Thursday, 5 June 2014

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य अध्याय बारावा

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य

अध्याय बारावा

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।। ॐकाराय नम: ।।
एकादश अध्यायीं लिंगविचार। सांगितला नवलिंगप्रकार। तैसाच मिश्र भाव सविस्तर। वर्णिला येथें।।१।।
देव्युवाच-
किं मिश्रितं सदाचारं किं मिश्रं गुरुलिंगकम्।
किं मिश्रं शिवलिंगं स्यात् किं मिश्रं जंगमं तथा।।१।।
प्रसादमिश्रितं किं स्यान्महालिंगं तथैव च।
इत्येतन्मिश्रितं भावं सकलं कथयस्व मे।।२।।
पार्वती म्हणे शंकरासीं। कवण लिंग कवणासीं। मिश्रित होवोनि असें तत्त्वांसीं। सांगा मज स्वामिया।।२।। आचारलिंग कोणाशीं मिश्रित। कोणां मिश्रित गुरुलिंग असत। मिश्रित कोणासीं शिवलिंग वसत। जंगमलिंग मिश्रित कैसें।।३।। प्रसादलिंग मिश्रित कोणासीं। मिश्रित निरोपा महालिंगासीं। ऐसें साहीं लिंगें कोण कोणांसीं। मिश्रित निरोपा स्वामी।।४।।
शिव उवाच-
आचारं गुरुलिंगं च प्रसादं जंगमं तथा।
शिवलिंगं महालिंगमेकैकेन सुमिश्रितम्।।३।।
शिव म्हणे अंबेप्रति। मिश्र लिंगांची कैसी व्याप्ती। उभय लिंगें ऐक्यें सामावती। तो मिश्रभाव जाणावा।।५।। गुरुलिंग आचारलिंग मिश्रित असती। शिवलिंग जंगमलिंग मिश्रित वसती। प्रसादलिंग महालिंग स्थिति। असती तें एकत्वें।।६।। ऐसें सहा लिंग मिश्रित। येरयेरांतें असत। हें ऐकोनि संतोषलें चित्त। मग प्रश्न करी कांहीं।।७।।
देव्युवाच-
ज्ञानबीजाक्षरं किं वा आचारस्य च बीजं किम्।
गुरुलिंगस्य किं बीजं किं बीजं शिवलिंगकम्।।४।।
पार्वती पुसे शिवातें। महालिंगासीं बीजाक्षर कोणतें। आचारलिंगासीं निरुते। कोणतें बीजाक्षर।।८।। कोणतें बीजाक्षर गुरुलिंगासीं। कोणतें अक्षर शिवलिंगासीं। कोणतें अक्षर जंगमलिंगासीं। प्रसादलिंगासीं अक्षर कोण।।९।।
शिव उवाच-
प्रणवं ज्ञानबीजं च आचारस्य नकारकम्।
मकारं तु गुरोर्बीजं शिकारं लिंगमूर्तिकम्।।५।।
वाकारं जंगमं बीजं प्रसादस्य यकारकम्।
एवं बीजाक्षरज्ञाता दुर्लभश्च वरानने।।६।।
पार्वतीसीं निरोपी शंकर। महालिंगासीं बीज ॐकार। आचारलिंगासीं बीज नकार। गुरुलिंगासीं बीजाक्षर मकार बोलिजें।।१०।। शिवलिंगासीं बीज शिकार। जंगमलिंगासीं वाकार। प्रसादलिंगासीं यकार। बीजाक्षर बोलिजें।।११।। नम: शिवाय हा पंचाक्षरी। ॐकार संयोगें बोलिजें षडक्षरी। तें षडक्षर षडलिंगासीं अवधारी। साहिं बीजें निरोपिली।।१२।। तींच साहिं बीजें तत्त्वादिकांसीं। कोण बीज कोणासीं। तें ऐक एकचित्त मानसीं। होवोनिया।।१३।।
ओंकार: पंचभूतात्मा नकारो दशइंद्रिय:।
मकारो मनपंचानां शिकार: प्राणनायक:।।७।।
