Sunday, 22 June 2014

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य अध्याय सोळावा



संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य

अध्याय सोळावा


।। श्रीगुरवे नम:।।
पंचदश अध्यायापर्यंत। कथिलें असें रहस्य अमित। ऐकोनि सद्गदित झालें चित्त। जगदंबेचें तें काळीं।।१।। ऐसा हा शिवधर्म उत्तम। भूतळीं कैसा आला परम। ये विषयीहि प्रश्न सप्रेम। करीतसे पार्वती।।२।।
देव्युवाच-
धर्मस्यास्य महादेव महिमातिशयशालिन:।
प्रादुर्भावो हि भूलोके कथं जातं श्रुणोमि तत्।।१।।
ज्याच्या सेवेनें होती लोक पावन। ऐसा हा शिवधर्म परम गहन। भूमंडळीं कैसा झाला उत्पन्न। तें ऐकूं वाटें मज।।३।। या शिवाचार-धर्माची प्रसिद्धि। कवण्या आचार्यानें केली वृद्धि। तयांचीं नांवें मज निवेदी। कृपा करोनि स्वामिया।।४।।
शिव उवाच-
अत:परं प्रवक्ष्यामि पंचाचार्यसमुद्भव:।
तेषां नामानि स्थानानि सावधानमना श्रुणु।।२।।
शंकर म्हणे अंबेप्रति। तुझा प्रश्न आचार्य-उत्पत्ति। शिवधर्म असे अनादिसिद्ध स्थिति। त्याची उत्पत्ति न वर्णवे।।५।। प्रथम सांगेन आचार्य नाम। पुढें कथीन अवतार ग्राम। हा स्वायंभुवागमीं विस्तारक्रम। असे जाण पार्वती।।६।। रेणुक दारुक एकोराम। पंडित विश्वाराध्य पंचम। या आचार्यांचा महिमा परम। वर्णूं शके कोण।।७।। ऐसे पांची आचार्य शिवाचारमार्गीं। ते पांच झाले चहुयुगीं। त्यासीं आम्हांसीं भिन्नत्व जगीं। नुरेचि देवी।।८।। तेवि ते महंत सत्यशरण। सातशें सत्तर गण। त्याज मजला भिन्नपण। सर्वथा नाहीं।।९।। पांची आचार्य शिवाचारासीं मूळ। तयापासाव शिवाचार सकळ। वीरशैवमार्ग प्रबळ। विस्तार जाहला ।।१०।। तोचि मुळीचा शिवाचार। कल्याणीं अवतरला बसवेश्वर। त्यानेंहि केला विस्तार। शिवाचाराचा।।११।। कोण्ही म्हणती शिवाचार नवा झाला। बसवेश्वरापासून विस्तारला। तें नेणोनि बोलती बोलां। अज्ञानपणें।।१२।। जहींचा शिव तहींचा शिवाचार। नवा झाला म्हणती ते पामर। अनादि शिव तरी शिवाचार। अनादिसिद्धचि असे।।१३।। शिव जरी होता युगानुयुगीं। तरी शिवाचार असेल कीं जगीं। जैचा शिव तैचा भक्तांगीं। शिवाचार अभंग असे।।१४।। म्हणोनि अनादिसिद्ध। असे शिवाचार निबद्ध। नवा झाला म्हणती बुद्धिमंद। तें नेणोनि बोलती।।१५।। मी अनादिसिद्ध शिवमूर्ति। शिवाचारहि अनादिसिद्ध पार्वती। यालागीं नूतन झाला जे म्हणती। ते मूर्ख जाणावें।।१६।।
यदा यदा प्राणशिवैक्यभाजां हानिर्भवेत् भूमितले गणेश:।
तदा तदा भूमितलेऽवतीर्य कुर्वन्ति ते वै खलु धर्मसंस्थाम्।।३।।
