Thursday, 5 June 2014

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य अध्याय पंधरावा


संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य

अध्याय पंधरावा
।। श्रीगुरुभ्योनम: ।।
मागें जें जें निरोपिलें। तें तें पूर्णत्वेचि भासलें। पंचतत्त्वीं भरोनि उरलें। रूप तुझें स्वामिया।।१।। गुज खूण ब्रह्मांडाची। कथनी शक्ति असे अन्य देवाची। सत्ता सर्व तुमची। कर्ते तुम्हीच ईश्वरा।।२।। आतां पंचदशम अध्यायीं। कथा रसाळ श्रवणाठायीं। वदा म्हणोनि लागे पायीं। पार्वती देवी सादर।।३।।
देव्युवाच-
लिंगं तु षड्विधं प्रोक्तं तत्रायं परमार्थत:।
जीवो देहं परित्यज्य कस्मिन् लिंगे प्रलीयते।।१।।
पार्वती म्हणे शिवासीं। तुम्ही षडलिंग निरोपिले ऐक्यत्वासीं। तरी देहासीं प्राणलिंगासीं। ऐक्य कोण लिंगीं।।४।। तो तया लिंगीं सामावे कैसा। त्याचा प्रकार निरोपा सरिसा। श्रवणी झाली मन्मानसा। उत्सुकता पैं।।५।।
शिव उवाच-
पंचेंद्रियमुखं ज्ञात्वा पदार्थं च समर्पितम्।
यल्लिंगमनुते यस्तु तस्मिन् लिंगे प्रलीयते।।२।।
पांची लिंगें ज्या लिंगाभीतरीं। तो पांची लिंगां भोक्ता अवधारी। जो भोगून अभोक्ता सर्वांतरीं। तया नांव महालिंग म्हणिजें।।६।। तो महालिंग सर्वगत असे। देहान्ती तेथें जीव समरसे। परि हें तया घडे अखंड ध्यासें। महालिंगानुभव असे जया।।७।। जो महालिंग सदा ध्यातु असे। अंतकाळीं त्यासीं आठवी विश्वासें। मग तोचि होय सौरसे। यासीं अन्यथा नाहीं।।८।। महालिंगां अंतकाळीं आठविजें। तें होणें न चुके सहजें। म्हणोनि अंतकाळीं वोजें। असिजें सावधान।।९।। जो महालिंगीं समाधि लावी। तो जन्ममृत्यूतें चुकवी। शिवध्यानीं बुद्धि सावध ठेवी। तोचि पावे मुक्तिपद।।१०।। अंतकाळीं शिवस्मरण होणें। नसे अभ्यासाविणें। म्हणोनि नित्यनेमें शिवभजन। करावें जागृति स्वप्नींहि।।११।। तयाचें होय साध्य साधन। स्वरूपीं राहे सावधान। नानापरीचे भोग त्यजून। नामस्मरणीं रत असिजें।।१२।। नातरी म्हणशील आतां भोग भोगीन। मग अंतकाळीं सावध होईन। त्या वेळीं महालिंगाचें स्मरण करीन। देह त्यागीन तेंचि होवोनि।।१३।। तरी हें न घडेचि सर्वथा। जरी इंद्रियें न निर्दाळितां। अथवा शिवध्यानहि नसतां। अंतकाळीं वस्तु होणें न घडें।।१४।। अंतकाळीं जठराग्नि जाण। सावध असे जरी भाग्यें पूर्ण। नसतां जठराग्नि जाय विझोन। तेणें धूर कोंडोनि अंधारी होय।।१५।। अंधारीं धूर दाटला जेव्हां। तें वेळीं सावध व्हावें केव्हां। मन बुद्धि भ्रमोनि जाय तेव्हां। आठवण केवि होय।।१६।। अंतकाळीं घाबरेपण। आसन घालोनि बैसेल कोण। मा आठवेल वस्तुपण। मग ब्रह्म होणें न घडें।।१७।। अंतीं जठराग्नि विझलियानें। धूर दाटलिया गुणें। तर्इं मनबुद्धि भ्रमपणें। तेथें चिंतनहेतु कैसा।।१८।। जरी हेतुध्यास कां नाहीं म्हणसी। तो आधीच नसतां निजध्यासीं। तरी अंतकाळीं स्मरणासीं। आठवु कैंचा।।१९।। यालागीं आतांचि अखंडितां। निजध्यास करावा प्रीत्यर्था। तरी अंतकाळीं ध्यासहेतु तत्त्वतां। महालिंगचि होतसे।।२०।। जेवि जागृति मन जेथें थोके। तेंचि स्वप्नीं वासनात्मक देखें। तेवि प्रयाणकाळीं आठवे तें न चुके। होणें देवी।।२१।। यालागीं देह असतां वस्तुध्यास असिजें। तरी तें अंतकाळीं आठवे सहजें। मग तेंच होणें न चुकिजें। देहान्ती वो गौरी।।२२।। यालागीं अखंड महालिंगासीं ध्यास। असे प्राणियां तोचि आठवे तयास। मग जीवासीं ऐक्य समरस। महालिंगीं होय।।