वाकारो दशवायूनां यकारस्त्रिगुणं भवेत्।
एवं षडक्षरबीजं श्रुणु मे पार्वति यथा।।८।।
ॐकार बीज पंचभूतात्मकासीं। नकार तो दश इंद्रियांसीं। मकार अंत:करणपंचकासीं। प्राणपंचकासीं शिकार तो।।१४।। वाकार तो दशवायूंसीं। यकार तो त्रिगुणांसीं। ऐसें बीज तत्त्वांदिकासीं। नेमिलें असती वो देवी।।१५।। हीं साहीं बीजें षडलिंगासीं। हें षट्बीज षट्चक्रासीं। हेंचि साहीं षट्स्थळासीं। तें षट्स्थळ पार्वती पुन: पुसे।।१६।।
देव्युवाच-
नामानि षट्स्थलस्यास्य गुणरूपाणि सर्वथा।
प्रीत्यर्थं मम देवेश कृपया वद सांप्रतम्।।९।।
पार्वती म्हणे देवा महेशा। षट्स्थळाचा नामरूप ठसा। निरोपावें स्वामी जगदीशा। कृपाळुवा।।१७।। गूढ रहस्य हें षट्स्थळ। सांगा जी मज निर्मळ। वीरशैवाचें आदिमूळ। अलभ्य जे ब्रह्मादिकां।।१८।।
शिव उवाच-
भक्तो माहेश्वरश्चैव प्रसादी प्राणलिंगक:।
शरण्य: शिवलिंगैक्य इदं षट्स्थलमुत्तमम्।।१०।।
ईश्वर म्हणे वो देवी ऐक। प्रथम भक्तस्थळ म्हणिजें एक। माहेश्वर दुसरें नेमक। तिसरें तें प्रसादी बोलिजें।।१९।। चौथें तें प्राणलिंगी जाणिजें। पांचवे तें शरणस्थळ ओळखिजें। सहावें ऐक्यस्थळ बोलिजें। महा सत्यशरण।।२०।। याचीं नामे कळती त-ही कांहीं। परि याची स्थिति कळली पाहिजे पाही। कळलियावरी तैसाचि वर्ततां होई। तरी तो सत्यशरण।।२१।। हें ऐकतांचि निजवर्म। पार्वती प्रश्न करी धरोनि प्रेम। या षट्स्थळांची स्थिति उत्तम। ती निरोपा स्वामी।।२२।।
देव्युवाच-
भक्तो माहेश्वरश्चैव प्रसादी प्राणलिंगक:।
शरण: शिवलिंगैक्य: षट्स्थलं च कथं भवेत्।।११।।
पार्वती पुसे शंकरासीं। नमन करूनि चरणासीं। एकेका स्थळाची कैसी। आचरणूक कोणेपरी।।२३।।
शिव उवाच-
सदाचार: शिवे भक्ति: लिंगजंगमएकधी:।
लांछने शरणं यस्तु भक्तस्थलमनुत्तमम्।।१२।।
शंकर म्हणे वो पार्वती। षट्स्थल ऐके प्रेमप्रीति। त्यातून प्रथम भक्ति-। स्थळ निरोपुं तुज।।२४।। सदाचारें आचरें शिवभक्ति। तो आचार निरोपुं प्रेमप्रीति। अनाचार न धरी अणुमात्र हातीं। कोटी लाभ जोडे ज-ही।।२५।। तरी अनाचार तो न करी। आवडी गोडी अत्यंत शिवाचारीं। शिवावांचून ब्रह्माहरि। न मानी कोणासीं।।२६।। जैसें पतीस भावभक्ति चित्त। आपुलें पतीचें तिला व्रत। म्हणोनि पतिव्रता निभ्रांत। नाम तियेचें।।२७।। ती जैसें आपुले पतीविण। सर्वथा न करी कोणाचें ध्यान। वर्णितां न करी श्रवण। ती धन्य जाण पतिव्रता।।२८।। तैसा न स्मरे शिवाविण आन। पूर्ण एकविध भक्ति धरून। राहे सदा निष्ठेतें ठेवोन। हें भक्तिस्थळ उत्तम।।२९।। शिवावांचून कांहीं। ध्यानीं मनीं स्मरणीं आन नाहीं। शिवलांछन देखें ज्याचें ठायीं। धांवोनि पायीं मिठी घाली।।