संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य
अध्याय चौदावा
।। श्रीगुरुभ्यो नम: ।।
मागील अध्यायाचें अंतीं। पार्वती प्रश्न करी शंकराप्रति। परम संतोषोनि कैलासपति। उपदेश करीतसे।।१।।
देव्युवाच-
स्थलानामंगहस्ताश्च लिंगानि च क्रमेण वै।
अर्पणं तु तथा ब्रूहि प्रकारेण च केन वा।।१।।
देवी म्हणे भक्तस्थळादि करोन। कोण्या लिंगां कोण स्थळ करी पूजन। कोण्या अंगें कोण्या हस्तें कोण मुखेकरोन। कोण विषय अर्पिजें।।२।। ही अर्पणविधि मजलागोन। षडलिंगाचें निरोपावें पूजन। म्हणोनिया वंदिलें चरण। कृपा कीजें स्वामिया।।३।।
शिव उवाच-
चित्तहस्तेन भूम्यंगे भक्तस्याचारलिंगके।
घ्राणे च तन्मुखे गंधं अर्पितं तृप्तिभाग्भवेत्।।२।।
शंकर म्हणे पार्वतीसीं। आधी ऐक भक्तस्थळासीं। तो पुजी कोण्या लिंगासीं। कोण्या पदार्थें।।४।। भूमि-अंगें सुचित्तहस्तें। घ्राणमुखें गंधविषयातें। तृप्त करी आचारलिंगातें। तें भक्तस्थळ जाणिजें।।५।।
माहेश्वरो जलांगे च बुद्धिहस्तेन सद्गुरु:।
जिह्वामुखे रसतत्त्वं अर्पितं तृप्तिभाग्भवेत्।।३।।
जळांगें सुबुद्धिहस्तें। जिव्हामुखें रसविषयातें। तृप्त करी गुरुलिंगातें। तें माहेश्वरस्थळ जाणिजें।।६।।
निरहंकारहस्तेन अनलांगे प्रसादिक:।
शिवलिंगमुखे नेत्रे अर्पितं रूपभोगवान्।।४।।
अनलांगेें निरहंकारहस्तें। नेत्रमुखें रूपविषयातें। तृप्त करी शिवलिंगातें। तो प्रसादी म्हणावा।।७।।
मनोहस्तेन वाय्वंगे प्राणलिंगी तथैव च।
जंगमे त्वङ्मुखेनैव अर्पितं स्पर्शभोगवान्।।५।।
वायु-अंगें सुमनहस्तें। त्वगिंद्रियमुखें स्पर्शविषयातें। तृप्त करी जंगमलिंगातें। तें प्राणलिंगिस्थळ जाणिजें।।८।।
ज्ञानहस्तेन शब्दश्च व्योमांगे तत्प्रसादकम्।
श्रोत्रं च तन्मुखेनैव अर्पितं शब्दभोगवान्।।६।।
व्योमांगें ज्ञानहस्तें। श्रोत्रमुखें शब्दविषयातें। अर्पित करी प्रसादलिंगातें। तें शरणस्थळ जाणिजें।।९।।
आत्मांगे भावहस्तेन ऐक्यं चापि महात्मके ।
प्रणवं हृन्मुखेनैव पदार्थं तृप्तिभाग्भवेत्।।७।।
आत्मांगें भावहस्तें। मानसमुखें प्रणवविषयातें। अर्पण करी महालिंगातें। तें ऐक्यस्थळ जाणिजें।।१०।। ऐसें षडलिंग षडंगेकुन। जाणोनि जो करी आत्मार्पण। तोचि सत्य शिवगण। सत्यशरण बोलिजें।।११।। ऐसिया कळा जाणोन। जो करी सद्भावें पूजन। तो सर्व शिवाचारासीं संपन्न। सत्यशरण वो देवी।।१२।। त्याचें दर्शन स्पर्शन संभाषण। जयासीं घडें भाग्याकुन। तरी निवारे जन्ममरण। कळिकाळ शरण तया।।