Sunday, 22 June 2014

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य अध्याय सोळावा



संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य

अध्याय सोळावा


।। श्रीगुरवे नम:।।
पंचदश अध्यायापर्यंत। कथिलें असें रहस्य अमित। ऐकोनि सद्गदित झालें चित्त। जगदंबेचें तें काळीं।।१।। ऐसा हा शिवधर्म उत्तम। भूतळीं कैसा आला परम। ये विषयीहि प्रश्न सप्रेम। करीतसे पार्वती।।२।।
देव्युवाच-
धर्मस्यास्य महादेव महिमातिशयशालिन:।
प्रादुर्भावो हि भूलोके कथं जातं श्रुणोमि तत्।।१।।
ज्याच्या सेवेनें होती लोक पावन। ऐसा हा शिवधर्म परम गहन। भूमंडळीं कैसा झाला उत्पन्न। तें ऐकूं वाटें मज।।३।। या शिवाचार-धर्माची प्रसिद्धि। कवण्या आचार्यानें केली वृद्धि। तयांचीं नांवें मज निवेदी। कृपा करोनि स्वामिया।।४।।
शिव उवाच-
अत:परं प्रवक्ष्यामि पंचाचार्यसमुद्भव:।
तेषां नामानि स्थानानि सावधानमना श्रुणु।।२।।
शंकर म्हणे अंबेप्रति। तुझा प्रश्न आचार्य-उत्पत्ति। शिवधर्म असे अनादिसिद्ध स्थिति। त्याची उत्पत्ति न वर्णवे।।५।। प्रथम सांगेन आचार्य नाम। पुढें कथीन अवतार ग्राम। हा स्वायंभुवागमीं विस्तारक्रम। असे जाण पार्वती।।६।। रेणुक दारुक एकोराम। पंडित विश्वाराध्य पंचम। या आचार्यांचा महिमा परम। वर्णूं शके कोण।।७।। ऐसे पांची आचार्य शिवाचारमार्गीं। ते पांच झाले चहुयुगीं। त्यासीं आम्हांसीं भिन्नत्व जगीं। नुरेचि देवी।।८।। तेवि ते महंत सत्यशरण। सातशें सत्तर गण। त्याज मजला भिन्नपण। सर्वथा नाहीं।।९।। पांची आचार्य शिवाचारासीं मूळ। तयापासाव शिवाचार सकळ। वीरशैवमार्ग प्रबळ। विस्तार जाहला ।।१०।। तोचि मुळीचा शिवाचार। कल्याणीं अवतरला बसवेश्वर। त्यानेंहि केला विस्तार। शिवाचाराचा।।११।। कोण्ही म्हणती शिवाचार नवा झाला। बसवेश्वरापासून विस्तारला। तें नेणोनि बोलती बोलां। अज्ञानपणें।।१२।। जहींचा शिव तहींचा शिवाचार। नवा झाला म्हणती ते पामर। अनादि शिव तरी शिवाचार। अनादिसिद्धचि असे।।१३।। शिव जरी होता युगानुयुगीं। तरी शिवाचार असेल कीं जगीं। जैचा शिव तैचा भक्तांगीं। शिवाचार अभंग असे।।१४।। म्हणोनि अनादिसिद्ध। असे शिवाचार निबद्ध। नवा झाला म्हणती बुद्धिमंद। तें नेणोनि बोलती।।१५।। मी अनादिसिद्ध शिवमूर्ति। शिवाचारहि अनादिसिद्ध पार्वती। यालागीं नूतन झाला जे म्हणती। ते मूर्ख जाणावें।।१६।।
यदा यदा प्राणशिवैक्यभाजां हानिर्भवेत् भूमितले गणेश:।
तदा तदा भूमितलेऽवतीर्य कुर्वन्ति ते वै खलु धर्मसंस्थाम्।।३।।
शंकर म्हणे अंबे ऐक। माझे पांच जे गणनायक। महापराक्रमी रेणुक। वीरशैव धर्ममूर्ति।।१७।। तयाचे परी दारुक जाण। धर्मरक्षणाकारणें सुजाण। येती न लागतां एक क्षण। प्रतिसृष्टिकर्ते जे।।१८।। ऐसे हे एकामागे एक। अवतरती गणनायक। वीरशैवधर्म प्रतिपालक। शिक्षा देत धर्मभ्रष्टां।।१९।। ज्या काळीं लिंगायतधर्म हानी। त्या काळीं सर्व धर्म लया जावोनि। अधर्म वाढे सतत मेदिनीं। धर्मविचार नसे कोणां।।२०।। स्वधर्म सांडोनिया जाण। करिती अधर्म मंडण। तेणें पुण्यक्षय होऊन। अधर्मता प्राप्त होय।।२१।। अधर्म जाहलिया सृष्टी। कदा नोहे पर्जन्यवृष्टी। तेव्हां कैलासीं येऊनि परमेष्टी। प्रार्थीतसे शिवालागीं।।२२।। म्हणे अधर्म वाढला महिवरी। प्रजा सर्व जर्जर निरहारी। तयाचें संकट निवारी। कृपादृष्टीकरोनिया।।२३।। तेव्हां शिव आज्ञा करी गणांसीं। तुम्ही त्वरें जावें मत्र्यलोकासीं। सर्व धर्म चालते ज्याचे त्यासीं। कीजें सत्य यावेळीं।।२४।। वीरशैवधर्म परमपावन। तयाची वृद्धि करिता जाण। दुजे धर्म वाढावया कारण। हेंचि मुख्य साधन पैं।।२५।। रेवणसिद्ध पूर्वदिशें। दक्षिणें मरुळसिद्ध असे। पश्चिमदिशीं वसे। एकोराम।।२६।। पंडिताराध्य उत्तरेसीं। विश्वाराध्य तो मध्यप्रदेशीं। शंकर निरोपी पार्वतीसीं। हे चहुयुगीं जाहले।।२७।।
देव्युवाच-
भवदुक्त: शिवाचार: सम्यक्ज्ञातो मया प्रभो।
अत:परं वद देव आचार्याणामनुक्रम:।।४।।
पार्वती म्हणे शिवासीं। तुम्ही निरोपिलें शिवाचारासीं। ऐकोन संतोष झाला मानसीं। देवाधिदेवा।।२८।। ऐसा शिवाचार जयापासोन। प्रबळला अतिगहन। ते आचार्य कोण कोण। त्याचीं नामें काई।।२९।। ते कोण्या युगीं कोण अवतार। त्याचें कोण भूषण कोण आचार। कोण दिशा मुनीश्वर। मठ कोण कोण देशीं।।३०।। इतुके निरोपा म्हणे पार्वती। ऐकोन सावध कैलासपति। तुझा प्रश्न बरवा म्हणती। निरोपुं आतां।।३१।।
शिव उवाच-
गुरुर्रेवणसिद्धाख्य: सिद्धेशमरुळस्तथा।
एकोराम: पंडितार्यो विश्वाराध्य इति क्रमात्।।५।।
हे चहुयुगीं झाले आपण। रेवणसिद्ध मरुळसिद्ध दोन। तिसरा एकोराम महाप्रवीण। चौथा तो पंडिताराध्य।।३२।। महाप्रतापी विश्वाराध्य। अखंड होवोनि राहिले निजबोध। निजचि ते स्वत:सिद्ध। मुनीश्वर वो देवी।।३३।। हे ते प्रत्यक्ष रुद्रचि असे। ज्ञानप्रकाशें भानु जैसे। जे परब्रह्म मुनिवेषें। अवतरले देख।।३४।। चहुयुगीं पांची आचार्य। झाले असती गुरुवर्य। त्याची मठस्थिति कर्मकार्य। आघवे सांगो आतां।।३५।। रेवणसिद्ध प्रसिद्ध गुरु। जेणें कथिला शास्त्राचारु। वीरशैवधर्माचा विस्तारु। सिद्धान्त दाखविला पैं।।३६।। मरुळसिद्ध नामें साचार। प्रगटले माझे नामधार। तेणें केला उद्धार। भक्ति ज्ञान जाणे तो।।३७।। एकोराम आणि पंडिताचार्य। हे तंव अवतारी भूवरीं गुरुवर्य। वीरशैवधर्माचें सर्व कार्य। जया आज्ञें घडतसें।।३८।। विश्वाराध्य महागुरु। सर्वश्रेष्ठ अधिकारु। गुरुत्वाचा विचारु। प्रगट करी वेळोवेळीं।।३९।।
प्रत्येकं च प्रवक्ष्यामि तेषां नामानि वै श्रुणु।
अथ गोत्रं तथा सूत्रं प्रवराणि यथाक्रमम्।।६।।
ही सांगितली संक्षिप्त कथा। आतां विस्तारें ऐक गोत्रगाथा। दंड कमंडलु सूत्र सर्वथा। निरोपितो वेगळाले।।४०।।
सद्योजातमुखोत्पन्नो रेणुक: परिकीर्तित:।
तन्नाम रेवणसिद्ध: सूत्रं पडविडीत्यपि।।७।।
जीं परशिवाचीं मुखें पांच। सद्योजात वामदेव अघोर साच। तत्पुरुष ईशान त्यांतच। उद्भवले आचार्यगण।।४१।। सद्योजात पूर्वमुख। वामदेव दक्षिण देख। अघोर पश्चिम उत्तर तत्पुरुषमुख। ईशान तें मध्य कीं।।४२।। सद्योजात मुखापासाव। उद्भवला रेणुक गुरुराव। नामें रेवणसिद्ध देव। पडविडी सूत्रकर्ता।।४३।।
गुरो: रेवणसिद्धस्य कोल्लिपाकपुरोत्तमे।
सोमेशलिंगजननमावास: कदलीपुरे।।८।।
वीरधर्मप्रतिपालक प्रसिद्ध। नामें श्रीगुरु रेवणसिद्ध। कोल्लिपाक नगराभीतरीं शुद्ध। सोमेशलिंगीं उद्भवले।।४४।। तेथून निघाले सत्वर वनां। गुरुत्व अधिकाराचें ज्ञानां। उपदेशावया मुनिजनां। वास केला आश्रमीं।।४५।। तेथें आपुलें सिंहासन। रंभापुरी येथें स्थापून। वीरशैवधर्मा प्रगटवोन। शिक्षा करी धर्मभ्रष्टां।।४६।। ऐसा कृतयुगीं रेवणसिद्ध। तो केवळ निबद्ध। षोडश मुद्रिका शोभला प्रसिद्ध। महंत तो।।४७।। तो चिद्रूप चिदाकार। साकारत्वेंचि निराकार। जैसी मेघमुखीची गार। पुन: विरे तत्क्षणीं।।४८।। शिवाचार अनादिसिद्ध। तोचि प्रकाशावया प्रसिद्ध। अवतरला रेवणसिद्ध। आदिगुरु शिवाचारासीं।।४९।। त्यासी सर्वांगीं विभूतिभूषण। मस्तकीं जटामुकुट शोभायमान। कंठीं हिरवी कंथा परिधान। मुनीश्वरासीं।।५०।।
