संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी |
संतशिरोमणी
श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य
अध्याय तेरावा
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।। श्रीगुरवे नम: ।।
मागील अध्यायाचे अंतीं। सहा स्थळांची निजस्थिति। ती श्रुत केली देवीप्रति। कृपादृष्टीकरोनि।।१।। आतां पुढें सुरस प्रकार। देवी प्रश्न करील साचार। वीरशैव धर्माचें सार। वारंवार प्रगटवा म्हणोनि।।२।।
देव्युवाच-
मिश्रितं भक्तमाहेशं प्रसादिप्राणगिन:।
शरण्यैक्यं च किं वा स्याद् ब्रूहि मे परमेश्वर।।१।।
पार्वती म्हणे जी शंकरा। हें षट्स्थळ कैसे मिश्रित दातारा। भक्त माहेश्वर प्रसादी येरयेरां। मिश्रित कैसे।।३।। प्राणलिंगी आणि शरण। सहावें ऐक्यस्थळ जाण। हें परस्परमिश्रित त्रिनयन। निरोपिले पाहिजे।।४।।
शिव उवाच-
भक्तो माहेश्वरश्चैव प्रसादी प्राणलिंगक:।
शरण: शिवलिंगैक्य: एक: पंचसु मिश्रितम्।।२।।
शंकर म्हणे वो पार्वती। हें येरयेरां मिश्रित असती। एक एक पांचाप्रति। मिश्रित तें ऐक।।५।। भक्त मिश्रित माहेश्वरस्थळासीं। प्रसादि-प्राणलिंगी यांसीं। तैसाचि शरण आणि ऐक्यासीं। मिश्रित असे भक्तस्थळ तें।।६।। तैसेचि माहेश्वर भक्तस्थळासीं। मिश्रित असे प्रसादि-प्राणलिंगासीं। शरण आणि ऐक्यासीं। मिश्रित माहेश्वर तें।।७।। तैसेंच मिश्रित प्रसादी पांचासीं। भक्त-माहेश्वर-प्राणलिंगी यासीं। शरण आणि ऐक्यासीं। मिश्रित असे प्रसादिस्थळ तें।।८।। तैसेंचि मिश्रित प्राणलिंगी पांचासीं। भक्त-माहेश्वर-प्रसादी यांसीं। शरण्य आणि ऐक्यासीं। प्राणलिंगी मिश्रित असें।।९।। तैसेचि शरण्य मिश्रित पांचासीं। भक्त-माहेश्वर-प्रसादी यांसीं। प्राणलिंगी-शरण्यासीं। ऐक्यस्थल मिश्रित असें।।१०।। ऐसें षट्स्थल मिश्रित येरयेरांसीं। तें निरोपिलें समस्त तुजसी। हें ऐकोनि संतोषिली मानसीं। पुन: प्रश्न करिती झाली आणिक।।११।।
देव्युवाच-
भक्ताद्यैक्यावसानानां स्थलानां क्रमश: प्रभो।
अंगानि तानि सर्वाणि कथयस्व ममानघ।।३।।
पार्वती म्हणे कैलासनाथा। कोण्या स्थळांस कोण अंग निरोपा आतां। म्हणोनि चरणावरी ठेविला माथा। भक्तिभावें करोनिया।।१२।। अंबेचा प्रश्न रहस्य सार। प्रगट करी वारंवार। शंकर सांगे अरुवार। जन-उद्धाराकारणें।।१३।।
शिव उवाच-
अकारोंकारवबयो: सशयोरपि वा पुन:।
भेदो हि नैव विद्येत छथयोर्जययोरपि।।४।।
अंग म्हणिजे अंगचि बोलिजें। अकारा ॐकारा भेद नेणिजें। वकारा बकारा भेद नाहीं जाणिजें। सकारा शकारा भेद नाहीं वो देवी।।१४।। दकारा हकारा भेद नास्ति। जकार यकार नाहीं भेदगति। छकारा थकारा उभयाप्रति। भेद नाहीं वो देवी।।१५।। ऐसे अक्षराचे जाणिजे भेद। जो जाणे तो ज्ञानिया स्वत:सिद्ध। तो वाचितां कथितां ग्रंथप्रबंध। गुंतेचिना कधीं।।१६।। गिरिजेनें षट्स्थळाची अंगे पुसिली। ते निरोपिती आतां चंद्रमौळी। तेंचि श्रोतियांप्रति सुगम बोलीं। निरोपुं आतां।।१७।।
भक्तस्यांगमिदं पृथ्वी जलं माहेश्वरस्य च।
प्रसादिनोऽग्निरंगं स्याद् वायुस्तत् प्राणलिंगिन:।।५।।
आकाश: शरणांगं च ऐक्यस्यात्मा उदीरित:।
एतदंगस्य विज्ञानं सुसूक्ष्मं कमलानने।।६।।
शंभु निरोपी गिरिजेसीं। ऐक वो षट्स्थळाचे अंगासीं। पृथ्वि-अंग भक्तस्थळासीं। निभ्रांत जाण पां।।१८।। जळांग माहेश्वरासीं। तेज तें शोभें प्रसादियासीं। प्राणलिंग तो वायु-अंगेसीं। असतुसे।।१९।। आकाश अंग शरण्यासीं। आत्मत्व अंग ऐक्यासीं। ऐसीं षट्स्थळाची अंगें तुजसी। निरोपिलीं वो गिरिजे।।२०।। इतके ऐकोनि संतोषिली। सद्भावें चरणां लागली। मग काय विनवती झाली। शंकरासीं देवी ती।।२१।।
देव्युवाच-
एतेषां षट्स्थलानां च के वा हस्ता भवंति हि।
हस्तभेदं न जानामि ब्रूहि मे परमेश्वर।।७।।
देवी म्हणे शंकरासीं। निरोपा षट्स्थळाचे हस्तासीं। कोण हस्त कोण्या स्थळांसी। त्यांची नामें कायसी।।२२।।
शिव उवाच-
भक्तं सुचित्तहस्तं च सुबुद्धिश्च महेश्वर:।
प्रसादी निरहंकारं सुमन: प्राणलिंगिन:।।८।।
ज्ञानहस्तं शरणस्य भावमैक्यस्य तन्मतम्।
एते हस्ता: परिज्ञेया: षट्स्थलानां क्रमेण ते।।९।।