१३।। तो जयाकडे कृपेनें पाहे। तयासीं सृष्टी सुखाची होय। तो म्हणे मोक्षासीं जेथें राहे। तेथेंचि राहे त्याचे बोलां।।१४।। त्याच्या दासी चारी मुक्ति जाण। अष्ट महासिद्धि येती शरण। परि तो न पाहे तयालागोन। निराश म्हणोनिया।।१५।। ऐसे जे सत्यशरण। तेचि आचारासीं अग्रगण। शिवाचारासीं संपन्न। मुकुटमणि आमुचे।।१६।। तयाचे प्रसादेकरोन। शिवाचार होय पावन। मजहि दैवतपण। तयाचेनि वो देवी।।१७।। मी तरी निर्गुण निराकार। भक्तिप्रेमालागीं झालो साकार। भक्त माझें हृदयींचें जिव्हार। त्याचें साचार ध्यान मज।।१८।। त्याचें सदा मज चिंतन। त्याचें आवडें मज स्मरण। मी न विसंबे एक क्षण। तोहि अर्धपळ न विसंबे।।१९।। तो आत्मा माझा मी त्याचे शरीर। तया मज नाहीं भेदाकार। जैसी गोडी आणि साखर। अभिन्न असे।।२०।। ऐसें ऐकोन पार्वती। महा आनंद पावली चित्तीं। मग आणिक कांहीं विनंती। करिती झाली तें काळीं।।२१।।
देव्युवाच-
चित्तादिसर्वहस्तांना क्रमोत्पत्ति: स्वभावत:।
श्रोतुमिच्छामि स्पष्टं तद् ब्रूहि मे परमेश्वर।।८।।
पार्वती म्हणे शंकरासीं। षड्हस्ताची उत्पत्ति कैसी। कोणापासोन कोणा हस्तासीं। निरोपा स्वामी।।२२।।
शिव उवाच-
वस्तुनो भावहस्तश्च तस्मात् ज्ञानं ततो मन:।
मनासोऽहंकृतिर्जाताहंकृते: बुद्धिरेव च।।९।।
बुद्धेश्चित्तं समुत्पन्नं क्रमशो लघुभावत:।
एतद् हस्तस्य विज्ञानं अतिसूक्ष्मं वरानने।।१०।।
शंकर म्हणे पार्वतीला। वस्तूपासोनि भावहस्त झाला। भावापासोन उत्पन्नला। ज्ञानहस्त तो।।२३।। ज्ञानहस्तापासोन सुमनहस्त झाला। सुमनहस्तीं निरहंकारहस्त झाला। निरहंकारीं सुबुद्धि उत्पन्नला। परंपरेनें।।२४।। एवं षड्हस्ताची उत्पत्ति। निरोपिली असे तुज पार्वती। भावें धरावा सुचित्तीं। निर्णयो हाचि।।२५।।
देव्युवाच-
चित्तादिसर्वहस्तैस्तु षडलिंगानां क्रमेण वै।
कथं वा क्रियते पूजा तद् ब्रूहि परमेश्वर।।११।।
गिरिजेनें शंभूसीं पुसिलें। चित्तहस्तें कोण लिंग अवधारिलें। येणेपरी षडलिंग पुजिलें। कोण लिंग कोण्या हस्तें।।२६।।
शिव उवाच-
चित्तस्याचारलिंगं स्याद् गुरुलिंगं सुबुद्धिन:।
शिवलिंगनिरहंकारो मनोहस्तेन जंगमम्।।१२।।
प्रसादं ज्ञानहस्तेन महालिंगस्य भावकम्।
उति गुह्यतमं ज्ञानं सुसूक्ष्मं श्रुणु पार्वति।।१३।।