अतिवर्णश्च वर्ण: स्यात् प्रवरेकाक्षरो मत:।
दण्डोऽश्वत्थ इति प्रोक्त: सौवर्णस्य कमंडलु:।।९।।
सौवर्ण: कलशस्तस्य व्याघ्राजिनांबरस्तथा।
तस्य कंथा हरिद्वर्णा लक्षणं वीरगोत्रिणाम्।।१०।।
करीं सुवर्णाची खापरी। व्याघ्राजिन खांद्यावरी। घेवोनि कमंडलु करीं। योगमुद्रा सदा।।५१।। मस्तकीं सुवर्णाचे लिंग। पादुका चरणीं चांग। चंदन सुगंध सर्वांग। तयातळीं वास त्याचा।।५२।। ऋग्वेदाचें उच्चारण करी। बैसे तरी वज्रासनावरी। चंद्रमौळेश्वराचें करी। अखंड ध्यान।।५३।। तयासी सिंहाचें वाहन। इच्छाशक्तीनें वर्तन। दर्शनस्पर्शनें जीव शिवपण। तात्काळ देतुसे।।५४।। ऐसा तो महासिद्ध। पूर्वदिशीं असे प्रसिद्ध। शिवाचारासीं अग्रगण्य निबद्ध। रेवणसिद्ध तो।।५५।।
तद्वन्मरुळसिद्धस्य वटक्षेत्रे महत्तरे।
सिद्धेशलिंगे जननं स्थानमुज्जयिनीपुरे।।११।।
तैसेचि वटक्षेत्रीं अवतार होतां। चरणीं पावन झाली क्षिप्रा माता। उद्भव सिद्धेशलिंगीं तत्त्वतां। सिंहासन उज्जयिनी पुरी।।५६।। ते मरुळाचार्य विख्यात। शिवादेशें करोनि मर्त्य लोकांत। वीरशैवधर्मा संरक्षित। महाज्ञानी जाण तो।।५७।। त्याचा दक्षिण दिशीं मठ असतु। मरुळसिद्ध महामहंतु। ज्ञानसूर्य जैसा भासतु। चिद्गगनीचा।।५८।। निर्विकल्प दशें असत। तया पिशाचवृत्ति आवडत। मन उन्मनीं सदोदित। संतुष्ट सदा।।५९।। तो कोणाचे आश्रमां न जाय। कोणाचें शास्त्रां न पाहे। कोणाचे संगीं न राहे। क्षणभरी तो।।६०।। कपिलेश्वराचें करी ध्यान। यजुर्वेदाचें उच्चारण। गोमेद लिंगाचें पूजन। वटाचे वृक्षीं वास करी।।६१।।
वामदेवमुखोत्पन्नो दारुक: परिकीर्तित:।
तन्नाम मरुळाराध्य: सूत्रं तस्य तु वृष्टिकम्।।१२।।
वामदेवमुखापासून। झाले दारुकार्य उत्पन्न। वृष्टी सूत्राधिकारी पूर्ण। नामें मरुळाराध्य प्रसिद्ध।।६२।।
तस्य दण्डश्च पालाशो तथा ताम्रकमंडलु:।
मकारो बीजमंत्रश्च शाखा दारुक ईरिता।।१३।।
कलशस्तस्य ताम्रश्च मृगाजिनविभूषण:।
तस्य कंथा च मांजिष्टा लक्षणं नंदिगोत्रिणाम्।।१४।।
अमलाक्ष लिंग अवधारी। मृगाजिन खांद्यावरी। समीप तांब्याची खापरी। तया सत्यशरणासीं।।६३।। रुद्राक्षमाळा कंठीं शोभती। व्याघ्र वाहन तयाप्रति। जप मयूरासनीं करिती। मरुळसिद्ध ते।।६४।। क्रिया-ज्ञानशक्ति धरोन। भूचरी मुद्रा गुरूचें ध्यान। नेत्रवेधी ऐसी सिद्धि जाण। तयापासीं असे।।६५।। मकार अक्षरीं समाधि। चर्चिली विभूति ब्रह्मावबोधी। मस्तकीं जटा योगसिद्धि। चरणां लागती तयाच्या।।६६।। पळसाचा दंड हातीं। ताम्र कलशाची दिव्य दीप्ती। कंथा आरक्त स्थिति। असे जया गुरुवर्या।।६७।। ऐसीं मरुळसिद्ध मुनीचीं। भूषणें निरोपिली तयाचीं। निराश निरभिमान अविद्येची। वार्ता तेहि तेथ नाहीं।।६८।। अखंड निमग्नत्व असें। आनंदें डुल्लतु पिशाचदशें। भाग्योदयें जया भेटतसे। तया आपणाऐसे करी।।६९।। तो जरी अदृष्टें पाहे कोणाकडे। तरी त्यास ब्रह्मांडभांडार उघडे। तात्काळ वस्तु होवोनि भिडे। वस्तुचि माजीं।।७०।। गंगा सागरां शरण गेली। ती मिळोनि सागरुचि झाली। परतोनि नाहीं आली। ठेली सागरुचि।।७१।। तेवि जे संतां शरण गेले। ते मिळणीं तद्रूपचि झाले। पुन: नरदेहां नाहीं आले। होवोनि ठेले परब्रह्म।।७२।। म्हणोनि महंत मरुळसिद्ध। शरणागतां करी ब्रह्मबोध। शिवाचारासीं प्रसिद्ध। तारक कृपाळु।।७३।।
एकोरामस्य जननं द्राक्षारामे प्रकीर्तितम्।
रामनाथमहालिंगे तद्वासस्तु हिमालये।।१५।।
आतां तिसरा आचार्य एकोराम। तो ज्ञानभानु परब्रह्म। निरक्षर निरामय नि:सीम। निष्काम तो।।७४।। द्राक्षाराम क्षेत्र प्रसिद्ध। तेथें रामनाथलिंग असे सिद्ध। तेथ उद्भवला सुबुद्ध। एकोरामाराध्य तो।।७५।। हिमालयीं क्षेत्र केदार। उषामठ असे अतिसुंदर। तेथें वास करी निरंतर। आचार्यगुरु।।७६।। तो आचारासीं तरी अग्रगण। शिवाचारासीं तो संपन्न। जयासीं वंदिती वीरशैव गण। सातशें सत्तरी।।७७।। बसवादि प्रमथ सकळ। नमिती जयाचें चरणकमळ। तो एकोराम आचारशील। शिवाचारी मुख्य।।७८।।
मदघोरमुखोत्पन्न: शंकुकर्णेति नामत:।
एकोरामेति तन्नाम तस्य सूत्रं तु लंबकम्।।१६।।
ब्रह्मो दण्डस्तथा लोहकलशश्च कमंडलु:।
नीलकंथा तथाऽवास: पारिजाततरोरध:।।१७।।
शिव म्हणे गिरिजासुंदरी। अघोरमुखाभीतरीं। शंकुकर्ण ते अवधारी। आचार्यवर अवतरले।।७९।। तयाचें नांव एकोराम। सर्व जीवाचें विश्रामधाम। लंबक सूत्राधिकारी परम। गोत्र भृंगी जयाचें।।८०।। तो शिवाचा अवतार। मुखीं सामवेदाचा उच्चार। मणिमय लिंग निरंतर। पुजीतसे।।८१।। तो द्वापरीं अवतरला। वैराग्यपीठिका मिळे त्याला। पश्चिमदिशीं मठ शोभला। वेणुदंड करीं धरी।।८२।। सदा महेश्वरध्यानीं असत। पारिजातकीं वास निभ्रांत। बैसका गरुडासनीं शोभत। तया महासिद्धासीं।।८३।। मस्तकीं जटा पांच शोभत। सर्वांगीं विभूति उधळत। श्रवणीं कुंडलें ढाळ देत। भानुप्रभा जैसी।।८४।। लिंगमुद्रा कंठीं तत्त्वतां। रत्नकंबळाची मिरवे कंथा। रुद्राक्षमाळा पवित्रता। हृदयावरी शोभती।।८५।। मंत्रशक्ति वसे जिव्हाग्रीं। नासाग्रीं ध्यान तो धरी। लोहखापरी धारण करी। कलश तोहि लोहमय।।८६।।
शिकारो बीजमंत्रश्च अतिवर्णाश्रमे रत:।
शाखा शंकुकर्णाख्या लक्षणं भृंगिगोत्रिणाम्।।१८।।
शिकार मंत्र बीजाक्षर। अखंड ध्यानीं निरंतर। सदा तन्मय मुनीश्वर। एकोराम तो।।८७।। अतिवर्णाश्रमीं वर्तत। शाखा शंकुकर्ण विख्यात। सामवेद विभागीं असत। तेचि उपदेशी स्वशिष्यां।।८८।। अमृतसंजीवनीचें असे ध्यान। तयासीं गजाचें वाहन। शिवाचारीं असे संपन्न। महामहंत तो।।८९।। सत्य तेंचि बोलणें। नि:संग निराश असणें। परि पंचक्रियेनें वर्तणें। काम नाहीं अंतरीं।।९०।। ऐसा तो महामहंतु। शिवाचारयुक्त समर्थु। जयाच्या सत्तेनें चालतु। शिवाचार रत्न।।९१।।
सुधाकुण्डाख्यसुक्षेत्रे qलगे श्रीमल्लिकार्जुने।
जननं पण्डितार्यस्य निवास: श्रीगिरौ शिवे।।१९।।
सुधाकुंड नाम क्षेत्रीं जाण। मल्लिकार्जुन महालिंगांतून। प्रगटले आचार्य पूर्ण। पंडितार्य गुरुवर।।९२।। निवास केला तो अति निर्मळ। गिरिराज राज तो श्रीशैल। तयाचिया दर्शनें कलिमल। नष्ट होती सर्वथा।।९३।।
तत्पुरुषमुखोत्पन्नो धेनुकर्णेति नामत:।
तन्नाम पंडिताराध्यो मुक्तागुच्छं तु सूत्रकम्।।२०।।
तत्पुरुष मुखापासून। धेनुकर्ण आचार्य उत्पन्न। शिवागमींची गूढ खूण। तुज निरोपिली वो देवी।।९४।। तो चौथा आचार्य महासिद्ध। जो शुद्ध स्वानुभवी स्वत:सिद्ध। नामें पावन प्रसिद्ध। पंडिताराध्य स्वामी।।९५।। मुक्तागुच्छ सूत्राचा अधिपति। महामुनी जयां वंदिती। उपसूत्रें द्वादश असती। तया आचार्यां जाणावें।।९६।।
सूर्यसिंहासनाधीशो दण्डो वंशमय: शुभ:।
रजत: कलश: प्रोक्त: तथैव च कमंडलु:।।२१।।