शंकर म्हणे अंबे ऐक। माझे पांच जे गणनायक। महापराक्रमी रेणुक। वीरशैव धर्ममूर्ति।।१७।। तयाचे परी दारुक जाण। धर्मरक्षणाकारणें सुजाण। येती न लागतां एक क्षण। प्रतिसृष्टिकर्ते जे।।१८।। ऐसे हे एकामागे एक। अवतरती गणनायक। वीरशैवधर्म प्रतिपालक। शिक्षा देत धर्मभ्रष्टां।।१९।। ज्या काळीं लिंगायतधर्म हानी। त्या काळीं सर्व धर्म लया जावोनि। अधर्म वाढे सतत मेदिनीं। धर्मविचार नसे कोणां।।२०।। स्वधर्म सांडोनिया जाण। करिती अधर्म मंडण। तेणें पुण्यक्षय होऊन। अधर्मता प्राप्त होय।।२१।। अधर्म जाहलिया सृष्टी। कदा नोहे पर्जन्यवृष्टी। तेव्हां कैलासीं येऊनि परमेष्टी। प्रार्थीतसे शिवालागीं।।२२।। म्हणे अधर्म वाढला महिवरी। प्रजा सर्व जर्जर निरहारी। तयाचें संकट निवारी। कृपादृष्टीकरोनिया।।२३।। तेव्हां शिव आज्ञा करी गणांसीं। तुम्ही त्वरें जावें मत्र्यलोकासीं। सर्व धर्म चालते ज्याचे त्यासीं। कीजें सत्य यावेळीं।।२४।। वीरशैवधर्म परमपावन। तयाची वृद्धि करिता जाण। दुजे धर्म वाढावया कारण। हेंचि मुख्य साधन पैं।।२५।। रेवणसिद्ध पूर्वदिशें। दक्षिणें मरुळसिद्ध असे। पश्चिमदिशीं वसे। एकोराम।।२६।। पंडिताराध्य उत्तरेसीं। विश्वाराध्य तो मध्यप्रदेशीं। शंकर निरोपी पार्वतीसीं। हे चहुयुगीं जाहले।।२७।।
देव्युवाच-
भवदुक्त: शिवाचार: सम्यक्ज्ञातो मया प्रभो।
अत:परं वद देव आचार्याणामनुक्रम:।।४।।
पार्वती म्हणे शिवासीं। तुम्ही निरोपिलें शिवाचारासीं। ऐकोन संतोष झाला मानसीं। देवाधिदेवा।।२८।। ऐसा शिवाचार जयापासोन। प्रबळला अतिगहन। ते आचार्य कोण कोण। त्याचीं नामें काई।।२९।। ते कोण्या युगीं कोण अवतार। त्याचें कोण भूषण कोण आचार। कोण दिशा मुनीश्वर। मठ कोण कोण देशीं।।३०।। इतुके निरोपा म्हणे पार्वती। ऐकोन सावध कैलासपति। तुझा प्रश्न बरवा म्हणती। निरोपुं आतां।।३१।।
शिव उवाच-
गुरुर्रेवणसिद्धाख्य: सिद्धेशमरुळस्तथा।
एकोराम: पंडितार्यो विश्वाराध्य इति क्रमात्।।५।।
हे चहुयुगीं झाले आपण। रेवणसिद्ध मरुळसिद्ध दोन। तिसरा एकोराम महाप्रवीण। चौथा तो पंडिताराध्य।।३२।। महाप्रतापी विश्वाराध्य। अखंड होवोनि राहिले निजबोध। निजचि ते स्वत:सिद्ध। मुनीश्वर वो देवी।।३३।। हे ते प्रत्यक्ष रुद्रचि असे। ज्ञानप्रकाशें भानु जैसे। जे परब्रह्म मुनिवेषें। अवतरले देख।।३४।। चहुयुगीं पांची आचार्य। झाले असती गुरुवर्य। त्याची मठस्थिति कर्मकार्य। आघवे सांगो आतां।।३५।। रेवणसिद्ध प्रसिद्ध गुरु। जेणें कथिला शास्त्राचारु। वीरशैवधर्माचा विस्तारु। सिद्धान्त दाखविला पैं।।३६।। मरुळसिद्ध नामें साचार। प्रगटले माझे नामधार। तेणें केला उद्धार। भक्ति ज्ञान जाणे तो।।३७।। एकोराम आणि पंडिताचार्य। हे तंव अवतारी भूवरीं गुरुवर्य। वीरशैवधर्माचें सर्व कार्य। जया आज्ञें घडतसें।।३८।। विश्वाराध्य महागुरु। सर्वश्रेष्ठ अधिकारु। गुरुत्वाचा विचारु। प्रगट करी वेळोवेळीं।।३९।।