शिव म्हणे वो गिरिजे। चित्तहस्तें आचारलिंग अवधारिजें। सुबुद्धिहस्तें गुरुलिंग पुजिजें। पुढारी ऐक।।२७।। शिवलिंग पुजिजें निरहंकारहस्तें। सुमनहस्तें जंगमलिंगातें। ज्ञानहस्तें प्रसादलिंगातें। अवधारिजें।।२८।। भावहस्त महालिंगासीं। तेणें अवधारिजें तयासीं। एवं षड्हस्तें षडलिंगांसीं। अवधारण निरोपिलें।।२९।। हें अंतर्गुह्य माझें ज्ञान। अत्यंत सूक्ष्म प्रमाण। तें तुज केलें निरोपण। तूं भक्तराज म्हणोनिया।।३०।। भक्ति-विश्वासेंविण। हें श्रवणीं न पडें निरोपण। तुझें प्रेम मज म्हणोन। बोधीतसे तुजला हें।।३१।।
देव्युवाच-
किं मिश्रं चित्तबुद्धिश्च किमंहकारमिश्रितम्।
किं मिश्रं ज्ञानभावश्च ब्रूहि मे परमेश्वर।।१४।।
हे षड्हस्त षड्स्थळांसीं। मिश्रित अससी कोण्या पदार्थांसीं। ते निरोपा म्हणे शिवासीं। पार्वती देवी।।३२।।
शिव उवाच-
भाव: पंचसमायुक्तो ज्ञानपंचसमन्वितम्।
मन: पंचसमायुक्तमहंकारस्तथैव च।।१५।।
बुद्धि: पंचसमायुक्ता चित्तं पंचसमन्वितम्।
एकैकं पंचभिर्युक्तं सुसूक्ष्मं कमलानने।।१६।।
ईश्वर म्हणे गिरिजेस। एकेक हस्त पांचापांचास। मिश्रित असे ते सावकाश। निरोपुं ऐक तें।।३३।। ऐक्यस्थळाचा जो भावहस्त। तो पांचाशीं असे मिश्रित। शरणास जो सुचित्तहस्त। तोहि मिश्रित पांचासीं।।३४।। प्राणलिंग अहंकारहस्त। तोहि पांचासीं असे मिश्रित। तैसा प्रसादियाचा निरहंकारहस्त। तो मिश्रित पांचासीं।।३५।। माहेश्वरां सुबुद्धिहस्त। तो पांचासीं असे मिश्रित। भक्तास जो सुचित्तहस्त। तोहि मिश्रित पांचासीं।।३६।। एवं हस्त येरायेरांसीं। मिश्रित असती पांची पांचासीं। ऐकोनि संतोष झाला गिरिजेसीं। मग आणिक प्रश्न करी।।३७।।
देव्युवाच-
सहभाजनस्य के भेदा: का व्याप्ति: परिमाणत:।
एतत् सर्वं समासेन ब्रूहि मे परमेश्वर।।१७।।
गिरिजा म्हणे शंकरासीं। कोण लिंग कोण्या द्वारासीं। कोण्या हस्तें कोण विषयासीं। भोगीत तें निरोपावें स्वामी।।३८।।
शिव उवाच-
घ्राणेनाचारलिंगं तु गंधं गृह्णाति यत् सदा।
जिह्वया गुरुलिंगं हि रसं गृह्णाति तत्त्वत:।।१८।।
चक्षुषा शिवलिंगं तद्रूपं गृह्णाति यत्तथा।
त्वचा जंगमलिंगं च स्पर्शं तदनुभूयते।।१९।।
भक्त भूमि-अंगें सुचित्तहस्तें। घ्राणद्वारें गंधविषयातें। आचारलिंग अर्पणातें। भोक्तव्य होय।।३९।। माहेश्वर आपांगें सुबुद्धिहस्तें। जिव्हाद्वारें रसविषयातें। गुरुलिंग अर्पणातें। भोक्तव्य होय।।४०।। प्रसादी तेजांगें निरहंकारहस्तें। चक्षुद्वारें रूप महाविषयातें। शिवलिंग अर्पणातें। भोक्तव्य होय।।४१।। प्राणलिंगी वायु-अंगें सुमनहस्तें। त्वचाद्वारें स्पर्शविषयातें। जंगमलिंगीं अर्पणातें। भोक्तव्य होय।।४२।।
श्रोत्रेण शब्दो गृह्णाति शरण्यो लिंगमूर्तिक:।
