवोनि अवतार। हेचि असती मुख्य आधार। वीरशैवाकारणें।।२८।। त्याचे साक्षित्वाचे जे कलश। तीच त्याची प्रतिमा जाणिजेस। ते आचार्यचि असती हा विश्वास। धरिजे शिवगणीं।।२९।। चौघांचे चहु कलश जाणिजें। मध्यें श्रीगुरुरायाचा बोलिजें। ऐसी पंचकलश दीक्षा घेईजें। तंव गुरुकरजात जाहला।।३०।। जंववरी पंचकलश दीक्षा नाहीं। तंववरी भविच बोलिजें पाही। तया शिवभक्ताचे ठायीं। लेखूं नये सर्वथा।।३१।। तयासीं तीर्थप्रसाद तत्त्वतां। देऊं नये वो सर्वथा। आचार्यसाक्षीं दीक्षा नसतां। अनधिकारी तीर्थासीं।।३२।। जंववरी तीर्थप्रसाद नाहीं। तंववरी शिवभक्त नोहे पाही। कंठीचा लिंग तोहि। पाषाण जाणिजें।।३३।। कां म्हणसी तरी ऐक। तीर्थप्रसाद तें लिंगाचें जीवन सम्यक्। तेणेंविण लिंग निर्जीव देख। न मिळता तयासीं।।३४।। कोणी म्हणती जर्इं लिंग बांधिलें। तर्इंच तीर्थप्रसाद अर्पिलें। आतां प्रतिदिनीं अर्पावया काय घेतलें। लिंगाचें आम्ही।।३५।। त्यासीं दृष्टान्त असे एक। लक्ष देवोन ऐक सम्यक्। मग हा निमेल कुतर्क। मनाचा निश्चयें।।३६।। जर्इं वृक्ष उपवनीं लाविले। तर्इंच तया उदक घातिलें। आतां काय तया वृक्षाचे घेतले। उदक घालावया।।३७।। मनीं ऐसा विचार करोन। वृक्षां उदक न देतां जरी राहे उदासीन। तरी तया वृक्षाचें जीवन केवि वाढेल अनुदिन। याचा विवेक करावा।।३८।। तो वृक्ष कैसा फळेल। कैसे अमृतफळ देईल। मग कैंची सुखसंपदा होईल। न देतां उदक वृक्षां।।३९।। तेवि लिंगासीं तीर्थप्रसाद। न देतां होईल कैसा सुखानंद। न फळेचि शिवसुखबोध। क्रियाभ्रष्ट म्हणोनि।।४०।। आणिक एक कवतुक। गुरु लिंग जंगम तिन्ही एक। तरी श्रीगुरु तोचि लिंग देख। साक्षत्वें जालें कीं।।४१।। तरी लिंगां जें जें सुख देईजें। जें जें पत्र पुष्प वाहिजें। तें तें गुरूसीं अर्पण सहजें। कां आनाठायां जात।।४२।। तें गुरूसींच अर्पे जाणोन। मग तीर्थप्रसादीं कां न करावा यत्न। प्रयत्नेंकरोनि जरी करी अर्पण। तरी श्रीगुरु संतोषे।।४३।। म्हणोनि तीर्थप्रसादीं असावा नेम। नित्यनूतन धरावा प्रेम। परि आधी गुरु करावा हें वर्म। तेथेंचि जाणिजें।।४४।। ए-हवीं घरोघरीं गुरु असती। स्वार्थार्थे बोधिती शिष्यांप्रति। परि स्वानुभवें तद्रूप करिती। त्या नांव सद्गुरु वो देवी।।४५।। स्वार्थी जे कां असती गुरु। ते न होती भवसागर तारु। बोधिती अनेक मतांतरु। नानाविध।।४६।। हे गुरु नाना मतें दाविती। एक ते तीर्थाटनां धाडिती। एक ते पाषाण पुजविती। नाना दैवतें।।४७।। एक ते तपां धाडिती। एक ते करकमळीं घालविती। एक ते धूम्रपान साधविती। पंचाग्निताप एक।।४८।। एक लौकिक कर्में करविती। एक ते वायूसीं झुंझावे घेवविती। एक ते आसनीं बैसविती। म्हणती कीं उठोचि नको।।४९।। एक ते मौन धरविती। एक ते नागवेचि पळविती। एक ते बळें सांडविती। स्त्री-बालक मातां-पितां।।५०।। एक ते अन्न त्यागविती। एक ते कंदमुळे भक्षविती। एक ते कपाटीं बैसविती। एक ते ऊर्ध्व बाहू।।५१।। एक ते जटा वाढविती। एक ते बोडकेचि ठेविती। एक केश लुंच्छविती। नेणती कर्म पशुसम।।५२।। एक ते अजपांत गोवविती। एक ते चक्रें भेदून जा म्हणती। एक तिमिर दाविती। नेत्रापुढें जें चळतसे।।