२३।। तुवां पुसिले होते अंतकाळीं। जीव मिळे कोण लिंगमेळीं। ती निरूपिली तुझी प्रश्नावळी। निर्णय करोनि।।२४।। ए-हवीं असतां निजरूपाला। अंतकाळ कैंचा तयाला। देह असतां विदेह होवोनि ठेला। त्यासीं मरण कैंचे।।२५।। ज्यासीं मृत्युविकारचि शेखी नाहीं। तो अंतकाळ करील कधीं कांहीं। त्यासीं जाणें येणें मुळीच नाहीं। जीवन्मुक्त नरां त्या।।२६।। त्यासीं जन्मादि षडविकार नाहीं। तेणें अंतकाळीं बसोनि स्मरावें कांहीं। ज्यासीं स्मरावें तेचि पाही। स्वयें होवोनि ठेला।।२७।। म्हणोनि अंतकाळीची व्यथा। अभक्तासीं होय तत्त्वतां। निजभक्तासीं नोव्हे सर्वथा। मृत्युव्यथा प्रयाणीं।।२८।। मरणासीं मारोनि सावकाश। मृत्युंजय झाला अविनाश। त्यासीं प्रयाणकाळीचा प्रयास। सर्वथा न लागे।।२९।। देह गेलिया मोक्ष होय जरी। तरी कां अभ्यास सोसावे शरीरीं। अथवा फिरती देशांतरीं। तें काय व्यर्थचि जाणावें।।३०।। आतां तंत्रमंत्र उपदेशिती। देह गेलिया मोक्ष होय म्हणती। ते सद्गुरु सर्वथा न होती। कैवल्यदानीं।।३१।। जरी मुक्ति ये देहीं न घडे। तरी वैरागी कां शिणती वेडे। ब्रह्मज्ञानी गुरु न भेटतां बापुडे। करितील काय।।३२।। यालागीं सद्गुरु ज्ञानी व्हावा। तो महालिंगीं मेळवी जीवां। यापरी जीवाचा ऐक्यठेवा। देवी तुज निरोपिला।।३३।। प्रभुरूप श्रीगुरुनाथ। जया भेटती भाग्यानुसार समर्थ। ज्याचें बोधें परब्रह्म समस्त। शिष्यांसीं भासें।।३४।। ऐसा तो परब्रह्मचि झाला। मग मनादि सर्वेंद्रियाला। वस्तुत्वें देखे तयाला। अभेदवादी होवोनिया।।३५।।
यथा तत्त्वं तथा दृष्टिर्यथा दृष्टिस्तथा मन:।
यथा मनस्तथा भावो यथा भावस्तथा लय:।।३।।
जैसा तत्त्वरूपासीं आला। तैसाचि बोध दृढ बाणला। जें जें देखें तें तें तयाला। महाqलगचि भासें।।३६।। ज्याची दृष्टी झाली चैतन्यघन। जैसी दृष्टी तैसें मन। जैसें मन तैसा भाव जाण। अभेद ज्याचा।।३७।। जैसा भाव तैसा लय पावला। लयत्वें वस्तुत्वें लयीं विश्रांतीस आला। तो वस्तुचि होवोनि ठेला। त्यासीं भेद नाहीं।।३८।।
अर्पितानर्पितन्नास्ति भेदं वा अर्पणे तथा।
पदार्थस्य प्रसादस्य किंचिद् भेदं न भावयेत्।।४।।
ज्या पदार्थीं मिळे प्रसाद। तो अर्पावा नाहीं भेद। तो आपणचि स्वत:सिद्ध। म्हणोनि संदेह नाहीं।।३९।। त्यासीं अर्पणीं अनार्पणीं भेद नाहीं। सहज अर्पण होतसे पाही। दोन्ही इंद्रियांचे ठायीं। ब्रह्मबोध ओसंडतसे।।४०।। श्रवणीं ऐके कांहीं जें। त्वचेनें जें जें स्पर्शिजें। चक्षूनें जें जें देखिजें। तें वस्तुरूपचि।।४१।। जिव्हेनें जें जें चाखिजें। घ्राणें जो जो गंध घेईजें। तें तें वस्तुत्व मानी सहजें। सत्यशरण तो।।४२।। जें जें वागिंद्रियाचे बोलणें। पाणींद्रियाचें जें जें घेणें। पादेंद्रियाचें जें जें चालणें। तें तयाविण नाहीं।।४३।। ऐसें सर्व इंद्रियांसीं। घेणें देणें अहर्निशीं। तें तें समर्पी महालिंगासीं। म्हणोनि तया भेद नाहीं।।४४।। ऐसा जो तत्त्वरूप होवोनि। तत्त्वीं मिश्रित असे तत्त्वपणीं। त्यासीं अर्पित अनार्पित कोणी। भेदु न देखिजे।।४५।।
अभावे भावमासाद्य ह्यस्थाने स्थानमाचरेत्।
एतद्वयपरिज्ञानी प्रसादी सावधानक:।।५।।