हृदयेन तु महालिंग ओंकारं चापि गृह्यते।।२०।।
शरण नभांगें ज्ञानहस्तें। श्रोत्रद्वारें शब्दविषयातें। प्रसादलिंगीं अर्पणातें। भोक्तव्य होय।।४३।। ऐक्य चिदंगें भावहस्ते। हृदयद्वारें प्रणवविषयातें। महालिंग अर्पणातें। भोक्तव्य होय।।४४।। ऐसें पांच लिंगांचें भोक्तेपण। तुज निरोपिलें विवरोन। आतां महालिंगाचें भोक्तेपण। लक्षण निरोपुं ऐक गिरिजे।।४५।।
उत्येवमाश्रयेणैव महालिंगं सुबुद्धिमान्।
गंधाद्यानंदपर्यंतमनुराददति सर्वदा।।२१।।
ऐसें इंद्रियद्वारें विषय जाण। षडलिंगीं जें जें अर्पण। तें तें भक्तिं महालिंगीं अर्पण। सर्व तोचि म्हणोनि।।४६।। षडलिंगांचा जो विस्तार। तो स्वयें महालिंग साचार। म्हणोनि सर्वभोक्ता परात्पर। तोचि बोलिला असे।।४७।।
लिंगदृष्ट्या दर्शनं स्याल्लिंगहस्तेन स्पर्शनम्।
लिंगश्रोत्रेण श्रोतव्यं लिंगजिह्वारसात्मवान्।।२२।।
लिंगदृष्टीं दृष्टी देखत। लिंगाचे हस्तें देत घेत। लिंगाचे श्रोत्रें ऐकत। म्हणोनि महालिंग भोक्ता।।४८।। लिंगजिव्हें रस चाखत। लिंगाविण कांहीं न चाले पदार्थ। आणिक कांहीं होत जात। ते लिंगाचिये सत्तें।।४९।।
लिंगघ्राणेन घ्राणं तु लिंगेन पदते सह।
लिंगमनुगतं नित्यं येन तत्सहभाजनम्।।२३।।
लिंगाचिये घ्राणें घ्राण। गंधविषय भोगी आपण। लिंगाचें पद ते चरण चालन। लिंगाविण न चले कांहीं।।५०।। लिंगें बोलविल्या वेदु बोले। लिंगें चालविल्या सूर्य चाले। लिंगें हालविल्या वायु हाले। सत्तामात्रें।।५१।। लिंगें रचविल्या ब्रह्मांड रचे। लिंगें खचविल्या सर्व खचे। स्थिति नाद बिंदु कारण रचे। त्याचिया सत्तें।।५२।। क्षितीनें भूतें वाहावीं। पर्वतीं बैसका पाडावी। सागरें सीमा नुल्लंघावी। ही आज्ञा लिंगाची।।५३।। उत्पत्ति करिजें ब्रह्मयानें। प्रतिपाळ कीजें विष्णूनें। संहार कीजें रुद्रानें। सत्तामात्रें लिंगाचिया।।५४।। लिंगापासोन शक्ति झाली। तेव्हां पृथ्वी स्थितीत आली। ब्रह्मा-विष्णु हीं बाळें व्याली। शक्तिसामर्थ्य अद्भुत।।५५।। आतां एक एक काय सांगावें। सर्वचि चाले लिंगसत्ताप्रभावें। एवं महालिंग कर्ता भोक्ता स्वभावें। परि अकर्तृत्व न मोडें।।५६।। जैसे भानूचे सत्तें सर्व चालत। परि तो न करिता करवीत। करवोनि निराळा राहत। त्यापरी अकर्ता तो।।५७।। जैसा कुलालचक्राखालतां। खुंटा असे अकर्ता। सर्व घट होती त्याचिया सत्तां। परि तो उगाचि असे।।५८।। ऐसा महालिंग सर्व भोक्ता कर्ता। चराचर चाले तयाचिया सत्ता। परि तो न लिंपे सर्वथा। अकर्तेपणेचि असे।।