३०।। इतर देव असती शिवाचे सेवक। तया भजतां दोष अनेक। भक्तिभावें अर्चितां नरक। प्राप्त होय श्रुति वदे।।३१।। गुरु लिंग आणि जंगम। तिहींच्या पूजेस एकचि नेम। तिहीं एकभावें पुजी भक्तोत्तम। तो मुकुटमणि शिवाचारासीं।।३२।। एक मूर्ति त्रिभाग झाली भक्तकाजें। म्हणोनि गुरु लिंग जंगम बोलिजें। तिन्ही एकचि मानूनि पुजी वोजें। तोचि भक्त उत्तम।।३३।। जंगमलांछन देखोनि नयनीं। आपुली परावी बगी न धरी मनीं। धांवोनि भावें लागे चरणीं। भक्तस्थळ उत्तम या नांव।।३४।। जंगमलिंगीं भेद धरितां। अधोगति पावे तत्त्वतां। परमात्मभावें मानितां। पुजितां मोक्षपद पावे।।३५।। गुरुवचनीं अविश्वास। शास्त्रवाक्यां लावी दोष। कुतर्कीं पांडित्य विशेष। अभक्तस्थळ हेंचि।।३६।। स्वधर्म-पुराणां कंटाळत। परधर्म-श्रवणां धांवत। तयाचे धर्म श्रेष्ठ मानीत। अभक्तस्थळ तेंचि।।३७।। स्वधर्म सोडोनि आपुला। जरी उत्तम धर्म स्वीकारिला। अधोगति नरक तयाला। स्वधर्म त्यागितांचि।।३८।। जैसें परस्त्री परधन। अनर्थासीं होय कारण। तैसें परधर्म-आचरण। घडे पातक सत्य पैं।।३९।। तीर्थासीं विश्वास अत्यंत। लिंगजंगमीं ठेवी चित्त। ऐसें भक्तस्थळ थोडियानें बहुत। निरोपिलें तुज देवी।।४०।। आतां माहेश्वरस्थळ। तुज निरोपुं निर्मळ। जें ऐकतां पातक सकळ। जळोनि जाय।।४१।।
परस्त्रियं परार्थं च वर्जितो भावशुद्धिमान्।
लिंगनिष्ठो जितात्मा च माहेश्वरस्थले पुमान्।।१३।।
आतां माहेश्वरस्थळ महिमान। पार्वती ऐक विश्वास धरोन। तयासीं परस्त्री मातेसमान। काम नाहीं तयासीं।।४२।। कां म्हणसी तरी ऐक। तयासीं आत्मा आत्मीं नाहीं देख। जें देखें तें शिवचि एक। तेथें आत्मा आत्मीं कैची।।४३।। त्यासीं स्त्रीचि दिसत नाहीं। जें देखें तें शिवचि पाही। मा कामना उठे तया काई। भोगविषयासीं।।४४।। वीरनिष्ठा अंगीं येतां देख। तो करी सारासारविवेक। मग वासनेचा पल्ला एकाएक। येईल कोठोनिया।।४५।। तया परद्रव्य पाषाणासमान। परनिंदा हिंसा न करी आपण। इत्यादि वर्जी सर्व अवगुण। भावशुद्ध माहेश्वर तो।।४६।। लिंगनिष्ठें निपुण करी पूजा। लिंग-जंगमीं भाव नाहीं दुजा। गुरुभावनें लिंगासीं पुजी वोजा। जंगमीं तेंचि निष्ठा।।४७।। गुरूसीं भजे शिवभावना। ऐशा माहेश्वरस्थळाच्या खुणा। आतां प्रसादिस्थळाची विवेचना। निरोपुं ऐक वो देवी।।४८।।
लिंगार्पितप्रसादं च सुभोगी लिंगसंयुत:।
अनर्पितपरित्यागी प्रसादिस्थलमुत्तमम्।।१४।।