शिव म्हणे गिरिजे ऐक। षट्स्थळाचे जे हस्तक। सुचित्तहस्त भक्तासीं देख। शोभतु असे।।२३।। सुबुद्धिहस्त माहेश्वरासीं। निरहंकारीहस्त प्रसादियासीं। सुमनहस्त प्राणलिंगासीं। साजिरा दिसे।।२४।। शरण्यासीं ज्ञानहस्त। भावहस्त ऐक्यासीं निभ्रांत। ऐसे साहि हस्त शोभत। षट्स्थळासीं।।२५।। आधी षट्स्थळाचीं निरोपिलीं अंगे। आतां निरोपिले हस्त तेणेंचि भागे। देवी पुसे षट्स्थळाचीं लिंगें। कोण लिंग कोणासीं।।२६।। अंबेचे प्रश्न असती गहन। परमात्मा स्वयें करीतसें विवेचन। हा संस्कृत संवाद भावेकुन। आणिला प्राकृतीं।।२७।।
देव्युवाच-
भक्तमाहेश्वरादीनां क्रमशो लिंगपूजनम्।
कथ्यतां मे परब्रह्मन् षट्स्थलस्य रहस्यकम्।।१०।।
देवी म्हणे कोण लिंग भक्तासीं। माहेश्वर पुजिजे कोण लिंगासीं। कोण लिंग प्रसादियासीं। प्राणलिंगासीं कोण लिंग।।२८।। कोण लिंग शरण्यासीं। ऐक्यस्थळ वंदी कोण लिंगासीं। हे निरोपा म्हणोनि चरणासीं। पार्वती लागे।।२९।।
शिव उवाच-
भक्तस्याचारलिंगं स्यात् गुरुलिंगं महेशितु:।
प्रसादिन: शिवलिंगं जंगमं प्राणलिंगिन:।।११।।
शरणस्य प्रसादं स्यात् महाqलगं मतं तत:।
ऐक्यस्याच्र्यं विशेषणं स्थलभेदा: प्रकीर्तिता:।।१२।।
शंकर म्हणे वो गिरिजे। भक्तासीं आचारलिंग जाणिजें। गुरुलिंग म्हणिजें। माहेश्वरासीं।।३०।। शिवलिंग प्रसादियासीं। जंगमलिंग प्राणलिंगासीं। प्रसादलिंग शरणासीं। पूज्य असे निजहस्तें।।३१।। महालिंग तें ऐक्यस्थळासीं। ऐसीं स्थळे साहिं लिंगासीं। पुजिती षट्हस्तें नेमेंसीं। तें निरोपिले तुजलागीं।।३२।।
देव्युवाच-
आचारस्य मुखं देवि गुरुलिंगमुखं तथा।
शिवलिंगमुखं चैव चरलिंगमुखं च किम्।।१३।।
प्रसादस्य मुखं किं वा महालिंगमुखं तथा।
इदं सर्वं न जानामि कथयस्व महेश्वर।।१४।।
गिरिजा म्हणे शंकरासीं। कोण मुख आचारलिंगासीं। मुख कोण ते गुरुलिंगासीं। शिवलिंगां कोण पैं।।३३।। चर म्हणती जंगमासीं। कोण मुख असे त्या लिंगासीं। आणिक त्या लिंगस्थितीसीं। निरोपावें।।३४।। प्रसादी आणि महालिंगासीं। मुखें किती निश्चयेसी। किती किती असती कवणासीं। वेगळाली सांगा मज।।३५।।
शिव उवाच-
ज्ञानलिंगमुखं पंच आचारदिकमुच्यते।
षडविधानां तु लिंगानां मुखानि क्रमश: श्रुणु।।१५।।
शंकर म्हणे गिरिजेसीं। पांच पांच मुखें एकएकां लिंगासीं। हें षडलिंग येरयेरासीं। मुखें जाणिजें।।३६।। महालिंग प्रसादलिंग दोन। जंगमलिंग आणि शिवलिंग चार जाण। पांचवें गुरुलिंग नेमून। हीं पांच मुखें आचारलिंगासीं।।३७।।
जंगमं लिंगमाचारं ज्ञानलिंगं प्रसादकम्।
शिवलिंगसमायुक्तं इत्येतद् गुरुलक्षणम्।।१६।।
महालिंग प्रसादलिंग जंगमलिंग। शिवलिंग आणि आचारलिंग। हीं पंचलिंगें चांग। मुखें गुरुलिंगासीं।।३८।।
महालिंगप्रसादं च जंगमाचारमेव च ।
गुरुलिंगमुखं पंच शिवलिंगस्य निश्चितम्।।१७।।
महालिंग प्रसादलिंग। जंगमलिंग गुरुलिंग आचारलिंग। हें पांच शिवलिंगासीं चांग। मुखें शोभती।।३९।।
आचारं ज्ञानलिंगं च गुरुलिंगप्रसादकम् ।
शिवलिंगमुखं पंच चरलिंगस्य तत्त्वत:।।१८।।
महालिंग प्रसादलिंग जाण। शिवलिंग गुरुलिंग गहन। आचारलिंगादि पंच नेमून। मुखें चरलिंगासीं।।४०।।
जंगमं शिवलिंगं च आचारं गुरुज्ञानकम्।
एतत् पंचसमायुक्तं प्रसादं लिंगलक्षणम्।।१९।।
महालिंग-आचारलिंग जाणिजें। शिव-गुरु-जंगमलिंग जें। हीं त्याचीं मुखें बोलिजें। प्रसादलिंगासीं पैं।।४१।।
जंगमं च शिवाचारं गुरुलिंगं प्रसादकम्।
महालिंगस्य एतानि मुखानि मुक्तिदानि तु।।२०।।
आचारलिंग-शिवलिंग-गुरुलिंग जाण। जंगमलिंग-प्रसादलिंग नेमून। हीं महालिंगासीं प्रमाण। पांच मुखें बोलिजें।।४२।। हें षडलिंग येरयेराचीं मुखें। तुज निरोपिली भक्तिप्रेमसुखें। ऐकोनि सुख जाहलें निकें। पार्वतीदेवीसीं।।४३।। म्हणे अजि भाग्य उदयां आलें। जें बहुकाळ होतें लोपलें। तें स्वामीनें बोधिलें। कृपा करोनि मज।।४४।। आजि माझ्या दैवां नाहीं पार। जें स्वमुखें निरोपितसा दातार। आतां कायसा दरार। जन्ममृत्यूचा।।४५।। जन्ममृत्यु येथ केवढीयाचें। कर्तव्य पुसिलें यमकाळाचें। नाम नाहींच संसाराचें। ऐसें केलें कृपाळुत्वें।।४६।। जें जें करितसा निरोपण। तेणें शिवाचार होय संपन्न। जें सत्यशरण शिवाचारासीं पावन। त्याचें हृदयींचें गुज हें।।४७।। जे नर करिती शिवधर्म-आचरण। तयाचें तुटें जन्ममरण। संसाराचें नुरें कारण। शिवपदां योग्य तो।।४८।। जन्ममृत्यूचा दरारा। अशैवालागीं निर्धारा। नेमिले असे यमकिंकरा। शिक्षा द्यावयालागीं।।