५९।। तोचि होय महालिंग। स्वयंभू न चळे अभंग। कर्ताहर्ता होवोन असंग। शक्तिसामर्थ्य तया अंगीं।।६०।। कर्ता असोनि अकर्ता। त्याची असे सर्व सत्ता। तेथें अहंकारें गर्वें वर्ततां। विघ्न प्राप्त तयासीं।।६१।। सर्वत्र लिंगरूपी जाण। तें मी स्वयेंचि झालो आपण। लिंगां मज भिन्नपण। नसे जाण पार्वती।।६२।। त्या लिंगाचे पूर्ण भक्त। ते मला असती आप्त। त्यावेगळा दुजा पुनीत। न मानी मी देवो।।६३।। आपणां तया भेद नाहीं। जैसी भूषणें सुवर्णाठायीं। भानु-किरणां भेद कांहीं। नसे जाण सत्य पैं।।६४।। तंतु आणि वस्त्रास। मृत्तिका आणि घटास। आकाश तैसेचि शब्दास। भेद नाहीं जाण पां।।६५।। तैसा मी लिंगरूपी भक्तहृदयीं। वसे सदा निरालंब तत्त्वाठायीं। लिंगनिष्ठें करोनि कैलासालयीं। अंतीं येतो धांवोनिया।।६६।।
सर्वेंद्रियाणां द्वारैश्च महालिंगेन भुज्यते।
उति यस्य स्थिरा बुद्धि: सहभाज: स उच्चते।।२४।।
सर्व इंद्रियद्वारें भोक्ता। महालिंगचि तत्त्वतां। ऐसा जाणे बुद्धिवंत दाता। तोचि जंगम तोचि भक्त।।६७।। करोनि अकर्ता ही खूण। कळली जया संपूर्ण। तो लिंगचि स्वयें होवोन। असे तोचि जंगम तोचि भक्त।।६८।।
दृष्टाद् दृष्टि: श्रुतात् श्रुतं घ्रातात्घ्रातं तथैव च।
स्पृष्टात्स्पृष्टं तु जानीयाद्रसनाद्रसनं तथा।।२५।।
भुक्तात् भुक्तमाख्यातं तृप्ति चैव तथैव हि।
एक: प्राण: समाख्यात: सदैव सहवर्तिनाम्।।२६।।
दृष्टीनें देखे तें तें जाण। कानीं ऐकें तें तें आपण। घ्राणीं परिमळ घेते जाण कोण। तया लिंगाविना।।६९।। जिव्हेसीं रस घेत। स्पर्शासीं स्पर्शत। तयाविण दुजा नितांत। कोण तो विचारी पां।।७०।। प्रणवादि विषयीं तृप्त होत। तोचि जाणे समस्त। तया लिंगाविण मात। येथ बोलोचि नये।।७१।। ऐसा सर्वत्र लिंग व्यापक जाण। तेंचि तें स्वयें झालें आपण। आपणियां तया भिन्नपण। न देखती कदा।।७२।। आपणियां तया भेद नाहीं। जैसे भूषण सुवर्णाचे ठायीं। भानुकिरणां भेद नाहीं। अंतरीं असें एकचि।।७३।। अथवा तंतु आणि विस्तारां। मृत्तिका आणि धरां। अवकाश आणि अंबरां। भेदु जैसा नाहीं।।७४।। तैसा लिंग आपणियां। अभेद वर्ते निर्माया। तोचि शरण लिंगिया। भक्त अथवा जंगम।।७५।। तरी लिंगस्थिति वर्तती जे। तेणें लिंगचि आपण होईजें। ही स्थिति ऐक वो गिरिजे। निरोपुं तुज।।७६।। लिंग उगेचि असें जैसें। आपणहि उगेचि असिजें तैसें। लिंगासीं चळणवळण नसे। आपण निश्चळ तैसें व्हावें।।७७।। लिंग शांत असे। आपणहि तैसें विशेषें। लिंगासीं बडबड नसे। आपणहि तैसाचि।।