ऐक तिसरेें प्रसादिस्थळ। प्रसादसेवनीं निष्ठा अढळ। नित्य प्रसादां सेवी निर्मळ। भावें विश्वासें।।४९।। जंगम परब्रह्मचि मानिजें। त्याचा प्रसाद लिंगमुखें सेविजें। तृण तेंहि लिंगासीं दाविजें। मग स्वयें सेविजें आपण।।५०।। प्रसादां गोड कडु बहु थोडे। जे म्हणती ते केवळ वेडे। शिवगणीं मिरवी कोण्या तोंडे। नित्य गोडी नेणे प्रसादाची।।५१।। प्रसाद न मिळे धर्मभ्रष्टां। जो करी परधर्माचा सांठा। कुतर्कीं पाखांडमतश्रेष्ठां। प्रसाद वर्ज्य असे पैं।।५२।। प्रसादमहिमा विशेष। होतसे ऋद्धिसिद्धि वश। वेदचर्चा प्राप्त श्वानास। प्रसादानें घडलीसे।।५३।। अनर्पित तें न अर्पिजें। कठिण अंश तो सांडून देईजें। आपपर जंगमीं न लेखिजें। भावें सेविजें प्रसाद।।५४।। प्रसादां विन्मुख न घडे कधीं। प्रसादी लिंगार्पित करी आधी। भावें सेवितां प्रकाशे सद्बुद्धि। अष्ट महासिद्धि ओळंगती अंगणीं।।५५।। हें लटिकें म्हणसी तरी ऐक। अष्ट महासिद्धीचें काय कौतुक। श्वानमुखें वेद वदविला देख। मा अष्ट महासिद्धि त्या किती।।५६।। प्रसादनिष्ठा जयासीं पूर्ण असे। तो वंदिजें म्यां महेश। त्याचें दर्शन घें विश्वासें। तो पुण्यपुरुष भाग्याचा।।५७।। ऐसा प्रसादनिष्ठेचा नेम। तुज दाविला निरुपम। आतां प्राणलिंग उत्तम। चौथें स्थळ तें ऐक।।५८।।
तथा प्राणगुणे लिंगं लिंगे प्राण: समाहित:।
सुखदु:खभयं नास्ति प्राणलिंगिस्थलं भवेत्।।१५।।
प्राणलिंगिस्थळाचें ऐक निरोपण। लिंगीं ऐक्य प्राण-गुणेकरोन। प्राण तो लिंगीं लयाते नेओन। लिंग प्राण एक झाला।।५९।। लिंग तो प्राण प्राण तो लिंग। उभयाचें एक असे अंग। म्हणोनि लिंग गेलिया मग। देह केवि राहे।।६०।। भानु अस्तमानीं किरण जाये। दीप गेलिया प्रकाश केवि राहे। तैसा लिंग गेलिया प्राण पाहे। राहूं शके केवि देवी।।६१।। आत्मा गेलिया देह जरी राहे। तरी लिंग गेलिया प्राणलिंगीं ठायें। यालागीं प्राणलिंगीं न राहे। लिंग गेलियावरी।।६२।। अखंड त्याचा प्राण। लिंगीं असे होवोनि मग्न। यालागीं प्राणलिंगी नामाभिधान। शोभें तयासीं।।६३।। तो लिंगरूप होवोनि असे। म्हणोनि तया सुख दु:ख भय नसें। तो सुखदु:खाविरहित वसे। निर्भय होवोनिया।।६४।। सुख झालिया फुगेना। दु:ख झालिया तो उतरेना। कळिकाळासीं तो भिईना। निष्ठेचेंनि बळें।।६५।। जो स्वयेंचि रावो जाहला। तो काय भिईल सेवकाला। तैसा तो लिंगीं लिंग होओनिया ठेला। तया काळ यम कैंचा।।६६।। प्राणलिंगीं तत्त्वसमाधि। लिंगीं प्राण अर्पी सुधी। कासया तया मृत्यु-उपाधि। अमर असे जगीं तो।।६७।। म्हणोनि लिंगधारी दहन। करणें गोत्रहत्या जाण। स्वयं समाधिस्थ म्हणोन। समाधिच करिती तया।।६८।। हा शिवधर्म परमपावन। साधन करितां साध्य होय जाण। जो असे वीरशैवकुलोत्पन्न। जाणें मर्म गुरुकृपें।।६९।। ऐसें हें प्राणलिंगिस्थळ। तुज निरोपिलें सकळ। आतां शरणस्थळ निर्मळ। निरोपुं पांचवें तें।।७०।।
पतिर्लिंगं सती चाहमिति युक्तं सदाधिया।
पंचेंद्रियसुखं नास्ति शरणस्थलमुत्तमम्।।१६।।