तूं म्हणसी अर्पित अनार्पित। भेद कां नाहीं त्यासीं निश्चित। तरी तो काय क्रियारहित। जाला म्हणसी।।४६।। तरी तो ऐक विचार। तो क्रिया न टाकी चतुर। अभाव भाव सारासार। जाणता म्हणोनि।।४७।। तो स्थानां अस्थानां जाणतां। सव्य अपसव्य ओळखतां। तो होय केवि क्रिया सांडितां। विचारोनि पाहे वो देवी।।४८।। भोग्याभोग्य जाणोन। जो वर्ते जाणे तो सज्ञान। अकर्तेपणें असें ज्याचें वर्तन। तो भयानें क्रिया टाकीना।।४९।। अकर्तेपणें असतां। तो क्रिया न टाकी सर्वथा। स्वयें होवोनि वस्तुता। असे म्हणोनिया।।५०।। यालागीं अर्पितानर्पितासीं। संदेह नाहीं तयासीं। कां म्हणसी तरी फळासीं। निराश म्हणोनिया।।५१।। कां क्रिया आलियावरी। तरी फुगारा न धरी अंतरीं। अथवा बिघडल्यावरी अंतरीं। दु:खी न होय तो।।५२।। तो अवघा आपणचि झाला। तो निराश फळासीं आला। म्हणोनि अर्पितानर्पित तयाला। संदेह नाहीं।।५३।। परि तो क्रिया न टाकितां नित्य वर्ते। जडजीव तरतील या परोपकारार्थें। क्रिया करावी सर्व समर्थें। जरी झाला प्रभुरूप।।५४।। यालागीं तो सत्यशरण। क्रिया करी चित्तवृत्ति ठेवोन। क्रियाफळास निराशपण। अकर्ता म्हणोनिया।।५५।। ज्यासीं असें ऐसें ज्ञान। तया अर्पितानर्पितीं अलिप्तपण। म्हणोनि तया ठायीं भेदलक्षण। धरूंचि नये।।५६।। येणेंपरी जो होय आचरता। तया बोलिजें सदा सावधानता। तोचि शुद्ध प्रसादी तत्त्वतां। सत्यशरण तो।।५७।।
संयोगे च वियोगे च लघुबिंदुसुखार्पितम्।
य: कुर्यादिष्टलिंगे च सावधानं निरंतरम्।।६।।
संयोगीं अथवा वियोगीं। बिंदुमात्र जें सुख घडें अंगीं। तें अर्पिता जाण लिंगीं। तो सावधान प्रसादी।।५८।। ज्या ज्या क्षणीं जें जें होय सुख। अणुमात्र तेंहि अर्पी देख। इष्टलिंगाचे ठायीं निष्टंक। तो सावधान प्रसादी।।५९।। कां म्हणसी तरी ऐक। गुरु लिंग जंगम तिन्ही एक। यालागीं लिंगासीं पूजा करी नेमक। हें तें गुरूसीं अर्पिजें।।६०।। यालागीं जें पुजिजें। तें तें गुरूसीं अर्पे सहजें। तैसेचि इष्टलिंगासीं अर्पिजें। तें तो गुरु भोक्ता।।६१।। ऐसिया अर्पणविधीनें जो वर्ते। सावधान प्रसादी बोलिजें त्यातें। तो जिवांहूनि आवडे आमुते। सत्यशरण वो देवी।।६२।। जो सत्यशरण झाला। तो लिंग होवोनि ठेला। भेदाभेद निमाला। तया पुरुषाचा।।६३।। त्याचे आम्हांसीं ध्यान। तो देव भी भक्त जाण। तो आत्मा मी देह आपण। ऐसा पढियंता तो आम्हां।।६४।। तया आम्हां वियोगतां। कधी न पडे तत्त्वतां। मी तयांत तो मज अतौता। होवोनि असे।।६५।। ऐसा जो सत्यशरण। तोचि प्रसादी सदा सावधान। अंतकाळीं तयाचा प्राण। वस्तूसीं समरसे।।६६।।
प्राणप्रयाणकाले च लिंगभोगोपभोगिन:।
अर्पयेत् सावधानेन स्वलिंगे प्राणनायक:।।७।।
लिंगभोग भोगी जो सत्यशरण। लिंगीं लिंगरूप जाहला आपण। त्यानें प्रयाणकाळीं सावधान। प्राण अर्पावा महालिंगीं।।६७।। लिंगभोग घेतां जो लिंगप्राणी। त्याने प्राण प्रयाणकाळीं मेळवोनि। महालिंगीं समरसोनि। महालिंगचि होईजें।।६८।। ऐसा तो अंतकाळीं सावधान। महालिंगीं मेळवी प्राण। त्या नामे प्राणलिंगी जाण। सत्यशरण वो देवी।।६९।। नातरी जन्मवरी सावधान। अंतकाळीं पडें विस्मरण। तरी केले कष्ट व्यर्थ जाण। जाले त्याचे कीं।।७०।। नरदेह पावोन उत्तम। करी सद्वर्तनाचा नेम। जो पुरुष सदा सप्रेम। शिवभक्ति करीतसे।।७१।। तोचि या यातनेतून। दूर असे भक्तजन। त्याची निमाली सर्वथा जाण। अविद्याबंधनें पैं।।७२।। जो आत्म-अनात्मविचार करी। त्यासीं प्राप्त होय मंगळेश्वरी। ऋद्धिसिद्धि परोपरी। राबती तेथें।।७३।। तो पुरुष शिवचि झाला। ब्रह्मीचा अधिकार त्याला। प्रतिईश्वर बोलियेला। दयाशील म्हणोनि।।