७८।। लिंग निराश सर्वारहित। आपणहि निराश निश्चित। लिंग निराभिमानी निर्हेत। आपणहि तैसाचि।।७९।। कोणी म्हणतील आकार आहे। तैसा जरी हाहि होये। तरी जडत्व आलें पाहे। उभय वर्गां।।८०।। ऐसें जें बोलती। तें अज्ञान म्हणिजेती। कां म्हणसी तरी लिंग आकार भाविती। म्हणोनिया।।८१।। जें पातळ तूप तें थिजलें। तरी काय तुपपणा मुकलें। तैसें निराकार आकारलें। लिंग होवोनिया।।८२।। यालागीं लिंग निराकारचि असे। तया आकार प्रकार नसे। दिसे तरी कल्पिला असे। भक्तिसिद्धीसाठीं कीं।।८३।। एवं भक्त आणि देव। उभयां नसे भिन्न भाव। तो भक्तश्रेष्ठ सावेव। लिंग होवोनि ठेला।।८४।। म्हणोनि येरयेरांचे प्राण। एक होवोनि ठेले जाण। लिंग भक्त मिळोन। उभय वर्ग एकचि।।८५।।
हृदयं हृदयं चैव श्रोत्रं श्रोत्रं च सर्वदा।
स्पर्शनं स्पर्शनं चैव दृष्टिर्दृष्टिस्तथा पुन:।।२७।।
जिह्वा जिह्वेंद्रियं ज्ञेयं घ्राणं तद् घ्राणमेव हि।
एकेव प्राणमाख्यातं लिंगेन सहवर्तिन:।।२८।।
आपुलें निजहृदयास। लिंगाचें हृदय असे सावकाश। आपुलिया श्रोत्रांस। श्रोत्र लिंगाचेचि।।८६।। आपुले त्वगिंद्रियासीं जाण। लिंगाचेनि त्वगिंद्रियपण। आपुले चक्षूसीं नेमून। चक्षुपणा तेहि लिंगाचेनि।।८७।। आपुले जिव्हेसीं। लिंगजिव्हा सावकाशी। आपुल्या घ्राणासीं। घ्राण लिंगाचे।।८८।। आपुलिया वाक्यां वाक्यपण। लिंगवाक्यें असें जाण। पाणींद्रियालागोन। पाणींद्रिय लिंगाचें।।८९।। पाद-इंद्रियां पाद-इंद्रिय जाण। लिंगासीं असती आपण। शिश्नासीं शिश्नपण। लिंगनिष्ठें जाण तें।।९०।। गुदासीं गुदपण। ते लिंगगुदें जाण। एवं दश इंद्रियांसीं प्रमाण। लिंग-इंद्रियाचेनि।।९१।। अंत:करणां अंत:करण। लिंगचि असे जाण। मनासीं मनपण। तेंहि लिंगाचेनि मनें।।९२।। बुद्धीसीं बुद्धि जाण। लिंगाची बुद्धि आपण। आपुलें चित्ताचें चित्त नेमून। लिंगाचें चित्त असें।।९३।। आपुल्या अहंकाराचा अहंकार। आपणचि असे लिंगेश्वर। एवं सर्ववर्तमान सर्वेश्वर। भक्तचि होवोनि वसे।।९४।। यालागीं लिंग-इंद्रियाविण। न चालती भक्त-इंद्रियें जाण। म्हणोनि उभय वर्गी भिन्न। म्हणोचि नये।।९५।। एवं उभयतांसीं मिश्रित जाणिजें। आपण या लिंगीं एकत्व कीजें। येरयेरां प्राण मिश्रित होर्उजें। अभिन्नपणें।।९६।। ऐसें आपण तें लिंग लिंग तें आपण। ऐसा आचरे जंगम अथवा भक्त जाण। त्या नांव बोलिजें सर्ववर्तमान। सत्य सत्य वो गिरिजे।।९७।।
लिंगदेही शिवात्मायं लिंगाचारी न लौकिक:।