उत्तरदिशीं सूर्यपीठीं मठ। वास तरी वंशवृक्षीं सुभट। भोगलिंग तंव वरिष्ठ। सर्व लिंगांमाजीं।।९७।। आचार्य तो तारक अवतार। स्वानुभवी ज्ञानभास्कर। शिवाचार तारावया कलीभीतर। उदय झाला आराध्यभानु।।९८।। तो तद्रूप सदाशिव। शिवाचारां नि:संदेह देव। संदेह कल्पना सर्व वाव। केवळ चिद्रूप तो।।९९।। भोगेश्वराचें ध्यान करी। करी रुप्याची खापरी। आरूढे हंसवाहनावरी। आराध्य तो।।१००।। कंदमूलाचा प्रसाद करी। प्राक्तनानुसार अन्न स्वीकारी। अखंड ध्यान अंतरीं। गुरुलिंगाचें।।१०१।।
वकारो मंत्रबीजं च श्रुतिराथर्वणी शुभा:।
श्वेतकंथा तु संप्रोक्ता लक्षणं वृषभगोत्रिणाम्।।२२।।
वकार बीज महातेजाळ। जैसा सहस्र विजूंचा मेळ। तो जपत असे सर्वकाळ। रावो सकळ सिद्धांचा।।१०२।। अथर्वण वेद उच्चारण। हृदयीं शिवलिंगधारण। कंथेलागीं पट्टवस्त्र पूर्ण। शोभलें शुभ्र।।१०३।। ऐसा कलियुगीं अवतार। पंडिताराध्य महामुनीश्वर। तेणें वाढविला शिवाचार। शिवभक्त तो।।१०४।। तया शिवावांचून दुसरे। आन देवोदेवी नसे साचारे। गुरुलिंगजंगमीं ऐक्यविचारें। वर्ते सदाचारी।।१०५।। शिवमुद्रा अलंकृत भूषण। शोभें जैसा प्रकाशला भान। भक्तिसुखास्तव निर्गुण। तो सगुण होवोनि अवतरला।।१०६।। मस्तकीं जटा शोभती। सर्वांगीं मिरवे विभूति। कर्णीं कुंडलें ढाळ देती। निजतेजाकार।।१०७।। गुरुलिंगजंगम भजन। सांगे सकळां एक विधान। आसनीं श्वेत कंबळासन। पद्मासनीं बैसका तया।।१०८।। गुरु-लिंग-जंगम एकभावना। अभेदभावें धरी ध्यानां। परकायप्रवेश याहि खुणा। जाणतु असे तो।।१०९।। परकायप्रवेश हें नवल काय। अष्ट महासिद्धि वंदिती पाय। चा-ही मुक्ति आलिया न पाहे। मुक्तीचा साक्ष म्हणोनि।।११०।। शिवाचारी शिवभक्त। दीक्षा देवोनि तारिले बहुत। पंचकलश नेमस्त। स्थापोनिया।।१११।। दीक्षावंत गुरुकरजात। करोनिया शुद्ध शिवभक्त। ऐक्य दावोनि गुरु-लिंग-जंगमांत। तीर्थप्रसाद सेवविती।।११२।। ऐसा शिवागमीं विचार। तो विस्तारला अपार। कल्याणीं अवतरला बसवेश्वर। शिवाचारसंपन्न।।११३।।
काश्यां विश्वेश्वरे लिंगे विश्वाराध्यस्य संभव:।
स्थानं श्रीकाशिकाक्षेत्रे श्रुणु पार्वति सादरम्।।२३।।
विश्वाराध्य विश्वगुरु। काशीक्षेत्र पीठाचारु। धरी विश्वेशलिंगीं अवतारु। अज्ञ जनाकारणें।।११४।।
ईशानाख्यमुखोत्पन्नो विश्वकर्णेति विश्रुत:।
विश्वाराध्यस्तु तन्नाम सूत्रं स्यात् पंचवर्णकम्।।२४।।
माझें ईशानमुखापासोन। विश्वकर्णाचा अवतार जाण। विश्वाराध्य नाम पूर्ण। समर्थ गुरु।।११५।। तयाचें सूत्र पंचवर्ण। पांचवा शिवगण अभिन्न। वीरशैव प्रवरोत्पन्न। असे जाण विश्वार्य तो।।११६।।
दण्डो बिल्वज: प्रोक्त: सुवर्णस्य कमंडलु:।
कलशस्तस्य सौवर्ण: आसनं स्वर्णकंबलम्।।२५।।
ज्ञानसिंहासनं दिव्यं मंत्रबीजं यकारकम्।
कंथाऽपि पीतवर्णास्याल्लक्षणं स्कंदगोत्रिणाम्।।२६।।
हा पांचवा आचार्य सुजाण। ऐके याचें स्वरूपगुण। दिशेमध्यें ऊर्ध्व जाण। श्रेष्ठ महिमान असें त्याचें।।११७।। बिल्ववृक्षातळीं साचार। तोचि दंड धारण करी निरंतर। खापरी करी सादर। सोनियाची।।११८।। कंथा तीहि स्वर्णकंबळ। व्याघ्रांबर धारण केलें तेजाळ। सुवर्ण सुखासन विशाळ। वाहनीं असे।।११९।। ज्ञानपीठीं जंगममठ। सर्व ज्ञानियांतें वरिष्ठ। उपदेशी शिवतत्त्व श्रेष्ठ। विश्वगुरु तो।।१२०।। स्वच्छंदें वर्ते गुरुराज। जग तारावया निर्व्याज। मुनिरूप धरोनि सहज। शिवचि आला।।१२१।। पूजन करी विश्वेश्वराचें। ध्यानीं मनीं तोचि नाचे। यकार अक्षर बीजाचे। उच्चारी मुखें।।१२२।। चिन्मय तो गुरुमूर्ति। तुर्यातीत आहे वस्ती। तेंचि उपदेशी सहजस्थिति। परमहंस योगियां।।१२३।। मस्तकीं शोभें जटामुकुट। हृदयावरी रुद्राक्षमाळा वरिष्ठ। भस्मोद्धूळित देह सुभट। तेजें जैसा गभस्ति।।१२४।। आनंदवनीं असे वास। तोहि सदा आनंदमय सावकाश। शिवानंदामृतरस। श्रोतृद्वारें ओपी भक्तातें।।१२५।। ईश्वर म्हणे पार्वतीप्रति। हे आचार्य अवतरले भूवरती। सूत्रें प्रगटली पूर्ण स्थिति। वीरशैवाकारणें।।१२६।। ऐसी पंचाचार्यांचीं स्थानें। तुज निरोपिलीं वरानने। माहेश्वराची मूळ स्थानें। असती जाण पांच ती।।१२७।। पांच आचार्य पांच मठ। हें कथिलें गुह्य स्पष्ट। जे वीरशैव शिवाचारनिष्ठ। ते हे जाणती खूण।।१२८।। चहुयुगीं आचार्य जाहले। जनां शिवभक्तीसी लाविले। सातशेें सत्तर गणीं निवडले। शिवाचारमार्गीं।।१२९।। बसवादि प्रमथगण। सातशें सत्तर असती नेमून। ए-हवीं असती जाणे कोण। गणांची संख्या।।१३०।। शिवगण रुद्रगण अमरगण। शिवागमीं वर्णिले असंख्य जाण। गण गणितां वेद श्रुति पुराण। मौन धरोनि राहिले।।१३१।। मा मी काय वर्णूं महिमा तयाची। अगाध महिमा शक्ति खुंटली वाचेची। अनंत कोटी गणना गणांची। तेथ मी काय वर्णूं।।१३२।। एका चौकडियाचे गण। गणित केलें गणून। परि अनंत चौकडियांचे जाले ते कवण। गणीतसे।।१३३।। कृत त्रेता युग द्वापर। कलियुगासहित युगें चार। या चहुयुगांची चौकडी साचार। एक जाहली।।१३४।। ऐशा चौकड्या एक सहस्र होती। तंव अस्तमानां जाय गभस्ति। तैशा चौकड्या एक सहस्र होती। तंव एक दिवस होय ब्रह्मीयाचा।।१३५।। ऐसे तीस दिवस जाती। एक मास होय विधात्याप्रति। ऐसे द्वादश मास होती। तंव होय एक वरुष।।१३६।। ऐसें वरुषें जाती एक शत। तंव ब्रह्मीयास होय अंत। त्याच्या आयुष्याचें सरें गणित। तंव घटिका विष्णूची।।१३७।। ऐसिया घटिका साठ जाती। तंव एक दिवस विष्णूप्रति। ते हे तीस दिवस जाती। तैं एक मास विष्णूचा।।१३८।। ऐसे मास द्वादश होती। तरी एक वरुष होय विष्णूप्रति। ऐसें वरुषें शत जाती। तदा विष्णु एक पडे।।१३९।। ऐसे द्वादश विष्णु जाती। तंव अर्धपळ होय रुद्राप्रति। त्या रुद्राचे गण सांगावे किती। कोणी गणना करोनि।।१४०।। अनंत युगांचे महारुद्र। गणहि अनंत युगांचे अपार। जैसा देव तैसे भक्त साचार। जेवि देहीं आत्मा असे।।१४१।। ऐसे युगायुगीचे गण। सांगे ऐसा आहे कोण। म्हणोनि संक्षेपें याचें प्रमाण। सातशें सत्तर निरोपिलें।।१४२।। यावेगळे सप्तकोटी। ते असती कैलासकपाटीं। विचित्ररूपें विकटी। बहुविध तयांची।।१४३।। ए-हवीं असंख्यात गण। नाम घेतां उरे कोण। ते माझे पूज्यमान। मज पुजिती ते।।१४४।। ते मज पूज्य मी पुजी तयासीं। अणुमात्र भेद नाहीं तया मजसीं। म्हणोनि पुजिजें सद्भावेसीं। तरी ते मीच होय।।१४५।। शिव आणि शिवगण। कदापि भिन्न नोहे जाण। शिवाचारविचारी संपन्न। शिवगण सावध सदा।।१४६।। ऐसी शिवाचारदीक्षा जाण। पंचाचार्य करिती संपन्न। शिवाचारातें स्थापून। जनां भक्ति लाविती।।१४७।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। शिवगौरीसंवादीं वर्तत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृत्य मन्मथ।।१४८।।
।। इति श्री परमरहस्ये शिवगौरीसंवादे आचार्यावतारमठलक्षणादि कथनं नाम षोडशोऽध्याय:।।
श्लोक २६, ओव्या १४८.
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अक्षररचना : सौ. उषा पसारकर, सोलापूर