७४।। ऐसिया दशेप्रत। प्राप्त होती शिवभक्त। जे आचरती शिवयोग निभ्रांत। एकनिष्ठपणें।।७५।। देहसंबंधें जी जी क्रिया घडे। तें तें सुखदु:ख घेतां रोकडे। न मानी आपुलें कर्म साकडे। ईश्वर-इच्छा भावीतसे।।७६।। अंतकाळीचे क्लेश। निजभक्तां लागूं नेदी सर्वेश। दूर करी तयाचा भवपाश। शिवभक्तिकारणें।।७७।। ऐसा निष्ठावंत भक्त। जो असेल गुरुकरजात। तो अहर्निश जपत। गुरुखुणेसीं।।७८।। पूर्वी ध्यास जो होता गुरुखुणेचा। जरी अंतकाळीं विसर पडे तयाचा। तरी जें आठवें तें साचा। होणें न चुके कदा।।७९।। गुरुखूण म्हणिजे श्रीगुरूचें स्वरूप। अरूपचि असें होवोनि रूप। जैसें पातळ तेंचि गोठोन तूप। तेंचि शुभ्र जाहलें।।८०।। उदकाची गार गोठोन। साकार झाली एक क्षण। अंतीं विरोन नीरपण। नव जाय कीं।।८१।। गार विरतां न विरतां। नीरचि असे विवेकें पाहतां। तैसें गुरुरूपी निराकारतां। सदा शिष्याची भावना।।८२।। निराकार गुरुरूपाची खूण। प्रयाणकाळीं जे आठवण। तरी तेंचि होईजें चैतन्यघन। परब्रह्मचि।।८३।। हेहि बोल बोधावया बोलिलो देवी। तयासीं आठव नव्हता काय पूर्वी। अंतकाळीं आठव जहाला हे पदवी। बोलचि नव्हे।।८४।। तरी अखंड ध्यास पूर्वी असे। तरी अंतकाळीं मुखासीं ये अपैंसे। आदि नसतां अंतकाळीं आठवूं बैसे। तरी आठवे केवि।।८५।। ज्याचें जेथ असेल मानस। अंतकाळीं तेंचि आठवें तयास। तें होणें न चुकें सावकाश। ऋषिमुनिजनां।।८६।। ज्या ज्या भावनें देह जाये। त्या त्या भावनें होणें आहे। हें न चुके तेंचि होय। तुझीच आण।।८७।। कोणी म्हणती पार्वतीची आण। वाहिली काय म्हणोन। तेंचि तेहि ऐका श्रोतेजन। खूण सांगेन जी।।८८।। पार्वती ते भक्तराज। भक्त म्हणिजे देवपणाचें बीज। देवपण आलें भक्तांगें सहज। ए-हवीं अव्यक्त अनाम।।८९।। भक्त तरी देवपणें उच्चारिती। देव तरी भक्तीनें मिरविती। येरयेरांवांचून स्थिति। नुरेचि उभयां।।९०।। भक्त भक्तीनें देवो झाला। तंव उभयासीं भेद खंडला। आतां देव भक्त म्हणणें बोल ठेला। भक्त देव एकचि।।९१।। यालागीं देव तोचि भक्त भक्त तोचि देव। ऐसा जरी धरी अनुभव। तरी आणेचा संदेह। कां धरावा चतुरीं।।९२।। पार्वती स्त्रीरूप दिसताहि। तो निजात्मचि असे पाही। विचार आत्मा आत्मी वस्तूचे ठायीं। असे काय पाहतां।।९३।। जैसा बहुरूपी नटे सोंग। सोंग लटिकें बहुरूपी अभंग। परि सोंगांवेगळें त्याचे अंग। अनेक ऐकिले काय।।९४।। मत्स्य कच्छ पशु पक्षी योगी स्त्री। देव नृपति अंत्यज श्वान रूप धरी। इतुकीं रूपें करी खेळांभीतरीं। परि रूपीं न मिळे बहुरूपी तो।।९५।। तैसा प्रभु तो एकला। अनंत रूपें तोचि नटला। तरी पार्वती आणि शिवाला। वेगळीक असे काय।।९६।। म्हणोनि निजप्रीतिभावें। देवीची आण वाहिली देवें। हे सत्यशरण जाणती स्वभावें। अभेदपण।।९७।। ऐसा अभेदपणें करी पूजन। अंतकाळीं असे सावधान। त्यासींच बोलिजें सावधान पुरुष जाण। सदाशिव साक्षात् तो।।९८।।
लिंगार्पिततनुप्राणमर्पितं च पृथक् पृथक् ।
अर्पितं मुखसंबंधो सुखमींद्रियगोचरम्।।८।।
देहक्रिया प्राणक्रिया जे जे होत। ते ते जाणोनि महालिंगीं अर्पित। अकर्ता क्रियाकर्मा अलिप्त। तो सत्यशरण जाणिजें।।९९।। देह प्राण क्रिया होतां। तेथें सुख होय जें तत्त्वतां। तें तें होय अर्पितां। महालिंगीं जेवि।।१००।।
न कायप्राणकर्माणि प्राणलिंगांगसंगिन:।
कालोऽपि शरणं याति जीवन्मुक्त: स्वभाविन:।।९।।