४९।। वीरशैवाचें मुखीं शिवनाम। वीरशैवां अंग लिंग सम। त्याचे सूक्ष्म धर्म नेम। न कळे इतरांप्रति।।५०।। ते करिती शिवागम श्रवण। तेणें शिवाचार होय संपन्न। स्त्रीपुत्रसेवकांदि जाण। होती निपुण शिवधर्मीं।।५१।। ऐसा शिवाचार जाण। तो ऐकतां परमपावन। जो वर्ते शिवाचारें पूर्ण। उद्धरून जाय तो।।५२।। वीरशैवधर्म परम कठिण। तो न जाणावा इतरासमान। क्रिया शुद्ध परमपावन। असे जाण लिंगधारी।।५३।। लिंगपूजा हाचि नित्य नेम। भक्तिभावें तेचि करी सप्रेम। गुरु लिंग आणि जंगम। त्यातें भजे आवडी।।५४।। पंच शिवलिंगांपासोन। पंचाचार झाले निर्माण। ती लिंगांगी जाणती खूण। इतरां न कळें तत्त्व पैं।।५५।। परि लिंगपुराणाचे ठायीं। रुद्रसृष्टीचें मर्म पाही। उल्लेखिलें असें लवलाही। निजभक्तांकारणें।।५६।। ऐसा शिवाचार जाण। ऐकतां परम पावन। शिवाचारें वर्ततां संपूर्ण। उद्धरता होय जगां।।५७।। मी एकली होईन पावन। त्याचें आश्चर्य स्वामी कोण। परि शिवाचार संपूर्ण। उद्धरता होय।।५८।। मज पुसावया हेंचि कारण। जें मी उद्धरे आणि जग होय पावन। म्हणोनि आणिक प्रेमें प्रश्न। करिती झाली जगदंबा।।५९।।
देव्युवाच-
पंचभूतमयो देह: केन रूपेण चार्पण:।
कस्मिन् लिंगे भवेत् स्पष्टं कथयस्व महेश्वर।।२१।।
गिरिजा म्हणे शंकराप्रति। हे पंचभौतिक शरीर अर्पिती। कोण्या लिंगीं कोण तत्त्व निवेदिती। तें निरोपा स्वामी।।६०।।
शिव उवाच-
आचारस्यार्पिता पृथ्वी गुरुलिंगार्पितं पय:।
शिवलिंगार्पितं तेजो वायुश्च जंगमार्पित:।।२२।।
प्रसादार्पितमाकाशं प्रणवश्च ज्ञानार्पित:।
एतदर्पणसद्भावं दुर्लभं श्रुणु पार्वति।।२३।।
शंभु म्हणे देवी ऐक मात। आचारलिंगासीं पृथ्वी अर्पित। गुरुलिंगां आप निभ्रांत। शिवलिंगीं तेज तें।।६१।। वायु जंगमलिंगीं अर्पण। आकाश प्रसादलिंगीं निवेदन। महालिंगां अर्पिती जाण। प्रणव तो ॐकार।।६२।। ऐसे षडलिंगां षड्तत्त्व अर्पण। याचा भेद जाणे तो ज्ञानिया पूर्ण। त्याचे आम्ही वंदूं चरण। सत्य सत्य वो देवी।।६३।।
विषया: पंचभोगा ये पंचेंद्रियसमन्विता:।
पंचाक्षरे पंचवक्त्रे सद्भावेन समर्पिता:।।२४।।
शब्दस्पर्शरूपरसं गंधश्चापि हि पंचम:।
एतेषामर्पणं नित्यं निष्कामो मुक्तिभाक् नर:।।२५।।
पंचविषयादि भोग जे जे। ते पंचाक्षरी अर्पण कीजें। पंचेद्रियांद्वारें समर्पिजें। पंचलिंगामुखीं।।६४।। पांच इंद्रियेद्वारे पांच विषयांसीं। अर्पी प्रणव सहाव्या लिंगासीं। तेंचि लाधले मुक्तिपदासीं। परि ते दुर्लभ वो देवी।।६५।।
एवं पंचादिकं चैव पंचवक्त्रे समर्पणम् ।
जानाति निर्मलो बुद्धस्तस्य हस्ते शिवं पदम्।।२६।।
एवं पंचविषयादि भोग। पंचमुखीं समर्पिजे चांग। तो ज्ञानिया जाणिजे अभंग। शिवपद प्राप्त तयासी।।६६।। ऐकोन गिरिजे संतोष झाला। अर्पणे प्राप्त होय शिवपदाला। तरी तेंचि पुसे शंकराला। अर्पण ते कैसे।।६७।।
देव्युवाच-
कं लिंगमर्पयेत् को वा विषय: केन हेतुना।
तत्सर्वं क्रमशो देव ब्रूहि मे कृपया शिव।।२७।।
पार्वती पुसे कैलासपति। कोण विषय कोण्या लिंगाप्रति। अर्पिजें कवणे स्थिति। ते निरोपा परमेश्वरा।।६८।।
शिव उवाच-
शब्दं प्रसादलिंगाय चरलिंगाय स्पर्शनम् ।
शिवलिंगाय रूपं तद् गुरुलिंगाय वै रसम्।।२८।।
गंधमाचारलिंगाय महालिंगाय ओं तत:।
एतन्मुखपरिज्ञानं दुर्लभं श्रुणु पार्वति।।२९।।
परमेश्वर म्हणे उमेस। शब्दविषय प्रसादलिंगास। अर्पिजे स्पर्श जंगमलिंगास। शिवलिंगास रूप पैं।।६९।। गुरुलिंगासीं रस। आचारलिंगां सुगंध सुरस। प्रणव तो महालिंगास। समर्पिजे आदरें।।७०।। ऐसे समर्पी जो जाणोनि खूण। तो दुर्लभ वो सत्यशरण। त्याचे अखंड आम्हां ध्यान। त्याचे चरण वंदूं आम्ही।।७१।। ऐसेचि नेमें चालतां। तरी सायुज्य येतसे हातां। दुर्लभ असे आचरतां। वीरव्रत लिंगधारीचे।।७२।।
यदिंद्रियमुखज्ञानं तदिंद्रियमुखेन च।
अन्येंद्रियेण भोक्तव्यं न भवेत् कर्मभेदत:।।३०।।