प्रत्येकं च प्रवक्ष्यामि तेषां नामानि वै श्रुणु।
अथ गोत्रं तथा सूत्रं प्रवराणि यथाक्रमम्।।६।।
ही सांगितली संक्षिप्त कथा। आतां विस्तारें ऐक गोत्रगाथा। दंड कमंडलु सूत्र सर्वथा। निरोपितो वेगळाले।।४०।।
सद्योजातमुखोत्पन्नो रेणुक: परिकीर्तित:।
तन्नाम रेवणसिद्ध: सूत्रं पडविडीत्यपि।।७।।
जीं परशिवाचीं मुखें पांच। सद्योजात वामदेव अघोर साच। तत्पुरुष ईशान त्यांतच। उद्भवले आचार्यगण।।४१।। सद्योजात पूर्वमुख। वामदेव दक्षिण देख। अघोर पश्चिम उत्तर तत्पुरुषमुख। ईशान तें मध्य कीं।।४२।। सद्योजात मुखापासाव। उद्भवला रेणुक गुरुराव। नामें रेवणसिद्ध देव। पडविडी सूत्रकर्ता।।४३।।
गुरो: रेवणसिद्धस्य कोल्लिपाकपुरोत्तमे।
सोमेशलिंगजननमावास: कदलीपुरे।।८।।
वीरधर्मप्रतिपालक प्रसिद्ध। नामें श्रीगुरु रेवणसिद्ध। कोल्लिपाक नगराभीतरीं शुद्ध। सोमेशलिंगीं उद्भवले।।४४।। तेथून निघाले सत्वर वनां। गुरुत्व अधिकाराचें ज्ञानां। उपदेशावया मुनिजनां। वास केला आश्रमीं।।४५।। तेथें आपुलें सिंहासन। रंभापुरी येथें स्थापून। वीरशैवधर्मा प्रगटवोन। शिक्षा करी धर्मभ्रष्टां।।४६।। ऐसा कृतयुगीं रेवणसिद्ध। तो केवळ निबद्ध। षोडश मुद्रिका शोभला प्रसिद्ध। महंत तो।।४७।। तो चिद्रूप चिदाकार। साकारत्वेंचि निराकार। जैसी मेघमुखीची गार। पुन: विरे तत्क्षणीं।।४८।। शिवाचार अनादिसिद्ध। तोचि प्रकाशावया प्रसिद्ध। अवतरला रेवणसिद्ध। आदिगुरु शिवाचारासीं।।४९।। त्यासी सर्वांगीं विभूतिभूषण। मस्तकीं जटामुकुट शोभायमान। कंठीं हिरवी कंथा परिधान। मुनीश्वरासीं।।५०।।
अतिवर्णश्च वर्ण: स्यात् प्रवरेकाक्षरो मत:।
दण्डोऽश्वत्थ इति प्रोक्त: सौवर्णस्य कमंडलु:।।९।।
सौवर्ण: कलशस्तस्य व्याघ्राजिनांबरस्तथा।
तस्य कंथा हरिद्वर्णा लक्षणं वीरगोत्रिणाम्।।१०।।
करीं सुवर्णाची खापरी। व्याघ्राजिन खांद्यावरी। घेवोनि कमंडलु करीं। योगमुद्रा सदा।।५१।। मस्तकीं सुवर्णाचे लिंग। पादुका चरणीं चांग। चंदन सुगंध सर्वांग। तयातळीं वास त्याचा।।५२।। ऋग्वेदाचें उच्चारण करी। बैसे तरी वज्रासनावरी। चंद्रमौळेश्वराचें करी। अखंड ध्यान।।५३।। तयासी सिंहाचें वाहन। इच्छाशक्तीनें वर्तन। दर्शनस्पर्शनें जीव शिवपण। तात्काळ देतुसे।।५४।। ऐसा तो महासिद्ध। पूर्वदिशीं असे प्रसिद्ध। शिवाचारासीं अग्रगण्य निबद्ध। रेवणसिद्ध तो।।५५।।