बसवण्णाची वचने

बसवण्णाची वचने
चोरी करु नका,
कुणाला व्यर्थ मारु नका,
खोटे बोलु नका,
रागद्वेश करु नका,
कुणांबद्दल वाईट विचार करु नका,
स्वताला श्रेष्ठ मानु नका,
दुसर्याला तुच्छ लेखु नका,
स्वताचा आदर कराल तर जग तुमचा आदर करेल,
आणि हाच मार्ग आहे त्या
कुडलसंगम शिवाला प्राप्त करण्याचा
ಕಳಬೇಡ, ಕೊಲಬೇಡ, ಹುಸಿಯ ನುಡಿಯಲುಬೇಡ
ಮುನಿಯಬೇಡ, ಅನ್ಯರಿಗೆ ಅಸಹ್ಯ ಪಡಬೇಡ
ತನ್ನ ಬಣ್ಣಿಸಬೇಡ , ಇದಿರು ಹಳೆಯಲುಬೇಡ
ಇದೆ ಅಂತರಂಗ ಶುದ್ದಿ, ಇದೆ ಬಹಿರಂಗ ಶುದ್ದಿ
ಇದೆ ನಮ್ಮ ಕೂಡಲ ಸಂಗಮ ದೆವನೊಲಿಸುವ ಪರಿ.
-ಕೂಡಲ ಸಂಗಮ ದೇವ......
ॐ नम: शिवाय ॐ नम: शिवाय

रुद्राक्ष

रुद्राक्ष

रुद्राक्ष विश्व में नेपाल,म्यान्मार,इंग्लैंड,बांग्लादेश एवं मलेशिया में पाया जाता है | भारत में यह मुख्यतः बिहार,बंगाल,मध्य-प्रदेश,आसाम एवं महाराष्ट्र में पाया जाता है | विद्वानों का कथन है कि रुद्राक्ष की माला धारण करने से मनुष्य शरीर के प्राणों का नियमन होता है तथा कई प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक विकारों से रक्षा होती है | इसकी माला को पहनने से हृदयविकार तथा रक्तचाप आदि विकारों में लाभ होता है |

यह १८-२० मीटर तक ऊँचा,माध्यम आकार का सदाहरित वृक्ष होता है | इसके फल गोलाकार,१.३-२ सेमी व्यास के तथा कच्ची अवस्था में हरे रंग के होते हैं | इसके बीजों को रुद्राक्ष कहा जाता है | इसका पुष्पकाल एवं फलकाल फ़रवरी से जून तक होता है|
आइये जानते हैं रुद्राक्ष के कुछ औषधीय प्रयोगों के विषय में -

१- रुद्राक्ष का शरीर से स्पर्श उत्तेजना,रक्तचाप तथा हृदय रोग आदि को नियंत्रित करता है |

२- रुद्राक्ष को पीसकर उसमें शहद मिलाकर त्वचा पर लगाने से दाद में लाभ होता है |

३- रुद्राक्ष को दूध के साथ पीसकर चेहरे पर लगाने से मुंहासे नष्ट होते हैं |

४- रुद्राक्ष के फलों को पीसकर लगाने से दाह (जलन) में लाभ होता है |

५- यदि बच्चे की छाती में कफ जम गया हो तो रुद्राक्ष को घिसकर शहद में मिलाकर ५-५ मिनट के बाद रोगी को चटाने से उल्टी द्वारा कफ निकल जाता है |
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Thursday, 5 June 2014