सर्वलिंगमयं रूपं लिंगेन सह लक्ष्यते।।२८।।
लिंगीं प्राणी शिवरूप होवोनि। लिंगाचे वर्ते आचरणीं। तो लौकिकासीं न मानी जनीं। लिंगध्यानीं लिंगचि तो।।९८।। जो लिंगरूप देखे दृष्टीं सृष्टी। अनंत ब्रह्मांडें लिंगाचे पोटीं। अध: ऊर्ध्व मध्य शेवटीं। लिंगसंपुटीं सर्व देखे।।९९।। लिंगापोटीं सृष्टी म्हणणे। हेंहि बोलणे अवाच्य जाणणें। सृष्टी आणि लिंग दोनपणें। कशासीं भाविजें।।१००।। आघवा लिंगचि कां न म्हणावा। भेद सांडोनि अभेदचि जाणावा। हा निजभक्ति आपुला ठेवा। जाणोनि वर्तती ते।।१०१।। ते आपणियासहित लिंगचि देखती। लिंगरूपचि सर्व सृष्टी भाविती। शिवस्मरणीं शिवरूप होवोनि असती। तयाप्रति महालिंगी बोलिजें।।१०२।। तया आणि महालिंगासीं। भेद नाहीं उभय वर्गासीं। म्हणोनि तोचि महालिंग सर्वांसीं। सर्वभोक्ता होवोनि असे।।१०३।।
इत्थं सर्वं महालिंगं कर्ताभोक्ता प्रकाशक:।
यो हि भेदो न जानाति प्रसादस्तस्य निष्फल:।।२९।।
ऐसा महालिंगचि एक। सर्वत्र तोचि भोक्ता देख। एकावांचोनि आणिक। दुजा नाहीं कोणी।।१०४।। ही खूण न जाणतां पूजा करी। अधोगति जाय तो अवधारी। त्याचा प्रसाद निर्फळ सुंदरी। चुकला निजसुखासीं।।१०५।। एक नेणोनि पूजा करिती। एक अभिमानें तें न पुसती। एक ते अनुमानेंच आचरती। गुरुमुखेंविण।।१०६।। एक देखादेखी करिती। एक दंभास्तव आचरती। यालागीं दु:खातें पावती। जन्ममृत्यूच्या।।१०७।। म्हणोनि संप्रदायमार्गेविण। जें जें कीजें क्रिया-आचरण। तें तें निर्फळ होय जाण। प्रसादिक क्रिया ते।।१०८।। तैसीच दुजी एक गोष्ट। जो स्वपराक्रमें बलिष्ठ। पुजूं पाहातसे गर्विष्ठ। त्याची पूजा निष्फळ होय।।१०९।। आज हें तुजलागीं रहस्य। सांगतो सद्भक्तिवश। गुरुमुखें अर्चिता विशेष। पुण्य घडें तयासीं।।११०।। जैसी पूजा तैसें भजन। आवडी करी प्रेमेंकरून। आळस न करी रात्रंदिन। नामस्मरण शिवाचें।।१११।। प्रेमें टाळी वाजवून। घोषें अंबर गर्जवून। नाचोनि करी भजन। सद्भक्त माझा तो।।११२।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। शिवगौरीसंवादीं वर्तत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृत्य मन्मथ।।११३।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे षडलिंगनिर्णयनिरूपणं नाम चतुर्दशोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक २९, ओव्या ११३.
अक्षररचना : सौ. उषा पसारकर, सोलापूर
Excellent! Jay Sadguru!Jay Shiv Shambho!
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