५३।। एक ते नासिकीं लक्ष लावविती। एक नेत्र विकासोनि पाहा म्हणती। एक ते नेत्र झांकविती। अंतरींच पाहा म्हणोनि।।५४।। एक ते यज्ञ होम करविती। स्वर्गीं अमृतपान करा म्हणती। इंद्रपद आणि रंभेची दाविती। लोलुपता।।५५।। एक ते आकाशीं चालविती। एक जळासनीं बैसविती। अमृतपान करविती। अर्धचंद्रां पैं जाऊनिया।।५६।। एक तो लिंगदेह साधवी। देवतांतरातें भेटवी। परि ते आघवीच गोवी। दु:खदायक साधनें।।५७।। परि एका आत्मज्ञानावांचून। तें सर्वहि अकारण। जंव नव्हे एक चैतन्यघन। तंव सर्व साधनें व्यर्थ तीं।।५८।। ऐसीं नाना साधनें साधविती। ते गुरु परि सद्गुरु न होती। जे स्वयें परब्रह्म करिती। ते सद्गुरु जाणावें।।५९।। ऐसिया सद्गुरूसीं जावे शरण। दीक्षा घ्यावी सद्भाव धरोन। नित्य तीर्थप्रसादी सेवन। करावे क्रियामार्गें।।६०।। तीर्थ ऐसा शब्द पडतां कानीं। न पाचारितां जावे लोटांगणीं। किंकरवृत्तीनें शरण चरणीं। लहान थोर कीजें सर्वां।।६१।। मग स्वामीसीं शरण रिघीजें। तीर्थां आज्ञा घेईजे। मंत्र युक्तीनें सेविजें। विश्वास धरोनि।।६२।। ऐसा तीर्थप्रसादी जो शिवगण। स्वभावें होय तयाचें दर्शन। त्याचा भवबंध होय छेदन। पुण्यपावन होय तो।।६३।। ऐसा जो सत्यशरण। केवळ शिवचि आपण। तो अनंत ब्रह्मांडें व्यापून। अलिप्त असे।।६४।। तया त्रिभुवनींचें राज्य देतां। थुंकोन सांडी सर्वथा। इंद्रपदासीं हाणी लाथा। मा राज्याची आवडी धरील काय।।६५।। तो समूळ क्रियेसीं अकर्ता। निष्कामबुद्धि निरहंता। अष्ट महासिद्धि पायां लागतां। श्लाघ्यता न घे।।६६।। अमृतपान करीत असतां। कांजी अपेक्षा न करी सर्वथा। तेवि वस्तुसुख भोगीतां। इंद्रपदादिक इच्छील काय।।६७।। म्हणोनि निराश निर्वासना। नि:संग आणि निष्कामना। निर्गुण अतीत त्रिगुणा। शुद्ध सत्त्वात्मक तो।।६८।। निर्द्वंद्व निजानंद। भेद नाहीं ऐक्यबोध। जें जें दिसें तें तें सच्चिदानंद। आन पदार्थ दिसे ना भासे ।।६९।। तो सदाशिव सर्व पाहे। परि पाहतां हेतु न राहे। अनायासें होवोनि राहे। सर्वज्ञ ते।।७०।। मी सर्वज्ञ ऐसा। आठवु न होय तया स्वयंप्रकाशां। आठव न आठव दोहींच्या विलासां। साक्षी तो जाहला।।७१।। साक्ष जरी म्हणावा। तरी कांहीं पदार्थ असावा। मग साक्षी व्हावा। पदार्थाचा।।७२।। जरी पदार्थचि नाहीं। मा साक्षित्व मिरवील कांहीं। यालागीं कांहीं न होवोनि पाही। पाहता पाहणारा तो।।७३।। तोचि परब्रह्ममूर्ति। शुद्ध जंगम बोलिजें तयाप्रति। तयाचें दर्शनमात्रें मुक्ति। ओळंगती वो देवी।।७४।। मुक्ति दास्य करिती हें नवल काय। तो कृपादृष्टीनें जरी पाहे। तरी आपुले देत आहे। स्वस्वरूप जें।।७५।। तो सद्भावाचा भोक्ता। सद्भावें शरण जातां। जन्मजन्मांतरीची व्यथा। सकळ हरितु असे।।७६।। ते कृपेचे सागर। त्यांची कृपा आम्हां निरंतर। ओळंगो त्याचें चरण सादर। स्वहितालागीं।।७७।। स्वहित जरी म्हणती कोण। तरी तयाचेनि शिवपण। मज शिव म्हणावया कारण। त्याचिया संयोगें।।७८।। ऐसे ते जे महामहंत। पुजितसे मी निभ्रांत। ते मजलागीं दैवत। मी भक्त तयांचा।।७९।। विचारितां मी तोचि जाण। बाहीर वेषाचें पालटण। ज्ञानिये जाणती खूण। भेदातें सांडोनिया।।८०।। शिव म्हणे गिरिजेसीं। तूं माझें स्वरूप अससी। शरीरभावें भेदासीं। रूप जाहलें वो देवी।।