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य अध्याय सतरावा

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी


संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य

अध्याय सतरावा
।। श्रीगुरुवे नम: ।।
श्रीपरमरहस्य ग्रंथ सुंदर। वीरशैवधर्माचें तत्त्वमंदिर। चतुर्दश भुवनें आणि त्रिलोक परिकर। नांदती जयामाजीं।।१।। कीं मूळ मातृका षोडश। पूर्ण झाल्या येथवर विशेष। अनक्षरा मातृका सावकाश। निरोपुं आतां।।२।। शिवचंद्राच्या ह्या सोळा कळा। भवदु:खतप्त जीवां निवविती सकळां। ही सतरावी जीवनकळा। अक्षय असे निश्चयें।।३।। येथीचें जें ज्ञान। सर्व सुखांसीं असें कारण। म्हणोनि ठेवावें चित्त पूर्ण। श्रवणाठायीं।।४।। श्रवण-मनन-निजध्यासें। साक्षात् वस्तु भेटे विश्वासें। नातरी व्यर्थ आयासें। कां शिणवावें जीवातें।।५।। असो आतां येथ विशेष विस्तार। करणें नलगे मजला फार। वीर श्रोते परम चतुर। तरी सुचनार्थी बोलिलो।।६।। पुन: प्रश्न करी जगदंबा। सच्चिद्रूप शिवसांबा। शिवसंस्कार मूळस्तंभा। पुसेल ती।।७।।
देव्युवाच-
भगवन् सर्वदेवेश रहस्यं परमं श्रुतम्।
श्रोतुमीहे वीरशैवसंस्काराणामनुक्रम:।।१।।
जन्माद्यंतेष्टीपर्यंत। वीरशैव संस्कार समस्त। ऐकूं म्हणे विश्वस्त। गिरिजा देवी शंकरासीं।।८।। मूल संस्कार षोडश। त्यामाजीं असती मुख्य दश। त्यांहिमाजीं बहु विशेष। शिवदीक्षा जाणावी।।९।। जगदंबा म्हणे सदाशिवा। माझिया प्रश्नाते देवाधिदेवा। अनुलक्षोनि देआवा। उपदेश मज।।१०।।
शिव उवाच-
श्रुणु देवि प्रवक्ष्यामि संस्काराणामनुक्रम:।
एतत् श्रुत्वा च कृत्वा च लभेत्सा भक्तिरुत्तमा।।२।।
शिव म्हणे अंबेप्रति। तुझ्या प्रश्नें जडजीव उद्धरती। तेंचि मी तुजप्रति। सांगेन आतां।।११।। गर्भाधानापासून आघवे। संस्कार सोळा जाणावें। सांगेन आतां त्यांचीं नांवे। त्यांत मुख्य दहाचि।।१२।।
गर्भाधानं पुंसवनं सीमंतं जातकर्म च।
तन्नामकरणं चापि बहिर्निष्क्रमणं तथा।।३।।
चौलकर्म तथैवोक्तं वेदारंभो हि युक्तित:।
शिवदीक्षाविवाहश्च संस्कारा दशमुख्यका:।।४।।
गर्भाधान म्हणिजे ओटीभरण। तो पहिला संस्कार जाण। पिंड-उत्पत्तीस मूळ कारण। हेंचि असे।।१३।। पुंसवन संस्कार दुसरा। डोहाळे सीमंत म्हणती तिसरा। चौथियाचा असे उजियारा। जातकर्म म्हणोनि।।१४।। नामकरण पांचवा। बहिर्निष्क्रमण सहावा। चौलकर्म म्हणती सातवा। करावा संस्कार हा।।१५।। वेदारंभ आठवा संस्कार। बटूसीं करणें असे अनिवार। तयाविण ज्ञानप्रसार। होईल केqव।।१६।। नववा संस्कार शिवदीक्षा। अत्यावश्यक असे वीरशैवपक्षां। त्याविण संतोष विरूपाक्षा। न होयचि सर्वथा।।१७।। दीक्षा हा जातिसंस्कार। वीरशैवाचा मुख्य कुलाचार। त्याविण वर्ते जो पामर। भवि जाणावा निश्चयें।।१८।। शिवदीक्षेचीं लक्षणें। कथिती श्रुति-आगम-पुराणें। सालसें निरोपीन तुजकारणें। शैलात्मजे सुंदरी।।१९।।
दीयते ज्ञानसंबंध: क्षीयते पाशबंधनम्।
दानक्षपणसंयुक्ता दीक्षा तेनेह कीर्तिता।।५।।
निर्मल शिवैक्य ज्ञानेकुन। ज्या संस्कारें तुटे आशापाशबंधन। म्हणोनि दीक्षा म्हणती त्यालागून। दान क्षपण भावयोगें।।२०।। ती दीक्षा असे त्रिविध। अंतरात्मा करावया शुद्ध। त्याचीं नांवें विविध। शास्त्रांतरीं पाहावी।।२१।।
गर्भाष्टमे कृता दीक्षा मुख्या सा षोडशावधि:।
गौणी तदूध्र्वमधमा वीरशैवान्वयायिनाम्।।६।।
गर्भापासून आठवें वरुष। मुख्य दीक्षाकाल विशेष। मध्यम जाण वरुष षोडश। तयापुढें गौण तें।।२२।। जन्म झाल्यापासून। देहस्थ लिंगाची आठवण। तीच सुदृढ परिपूर्ण। येणें संस्कारें होये।।२३।। दीक्षेलागीं आचार्य आवाहन। प्रथम करावें जाण। अग्रासनीं बैसवोन। पूजा करावी भक्तिबळें।।२४।। ते आचार्य म्हणसी कोण। तयाची सांगेन मी निजखूण। ऐक तूं सावध होवोन। स्नेहभरें पार्वती।।२५।। षोडश अध्यायीं वर्णिले शिवगण। सातशें सत्तर असती नेमून। ते शिवाचारमार्गीं निपुण। रत असती एकनिष्ठें।।२६।। तया सकळ गणांमधीं। हे पांच आचार्य जाणते सुबुद्धि। तया पांचाविण दीक्षासिद्धि। करूं नये महामंत्रीं।।२७।। तेहिं चालविला शिवाचार। भूमंडळीं घेवोनि अवतार। हेचि असती मुख्य आधार। वीरशैवाकारणें।।२८।। त्याचे साक्षित्वाचे जे कलश। तीच त्याची प्रतिमा जाणिजेस। ते आचार्यचि असती हा विश्वास। धरिजे शिवगणीं।।२९।। चौघांचे चहु कलश जाणिजें। मध्यें श्रीगुरुरायाचा बोलिजें। ऐसी पंचकलश दीक्षा घेईजें। तंव गुरुकरजात जाहला।।३०।। जंववरी पंचकलश दीक्षा नाहीं। तंववरी भविच बोलिजें पाही। तया शिवभक्ताचे ठायीं। लेखूं नये सर्वथा।।३१।। तयासीं तीर्थप्रसाद तत्त्वतां। देऊं नये वो सर्वथा। आचार्यसाक्षीं दीक्षा नसतां। अनधिकारी तीर्थासीं।।३२।। जंववरी तीर्थप्रसाद नाहीं। तंववरी शिवभक्त नोहे पाही। कंठीचा लिंग तोहि। पाषाण जाणिजें।।३३।। कां म्हणसी तरी ऐक। तीर्थप्रसाद तें लिंगाचें जीवन सम्यक्। तेणेंविण लिंग निर्जीव देख। न मिळता तयासीं।।३४।। कोणी म्हणती जर्इं लिंग बांधिलें। तर्इंच तीर्थप्रसाद अर्पिलें। आतां प्रतिदिनीं अर्पावया काय घेतलें। लिंगाचें आम्ही।।३५।। त्यासीं दृष्टान्त असे एक। लक्ष देवोन ऐक सम्यक्। मग हा निमेल कुतर्क। मनाचा निश्चयें।।३६।। जर्इं वृक्ष उपवनीं लाविले। तर्इंच तया उदक घातिलें। आतां काय तया वृक्षाचे घेतले। उदक घालावया।।३७।। मनीं ऐसा विचार करोन। वृक्षां उदक न देतां जरी राहे उदासीन। तरी तया वृक्षाचें जीवन केवि वाढेल अनुदिन। याचा विवेक करावा।।३८।। तो वृक्ष कैसा फळेल। कैसे अमृतफळ देईल। मग कैंची सुखसंपदा होईल। न देतां उदक वृक्षां।।३९।। तेवि लिंगासीं तीर्थप्रसाद। न देतां होईल कैसा सुखानंद। न फळेचि शिवसुखबोध। क्रियाभ्रष्ट म्हणोनि।।