लिंगप्राणी जो पुरुष। कर्मबंध नाहीं तयास। कां म्हणसी तरी सावकाश। विश्वास धरूनि ऐक पां।।१०१।। देहक्रिया ज्ञानक्रियेस। तो न लिंपे उभयास। अकर्ता ज्ञानी बोलिजें तयास। तोचि शुद्धमुक्त जाण।।१०२।। प्राण आणि लिंग एक कीजें। तयासीं प्राणलिंगी बोलिजें। कालभय शरण येई सहजें। तया सत्यशरणासीं।।१०३।।
स लिंगीं प्राणमुक्तश्च मनोमुक्तस्तु जंगम:।
प्रसादी कायमुक्तश्च त्रिविधस्तत्त्वनिर्णय:।।१०।।
प्राणलिंगी तो प्राणमुक्त जाणिजें। जंगम तो मनोमुक्त मानिजें। प्रसादी तो शरीरमुक्त म्हणिजें। याचा निर्णय सांगूं ऐक।।१०४।। प्राण तो लिंगीं ऐक्य केला। म्हणोनि प्राणमुक्त बोलिजें त्याला। जंगम तो मनोमुक्त झाला। तेंहि निरोपुं तुज आतां।।१०५।। मनाचा संकल्प विकल्प। हेंचि बंधनाचें रूप। तें मनचि झालें उन्मनीं रूप। मनोमुक्त या लागीं।।१०६।। मनाचा संकल्प विकल्प तुटला। मनोमुक्त जंगम बोलिजें त्याला। सर्व विकारीं तो सुटला। म्हणोनिया।।१०७।। जंव संकल्प विकल्प तुटेना। तंव जन्ममरण सुटेना। संकल्प गेलिया मनोमुक्त जाणा। बोलिजें जंगम।।१०८।। प्रसाद विश्वासें सेवितुसे। प्रसादनिष्ठें देहबुद्धि नाशे। म्हणोनि शरीर मुक्त अपैंसे। तया प्रसादियाचें।।१०९।। ऐसी तिही प्रकारची मुक्तस्थिति। तत्त्वनिर्णय चढे त्याचे हातीं। स्वयें तत्त्वचि होय महामूर्ति। तोचि सत्यशरण देवी।।११०।। तयासीं लौकिक व्यवहार। नाहीं प्रपंच आचार। तो तारावया शिवाचार। सद्गुरु बोलिजें।।१११।।
प्राणलिंगी स्वयं शांतो लौकिकाचारवर्जित:।
सर्वसंगपरित्यागी वर्तते शिवभाववान्।।११।।
प्राणलिंगी जो पुरुष। तया लोकांचा उद्देश। लोकाचार नावडे तयास। तत्त्वीं रत सदा तो।।११२।। तो तिन्ही लोक वर्जित। त्यासीं नावडे स्वर्गपद पदार्थ। नावडे भोगविलास समस्त। तो परि रत माझे ठायीं।।११३।। त्यासीं पाषाण तैसें कांचन। गारेऐसें माणिक्यरत्न। स्त्रीपुरुषां निवडण। नाहीं तया।।११४।। हा गज हा मशक। हा स्वामी हा सेवक। हा राजा हा रंक। नेणेचि निवाडा।।११५।। हा पापी दोषी हा साधु। हा चतुर हा मूर्ख मैंदु। हा वैरी हा बंधु। भेद नाहीं तया।।११६।। निंदास्तुति सम धरी। मान अपमान नाठवे अंतरीं। मीतूंपणाची उजरी। नाहीं तया।।११७।। सर्वत्र मजलाचि देखत। जें जें देखें तें मजरूपचि मानीत। अर्ध क्षण मजविरहित। न राहे तो।।११८।। तो न राहे मजविण एक क्षण। मी नाहीं अर्ध क्षण त्याविण। तें माझे विश्रांतीचें स्थान। मी विश्रांति त्याची।।११९।। ऐसें असोनिया ज्ञान। स्वधर्मे वर्ते निष्ठेकरून। अज्ञ जनां तारावया जाण। क्रिया करी नेमेसीं।।१२०।। सर्वत्र मानितां अभेद। क्रिया भंग होय अबद्ध। असे धर्मशास्त्रीं प्रसिद्ध। भेद ठेवावा क्रियेलागीं।।१२१।। अलिंगि-स्पर्श होतां जाण। तात्काळ करावें स्नान। क्रिया करी देह झिजवून। तोचि धन्य संसारीं।।१२२।। जो तिन्ही लोकाचें सुख त्यागी। कष्ट करोनि राहे शिवमार्गीं। शिवयोगी रत विरागी। तो जाण निजभक्त।।१२३।। ऐसीं हीं नित्यमुक्त लक्षणें। श्रीशिवकृपें पार्वती जाणे। गुरुभक्ताविणें हें जाणणें। दुर्लभ देवी सर्वथा।।१२४।।
नाहं वसामि कैलासे न मेरौ न च मंदरे।
मद्भक्ता यत्र तिष्ठन्ति तत्र तिष्ठामि पार्वति।।१२।।