येथें ज्ञानिया म्हणसी कां स्तविजे। तो योग्यायोग्य जाणे वोजें। जेथीचे भोक्तव्य तेथेंचि देईजें। म्हणोनि धन्य तो।।७३।। आन इंद्रियांचे विषय आनासी। भोक्तव्य नव्हे ते तयासी। ज्याचे विषय ते त्याने त्यासीं। सुखें भोगिजें।।७४।। जैसे अन्य स्थानींचे भूषण। अन्य स्थानीं लेतां अमान्य। स्थानींचे स्थानी शोभायमान। दिसे साजिरे।।७५।। पाहतां तरी एकचि भोक्ता। दुसरा येथ नाहीं तत्त्वतां। परि इंद्रियद्वारे भोक्तव्यतां। भिन्नत्वें भोगी।।७६।। भिन्न भिन्न पदार्थ भोगी। परि ऐक्यत्वें एकाचि अंगी। विषय अनारिसे परि निजांगी। भोक्ता तो एकचि।।७७।। म्हणोनि जेथींचे विषय तेथेंचि भोगिजें। तेथें गुरुचि भोक्ता जाणिजें। म्हणोनि येरायेरां न लाविजें। लावितां विच्छिन्न पडे।।७८।। पुष्पाचा परिमळ नेत्रीं काय घेईजें। मुक्ताफळ चरणीं काय परीक्षिजें। आणि मुखें ऐकिजें। शब्द तो काई।।७९।। काय श्रोत्रें बोलिजें। की हस्तें चालिजें। काय चरणें कीजें। भोजनक्रिया।।८०।। म्हणोन येराची क्रिया येरासीं। न करवे करितां सायासीं। ज्याचें त्यानेंचि कीजें भोक्तां सर्वांसीं। श्रीगुरुनाथ एकचि तो।।८१।।
इंद्रियादिगतं किंचिद्यत्सुखं तत्तुपावनम्।
तत्प्रसादं च भोक्तव्यं तदिंद्रियमुखेन च।।३१।।
इंद्रियद्वारें किंचिन्मात्र सुख। होय ते गुरुचि भोक्ता देख। तो प्रसाद मानिजें विशेख। ऐसा नेम असे।।८२।। परि लिंगमुखें जें होय अर्पण। तोचि प्रसाद बोलिजें नेमून। लिंगमुखेंविण जें होय निवेदन। तो प्रसाद नोव्हे वो देवी।।८३।।
देव्युवाच-
मिश्रितस्य स्वरूपं मे कथयस्व महेश्वर।
परस्परं मिश्रभावं न जानामि सदाशिव।।३२।।
पार्वती म्हणे ईश्वरासीं। ही विषये मिश्रित ती कैसी। कोण विषय कोणासीं। मिश्रित असती।।८४।।
शिव उवाच-
शब्दं पंचसमायुक्तं स्पर्शं पंचसमन्वितम्।
रूपं पंचसमाख्यातं रस: पंचसमन्वित:।।३३।।
गंध: पंचसमायुक्त: मिश्रितस्तत्त्वत: श्रुणु।
यथा द्रव्यमुखं ज्ञात्वा अर्पणं तत्तु दुर्लभम्।।३४।।
शंकर म्हणे देवीसीं। एक एक मिश्रित पांचासीं। ऐसें मिश्रित येरयेरांसीं। असती वो देवी।।८५।। हें मिश्रित मुखें जाणोन। जो करी आत्मार्पण। तो ज्ञानिया दुर्लभ जाण। सत्यशरण वो देवी।।८६।।
देव्युवाच-
कानींद्रियाणि केभ्यश्च लिंगेभ्य: क्रमतोऽर्पयेत्।
निर्णयं श्रोतुमिच्छामि सुस्पष्टं भगवन् वद।।३५।।
पार्वती म्हणे शंकरासीं। कोण इंद्रिय कोण लिंगासीं। अर्पित निरोपा भेदासीं। कैसा निर्णयो देवा।।८७।।
शिव उवाच-
श्रोत्रेंद्रियसमायुक्तं प्रसादं लिंगमेव च।
त्वगिंद्रियमुखं ज्ञेयं जंगमस्य तथैव हि।।३६।।
नेत्रेंद्रियमुखं तस्य शिवलिंगस्य तन्महत्।
हृदिंद्रिय मुखं चैव महालिंगस्य वै तथा।।३७।।
हे पार्वती ऐक वोजें। श्रोत्रेंद्रिय प्रसादलिंग बोलिजें। त्वगिंद्रिय जंगम जाणिजें। चक्षु शिवलिंग तें।।८८।। जिव्हेसीं गुरुलिंग जाणिजें। घ्राणासीं आचारलिंग ओळखिजें। मानस हृदयलिंग जाणिजें। तें महालिंग असे।।८९।। षडलिंग षडिंद्रियमुखें। षडविषय भोगिती सुखें। षट्स्थळासीं भोक्तव्य निकें। प्रसादमुखें तेवि।।९०।।
हृदिंद्रियमुखं ज्ञात्वा ऐक्यमेव प्रसादवान्।
श्रोत्रेंद्रियमुखं ज्ञात्वा शरणस्तुप्रसादभाक्।।३८।।
त्वqगद्रियमुखं ज्ञात्वा प्राणलिंगी प्रसादवान्।
नेत्रेंद्रियमुखं ज्ञात्वा प्रसादी स्यात् प्रसादभाक्।।३९।।
या षड्इंद्रियामुखेंकरोन। प्रसादभोग जाणे तो प्रसादिया पूर्ण। मानस इंद्रियाचें मुखें जाणें तो जाण। ऐक्यस्थळ बोलिजें।।९१।। श्रोत्रमुखें जाणोन शब्दातें घेणें। तया शरणस्थळ-प्रसादी म्हणणें। त्वगिंद्रियमुखीं स्पर्श सेवणें। तो प्राणलिंगि-प्रसादी बोलिजें।।९२।। चक्षुरिंद्रियमुखें जाणोनि रूप घेणें। तया प्रसादिस्थळ-प्रसादी म्हणणें। ही खूण सत्यशरणचि जाणे। जो शिवाचारासीं अग्रगणीं।।९३।।
जिह्वेेंद्रियमुखं ज्ञात्वा तत्प्रसादी महेश्वर:।
घ्राणेंद्रियमुखं ज्ञात्वा तथा भक्त:प्रसादवान्।।४०।।
जिव्हेंद्रियमुखें जाणोनि रस घेणें। तया माहेश्वरस्थळ-प्रसादी म्हणणें। घ्राणमुखें जाणोन गंध सेवणें। तया भक्तस्थळ-प्रसादी बोलिजें।।९४।। आतां षट्स्थळ षडलिंगासीं। कोण्या अंगें कोण्या हस्तें कोण विषयासीं। कोण तृप्ति करी कोण्या लिंगासीं। ही खूण पुसो म्हणे देवी।।९५।। ऐसा पार्वतीप्रति शंकर। भक्ति ज्ञान सांगे आचार। जें ऐकतां वीरशैव एकाग्र। प्राणी पावन होती पैं।।९६।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। शिवगौरीसंवादीं वर्तत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृत्य मन्मथ।।९७।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे षडलिंगनिर्णयनिरूपणं नाम त्रयोदशोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक ४०, ओव्या ९७.