४०।। आणिक एक कवतुक। गुरु लिंग जंगम तिन्ही एक। तरी श्रीगुरु तोचि लिंग देख। साक्षत्वें जालें कीं।।४१।। तरी लिंगां जें जें सुख देईजें। जें जें पत्र पुष्प वाहिजें। तें तें गुरूसीं अर्पण सहजें। कां आनाठायां जात।।४२।। तें गुरूसींच अर्पे जाणोन। मग तीर्थप्रसादीं कां न करावा यत्न। प्रयत्नेंकरोनि जरी करी अर्पण। तरी श्रीगुरु संतोषे।।४३।। म्हणोनि तीर्थप्रसादीं असावा नेम। नित्यनूतन धरावा प्रेम। परि आधी गुरु करावा हें वर्म। तेथेंचि जाणिजें।।४४।। ए-हवीं घरोघरीं गुरु असती। स्वार्थार्थे बोधिती शिष्यांप्रति। परि स्वानुभवें तद्रूप करिती। त्या नांव सद्गुरु वो देवी।।४५।। स्वार्थी जे कां असती गुरु। ते न होती भवसागर तारु। बोधिती अनेक मतांतरु। नानाविध।।४६।। हे गुरु नाना मतें दाविती। एक ते तीर्थाटनां धाडिती। एक ते पाषाण पुजविती। नाना दैवतें।।४७।। एक ते तपां धाडिती। एक ते करकमळीं घालविती। एक ते धूम्रपान साधविती। पंचाग्निताप एक।।४८।। एक लौकिक कर्में करविती। एक ते वायूसीं झुंझावे घेवविती। एक ते आसनीं बैसविती। म्हणती कीं उठोचि नको।।४९।। एक ते मौन धरविती। एक ते नागवेचि पळविती। एक ते बळें सांडविती। स्त्री-बालक मातां-पितां।।५०।। एक ते अन्न त्यागविती। एक ते कंदमुळे भक्षविती। एक ते कपाटीं बैसविती। एक ते ऊर्ध्व बाहू।।५१।। एक ते जटा वाढविती। एक ते बोडकेचि ठेविती। एक केश लुंच्छविती। नेणती कर्म पशुसम।।५२।। एक ते अजपांत गोवविती। एक ते चक्रें भेदून जा म्हणती। एक तिमिर दाविती। नेत्रापुढें जें चळतसे।।५३।। एक ते नासिकीं लक्ष लावविती। एक नेत्र विकासोनि पाहा म्हणती। एक ते नेत्र झांकविती। अंतरींच पाहा म्हणोनि।।५४।। एक ते यज्ञ होम करविती। स्वर्गीं अमृतपान करा म्हणती। इंद्रपद आणि रंभेची दाविती। लोलुपता।।५५।। एक ते आकाशीं चालविती। एक जळासनीं बैसविती। अमृतपान करविती। अर्धचंद्रां पैं जाऊनिया।।५६।। एक तो लिंगदेह साधवी। देवतांतरातें भेटवी। परि ते आघवीच गोवी। दु:खदायक साधनें।।५७।। परि एका आत्मज्ञानावांचून। तें सर्वहि अकारण। जंव नव्हे एक चैतन्यघन। तंव सर्व साधनें व्यर्थ तीं।।५८।। ऐसीं नाना साधनें साधविती। ते गुरु परि सद्गुरु न होती। जे स्वयें परब्रह्म करिती। ते सद्गुरु जाणावें।।५९।। ऐसिया सद्गुरूसीं जावे शरण। दीक्षा घ्यावी सद्भाव धरोन। नित्य तीर्थप्रसादी सेवन। करावे क्रियामार्गें।।६०।। तीर्थ ऐसा शब्द पडतां कानीं। न पाचारितां जावे लोटांगणीं। किंकरवृत्तीनें शरण चरणीं। लहान थोर कीजें सर्वां।।६१।। मग स्वामीसीं शरण रिघीजें। तीर्थां आज्ञा घेईजे। मंत्र युक्तीनें सेविजें। विश्वास धरोनि।।६२।। ऐसा तीर्थप्रसादी जो शिवगण। स्वभावें होय तयाचें दर्शन। त्याचा भवबंध होय छेदन। पुण्यपावन होय तो।।६३।। ऐसा जो सत्यशरण। केवळ शिवचि आपण। तो अनंत ब्रह्मांडें व्यापून। अलिप्त असे।।६४।। तया त्रिभुवनींचें राज्य देतां। थुंकोन सांडी सर्वथा। इंद्रपदासीं हाणी लाथा। मा राज्याची आवडी धरील काय।।६५।। तो समूळ क्रियेसीं अकर्ता। निष्कामबुद्धि निरहंता। अष्ट महासिद्धि पायां लागतां। श्लाघ्यता न घे।।६६।। अमृतपान करीत असतां। कांजी अपेक्षा न करी सर्वथा। तेवि वस्तुसुख भोगीतां। इंद्रपदादिक इच्छील काय।।६७।। म्हणोनि निराश निर्वासना। नि:संग आणि निष्कामना। निर्गुण अतीत त्रिगुणा। शुद्ध सत्त्वात्मक तो।।६८।। निर्द्वंद्व निजानंद। भेद नाहीं ऐक्यबोध। जें जें दिसें तें तें सच्चिदानंद। आन पदार्थ दिसे ना भासे ।।६९।। तो सदाशिव सर्व पाहे। परि पाहतां हेतु न राहे। अनायासें होवोनि राहे। सर्वज्ञ ते।।७०।। मी सर्वज्ञ ऐसा। आठवु न होय तया स्वयंप्रकाशां। आठव न आठव दोहींच्या विलासां। साक्षी तो जाहला।।७१।। साक्ष जरी म्हणावा। तरी कांहीं पदार्थ असावा। मग साक्षी व्हावा। पदार्थाचा।।७२।। जरी पदार्थचि नाहीं। मा साक्षित्व मिरवील कांहीं। यालागीं कांहीं न होवोनि पाही। पाहता पाहणारा तो।।७३।। तोचि परब्रह्ममूर्ति। शुद्ध जंगम बोलिजें तयाप्रति। तयाचें दर्शनमात्रें मुक्ति। ओळंगती वो देवी।।७४।। मुक्ति दास्य करिती हें नवल काय। तो कृपादृष्टीनें जरी पाहे। तरी आपुले देत आहे। स्वस्वरूप जें।।७५।। तो सद्भावाचा भोक्ता। सद्भावें शरण जातां। जन्मजन्मांतरीची व्यथा। सकळ हरितु असे।।७६।। ते कृपेचे सागर। त्यांची कृपा आम्हां निरंतर। ओळंगो त्याचें चरण सादर। स्वहितालागीं।।७७।। स्वहित जरी म्हणती कोण। तरी तयाचेनि शिवपण। मज शिव म्हणावया कारण। त्याचिया संयोगें।।७८।। ऐसे ते जे महामहंत। पुजितसे मी निभ्रांत। ते मजलागीं दैवत। मी भक्त तयांचा।।७९।। विचारितां मी तोचि जाण। बाहीर वेषाचें पालटण। ज्ञानिये जाणती खूण। भेदातें सांडोनिया।।८०।। शिव म्हणे गिरिजेसीं। तूं माझें स्वरूप अससी। शरीरभावें भेदासीं। रूप जाहलें वो देवी।।८१।। एकचि बहुरूपिया आपण। बहु रूपें आला घेवोन। परि तो बहुरूपियाचि आन। नाहीं दुसरा।।८२।। तैसाचि मी आपण। अनंत रूपें नटलो जाण। परि रूपां अरूपां साक्षी होवोन। निराळाचि असे कीं।।८३।। निराळा परि मी जाण। जाणतु असे आपण। जाणपणालागून। जाणता तो मी।।८४।। ऐसा जो मी मजलागीं। भेटी घेणें आहे निजांगीं। तरी या ग्रंथालागीं। विसंबूं नये।।८५।। ऐसें पार्वतीनें ऐकोनि वचन। तद्रूप झाली आनंदघन। मनीं तन्मय होऊन। तटस्थ ठेली।।८६।। मग येवोनि देहावरी। उठोनि साष्टांग नमस्कार करी। म्हणे मज भेटविले त्रिपुरारी। स्वामिनाथा करुणानिधे।।८७।। महापुरीं वाहात जातां। अवचित कृपाळु काढी दाता। तैसें तुम्ही स्वामी समर्था। तारियले मातें।।