तद्वन्मरुळसिद्धस्य वटक्षेत्रे महत्तरे।
सिद्धेशलिंगे जननं स्थानमुज्जयिनीपुरे।।११।।
तैसेचि वटक्षेत्रीं अवतार होतां। चरणीं पावन झाली क्षिप्रा माता। उद्भव सिद्धेशलिंगीं तत्त्वतां। सिंहासन उज्जयिनी पुरी।।५६।। ते मरुळाचार्य विख्यात। शिवादेशें करोनि मर्त्य लोकांत। वीरशैवधर्मा संरक्षित। महाज्ञानी जाण तो।।५७।। त्याचा दक्षिण दिशीं मठ असतु। मरुळसिद्ध महामहंतु। ज्ञानसूर्य जैसा भासतु। चिद्गगनीचा।।५८।। निर्विकल्प दशें असत। तया पिशाचवृत्ति आवडत। मन उन्मनीं सदोदित। संतुष्ट सदा।।५९।। तो कोणाचे आश्रमां न जाय। कोणाचें शास्त्रां न पाहे। कोणाचे संगीं न राहे। क्षणभरी तो।।६०।। कपिलेश्वराचें करी ध्यान। यजुर्वेदाचें उच्चारण। गोमेद लिंगाचें पूजन। वटाचे वृक्षीं वास करी।।६१।।
वामदेवमुखोत्पन्नो दारुक: परिकीर्तित:।
तन्नाम मरुळाराध्य: सूत्रं तस्य तु वृष्टिकम्।।१२।।
वामदेवमुखापासून। झाले दारुकार्य उत्पन्न। वृष्टी सूत्राधिकारी पूर्ण। नामें मरुळाराध्य प्रसिद्ध।।६२।।
तस्य दण्डश्च पालाशो तथा ताम्रकमंडलु:।
मकारो बीजमंत्रश्च शाखा दारुक ईरिता।।१३।।
कलशस्तस्य ताम्रश्च मृगाजिनविभूषण:।
तस्य कंथा च मांजिष्टा लक्षणं नंदिगोत्रिणाम्।।१४।।
अमलाक्ष लिंग अवधारी। मृगाजिन खांद्यावरी। समीप तांब्याची खापरी। तया सत्यशरणासीं।।६३।। रुद्राक्षमाळा कंठीं शोभती। व्याघ्र वाहन तयाप्रति। जप मयूरासनीं करिती। मरुळसिद्ध ते।।६४।। क्रिया-ज्ञानशक्ति धरोन। भूचरी मुद्रा गुरूचें ध्यान। नेत्रवेधी ऐसी सिद्धि जाण। तयापासीं असे।।६५।। मकार अक्षरीं समाधि। चर्चिली विभूति ब्रह्मावबोधी। मस्तकीं जटा योगसिद्धि। चरणां लागती तयाच्या।।६६।। पळसाचा दंड हातीं। ताम्र कलशाची दिव्य दीप्ती। कंथा आरक्त स्थिति। असे जया गुरुवर्या।।६७।। ऐसीं मरुळसिद्ध मुनीचीं। भूषणें निरोपिली तयाचीं। निराश निरभिमान अविद्येची। वार्ता तेहि तेथ नाहीं।।६८।। अखंड निमग्नत्व असें। आनंदें डुल्लतु पिशाचदशें। भाग्योदयें जया भेटतसे। तया आपणाऐसे करी।।६९।। तो जरी अदृष्टें पाहे कोणाकडे। तरी त्यास ब्रह्मांडभांडार उघडे। तात्काळ वस्तु होवोनि भिडे। वस्तुचि माजीं।।७०।। गंगा सागरां शरण गेली। ती मिळोनि सागरुचि झाली। परतोनि नाहीं आली। ठेली सागरुचि।।७१।। तेवि जे संतां शरण गेले। ते मिळणीं तद्रूपचि झाले। पुन: नरदेहां नाहीं आले। होवोनि ठेले परब्रह्म।।७२।। म्हणोनि महंत मरुळसिद्ध। शरणागतां करी ब्रह्मबोध। शिवाचारासीं प्रसिद्ध। तारक कृपाळु।।७३।।