ऐक शरणस्थळाचें महिमान। लिंगासीं स्वपति करोन। आपण सति होई शरण। प्रेम तयासीं धरोनि।।७१।। सति पति जैसें एक असती। येरयेरासीं भेद न धरिती। तैसी qलगीं अति प्रीति-। युक्त होवोनि असे।।७२।। सति-पतीची शरीरें वेगळी दिसतीं। परि आत्मत्वें एक हावोनि असती। तैसें लिंगीं शरणस्थिति। होवोनि असे।।७३।। देखोनिया सत्यशरण। तात्काळ करी दंडप्रणाम शरण। किंकरवृत्ति निरभिमान। म्हणोनि शरणस्थळ नाम हें।।७४।। पांची इंद्रियांचें सुख अथवा दु:ख। अणुमात्र नाहीं देख। लिंगसुख सुखदायक। होवोनि असे।।७५।। लिंगसुखीं तो रत झाला। त्रिकाळ पूजा करूं लागला। अखंड अहर्निर्शीं रमो ठेला। लिंगीं लीन होवोनि।।७६।। ज्याचें मुखीं अखंड अमृतवाटी। तो काय कांजीसी लाळ घोटी। लिंगसुख सोडोनि विषयांसाठीं। रंक नोव्हेचि तो।।७७।। वोकिल्या वोकासीं। परतोनि कोण्ही न सेवी त्यासीं। तैसा न घे विषयासीं। तें शरणस्थळ उत्तम।।७८।। श्रीगुरूची सेवा करावया। सदा देह ठेविला पायां। तोडिली संसृतीची माया। तया शरण म्हणावें।।७९।। पतिव्रता पतीचें वचनासीं। न टळे सदा सावध जैसी। तेवि लिंगपूजा गुरुदर्शनासीं। न टळे कालत्रयीं।।८०।। ऐसा लिंगमोही विषयत्यागी। तें शरणस्थळ निरोपिलें तुजलागीं। आतां ऐक्यस्थळ उत्तममार्गी। निरोपुं तुज तें सहावें।।८१।।
षडूर्मयश्च षड्वर्गो नास्ति चाष्टविधार्चनम्।
निर्भयं शिवलिंगैक्यं शिखिकर्पूरयोगवत्।।१७।।
ऐक्यस्थळ तें सहावें। तें षडूर्मीवेगळे असें स्वभावें। षड्वर्गांसीं तें ना गवें। निरंजनमूर्ति।।८२।। सुखदु:ख मानापमान। नाहीं आपपर निरभिमान। क्षुधा तृष्णा शीत उष्ण। लागतां न डळमळी तो।।८३।। काम क्रोध लोभ दंभ मोहो। जयाकडे न लभे पाहो। मदमत्सर सर्व विकारसमूहो। अणुमात्र विटाळ न तयाचा।।८४।। मी तूं हें नाहीं तया कधीं। आशा मनिषा विषय कुबुद्धि। नेघे आलिया अष्ट महासिद्धि। शरणागत वीर।।८५।। तो स्वयेंचि वस्तु होवोनि असे। यालागीं जरामरण आठवतु नसे। मा देहबुद्धि तया असे। हें केवि घडें।।८६।। जेथें देहबुद्धिचि नाहीं। तेथें अष्टविधार्चन पूजा कांहीं। पूज्य-पूजक-पूजा आपण पाही। होवोनि ठेला।।८७।। तो भवभयाविरहित। न करी लौकिक गोष्टी मात। न मिरवी जाणीव शाहणीव व्युत्पत। लिंगीं रत होवोनि असे।।८८।। तो लिंगीं मिळोनि कैसा गेला। जैसा कर्पूर अग्निरूपचि झाला। तैसा लिंगीं मिळोनि ठेला। लिंग होवोनि तो।।८९।। भूताकृति भिन्न देखेना। त्रिभुवनीं देखे आप आपणां। विश्वीं ऐक्य विश्व आपणां। पाहे म्हणोनि ऐक्यस्थळ तो।।९०।। निजरूप निरालंबभरित। निर्विकल्प निरंजन मूर्त। निजानंद निर्धुत। निरामय तो।।९१।। तो निराश नि:संग। अनुपम्य अनुरागी अनंग। अनाम अप्रमेय निजांग। होवोनि असे।।