८८।। चरणां लागे वेळोवेळां। धन्य धन्य स्वामी जाश्वनिळा। बरवें निरोपिलें प्रांजळा। माझिये आवडीसारिखे।।८९।। हा परमरहस्य ग्रंथ जे पाहाती। ते शिवरूप स्वयें होती। ब्रह्मस्वरूप स्वयें पार्वती। निश्चयें जाण।।९०।। जे शिवाचे शिवभक्त। सदा आचारी दीक्षावंत। जे जाहाले गुरुकरजात। तिहीं हा ग्रंथ परिसावा।।९१।। भवीसीं श्रवण न करवावा। हा शिवाचारी शिवभक्तीं ऐकावा। ऐकोनि जीवीं धरावा। तैसाचि करावा आचारु।।९२।। हा ग्रंथ होतां श्रवण। इंद्रियें होती प्रवीण। मार्ग कळती आचरण। आचरावया।।९३।। आतां असो कथन फार। परमरहस्य ग्रंथ विस्तार। पार्वतीप्रति ईश्वर। वारंवार सांगतसे।।९४।। त्याचें सार या ग्रंथाचे ठायीं। वर्णिलें असे सतराध्यायीं। अज्ञ जनां आचाराविषयीं। आरसा जाण पाहावया।।९५।। हा ग्रंथ तरी ईश्वरमुखीचा। ईश्वर तोचि नागेश साचा। भिन्न भेद म्हणतां वाचा। दुखंड होय।।९६।। तोचि तो अवतरोन। नागेश नामाभिधान। मिरवे एवढीयानें म्हणून। भेद जाहला काई।।९७।। जैसें सुवर्ण सोनेपणें। क्षणभरी मिरवलें गेटाभिधानें। तरी वाळिजें काय सोनेपणें। नोहे म्हणोनिया।।९८।। यालागीं शिव तोचि नागेश्वरु। तोचि बसवराज श्रीगुरु। माणूरपट्टसिंहासनाधिकारु। असे जयासीं।।९९।। त्याचिया कृपेंकरून। परमरहस्याची टीका विस्तारून। करविते जाहले आपण। श्रीबसवराज स्वामी।।१००।। मन्मथशिवलिंग म्हणे। मज वदविले स्वामीनें। पावा वाजवितां तयातें ऐकून। वाजविता तो निराळा।।१०१।। सूत्रधारियाचें बाहुले। तें चालें नाचें हालें सूत्रधारियाचेनि बोले। सूत्रधारी खेळें ज्या ज्या कळें। तें तें कळें खेळतुसे।।१०२।। म्हणोनि सूत्रधारी गुरुगोसावी। टीका करविली बाहुलीकरवी। येथें मज मीपणाची पदवी। नुरेचि सर्वथा।।१०३।। यालागीं ग्रंथकर्ता श्रीगुरुनाथ। तोचि वदला ग्रंथार्थ। शिवगणीं परिसावा प्रीत्यर्थ। म्हणे मन्मथ कर जोडोनि।।१०४।। हा असे प्रसादी ग्रंथ जाण। याचें करी जो नित्य पारायण। तयाची भवव्याधि चुके मरण। अमर होय सत्य पैं।।१०५।। ज्याचा लिंगीं नाहीं विश्वास। जे अन्य धर्माचे बनले दास। त्याचा स्पर्श न करावा ग्रंथास। अधर्मी जाण म्हणोनि।।१०६।। जे विश्वासें भावें वाचिती। ते संसारसुख भोगोनि अंतीं। पावती सायुज्यमुक्ति। धन्य नर तेंचि पैं।।१०७।। जे दुर्जन निंदक खळ। तया नावडे ग्रंथ रसाळ। रंभाफल त्यागूनि अर्की फळ। आवडी जाण वेचीतसे।।१०८।। कीं दुग्ध सांडोनिया जाण। प्राशी मद्यातें जाऊन। कीं दुर्दैवी नेत्र बांधून। द्रव्यघटां ओलांडी।।१०९।। विश्वासें जे श्रवण करिती। तयाच्या सर्व व्याधि नासती। पठण करितां धनाढ्य होती। कीर्ति वाढे अपार।।११०।। पुत्र-इच्छा धरोनि मनीं। तत्पर होती पारायणीं। तयाचा वंशविस्तार सुलक्षणी। होय जाण शिवकृपें।।१११।। हा परमरहस्य ग्रंथ परिकर। वीरशैवधर्माचें बीजांकुर। भावें करितां रक्षण साचार। रक्षी शंकर तयातें।।११२।। श्रोते शिवगण समस्त। तया विनवी किंकर मन्मथ। ग्रंथसमाप्तीस आज्ञा घेत। चित्तीं सद्गद होऊनिया।।११३।। कपिलाधार पुण्यधाम। तेथेंचि जालो मी पूर्णकाम। टीका केली सुगम। परमरहस्याची।।११४।। शके पंधराशें बावीस। विक्रमनाम संवत्सरास। वद्य त्रयोदशी माघ मास। ग्रंथ पूर्ण झालासे।।११५।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। शिवगौरीसंवादीं वर्तत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृत्य मन्मथ।।११६।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे सर्वाचारविधिनिरूपणं नाम सप्तदशोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक ६, ओव्या ११६.
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प्रसाद
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जे शब्दसृष्टीचे ईश्वर । सबराभरीत अगोचर । 
निर्लेप मंगल साचार । परमवंद्य जे ।।१।।
नमू तया परमेश्वरा । जगद्रूपा जगदाधारा । 
जगन्निर्मात्या महेश्वरा । सच्चिद्रूपा जी ।।२।।
जी मी वाग्यज्ञ आरंभिला । तो हा तुम्ही पूर्ण केला । 
कृपा करोनी पाहिजे दिधला । आशीर्वाद हा ।।३।।
जे दुष्ट दुर्जन अमंगळ । त्यांचे हृदये होवोत निर्मळ । 
कळीकाळ सकळ । निरसोनी जाय ।।४।।
जे जे दिसे दृष्टीपुढे । ते अवघे शिवरूप गाढे । 
ऐसिया संतांची हुडे । निर्भय हिंडो ।।५।।
सर्व सुखांचा हो सुकाळ । दु:ख दारिद्र्य छळ । 
नष्ट हो सकळ । मनोमालिन्यही ।।६।।
जे का शिवभक्त जन । त्यांच्या दर्शने पावन । 
सकळ सृष्टीचे जीवन । होतु आनंदे ।।७।।
या माझ्या जगती तळी । सर्वत्र संचरो भक्तमंडळी । 
शिवभक्तीची नव्हाळी । नित्य लाभो जगा ।।८।।
जेजे अमंगळ या भुवनी । ते ते लोपो शूळपाणी । 
सुमंगळ भाव या जनी । उपजो सदा ।।९।।
वाढो लोकी सदाचार । सद्विद्येचा भडिमार । 
होओ सर्वत्र साचार । हाचि प्रसाद आवडे ।।१०।।
आणिकही ऐसे करावे । सुखाचे मळे पिकवावे । 
आमूलाग्र नासून जावे । विघ्नबाधा ।।११।।
ही माझी वाक्पुष्पपूजा । समर्पण हो श्रीगुरुराजा । 
मन्मथशिवलिंग विनवी ओजा । श्रीगुरु नागेशासी ।।१२।।
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श्रीमन्मथस्वामींची आरती
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आरती शिवराजा । मन्मथस्वामी महाराजा ।
वेदान्ताचे सार, मुख्य पेरिले बीज ।।धृ.।।
समाधि महास्थळी, सर्पव्याघ्रांची जाळी ।
निर्वेर श्वापदे हो, समदृष्टीने न्याहाळी ।।१।।
शिवभक्ति लोप झाली, विश्व शिवमय केले ।
ग्रंथ हा परमरहस्य, गुह्य प्रकट केले ।।२।।
अभंगी निरूपण, अनुभविले ज्ञान ।
आनंद शिवदासा, सर्व शुभकल्याण ।।३।।
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अक्षररचना : सौ. उषा पसारकर, सोलापूर