एकोरामस्य जननं द्राक्षारामे प्रकीर्तितम्।
रामनाथमहालिंगे तद्वासस्तु हिमालये।।१५।।
आतां तिसरा आचार्य एकोराम। तो ज्ञानभानु परब्रह्म। निरक्षर निरामय नि:सीम। निष्काम तो।।७४।। द्राक्षाराम क्षेत्र प्रसिद्ध। तेथें रामनाथलिंग असे सिद्ध। तेथ उद्भवला सुबुद्ध। एकोरामाराध्य तो।।७५।। हिमालयीं क्षेत्र केदार। उषामठ असे अतिसुंदर। तेथें वास करी निरंतर। आचार्यगुरु।।७६।। तो आचारासीं तरी अग्रगण। शिवाचारासीं तो संपन्न। जयासीं वंदिती वीरशैव गण। सातशें सत्तरी।।७७।। बसवादि प्रमथ सकळ। नमिती जयाचें चरणकमळ। तो एकोराम आचारशील। शिवाचारी मुख्य।।७८।।
मदघोरमुखोत्पन्न: शंकुकर्णेति नामत:।
एकोरामेति तन्नाम तस्य सूत्रं तु लंबकम्।।१६।।
ब्रह्मो दण्डस्तथा लोहकलशश्च कमंडलु:।
नीलकंथा तथाऽवास: पारिजाततरोरध:।।१७।।
शिव म्हणे गिरिजासुंदरी। अघोरमुखाभीतरीं। शंकुकर्ण ते अवधारी। आचार्यवर अवतरले।।७९।। तयाचें नांव एकोराम। सर्व जीवाचें विश्रामधाम। लंबक सूत्राधिकारी परम। गोत्र भृंगी जयाचें।।८०।। तो शिवाचा अवतार। मुखीं सामवेदाचा उच्चार। मणिमय लिंग निरंतर। पुजीतसे।।८१।। तो द्वापरीं अवतरला। वैराग्यपीठिका मिळे त्याला। पश्चिमदिशीं मठ शोभला। वेणुदंड करीं धरी।।८२।। सदा महेश्वरध्यानीं असत। पारिजातकीं वास निभ्रांत। बैसका गरुडासनीं शोभत। तया महासिद्धासीं।।८३।। मस्तकीं जटा पांच शोभत। सर्वांगीं विभूति उधळत। श्रवणीं कुंडलें ढाळ देत। भानुप्रभा जैसी।।८४।। लिंगमुद्रा कंठीं तत्त्वतां। रत्नकंबळाची मिरवे कंथा। रुद्राक्षमाळा पवित्रता। हृदयावरी शोभती।।८५।। मंत्रशक्ति वसे जिव्हाग्रीं। नासाग्रीं ध्यान तो धरी। लोहखापरी धारण करी। कलश तोहि लोहमय।।८६।।
शिकारो बीजमंत्रश्च अतिवर्णाश्रमे रत:।
शाखा शंकुकर्णाख्या लक्षणं भृंगिगोत्रिणाम्।।१८।।
शिकार मंत्र बीजाक्षर। अखंड ध्यानीं निरंतर। सदा तन्मय मुनीश्वर। एकोराम तो।।८७।। अतिवर्णाश्रमीं वर्तत। शाखा शंकुकर्ण विख्यात। सामवेद विभागीं असत। तेचि उपदेशी स्वशिष्यां।।८८।। अमृतसंजीवनीचें असे ध्यान। तयासीं गजाचें वाहन। शिवाचारीं असे संपन्न। महामहंत तो।।८९।। सत्य तेंचि बोलणें। नि:संग निराश असणें। परि पंचक्रियेनें वर्तणें। काम नाहीं अंतरीं।।९०।। ऐसा तो महामहंतु। शिवाचारयुक्त समर्थु। जयाच्या सत्तेनें चालतु। शिवाचार रत्न।।९१।।
सुधाकुण्डाख्यसुक्षेत्रे qलगे श्रीमल्लिकार्जुने।
जननं पण्डितार्यस्य निवास: श्रीगिरौ शिवे।।१९।।