८१।। एकचि बहुरूपिया आपण। बहु रूपें आला घेवोन। परि तो बहुरूपियाचि आन। नाहीं दुसरा।।८२।। तैसाचि मी आपण। अनंत रूपें नटलो जाण। परि रूपां अरूपां साक्षी होवोन। निराळाचि असे कीं।।८३।। निराळा परि मी जाण। जाणतु असे आपण। जाणपणालागून। जाणता तो मी।।८४।। ऐसा जो मी मजलागीं। भेटी घेणें आहे निजांगीं। तरी या ग्रंथालागीं। विसंबूं नये।।८५।। ऐसें पार्वतीनें ऐकोनि वचन। तद्रूप झाली आनंदघन। मनीं तन्मय होऊन। तटस्थ ठेली।।८६।। मग येवोनि देहावरी। उठोनि साष्टांग नमस्कार करी। म्हणे मज भेटविले त्रिपुरारी। स्वामिनाथा करुणानिधे।।८७।। महापुरीं वाहात जातां। अवचित कृपाळु काढी दाता। तैसें तुम्ही स्वामी समर्था। तारियले मातें।।८८।। चरणां लागे वेळोवेळां। धन्य धन्य स्वामी जाश्वनिळा। बरवें निरोपिलें प्रांजळा। माझिये आवडीसारिखे।।८९।। हा परमरहस्य ग्रंथ जे पाहाती। ते शिवरूप स्वयें होती। ब्रह्मस्वरूप स्वयें पार्वती। निश्चयें जाण।।९०।। जे शिवाचे शिवभक्त। सदा आचारी दीक्षावंत। जे जाहाले गुरुकरजात। तिहीं हा ग्रंथ परिसावा।।९१।। भवीसीं श्रवण न करवावा। हा शिवाचारी शिवभक्तीं ऐकावा। ऐकोनि जीवीं धरावा। तैसाचि करावा आचारु।।९२।। हा ग्रंथ होतां श्रवण। इंद्रियें होती प्रवीण। मार्ग कळती आचरण। आचरावया।।९३।। आतां असो कथन फार। परमरहस्य ग्रंथ विस्तार। पार्वतीप्रति ईश्वर। वारंवार सांगतसे।।९४।। त्याचें सार या ग्रंथाचे ठायीं। वर्णिलें असे सतराध्यायीं। अज्ञ जनां आचाराविषयीं। आरसा जाण पाहावया।।९५।। हा ग्रंथ तरी ईश्वरमुखीचा। ईश्वर तोचि नागेश साचा। भिन्न भेद म्हणतां वाचा। दुखंड होय।।९६।। तोचि तो अवतरोन। नागेश नामाभिधान। मिरवे एवढीयानें म्हणून। भेद जाहला काई।।९७।। जैसें सुवर्ण सोनेपणें। क्षणभरी मिरवलें गेटाभिधानें। तरी वाळिजें काय सोनेपणें। नोहे म्हणोनिया।।९८।। यालागीं शिव तोचि नागेश्वरु। तोचि बसवराज श्रीगुरु। माणूरपट्टसिंहासनाधिकारु। असे जयासीं।।९९।। त्याचिया कृपेंकरून। परमरहस्याची टीका विस्तारून। करविते जाहले आपण। श्रीबसवराज स्वामी।।१००।। मन्मथशिवलिंग म्हणे। मज वदविले स्वामीनें। पावा वाजवितां तयातें ऐकून। वाजविता तो निराळा।।१०१।। सूत्रधारियाचें बाहुले। तें चालें नाचें हालें सूत्रधारियाचेनि बोले। सूत्रधारी खेळें ज्या ज्या कळें। तें तें कळें खेळतुसे।।१०२।। म्हणोनि सूत्रधारी गुरुगोसावी। टीका करविली बाहुलीकरवी। येथें मज मीपणाची पदवी। नुरेचि सर्वथा।।१०३।। यालागीं ग्रंथकर्ता श्रीगुरुनाथ। तोचि वदला ग्रंथार्थ। शिवगणीं परिसावा प्रीत्यर्थ। म्हणे मन्मथ कर जोडोनि।।१०४।। हा असे प्रसादी ग्रंथ जाण। याचें करी जो नित्य पारायण। तयाची भवव्याधि चुके मरण। अमर होय सत्य पैं।।१०५।। ज्याचा लिंगीं नाहीं विश्वास। जे अन्य धर्माचे बनले दास। त्याचा स्पर्श न करावा ग्रंथास। अधर्मी जाण म्हणोनि।।१०६।। जे विश्वासें भावें वाचिती। ते संसारसुख भोगोनि अंतीं। पावती सायुज्यमुक्ति। धन्य नर तेंचि पैं।।१०७।। जे दुर्जन निंदक खळ। तया नावडे ग्रंथ रसाळ। रंभाफल त्यागूनि अर्की फळ। आवडी जाण वेचीतसे।।१०८।। कीं दुग्ध सांडोनिया जाण। प्राशी मद्यातें जाऊन। कीं दुर्दैवी नेत्र बांधून। द्रव्यघटां ओलांडी।।