९२।। तो शिवतत्त्वीं मग्न होवोन। ईश्वररूपें राहें आपण। अज्ञ जनांतें उद्धरून। निजमार्गां लावीतसें।।९३।। शिवपूजा शिवस्मरण। करितां नसे त्यासीं भान। शिवतत्त्वाची मुख्य खूण। लीन जाण तेथेंचि।।९४।। तया जरा मरण नाहीं। तो अमर असे विदेही। योगाभ्यासीं सदाहि। पूर्णत्व पावला।।९५।। सर्व नाडींचें शोधन करोन। जेथीचें तेथेंचि खुंटवोन। दश दिशांप्रति शोधून। दशद्वारां आकर्षी।।९६।। प्राण व्याप्त शरीरांभीतरीं। न काढोनि ब्रह्मरंध्रीं। प्रवेशितसे निर्धारी। कोटी चंद्रसूर्यप्रभा जिथें।।९७।। तेथें धीर धरूनि उघडितां नेत्र। तो तया प्रभेच्या परत्र। अतिसूक्ष्म न वर्णवें अणुमात्र। ज्योति पवित्र दिसतसे।।९८।। तो मार्ग परम कठिण। मना प्रवेश नोव्हे जाण। म्हणोनिया योगी उन्मन। म्हणती तया।।९९।। तेथें गुरूचें न चालें। कोण्या उपायां न हालें। एक निश्चल तत्त्व डोलें। स्वस्वरूपीं अखंड।।१००।। त्या दृष्टीचें आवरण। अति सदृढ होय म्हणोन। जरी मागें न पाहें परतोन। तरीच चढे पुढती।।१०१।। विद्युत् चपळगति आत्मदृष्टी। चमकोनि मिळे ज्योतिपोटी। मागुती चढोन येता त्रिकुटी। उठाउठीं भेटतसे।।१०२।। जीवशिवां पडिल्या गांठी। हीच असे ऐक्यता मोठी। तत्त्वाविना जेथें सृष्टी। उद्भव होय जाण।।१०३।। हा जाणोनि ऐक्ययोग। जो करी लिंगार्चन सांग। तो ऐक्यस्थळाचा मार्ग। पावला असे निश्चयें।।१०४।। तोचि सद्गुरु शिवाचारासीं। आणि तारक विश्वजनासीं। जो पुजी ऐसिया विश्वासेसीं। तो होय तद्रूपचि।।१०५।। त्याचे मुखीचा प्रसाद चरणींचे तीर्थ। विश्वासें सेवितां अधोगति चुकत। तो परब्रह्मभावना निभ्रांत। भाविजें निजभक्तिं।।१०६।। जो जयाकडे कृपादृष्टीं पाहे। तयासीं सुखाची दिवाळी होय। त्याचे कळिकाळ वंदिती पाय। मा इतरांचें भय काय तया।।१०७।। तें परब्रह्मचि मुसावलें। भक्तिसुखालागीं अवतरलें। वीरशैव नाम पावलें। ऐक्यस्थळ तें।।१०८।। त्या स्थळीं सत्यशरण। असती तेंचि होवोन। ते मजहि होती पूज्यमान। षट्स्थळ तें।।१०९।। हें ऐक्यस्थळ सहावें। तुज निरोपिलें प्रेमभावें। ऐसें ऐकोनि आनंदली जीवें। मग प्रश्न करिती झाली पुढारी।।११०।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। शिवगौरी-संवादीं वर्तत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृत्य मन्मथ।।१११।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे षट्स्थलनिर्णयनिरूपणं नाम द्वादशोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक १७, ओव्या १११.
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अक्षररचना : सौ. उषा पसारकर, सोलापूर

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