सुधाकुंड नाम क्षेत्रीं जाण। मल्लिकार्जुन महालिंगांतून। प्रगटले आचार्य पूर्ण। पंडितार्य गुरुवर।।९२।। निवास केला तो अति निर्मळ। गिरिराज राज तो श्रीशैल। तयाचिया दर्शनें कलिमल। नष्ट होती सर्वथा।।९३।।
तत्पुरुषमुखोत्पन्नो धेनुकर्णेति नामत:।
तन्नाम पंडिताराध्यो मुक्तागुच्छं तु सूत्रकम्।।२०।।
तत्पुरुष मुखापासून। धेनुकर्ण आचार्य उत्पन्न। शिवागमींची गूढ खूण। तुज निरोपिली वो देवी।।९४।। तो चौथा आचार्य महासिद्ध। जो शुद्ध स्वानुभवी स्वत:सिद्ध। नामें पावन प्रसिद्ध। पंडिताराध्य स्वामी।।९५।। मुक्तागुच्छ सूत्राचा अधिपति। महामुनी जयां वंदिती। उपसूत्रें द्वादश असती। तया आचार्यां जाणावें।।९६।।
सूर्यसिंहासनाधीशो दण्डो वंशमय: शुभ:।
रजत: कलश: प्रोक्त: तथैव च कमंडलु:।।२१।।
उत्तरदिशीं सूर्यपीठीं मठ। वास तरी वंशवृक्षीं सुभट। भोगलिंग तंव वरिष्ठ। सर्व लिंगांमाजीं।।९७।। आचार्य तो तारक अवतार। स्वानुभवी ज्ञानभास्कर। शिवाचार तारावया कलीभीतर। उदय झाला आराध्यभानु।।९८।। तो तद्रूप सदाशिव। शिवाचारां नि:संदेह देव। संदेह कल्पना सर्व वाव। केवळ चिद्रूप तो।।९९।। भोगेश्वराचें ध्यान करी। करी रुप्याची खापरी। आरूढे हंसवाहनावरी। आराध्य तो।।१००।। कंदमूलाचा प्रसाद करी। प्राक्तनानुसार अन्न स्वीकारी। अखंड ध्यान अंतरीं। गुरुलिंगाचें।।१०१।।
वकारो मंत्रबीजं च श्रुतिराथर्वणी शुभा:।
श्वेतकंथा तु संप्रोक्ता लक्षणं वृषभगोत्रिणाम्।।२२।।
वकार बीज महातेजाळ। जैसा सहस्र विजूंचा मेळ। तो जपत असे सर्वकाळ। रावो सकळ सिद्धांचा।।१०२।। अथर्वण वेद उच्चारण। हृदयीं शिवलिंगधारण। कंथेलागीं पट्टवस्त्र पूर्ण। शोभलें शुभ्र।।१०३।। ऐसा कलियुगीं अवतार। पंडिताराध्य महामुनीश्वर। तेणें वाढविला शिवाचार। शिवभक्त तो।।१०४।। तया शिवावांचून दुसरे। आन देवोदेवी नसे साचारे। गुरुलिंगजंगमीं ऐक्यविचारें। वर्ते सदाचारी।।१०५।। शिवमुद्रा अलंकृत भूषण। शोभें जैसा प्रकाशला भान। भक्तिसुखास्तव निर्गुण। तो सगुण होवोनि अवतरला।।१०६।। मस्तकीं जटा शोभती। सर्वांगीं मिरवे विभूति। कर्णीं कुंडलें ढाळ देती। निजतेजाकार।।१०७।। गुरुलिंगजंगम भजन। सांगे सकळां एक विधान। आसनीं श्वेत कंबळासन। पद्मासनीं बैसका तया।।१०८।। गुरु-लिंग-जंगम एकभावना। अभेदभावें धरी ध्यानां। परकायप्रवेश याहि खुणा। जाणतु असे तो।।१०९।। परकायप्रवेश हें नवल काय। अष्ट महासिद्धि वंदिती पाय। चा-ही मुक्ति आलिया न पाहे। मुक्तीचा साक्ष म्हणोनि।।११०।। शिवाचारी शिवभक्त। दीक्षा देवोनि तारिले बहुत। पंचकलश नेमस्त। स्थापोनिया।।१११।। दीक्षावंत गुरुकरजात। करोनिया शुद्ध शिवभक्त। ऐक्य दावोनि गुरु-लिंग-जंगमांत। तीर्थप्रसाद सेवविती।।११२।। ऐसा शिवागमीं विचार। तो विस्तारला अपार। कल्याणीं अवतरला बसवेश्वर। शिवाचारसंपन्न।।११३।।