ऐक पार्वती विश्वासें। मी कैलासीं तरी न वसे। मेरुशिखरीं सर्वथा नसे। मी असे भक्तांजवळी।।१२५।। मी मंदराचळीं नाहीं। ढवळागिरीं नसे पाही। माझे भक्त असती जें ठायीं। तेथें मी वसतुसे।।१२६।। माझे भक्त जेथ असती। तेथ मी तिष्ठे कैलासपति। ते अखंड माझे सांगाती। मी सांगाती तयांचा।।१२७।। देखून भक्तवृक्षासीं। मी राहे त्याचे छायेसीं। ऐसी एकोपता मज त्यासीं। ऐक्यभाव अभेद।।१२८।। यालागीं बसवेश्वरासीं म्हणे। तुझिया पालखातील मी तान्हें। मी श्लाघ्य तुझेनि भक्तिगुणें। भक्तिचिया प्रेमा मज।।१२९।। भक्ताचा मी विकला। भक्तनामी अंकिला। भक्तिभावें बांधिला। कैलासनाथ।।१३०।। ज्याचें हृदय निर्मळ। निष्कपट जैसें गंगाजळ। तेथ मी तिष्ठे जाश्वनीळ। सद्भाव देखोनिया।।१३१।।
सद्भावं सद्गुणं चैव स्वधर्मे सावधानक:।
सत्संगस्त्वनवद्यत्वं तत्र तिष्ठामि पार्वति।।१३।।
देवी मी वसे तो ठाव ऐक। जे सद्गुणी जन सद्भाविक। दशक्रिया सुधार्मिक। तेथ मी तिष्ठतसे।।१३२।। सात्त्विक आणि सत्यवादी। निरभिमानी सद्बुद्धि। सावधानी निरवधि। तेथें मी वसतसे सदा।।१३३।। शंकर म्हणे पार्वतीप्रति। जो सद्भावें अर्ची प्रेमें प्रीति। तयाचे गर्भवास चुकती। स्वधर्मनिष्ठेंकरोनिया।।१३४।। जे जे भाविक भक्त शुद्ध। तयाकारणें न लगे बोध। ते स्वधर्माचारें वर्तती सिद्ध। आचारज्ञानयोगें।।१३५।। तया जे मानिती आप्त। तया जन्मयातना न होय प्राप्त। शिवपदालागीं अव्यक्त। भक्त असे तोहि पैं।।१३६।। व्यक्त भक्तां ओळख। लिंगभस्मधारण देख। रुद्राक्षमाळाभरणें सुरेख। शोभतसे प्राणी तो।।१३७।। लिंगधारण जया नाहीं। त्यांनीं पार्थिव पुजावें पाही। अथवा प्राणलिंगाचीहि। पूजा करावी आदरें।।१३८।। लिंगधारण नाहीं ज्यास। जरी लिंगधारीचा घडे सहवास। तरी तो अलिंगी शुद्धपदास। पावे शिवस्पर्शें।।१३९।। तैसाचि भस्माचा गुण। वीरशैवाचें भस्म पावन। अत्यादरें स्पर्श करितां जाण। तुटती जन्मफेरे।।१४०।। रुद्राक्षपरिधानाची गोडी। जया असे परम आवडी। तोही पावे कैलास भवंडी। शिवचिन्हेंकरोनिया।।१४१।। शिवचिन्हाची थोरवी मोठी। न वर्णवे कोणा उठाउठीं। धारण करितां शंकरभेटी। घडतसे निश्चयें।।१४२।। ऐसे भक्तराज उत्तम। आचरती धरोनि नेम। तयाजवळी वसे सप्रेम। अन्य स्थळ नावडे।।१४३।।
सद्भक्तिश्च सदाचार: सद्गोष्टिश्च सदा सुखी।
सम्यक्ज्ञानं सदानंदं तत्र तिष्ठामि पार्वति।।१४।।
सद्भक्त सदाचारी असती। सद्गोष्टी सदा वसती। सदा शुचित्वें वर्तती। तेथ मी तिष्ठे सदाकाळ।।१४४।। सम्यक् ज्ञान सदा आनंद। सदा शांत सद्बोध। त्याचें हृदयीं शिवानंद। सदा क्रीडतसे।।१४५।। जो उदासवृत्ति सोडून। सदा आनंदी ठेवोनि मन। कालमृत्यूतें विसरून। राहे सावधान मद्भजनीं।।१४६।। जो अनिंदक अद्वैत। जो निराश निजभरित। तयाचें हृदयीं सदोदित। वास माझा असे वो देवी।।१४७।।
विषयान् विषवत्त्यक्त्वा क्रोधं पारुष्यमेव च।
भक्तिप्रेमदयायुक्तस्तत्र तिष्ठामि पार्वति।।१५।।
विषयां विषासम मानोनि। जेणें त्यागिलें तत्क्षणीं। त्याचें हृदयीं मी शूळपाणि। सदा तिष्ठतु असे।।१४८।। अक्रोधी जो सदा निवांत। क्रोधातें मांग मानोनि नातळत। त्याचें हृदयीं मी कैलासनाथ। अखंड असे।।१४९।। जो नि:संग कोणाचा। संग न धरी त्रिगुणिकांचा। सुहृद असे जीवाचा। तेथ मी असे सदा।।१५०।। भक्ति तरी प्रेमें करी। भूतदया सर्वांवरी। तेथ मी त्रिपुरारी। सदा वसतसे।।१५१।।
मद्भक्तिरतो नित्यं मन्नामस्मरणं सदा।
शरण्योऽऽचारसंयुक्तस्तत्र तिष्ठामि पार्वति।।१६।।