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अक्षररचना : सौ. उषा पसारकर, सोलापूर
अध्याय तेरावा
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।। श्रीगुरवे नम: ।।
मागील अध्यायाचे अंतीं। सहा स्थळांची निजस्थिति। ती श्रुत केली देवीप्रति। कृपादृष्टीकरोनि।।१।। आतां पुढें सुरस प्रकार। देवी प्रश्न करील साचार। वीरशैव धर्माचें सार। वारंवार प्रगटवा म्हणोनि।।२।।
देव्युवाच-
मिश्रितं भक्तमाहेशं प्रसादिप्राणगिन:।
शरण्यैक्यं च किं वा स्याद् ब्रूहि मे परमेश्वर।।१।।
पार्वती म्हणे जी शंकरा। हें षट्स्थळ कैसे मिश्रित दातारा। भक्त माहेश्वर प्रसादी येरयेरां। मिश्रित कैसे।।३।। प्राणलिंगी आणि शरण। सहावें ऐक्यस्थळ जाण। हें परस्परमिश्रित त्रिनयन। निरोपिले पाहिजे।।४।।
शिव उवाच-
भक्तो माहेश्वरश्चैव प्रसादी प्राणलिंगक:।
शरण: शिवलिंगैक्य: एक: पंचसु मिश्रितम्।।२।।
शंकर म्हणे वो पार्वती। हें येरयेरां मिश्रित असती। एक एक पांचाप्रति। मिश्रित तें ऐक।।५।। भक्त मिश्रित माहेश्वरस्थळासीं। प्रसादि-प्राणलिंगी यांसीं। तैसाचि शरण आणि ऐक्यासीं। मिश्रित असे भक्तस्थळ तें।।६।। तैसेचि माहेश्वर भक्तस्थळासीं। मिश्रित असे प्रसादि-प्राणलिंगासीं। शरण आणि ऐक्यासीं। मिश्रित माहेश्वर तें।।७।। तैसेंच मिश्रित प्रसादी पांचासीं। भक्त-माहेश्वर-प्राणलिंगी यासीं। शरण आणि ऐक्यासीं। मिश्रित असे प्रसादिस्थळ तें।।८।। तैसेंचि मिश्रित प्राणलिंगी पांचासीं। भक्त-माहेश्वर-प्रसादी यांसीं। शरण्य आणि ऐक्यासीं। प्राणलिंगी मिश्रित असें।।९।। तैसेचि शरण्य मिश्रित पांचासीं। भक्त-माहेश्वर-प्रसादी यांसीं। प्राणलिंगी-शरण्यासीं। ऐक्यस्थल मिश्रित असें।।१०।। ऐसें षट्स्थल मिश्रित येरयेरांसीं। तें निरोपिलें समस्त तुजसी। हें ऐकोनि संतोषिली मानसीं। पुन: प्रश्न करिती झाली आणिक।।११।।
देव्युवाच-
भक्ताद्यैक्यावसानानां स्थलानां क्रमश: प्रभो।
अंगानि तानि सर्वाणि कथयस्व ममानघ।।३।।
पार्वती म्हणे कैलासनाथा। कोण्या स्थळांस कोण अंग निरोपा आतां। म्हणोनि चरणावरी ठेविला माथा। भक्तिभावें करोनिया।।१२।। अंबेचा प्रश्न रहस्य सार। प्रगट करी वारंवार। शंकर सांगे अरुवार। जन-उद्धाराकारणें।।१३।।
शिव उवाच-
अकारोंकारवबयो: सशयोरपि वा पुन:।
भेदो हि नैव विद्येत छथयोर्जययोरपि।।४।।
अंग म्हणिजे अंगचि बोलिजें। अकारा ॐकारा भेद नेणिजें। वकारा बकारा भेद नाहीं जाणिजें। सकारा शकारा भेद नाहीं वो देवी।।१४।। दकारा हकारा भेद नास्ति। जकार यकार नाहीं भेदगति। छकारा थकारा उभयाप्रति। भेद नाहीं वो देवी।।१५।। ऐसे अक्षराचे जाणिजे भेद। जो जाणे तो ज्ञानिया स्वत:सिद्ध। तो वाचितां कथितां ग्रंथप्रबंध। गुंतेचिना कधीं।।१६।। गिरिजेनें षट्स्थळाची अंगे पुसिली। ते निरोपिती आतां चंद्रमौळी। तेंचि श्रोतियांप्रति सुगम बोलीं। निरोपुं आतां।।१७।।
भक्तस्यांगमिदं पृथ्वी जलं माहेश्वरस्य च।
प्रसादिनोऽग्निरंगं स्याद् वायुस्तत् प्राणलिंगिन:।।५।।
आकाश: शरणांगं च ऐक्यस्यात्मा उदीरित:।
एतदंगस्य विज्ञानं सुसूक्ष्मं कमलानने।।६।।
शंभु निरोपी गिरिजेसीं। ऐक वो षट्स्थळाचे अंगासीं। पृथ्वि-अंग भक्तस्थळासीं। निभ्रांत जाण पां।।१८।। जळांग माहेश्वरासीं। तेज तें शोभें प्रसादियासीं। प्राणलिंग तो वायु-अंगेसीं। असतुसे।।१९।। आकाश अंग शरण्यासीं। आत्मत्व अंग ऐक्यासीं। ऐसीं षट्स्थळाची अंगें तुजसी। निरोपिलीं वो गिरिजे।।२०।। इतके ऐकोनि संतोषिली। सद्भावें चरणां लागली। मग काय विनवती झाली। शंकरासीं देवी ती।।२१।।
देव्युवाच-
एतेषां षट्स्थलानां च के वा हस्ता भवंति हि।
हस्तभेदं न जानामि ब्रूहि मे परमेश्वर।।७।।
देवी म्हणे शंकरासीं। निरोपा षट्स्थळाचे हस्तासीं। कोण हस्त कोण्या स्थळांसी। त्यांची नामें कायसी।।२२।।
शिव उवाच-
भक्तं सुचित्तहस्तं च सुबुद्धिश्च महेश्वर:।
प्रसादी निरहंकारं सुमन: प्राणलिंगिन:।।८।।
ज्ञानहस्तं शरणस्य भावमैक्यस्य तन्मतम्।
एते हस्ता: परिज्ञेया: षट्स्थलानां क्रमेण ते।।९।।