काश्यां विश्वेश्वरे लिंगे विश्वाराध्यस्य संभव:।
स्थानं श्रीकाशिकाक्षेत्रे श्रुणु पार्वति सादरम्।।२३।।
विश्वाराध्य विश्वगुरु। काशीक्षेत्र पीठाचारु। धरी विश्वेशलिंगीं अवतारु। अज्ञ जनाकारणें।।११४।।
ईशानाख्यमुखोत्पन्नो विश्वकर्णेति विश्रुत:।
विश्वाराध्यस्तु तन्नाम सूत्रं स्यात् पंचवर्णकम्।।२४।।
माझें ईशानमुखापासोन। विश्वकर्णाचा अवतार जाण। विश्वाराध्य नाम पूर्ण। समर्थ गुरु।।११५।। तयाचें सूत्र पंचवर्ण। पांचवा शिवगण अभिन्न। वीरशैव प्रवरोत्पन्न। असे जाण विश्वार्य तो।।११६।।
दण्डो बिल्वज: प्रोक्त: सुवर्णस्य कमंडलु:।
कलशस्तस्य सौवर्ण: आसनं स्वर्णकंबलम्।।२५।।
ज्ञानसिंहासनं दिव्यं मंत्रबीजं यकारकम्।
कंथाऽपि पीतवर्णास्याल्लक्षणं स्कंदगोत्रिणाम्।।२६।।
हा पांचवा आचार्य सुजाण। ऐके याचें स्वरूपगुण। दिशेमध्यें ऊर्ध्व जाण। श्रेष्ठ महिमान असें त्याचें।।११७।। बिल्ववृक्षातळीं साचार। तोचि दंड धारण करी निरंतर। खापरी करी सादर। सोनियाची।।११८।। कंथा तीहि स्वर्णकंबळ। व्याघ्रांबर धारण केलें तेजाळ। सुवर्ण सुखासन विशाळ। वाहनीं असे।।११९।। ज्ञानपीठीं जंगममठ। सर्व ज्ञानियांतें वरिष्ठ। उपदेशी शिवतत्त्व श्रेष्ठ। विश्वगुरु तो।।१२०।। स्वच्छंदें वर्ते गुरुराज। जग तारावया निर्व्याज। मुनिरूप धरोनि सहज। शिवचि आला।।१२१।। पूजन करी विश्वेश्वराचें। ध्यानीं मनीं तोचि नाचे। यकार अक्षर बीजाचे। उच्चारी मुखें।।१२२।। चिन्मय तो गुरुमूर्ति। तुर्यातीत आहे वस्ती। तेंचि उपदेशी सहजस्थिति। परमहंस योगियां।।१२३।। मस्तकीं शोभें जटामुकुट। हृदयावरी रुद्राक्षमाळा वरिष्ठ। भस्मोद्धूळित देह सुभट। तेजें जैसा गभस्ति।।१२४।। आनंदवनीं असे वास। तोहि सदा आनंदमय सावकाश। शिवानंदामृतरस। श्रोतृद्वारें ओपी भक्तातें।।१२५।। ईश्वर म्हणे पार्वतीप्रति। हे आचार्य अवतरले भूवरती। सूत्रें प्रगटली पूर्ण स्थिति। वीरशैवाकारणें।।१२६।। ऐसी पंचाचार्यांचीं स्थानें। तुज निरोपिलीं वरानने। माहेश्वराची मूळ स्थानें। असती जाण पांच ती।।१२७।। पांच आचार्य पांच मठ। हें कथिलें गुह्य स्पष्ट। जे वीरशैव शिवाचारनिष्ठ। ते हे जाणती खूण।।१२८।। चहुयुगीं आचार्य जाहले। जनां शिवभक्तीसी लाविले। सातशेें सत्तर गणीं निवडले। शिवाचारमार्गीं।।