एकविध भक्तिप्रेम करी। भूतदयायुक्त जो अंतरीं। तेथें असे मी त्रिपुरारी। अन्या ठायीं नसे कदा।।१५२।। वेदशास्त्रें सांगती युक्ति। जीवें करावी शिवभक्ति। तेथें कलिकालाची नसे शक्ति। महिमा अद्भुत भक्तीचा।।१५३।। माझी भक्ति कोणती म्हणसी। माझें नांव गावें सप्रेमेशीं। माझें ध्यान अहर्निशीं। त्यापासीं सदा वसे।।१५४।। नित्य नाम असे घेतां। मद्रूप होय तत्त्वतां। देखे लावी भक्तिपंथा। आचरोनि जो कां।।१५५।। शिवकथा शिवगोष्टी। सांगतां उल्हास न माये पोटीं। तयापासीं मी धुर्जटी। सदा तिष्ठतु असे।।१५६।। ते माझे अति जिवलग। ते आत्मा मी त्याचें अंग। तया मज वियोग। कदा नाहीं।।१५७।। तेणेंचि केला सर्व नेम। त्यानेंचि केला सर्व धर्म। तोचि उत्तमाचा उत्तम। जो ध्यातो सादर नाम माझें।।१५८।। त्या सत्यशरणाचा मी अंकित। तो चालतां मी खडे वेचीत। सदा मी त्याभोवतां भोवत। विघ्न निवारीत तयाचें।।१५९।। जयास तो वचन देईल। म्हणे जाय तुझें बरें होईल। तया मज देणें लागेल। तो म्हणेल तेंचि तें।।१६०।। सेवक जैसा स्वामिसेवेसीं। सदा सादर अहर्निशीं। तैसा मीहि भक्तापासीं। सेवेसीं सादर सदा।।१६१।। मी सदा वर्ते त्याचे बोली। सदा असे त्याचेजवळी। अहर्निश तयाचे मेळीं। मी चंद्रमौळी भक्तीस्तव।।१६२।। त्याचें आम्हांसीं ध्यान। आम्ही हृदयीं धरूं त्याचें चरण। तयाचेनि मज देवपण। तो भक्त म्हणोनि।।१६३।। तयाचेनि योगें मी श्लाघ्य त्रिनयन। तो आमुचे देवतार्चन। तयाचे सद्भावें रात्रंदिन। करी पूजन मी देवी।।१६४।। तो आम्हां पढियंता अत्यंत। तोचि जंगम तोचि भक्त। निराकारां आकार त्यानिमित्त। घेणे घडे आम्हां।।१६५।। आम्हां तया भेद नाहीं। मी तोचि तो विवेकें पाही। मी त्यामाजीं मी त्याचे ठायीं। मीच होवोनि असे तो।।१६६।। काशी आदि सर्व तीर्थें जाण। तयाचे चरणीं होती पावन। गंगा यमुना सरस्वती मिळोन। चरणधुळी वांछिती।।१६७।। कां म्हणसी तरी ऐक। तीर्थीं पाप फेडोनि जाती लोक। त्या तीर्थाचें पाप क्षाळी देख। सत्यशरणाचें चरणरज।।१६८।। त्याचें चरणतीर्थ पावन। त्याचें चरण देवतासीं उद्धरण। पाषाणासीं येतें देवपण। तयाचें चरणतीर्थें।।१६९।। ऐसे ते माझे मुकुटमणि। मी अखंड त्याचे ध्यानीं। आतां किती वर्णूं मी वाणी। तूंहि जाणसी वो देवी।।१७०।। तो मज पूज्यमान जंगम। तोचि सत्यशरण जाण उत्तम। त्याच्या चरणीचें तीर्थ पावन। तिन्ही देवतांसीं।।१७१।। ही शरणाची परम गति। तुज कथिली वो पार्वती। अभक्ताची काय स्थिति। ती परिसावी सावध।।१७२।। जो अभक्त खल दुर्जन। निंदी सद्भक्ताचें वचन। अवमानी धर्मनीति जाण। कुमार्गीं रत सदा।।१७३।। धर्मनियम तोडोनि पाही। स्वमताचार रूढवी कांहीं। पाखंड वाढवूनि लवलाही। स्वधर्मातें त्यजवी तो।।१७४।। दुर्वासनें वर्ते आपण। तैसाचि करवी रोखून। तया वश न होतां जाण। खोड मोडी दुष्टत्वें।।१७५।। जन्मापासून चालतां धर्म। त्यागून पाळवी अधर्म। प्रसिद्ध खूण सोडून। दुजे सांगे वर्तावया।।१७६।। स्वजातीची करी निंदा। त्याचें वचन न मानी कदा। यम घालूनिया आपुलिया फंदा। नेत तया यमपुरासीं।।१७७।। तेथ त्याची घेती झडती। पापपुण्याची करिती गणती। जे शिक्षेलागीं पात्र होती। तया ताडिती शस्त्रघायें।।१७८।। स्वधर्मीं निष्ठा नसे ज्यासीं। कुंभीपाकादि शिक्षा त्यासीं। काचरसाचे कुंडापासीं। नेती त्या बुडवावया।।१७९।। अग्निस्तंभां भेटवून। सवेचि करविती वृश्चिकदंशन। तीक्ष्ण शस्त्रें टाकिती छेदून। पुनर्जन्मां पाठविती।।