शिव म्हणे गिरिजे ऐक। षट्स्थळाचे जे हस्तक। सुचित्तहस्त भक्तासीं देख। शोभतु असे।।२३।। सुबुद्धिहस्त माहेश्वरासीं। निरहंकारीहस्त प्रसादियासीं। सुमनहस्त प्राणलिंगासीं। साजिरा दिसे।।२४।। शरण्यासीं ज्ञानहस्त। भावहस्त ऐक्यासीं निभ्रांत। ऐसे साहि हस्त शोभत। षट्स्थळासीं।।२५।। आधी षट्स्थळाचीं निरोपिलीं अंगे। आतां निरोपिले हस्त तेणेंचि भागे। देवी पुसे षट्स्थळाचीं लिंगें। कोण लिंग कोणासीं।।२६।। अंबेचे प्रश्न असती गहन। परमात्मा स्वयें करीतसें विवेचन। हा संस्कृत संवाद भावेकुन। आणिला प्राकृतीं।।२७।।
देव्युवाच-
भक्तमाहेश्वरादीनां क्रमशो लिंगपूजनम्।
कथ्यतां मे परब्रह्मन् षट्स्थलस्य रहस्यकम्।।१०।।
देवी म्हणे कोण लिंग भक्तासीं। माहेश्वर पुजिजे कोण लिंगासीं। कोण लिंग प्रसादियासीं। प्राणलिंगासीं कोण लिंग।।२८।। कोण लिंग शरण्यासीं। ऐक्यस्थळ वंदी कोण लिंगासीं। हे निरोपा म्हणोनि चरणासीं। पार्वती लागे।।२९।।
शिव उवाच-
भक्तस्याचारलिंगं स्यात् गुरुलिंगं महेशितु:।
प्रसादिन: शिवलिंगं जंगमं प्राणलिंगिन:।।११।।
शरणस्य प्रसादं स्यात् महाqलगं मतं तत:।
ऐक्यस्याच्र्यं विशेषणं स्थलभेदा: प्रकीर्तिता:।।१२।।
शंकर म्हणे वो गिरिजे। भक्तासीं आचारलिंग जाणिजें। गुरुलिंग म्हणिजें। माहेश्वरासीं।।३०।। शिवलिंग प्रसादियासीं। जंगमलिंग प्राणलिंगासीं। प्रसादलिंग शरणासीं। पूज्य असे निजहस्तें।।३१।। महालिंग तें ऐक्यस्थळासीं। ऐसीं स्थळे साहिं लिंगासीं। पुजिती षट्हस्तें नेमेंसीं। तें निरोपिले तुजलागीं।।३२।।
देव्युवाच-
आचारस्य मुखं देवि गुरुलिंगमुखं तथा।
शिवलिंगमुखं चैव चरलिंगमुखं च किम्।।१३।।
प्रसादस्य मुखं किं वा महालिंगमुखं तथा।
इदं सर्वं न जानामि कथयस्व महेश्वर।।१४।।
गिरिजा म्हणे शंकरासीं। कोण मुख आचारलिंगासीं। मुख कोण ते गुरुलिंगासीं। शिवलिंगां कोण पैं।।३३।। चर म्हणती जंगमासीं। कोण मुख असे त्या लिंगासीं। आणिक त्या लिंगस्थितीसीं। निरोपावें।।३४।। प्रसादी आणि महालिंगासीं। मुखें किती निश्चयेसी। किती किती असती कवणासीं। वेगळाली सांगा मज।।३५।।
शिव उवाच-
ज्ञानलिंगमुखं पंच आचारदिकमुच्यते।
षडविधानां तु लिंगानां मुखानि क्रमश: श्रुणु।।१५।।
शंकर म्हणे गिरिजेसीं। पांच पांच मुखें एकएकां लिंगासीं। हें षडलिंग येरयेरासीं। मुखें जाणिजें।।३६।। महालिंग प्रसादलिंग दोन। जंगमलिंग आणि शिवलिंग चार जाण। पांचवें गुरुलिंग नेमून। हीं पांच मुखें आचारलिंगासीं।।३७।।
जंगमं लिंगमाचारं ज्ञानलिंगं प्रसादकम्।
शिवलिंगसमायुक्तं इत्येतद् गुरुलक्षणम्।।१६।।
महालिंग प्रसादलिंग जंगमलिंग। शिवलिंग आणि आचारलिंग। हीं पंचलिंगें चांग। मुखें गुरुलिंगासीं।।३८।।
महालिंगप्रसादं च जंगमाचारमेव च ।
गुरुलिंगमुखं पंच शिवलिंगस्य निश्चितम्।।१७।।
महालिंग प्रसादलिंग। जंगमलिंग गुरुलिंग आचारलिंग। हें पांच शिवलिंगासीं चांग। मुखें शोभती।।३९।।
आचारं ज्ञानलिंगं च गुरुलिंगप्रसादकम् ।
शिवलिंगमुखं पंच चरलिंगस्य तत्त्वत:।।१८।।
महालिंग प्रसादलिंग जाण। शिवलिंग गुरुलिंग गहन। आचारलिंगादि पंच नेमून। मुखें चरलिंगासीं।।४०।।
जंगमं शिवलिंगं च आचारं गुरुज्ञानकम्।
एतत् पंचसमायुक्तं प्रसादं लिंगलक्षणम्।।१९।।
महालिंग-आचारलिंग जाणिजें। शिव-गुरु-जंगमलिंग जें। हीं त्याचीं मुखें बोलिजें। प्रसादलिंगासीं पैं।।४१।।
जंगमं च शिवाचारं गुरुलिंगं प्रसादकम्।
महालिंगस्य एतानि मुखानि मुक्तिदानि तु।।२०।।
आचारलिंग-शिवलिंग-गुरुलिंग जाण। जंगमलिंग-प्रसादलिंग नेमून। हीं महालिंगासीं प्रमाण। पांच मुखें बोलिजें।।४२।। हें षडलिंग येरयेराचीं मुखें। तुज निरोपिली भक्तिप्रेमसुखें। ऐकोनि सुख जाहलें निकें। पार्वतीदेवीसीं।।४३।। म्हणे अजि भाग्य उदयां आलें। जें बहुकाळ होतें लोपलें। तें स्वामीनें बोधिलें। कृपा करोनि मज।।४४।। आजि माझ्या दैवां नाहीं पार। जें स्वमुखें निरोपितसा दातार। आतां कायसा दरार। जन्ममृत्यूचा।।४५।। जन्ममृत्यु येथ केवढीयाचें। कर्तव्य पुसिलें यमकाळाचें। नाम नाहींच संसाराचें। ऐसें केलें कृपाळुत्वें।।४६।। जें जें करितसा निरोपण। तेणें शिवाचार होय संपन्न। जें सत्यशरण शिवाचारासीं पावन। त्याचें हृदयींचें गुज हें।।४७।। जे नर करिती शिवधर्म-आचरण। तयाचें तुटें जन्ममरण। संसाराचें नुरें कारण। शिवपदां योग्य तो।।४८।। जन्ममृत्यूचा दरारा। अशैवालागीं निर्धारा। नेमिले असे यमकिंकरा। शिक्षा द्यावयालागीं।।४९।। वीरशैवाचें मुखीं शिवनाम। वीरशैवां अंग लिंग सम। त्याचे सूक्ष्म धर्म नेम। न कळे इतरांप्रति।।