१२९।। बसवादि प्रमथगण। सातशें सत्तर असती नेमून। ए-हवीं असती जाणे कोण। गणांची संख्या।।१३०।। शिवगण रुद्रगण अमरगण। शिवागमीं वर्णिले असंख्य जाण। गण गणितां वेद श्रुति पुराण। मौन धरोनि राहिले।।१३१।। मा मी काय वर्णूं महिमा तयाची। अगाध महिमा शक्ति खुंटली वाचेची। अनंत कोटी गणना गणांची। तेथ मी काय वर्णूं।।१३२।। एका चौकडियाचे गण। गणित केलें गणून। परि अनंत चौकडियांचे जाले ते कवण। गणीतसे।।१३३।। कृत त्रेता युग द्वापर। कलियुगासहित युगें चार। या चहुयुगांची चौकडी साचार। एक जाहली।।१३४।। ऐशा चौकड्या एक सहस्र होती। तंव अस्तमानां जाय गभस्ति। तैशा चौकड्या एक सहस्र होती। तंव एक दिवस होय ब्रह्मीयाचा।।१३५।। ऐसे तीस दिवस जाती। एक मास होय विधात्याप्रति। ऐसे द्वादश मास होती। तंव होय एक वरुष।।१३६।। ऐसें वरुषें जाती एक शत। तंव ब्रह्मीयास होय अंत। त्याच्या आयुष्याचें सरें गणित। तंव घटिका विष्णूची।।१३७।। ऐसिया घटिका साठ जाती। तंव एक दिवस विष्णूप्रति। ते हे तीस दिवस जाती। तैं एक मास विष्णूचा।।१३८।। ऐसे मास द्वादश होती। तरी एक वरुष होय विष्णूप्रति। ऐसें वरुषें शत जाती। तदा विष्णु एक पडे।।१३९।। ऐसे द्वादश विष्णु जाती। तंव अर्धपळ होय रुद्राप्रति। त्या रुद्राचे गण सांगावे किती। कोणी गणना करोनि।।१४०।। अनंत युगांचे महारुद्र। गणहि अनंत युगांचे अपार। जैसा देव तैसे भक्त साचार। जेवि देहीं आत्मा असे।।१४१।। ऐसे युगायुगीचे गण। सांगे ऐसा आहे कोण। म्हणोनि संक्षेपें याचें प्रमाण। सातशें सत्तर निरोपिलें।।१४२।। यावेगळे सप्तकोटी। ते असती कैलासकपाटीं। विचित्ररूपें विकटी। बहुविध तयांची।।१४३।। ए-हवीं असंख्यात गण। नाम घेतां उरे कोण। ते माझे पूज्यमान। मज पुजिती ते।।१४४।। ते मज पूज्य मी पुजी तयासीं। अणुमात्र भेद नाहीं तया मजसीं। म्हणोनि पुजिजें सद्भावेसीं। तरी ते मीच होय।।१४५।। शिव आणि शिवगण। कदापि भिन्न नोहे जाण। शिवाचारविचारी संपन्न। शिवगण सावध सदा।।१४६।। ऐसी शिवाचारदीक्षा जाण। पंचाचार्य करिती संपन्न। शिवाचारातें स्थापून। जनां भक्ति लाविती।।१४७।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। शिवगौरीसंवादीं वर्तत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृत्य मन्मथ।।१४८।।
।। इति श्री परमरहस्ये शिवगौरीसंवादे आचार्यावतारमठलक्षणादि कथनं नाम षोडशोऽध्याय:।।
श्लोक २६, ओव्या १४८.
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अक्षररचना : सौ. उषा पसारकर, सोलापूर


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