१०९।। विश्वासें जे श्रवण करिती। तयाच्या सर्व व्याधि नासती। पठण करितां धनाढ्य होती। कीर्ति वाढे अपार।।११०।। पुत्र-इच्छा धरोनि मनीं। तत्पर होती पारायणीं। तयाचा वंशविस्तार सुलक्षणी। होय जाण शिवकृपें।।१११।। हा परमरहस्य ग्रंथ परिकर। वीरशैवधर्माचें बीजांकुर। भावें करितां रक्षण साचार। रक्षी शंकर तयातें।।११२।। श्रोते शिवगण समस्त। तया विनवी किंकर मन्मथ। ग्रंथसमाप्तीस आज्ञा घेत। चित्तीं सद्गद होऊनिया।।११३।। कपिलाधार पुण्यधाम। तेथेंचि जालो मी पूर्णकाम। टीका केली सुगम। परमरहस्याची।।११४।। शके पंधराशें बावीस। विक्रमनाम संवत्सरास। वद्य त्रयोदशी माघ मास। ग्रंथ पूर्ण झालासे।।११५।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। शिवगौरीसंवादीं वर्तत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृत्य मन्मथ।।११६।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे सर्वाचारविधिनिरूपणं नाम सप्तदशोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक ६, ओव्या ११६.
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प्रसाद
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जे शब्दसृष्टीचे ईश्वर । सबराभरीत अगोचर । 
निर्लेप मंगल साचार । परमवंद्य जे ।।१।।
नमू तया परमेश्वरा । जगद्रूपा जगदाधारा । 
जगन्निर्मात्या महेश्वरा । सच्चिद्रूपा जी ।।२।।
जी मी वाग्यज्ञ आरंभिला । तो हा तुम्ही पूर्ण केला । 
कृपा करोनी पाहिजे दिधला । आशीर्वाद हा ।।३।।
जे दुष्ट दुर्जन अमंगळ । त्यांचे हृदये होवोत निर्मळ । 
कळीकाळ सकळ । निरसोनी जाय ।।४।।
जे जे दिसे दृष्टीपुढे । ते अवघे शिवरूप गाढे । 
ऐसिया संतांची हुडे । निर्भय हिंडो ।।५।।
सर्व सुखांचा हो सुकाळ । दु:ख दारिद्र्य छळ । 
नष्ट हो सकळ । मनोमालिन्यही ।।६।।
जे का शिवभक्त जन । त्यांच्या दर्शने पावन । 
सकळ सृष्टीचे जीवन । होतु आनंदे ।।७।।
या माझ्या जगती तळी । सर्वत्र संचरो भक्तमंडळी । 
शिवभक्तीची नव्हाळी । नित्य लाभो जगा ।।८।।
जेजे अमंगळ या भुवनी । ते ते लोपो शूळपाणी । 
सुमंगळ भाव या जनी । उपजो सदा ।।९।।
वाढो लोकी सदाचार । सद्विद्येचा भडिमार । 
होओ सर्वत्र साचार । हाचि प्रसाद आवडे ।।१०।।
आणिकही ऐसे करावे । सुखाचे मळे पिकवावे । 
आमूलाग्र नासून जावे । विघ्नबाधा ।।११।।
ही माझी वाक्पुष्पपूजा । समर्पण हो श्रीगुरुराजा । 
मन्मथशिवलिंग विनवी ओजा । श्रीगुरु नागेशासी ।।१२।।
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श्रीमन्मथस्वामींची आरती
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आरती शिवराजा । मन्मथस्वामी महाराजा ।
वेदान्ताचे सार, मुख्य पेरिले बीज ।।धृ.।।
समाधि महास्थळी, सर्पव्याघ्रांची जाळी ।
निर्वेर श्वापदे हो, समदृष्टीने न्याहाळी ।।१।।
शिवभक्ति लोप झाली, विश्व शिवमय केले ।
ग्रंथ हा परमरहस्य, गुह्य प्रकट केले ।।२।।
अभंगी निरूपण, अनुभविले ज्ञान ।
आनंद शिवदासा, सर्व शुभकल्याण ।।३।।
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अक्षररचना : सौ. उषा पसारकर, सोलापूर

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