५०।। ते करिती शिवागम श्रवण। तेणें शिवाचार होय संपन्न। स्त्रीपुत्रसेवकांदि जाण। होती निपुण शिवधर्मीं।।५१।। ऐसा शिवाचार जाण। तो ऐकतां परमपावन। जो वर्ते शिवाचारें पूर्ण। उद्धरून जाय तो।।५२।। वीरशैवधर्म परम कठिण। तो न जाणावा इतरासमान। क्रिया शुद्ध परमपावन। असे जाण लिंगधारी।।५३।। लिंगपूजा हाचि नित्य नेम। भक्तिभावें तेचि करी सप्रेम। गुरु लिंग आणि जंगम। त्यातें भजे आवडी।।५४।। पंच शिवलिंगांपासोन। पंचाचार झाले निर्माण। ती लिंगांगी जाणती खूण। इतरां न कळें तत्त्व पैं।।५५।। परि लिंगपुराणाचे ठायीं। रुद्रसृष्टीचें मर्म पाही। उल्लेखिलें असें लवलाही। निजभक्तांकारणें।।५६।। ऐसा शिवाचार जाण। ऐकतां परम पावन। शिवाचारें वर्ततां संपूर्ण। उद्धरता होय जगां।।५७।। मी एकली होईन पावन। त्याचें आश्चर्य स्वामी कोण। परि शिवाचार संपूर्ण। उद्धरता होय।।५८।। मज पुसावया हेंचि कारण। जें मी उद्धरे आणि जग होय पावन। म्हणोनि आणिक प्रेमें प्रश्न। करिती झाली जगदंबा।।५९।।
देव्युवाच-
पंचभूतमयो देह: केन रूपेण चार्पण:।
कस्मिन् लिंगे भवेत् स्पष्टं कथयस्व महेश्वर।।२१।।
गिरिजा म्हणे शंकराप्रति। हे पंचभौतिक शरीर अर्पिती। कोण्या लिंगीं कोण तत्त्व निवेदिती। तें निरोपा स्वामी।।६०।।
शिव उवाच-
आचारस्यार्पिता पृथ्वी गुरुलिंगार्पितं पय:।
शिवलिंगार्पितं तेजो वायुश्च जंगमार्पित:।।२२।।
प्रसादार्पितमाकाशं प्रणवश्च ज्ञानार्पित:।
एतदर्पणसद्भावं दुर्लभं श्रुणु पार्वति।।२३।।
शंभु म्हणे देवी ऐक मात। आचारलिंगासीं पृथ्वी अर्पित। गुरुलिंगां आप निभ्रांत। शिवलिंगीं तेज तें।।६१।। वायु जंगमलिंगीं अर्पण। आकाश प्रसादलिंगीं निवेदन। महालिंगां अर्पिती जाण। प्रणव तो ॐकार।।६२।। ऐसे षडलिंगां षड्तत्त्व अर्पण। याचा भेद जाणे तो ज्ञानिया पूर्ण। त्याचे आम्ही वंदूं चरण। सत्य सत्य वो देवी।।६३।।
विषया: पंचभोगा ये पंचेंद्रियसमन्विता:।
पंचाक्षरे पंचवक्त्रे सद्भावेन समर्पिता:।।२४।।
शब्दस्पर्शरूपरसं गंधश्चापि हि पंचम:।
एतेषामर्पणं नित्यं निष्कामो मुक्तिभाक् नर:।।२५।।
पंचविषयादि भोग जे जे। ते पंचाक्षरी अर्पण कीजें। पंचेद्रियांद्वारें समर्पिजें। पंचलिंगामुखीं।।६४।। पांच इंद्रियेद्वारे पांच विषयांसीं। अर्पी प्रणव सहाव्या लिंगासीं। तेंचि लाधले मुक्तिपदासीं। परि ते दुर्लभ वो देवी।।६५।।
एवं पंचादिकं चैव पंचवक्त्रे समर्पणम् ।
जानाति निर्मलो बुद्धस्तस्य हस्ते शिवं पदम्।।२६।।
एवं पंचविषयादि भोग। पंचमुखीं समर्पिजे चांग। तो ज्ञानिया जाणिजे अभंग। शिवपद प्राप्त तयासी।।६६।। ऐकोन गिरिजे संतोष झाला। अर्पणे प्राप्त होय शिवपदाला। तरी तेंचि पुसे शंकराला। अर्पण ते कैसे।।६७।।
देव्युवाच-
कं लिंगमर्पयेत् को वा विषय: केन हेतुना।
तत्सर्वं क्रमशो देव ब्रूहि मे कृपया शिव।।२७।।
पार्वती पुसे कैलासपति। कोण विषय कोण्या लिंगाप्रति। अर्पिजें कवणे स्थिति। ते निरोपा परमेश्वरा।।६८।।
शिव उवाच-
शब्दं प्रसादलिंगाय चरलिंगाय स्पर्शनम् ।
शिवलिंगाय रूपं तद् गुरुलिंगाय वै रसम्।।२८।।
गंधमाचारलिंगाय महालिंगाय ओं तत:।
एतन्मुखपरिज्ञानं दुर्लभं श्रुणु पार्वति।।२९।।
परमेश्वर म्हणे उमेस। शब्दविषय प्रसादलिंगास। अर्पिजे स्पर्श जंगमलिंगास। शिवलिंगास रूप पैं।।६९।। गुरुलिंगासीं रस। आचारलिंगां सुगंध सुरस। प्रणव तो महालिंगास। समर्पिजे आदरें।।७०।। ऐसे समर्पी जो जाणोनि खूण। तो दुर्लभ वो सत्यशरण। त्याचे अखंड आम्हां ध्यान। त्याचे चरण वंदूं आम्ही।।७१।। ऐसेचि नेमें चालतां। तरी सायुज्य येतसे हातां। दुर्लभ असे आचरतां। वीरव्रत लिंगधारीचे।।७२।।
यदिंद्रियमुखज्ञानं तदिंद्रियमुखेन च।
अन्येंद्रियेण भोक्तव्यं न भवेत् कर्मभेदत:।।३०।।
येथें ज्ञानिया म्हणसी कां स्तविजे। तो योग्यायोग्य जाणे वोजें। जेथीचे भोक्तव्य तेथेंचि देईजें। म्हणोनि धन्य तो।।७३।। आन इंद्रियांचे विषय आनासी। भोक्तव्य नव्हे ते तयासी। ज्याचे विषय ते त्याने त्यासीं। सुखें भोगिजें।।७४।। जैसे अन्य स्थानींचे भूषण। अन्य स्थानीं लेतां अमान्य। स्थानींचे स्थानी शोभायमान। दिसे साजिरे।।७५।। पाहतां तरी एकचि भोक्ता। दुसरा येथ नाहीं तत्त्वतां। परि इंद्रियद्वारे भोक्तव्यतां। भिन्नत्वें भोगी।।७६।। भिन्न भिन्न पदार्थ भोगी। परि ऐक्यत्वें एकाचि अंगी। विषय अनारिसे परि निजांगी। भोक्ता तो एकचि।।७७।। म्हणोनि जेथींचे विषय तेथेंचि भोगिजें। तेथें गुरुचि भोक्ता जाणिजें। म्हणोनि येरायेरां न लाविजें। लावितां विच्छिन्न पडे।।७८।। पुष्पाचा परिमळ नेत्रीं काय घेईजें। मुक्ताफळ चरणीं काय परीक्षिजें। आणि मुखें ऐकिजें। शब्द तो काई।।७९।। काय श्रोत्रें बोलिजें। की हस्तें चालिजें। काय चरणें कीजें। भोजनक्रिया।।८०।। म्हणोन येराची क्रिया येरासीं। न करवे करितां सायासीं। ज्याचें त्यानेंचि कीजें भोक्तां सर्वांसीं। श्रीगुरुनाथ एकचि तो।।८१।।