१८०।। पापपुण्य होतां समस्थिति। मनुष्यजन्मातें घालती। तेथें जरी स्वधर्मे वागती। नाहीं भीति यमाची त्या।।१८१।। स्वधर्मीं पुण्य प्राण्यांस। विनयें भोगविती विलास। पुण्यक्षय झालिया नि:शेष। मृत्युलोकांस पाठविती।।१८२।। ऐसी ही स्वधर्म-पुण्याची भीति। यमादिकां असे निश्चिती। पुण्यकर्माचा महिमा देव जाणती। वाखाणिती बहुसाल।।१८३।। स्वधर्माचरणाचें यश। लाजवितसें शक्रास। म्हणोनि सांभाळावें तयास। स्वात्मसुखालागीं।।१८४।। माझे जे परम भक्त। त्याचे धर्मावर ग्रंथ। सूक्ष्म असती अत्यंत। गुरुगम्य ते।।१८५।। जे मज आठविती रात्रंदिन। मज अर्चिती पंचाक्षरेंकरोन। ते मज प्रिय अनुदिन। लिंगधारी।।१८६।। तया शिवभक्तां यम येत शरण। जे कां qलगधारी करिती भस्मधारण। तैसेचि घालती रुद्राक्षाभरण। तें पावन ब्रह्मादिकां।।१८७।। तेथें मी अहोरात्र वसे। भूतगणांसह परियेसे। अष्ट महासिद्धि सावकाशे। राबती तेथें।।१८८।। न आवडे कैलासवास। कैलासीं मी असे उदास। भक्तगृहीं संतोषवश। डुलतसे आनंदें।।१८९।। ऐसा सदाचारी तोचि जंगम। माझेंचि स्वरूप जाण सुगम। त्याविण मज नसें प्रेम। अन्या ठायीं।।१९०।।
मद्देहं जंगमं देहं मत्प्राणश्चरलिंगक:।
तस्माद्धिचरतीर्थेन मम तृप्तिर्वरानने।।१७।।
माझा देह तंव जंगमदेह। माझा प्राण तो जंगम आहे। पाहतां विचारें पाहे। पूज्यमान तो आम्हां।।१९१।। यालागीं चरणतीर्थ आम्हांसीं। सेवावया अधिकार नेमेसी। त्याचें तीर्थें तृप्ती आम्हांसीं। निजमानसीं वो देवी।।१९२।।
अनादिजंगमं देवि संपूज्य चरणोदकम्।
अर्पयेत्परया भक्त्या ब्रह्माविष्णुसुरेश्वरान्।।१८।।
अनादिसिद्ध जंगममूर्ति। निराकार तारावया भक्तांप्रति। अवतरला सत्यशरण जाणती। सत्यशरणाला।।१९३।। त्याच्या चरणीचें तीर्थ। आम्हां तिन्ही देवांसीं अर्पित। करावया अधिकार नेमस्त। असे वो पार्वती।।१९४।। त्याचें चरण प्रक्षाळून। अष्टविधार्चनें कीजें पूजन। अंगुष्ठतीर्थाचें सेवन। आदरें कीजें।।१९५।।
अनादिजंगमो नित्यो निजैवास्य चराचरम्।
चातुर्वर्णं भवेत् शिष्यं जंगमो गुरुरुच्यते।।१९।।
अनादिसिद्ध जंगम जाण। नित्य निर्गुण निरंजन। तो चातुर्वर्णासीं गुरु आपण। तारक जाणिजें।।१९६।। यालागीं तोचि गुरुराव। त्याची दीक्षा घेवोनि एकभाव। तो त्यजूनि करी अन्य गुरुदेव। तरी निरयासीं जाईजे।।१९७।। बहुलिंग बहुदैवतपूजन। बहुप्रसादी बहुगुरुसेवन। तयासीं दृष्टान्त जो देईन। तो ऐक वो देवी।।१९८।। जैसा दासीकुसीं पुत्र झाला। तो आप्पा म्हणेल भलत्याला। ऐसा विचार घडला त्याला। ज्याला गुरु बहु होती।।१९९।। एकनिष्ठा एकभावो। तोचि होय देवाधिदेवो। परि आधीच गुरुरावो। ज्ञानिया कीजें।।२००।। जो असे ज्ञानांकित। जयाची संतमुखीं स्तुत। त्याची दीक्षा निभ्रांत। घेईजें विशेषें।।२०१।। ऐसा जो गुरुरूप जंगम। मी तो जाण उत्तम। ज्याचे पूजेचा आम्हां नेम। तें विश्रामधाम आमुचें।।२०२।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। शिवगौरीसंवादीं वर्तत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृत्य मन्मथ।।२०३।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे शरणलक्षणनिरूपणं नाम पंचदशोऽध्याय: संपूर्ण:।।
श्लोक १९, ओव्या २०३.
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अक्षररचना : सौ. उषा पसारकर, सोलापूर


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