इंद्रियादिगतं किंचिद्यत्सुखं तत्तुपावनम्।
तत्प्रसादं च भोक्तव्यं तदिंद्रियमुखेन च।।३१।।
इंद्रियद्वारें किंचिन्मात्र सुख। होय ते गुरुचि भोक्ता देख। तो प्रसाद मानिजें विशेख। ऐसा नेम असे।।८२।। परि लिंगमुखें जें होय अर्पण। तोचि प्रसाद बोलिजें नेमून। लिंगमुखेंविण जें होय निवेदन। तो प्रसाद नोव्हे वो देवी।।८३।।
देव्युवाच-
मिश्रितस्य स्वरूपं मे कथयस्व महेश्वर।
परस्परं मिश्रभावं न जानामि सदाशिव।।३२।।
पार्वती म्हणे ईश्वरासीं। ही विषये मिश्रित ती कैसी। कोण विषय कोणासीं। मिश्रित असती।।८४।।
शिव उवाच-
शब्दं पंचसमायुक्तं स्पर्शं पंचसमन्वितम्।
रूपं पंचसमाख्यातं रस: पंचसमन्वित:।।३३।।
गंध: पंचसमायुक्त: मिश्रितस्तत्त्वत: श्रुणु।
यथा द्रव्यमुखं ज्ञात्वा अर्पणं तत्तु दुर्लभम्।।३४।।
शंकर म्हणे देवीसीं। एक एक मिश्रित पांचासीं। ऐसें मिश्रित येरयेरांसीं। असती वो देवी।।८५।। हें मिश्रित मुखें जाणोन। जो करी आत्मार्पण। तो ज्ञानिया दुर्लभ जाण। सत्यशरण वो देवी।।८६।।
देव्युवाच-
कानींद्रियाणि केभ्यश्च लिंगेभ्य: क्रमतोऽर्पयेत्।
निर्णयं श्रोतुमिच्छामि सुस्पष्टं भगवन् वद।।३५।।
पार्वती म्हणे शंकरासीं। कोण इंद्रिय कोण लिंगासीं। अर्पित निरोपा भेदासीं। कैसा निर्णयो देवा।।८७।।
शिव उवाच-
श्रोत्रेंद्रियसमायुक्तं प्रसादं लिंगमेव च।
त्वगिंद्रियमुखं ज्ञेयं जंगमस्य तथैव हि।।३६।।
नेत्रेंद्रियमुखं तस्य शिवलिंगस्य तन्महत्।
हृदिंद्रिय मुखं चैव महालिंगस्य वै तथा।।३७।।
हे पार्वती ऐक वोजें। श्रोत्रेंद्रिय प्रसादलिंग बोलिजें। त्वगिंद्रिय जंगम जाणिजें। चक्षु शिवलिंग तें।।८८।। जिव्हेसीं गुरुलिंग जाणिजें। घ्राणासीं आचारलिंग ओळखिजें। मानस हृदयलिंग जाणिजें। तें महालिंग असे।।८९।। षडलिंग षडिंद्रियमुखें। षडविषय भोगिती सुखें। षट्स्थळासीं भोक्तव्य निकें। प्रसादमुखें तेवि।।९०।।
हृदिंद्रियमुखं ज्ञात्वा ऐक्यमेव प्रसादवान्।
श्रोत्रेंद्रियमुखं ज्ञात्वा शरणस्तुप्रसादभाक्।।३८।।
त्वqगद्रियमुखं ज्ञात्वा प्राणलिंगी प्रसादवान्।
नेत्रेंद्रियमुखं ज्ञात्वा प्रसादी स्यात् प्रसादभाक्।।३९।।
या षड्इंद्रियामुखेंकरोन। प्रसादभोग जाणे तो प्रसादिया पूर्ण। मानस इंद्रियाचें मुखें जाणें तो जाण। ऐक्यस्थळ बोलिजें।।९१।। श्रोत्रमुखें जाणोन शब्दातें घेणें। तया शरणस्थळ-प्रसादी म्हणणें। त्वगिंद्रियमुखीं स्पर्श सेवणें। तो प्राणलिंगि-प्रसादी बोलिजें।।९२।। चक्षुरिंद्रियमुखें जाणोनि रूप घेणें। तया प्रसादिस्थळ-प्रसादी म्हणणें। ही खूण सत्यशरणचि जाणे। जो शिवाचारासीं अग्रगणीं।।९३।।
जिह्वेेंद्रियमुखं ज्ञात्वा तत्प्रसादी महेश्वर:।
घ्राणेंद्रियमुखं ज्ञात्वा तथा भक्त:प्रसादवान्।।४०।।
जिव्हेंद्रियमुखें जाणोनि रस घेणें। तया माहेश्वरस्थळ-प्रसादी म्हणणें। घ्राणमुखें जाणोन गंध सेवणें। तया भक्तस्थळ-प्रसादी बोलिजें।।९४।। आतां षट्स्थळ षडलिंगासीं। कोण्या अंगें कोण्या हस्तें कोण विषयासीं। कोण तृप्ति करी कोण्या लिंगासीं। ही खूण पुसो म्हणे देवी।।९५।। ऐसा पार्वतीप्रति शंकर। भक्ति ज्ञान सांगे आचार। जें ऐकतां वीरशैव एकाग्र। प्राणी पावन होती पैं।।९६।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। शिवगौरीसंवादीं वर्तत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृत्य मन्मथ।।९७।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे षडलिंगनिर्णयनिरूपणं नाम त्रयोदशोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक ४०, ओव्या ९७.
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अक्षररचना : सौ. उषा पसारकर, सोलापूर
Excellent! Jay Sadguru!Jay Shiv Shambho!
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