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य अध्याय पंधरावा


संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य

अध्याय पंधरावा
।। श्रीगुरुभ्योनम: ।।
मागें जें जें निरोपिलें। तें तें पूर्णत्वेचि भासलें। पंचतत्त्वीं भरोनि उरलें। रूप तुझें स्वामिया।।१।। गुज खूण ब्रह्मांडाची। कथनी शक्ति असे अन्य देवाची। सत्ता सर्व तुमची। कर्ते तुम्हीच ईश्वरा।।२।। आतां पंचदशम अध्यायीं। कथा रसाळ श्रवणाठायीं। वदा म्हणोनि लागे पायीं। पार्वती देवी सादर।।३।।
देव्युवाच-
लिंगं तु षड्विधं प्रोक्तं तत्रायं परमार्थत:।
जीवो देहं परित्यज्य कस्मिन् लिंगे प्रलीयते।।१।।
पार्वती म्हणे शिवासीं। तुम्ही षडलिंग निरोपिले ऐक्यत्वासीं। तरी देहासीं प्राणलिंगासीं। ऐक्य कोण लिंगीं।।४।। तो तया लिंगीं सामावे कैसा। त्याचा प्रकार निरोपा सरिसा। श्रवणी झाली मन्मानसा। उत्सुकता पैं।।५।।
शिव उवाच-
पंचेंद्रियमुखं ज्ञात्वा पदार्थं च समर्पितम्।
यल्लिंगमनुते यस्तु तस्मिन् लिंगे प्रलीयते।।२।।
पांची लिंगें ज्या लिंगाभीतरीं। तो पांची लिंगां भोक्ता अवधारी। जो भोगून अभोक्ता सर्वांतरीं। तया नांव महालिंग म्हणिजें।।६।। तो महालिंग सर्वगत असे। देहान्ती तेथें जीव समरसे। परि हें तया घडे अखंड ध्यासें। महालिंगानुभव असे जया।।७।। जो महालिंग सदा ध्यातु असे। अंतकाळीं त्यासीं आठवी विश्वासें। मग तोचि होय सौरसे। यासीं अन्यथा नाहीं।।८।। महालिंगां अंतकाळीं आठविजें। तें होणें न चुके सहजें। म्हणोनि अंतकाळीं वोजें। असिजें सावधान।।९।। जो महालिंगीं समाधि लावी। तो जन्ममृत्यूतें चुकवी। शिवध्यानीं बुद्धि सावध ठेवी। तोचि पावे मुक्तिपद।।१०।। अंतकाळीं शिवस्मरण होणें। नसे अभ्यासाविणें। म्हणोनि नित्यनेमें शिवभजन। करावें जागृति स्वप्नींहि।।११।। तयाचें होय साध्य साधन। स्वरूपीं राहे सावधान। नानापरीचे भोग त्यजून। नामस्मरणीं रत असिजें।।१२।। नातरी म्हणशील आतां भोग भोगीन। मग अंतकाळीं सावध होईन। त्या वेळीं महालिंगाचें स्मरण करीन। देह त्यागीन तेंचि होवोनि।।१३।। तरी हें न घडेचि सर्वथा। जरी इंद्रियें न निर्दाळितां। अथवा शिवध्यानहि नसतां। अंतकाळीं वस्तु होणें न घडें।।१४।। अंतकाळीं जठराग्नि जाण। सावध असे जरी भाग्यें पूर्ण। नसतां जठराग्नि जाय विझोन। तेणें धूर कोंडोनि अंधारी होय।।१५।। अंधारीं धूर दाटला जेव्हां। तें वेळीं सावध व्हावें केव्हां। मन बुद्धि भ्रमोनि जाय तेव्हां। आठवण केवि होय।।१६।। अंतकाळीं घाबरेपण। आसन घालोनि बैसेल कोण। मा आठवेल वस्तुपण। मग ब्रह्म होणें न घडें।।१७।। अंतीं जठराग्नि विझलियानें। धूर दाटलिया गुणें। तर्इं मनबुद्धि भ्रमपणें। तेथें चिंतनहेतु कैसा।।१८।। जरी हेतुध्यास कां नाहीं म्हणसी। तो आधीच नसतां निजध्यासीं। तरी अंतकाळीं स्मरणासीं। आठवु कैंचा।।१९।। यालागीं आतांचि अखंडितां। निजध्यास करावा प्रीत्यर्था। तरी अंतकाळीं ध्यासहेतु तत्त्वतां। महालिंगचि होतसे।।२०।। जेवि जागृति मन जेथें थोके। तेंचि स्वप्नीं वासनात्मक देखें। तेवि प्रयाणकाळीं आठवे तें न चुके। होणें देवी।।२१।। यालागीं देह असतां वस्तुध्यास असिजें। तरी तें अंतकाळीं आठवे सहजें। मग तेंच होणें न चुकिजें। देहान्ती वो गौरी।।२२।। यालागीं अखंड महालिंगासीं ध्यास। असे प्राणियां तोचि आठवे तयास। मग जीवासीं ऐक्य समरस। महालिंगीं होय।।२३।। तुवां पुसिले होते अंतकाळीं। जीव मिळे कोण लिंगमेळीं। ती निरूपिली तुझी प्रश्नावळी। निर्णय करोनि।।२४।। ए-हवीं असतां निजरूपाला। अंतकाळ कैंचा तयाला। देह असतां विदेह होवोनि ठेला। त्यासीं मरण कैंचे।।२५।। ज्यासीं मृत्युविकारचि शेखी नाहीं। तो अंतकाळ करील कधीं कांहीं। त्यासीं जाणें येणें मुळीच नाहीं। जीवन्मुक्त नरां त्या।।२६।। त्यासीं जन्मादि षडविकार नाहीं। तेणें अंतकाळीं बसोनि स्मरावें कांहीं। ज्यासीं स्मरावें तेचि पाही। स्वयें होवोनि ठेला।।२७।। म्हणोनि अंतकाळीची व्यथा। अभक्तासीं होय तत्त्वतां। निजभक्तासीं नोव्हे सर्वथा। मृत्युव्यथा प्रयाणीं।।२८।। मरणासीं मारोनि सावकाश। मृत्युंजय झाला अविनाश। त्यासीं प्रयाणकाळीचा प्रयास। सर्वथा न लागे।।२९।। देह गेलिया मोक्ष होय जरी। तरी कां अभ्यास सोसावे शरीरीं। अथवा फिरती देशांतरीं। तें काय व्यर्थचि जाणावें।।३०।। आतां तंत्रमंत्र उपदेशिती। देह गेलिया मोक्ष होय म्हणती। ते सद्गुरु सर्वथा न होती। कैवल्यदानीं।।३१।। जरी मुक्ति ये देहीं न घडे। तरी वैरागी कां शिणती वेडे। ब्रह्मज्ञानी गुरु न भेटतां बापुडे। करितील काय।।३२।। यालागीं सद्गुरु ज्ञानी व्हावा। तो महालिंगीं मेळवी जीवां। यापरी जीवाचा ऐक्यठेवा। देवी तुज निरोपिला।।३३।। प्रभुरूप श्रीगुरुनाथ। जया भेटती भाग्यानुसार समर्थ। ज्याचें बोधें परब्रह्म समस्त। शिष्यांसीं भासें।।३४।। ऐसा तो परब्रह्मचि झाला। मग मनादि सर्वेंद्रियाला। वस्तुत्वें देखे तयाला। अभेदवादी होवोनिया।।३५।।
यथा तत्त्वं तथा दृष्टिर्यथा दृष्टिस्तथा मन:।
यथा मनस्तथा भावो यथा भावस्तथा लय:।।३।।
जैसा तत्त्वरूपासीं आला। तैसाचि बोध दृढ बाणला। जें जें देखें तें तें तयाला। महाqलगचि भासें।।३६।। ज्याची दृष्टी झाली चैतन्यघन। जैसी दृष्टी तैसें मन। जैसें मन तैसा भाव जाण। अभेद ज्याचा।।३७।। जैसा भाव तैसा लय पावला। लयत्वें वस्तुत्वें लयीं विश्रांतीस आला। तो वस्तुचि होवोनि ठेला। त्यासीं भेद नाहीं।।३८।।
अर्पितानर्पितन्नास्ति भेदं वा अर्पणे तथा।
पदार्थस्य प्रसादस्य किंचिद् भेदं न भावयेत्।।४।।
ज्या पदार्थीं मिळे प्रसाद। तो अर्पावा नाहीं भेद। तो आपणचि स्वत:सिद्ध। म्हणोनि संदेह नाहीं।।३९।। त्यासीं अर्पणीं अनार्पणीं भेद नाहीं। सहज अर्पण होतसे पाही। दोन्ही इंद्रियांचे ठायीं। ब्रह्मबोध ओसंडतसे।।४०।। श्रवणीं ऐके कांहीं जें। त्वचेनें जें जें स्पर्शिजें। चक्षूनें जें जें देखिजें। तें वस्तुरूपचि।।४१।। जिव्हेनें जें जें चाखिजें। घ्राणें जो जो गंध घेईजें। तें तें वस्तुत्व मानी सहजें। सत्यशरण तो।।४२।। जें जें वागिंद्रियाचे बोलणें। पाणींद्रियाचें जें जें घेणें। पादेंद्रियाचें जें जें चालणें। तें तयाविण नाहीं।।४३।। ऐसें सर्व इंद्रियांसीं। घेणें देणें अहर्निशीं। तें तें समर्पी महालिंगासीं। म्हणोनि तया भेद नाहीं।।४४।। ऐसा जो तत्त्वरूप होवोनि। तत्त्वीं मिश्रित असे तत्त्वपणीं। त्यासीं अर्पित अनार्पित कोणी। भेदु न देखिजे।।४५।।
अभावे भावमासाद्य ह्यस्थाने स्थानमाचरेत्।
एतद्वयपरिज्ञानी प्रसादी सावधानक:।।५।।
तूं म्हणसी अर्पित अनार्पित। भेद कां नाहीं त्यासीं निश्चित। तरी तो काय क्रियारहित। जाला म्हणसी।।४६।। तरी तो ऐक विचार। तो क्रिया न टाकी चतुर। अभाव भाव सारासार। जाणता म्हणोनि।।४७।। तो स्थानां अस्थानां जाणतां। सव्य अपसव्य ओळखतां। तो होय केवि क्रिया सांडितां। विचारोनि पाहे वो देवी।।४८।। भोग्याभोग्य जाणोन। जो वर्ते जाणे तो सज्ञान। अकर्तेपणें असें ज्याचें वर्तन। तो भयानें क्रिया टाकीना।।४९।। अकर्तेपणें असतां। तो क्रिया न टाकी सर्वथा। स्वयें होवोनि वस्तुता। असे म्हणोनिया।।५०।। यालागीं अर्पितानर्पितासीं। संदेह नाहीं तयासीं। कां म्हणसी तरी फळासीं। निराश म्हणोनिया।।५१।। कां क्रिया आलियावरी। तरी फुगारा न धरी अंतरीं। अथवा बिघडल्यावरी अंतरीं। दु:खी न होय तो।।५२।। तो अवघा आपणचि झाला। तो निराश फळासीं आला। म्हणोनि अर्पितानर्पित तयाला। संदेह नाहीं।।५३।। परि तो क्रिया न टाकितां नित्य वर्ते। जडजीव तरतील या परोपकारार्थें। क्रिया करावी सर्व समर्थें। जरी झाला प्रभुरूप।।५४।। यालागीं तो सत्यशरण। क्रिया करी चित्तवृत्ति ठेवोन। क्रियाफळास निराशपण। अकर्ता म्हणोनिया।।५५।। ज्यासीं असें ऐसें ज्ञान। तया अर्पितानर्पितीं अलिप्तपण। म्हणोनि तया ठायीं भेदलक्षण। धरूंचि नये।।५६।। येणेंपरी जो होय आचरता। तया बोलिजें सदा सावधानता। तोचि शुद्ध प्रसादी तत्त्वतां। सत्यशरण तो।।५७।।
संयोगे च वियोगे च लघुबिंदुसुखार्पितम्।
य: कुर्यादिष्टलिंगे च सावधानं निरंतरम्।।६।।
संयोगीं अथवा वियोगीं। बिंदुमात्र जें सुख घडें अंगीं। तें अर्पिता जाण लिंगीं। तो सावधान प्रसादी।।५८।। ज्या ज्या क्षणीं जें जें होय सुख। अणुमात्र तेंहि अर्पी देख। इष्टलिंगाचे ठायीं निष्टंक। तो सावधान प्रसादी।।५९।। कां म्हणसी तरी ऐक। गुरु लिंग जंगम तिन्ही एक। यालागीं लिंगासीं पूजा करी नेमक। हें तें गुरूसीं अर्पिजें।।६०।। यालागीं जें पुजिजें। तें तें गुरूसीं अर्पे सहजें। तैसेचि इष्टलिंगासीं अर्पिजें। तें तो गुरु भोक्ता।।६१।। ऐसिया अर्पणविधीनें जो वर्ते। सावधान प्रसादी बोलिजें त्यातें। तो जिवांहूनि आवडे आमुते। सत्यशरण वो देवी।।६२।। जो सत्यशरण झाला। तो लिंग होवोनि ठेला। भेदाभेद निमाला। तया पुरुषाचा।।६३।। त्याचे आम्हांसीं ध्यान। तो देव भी भक्त जाण। तो आत्मा मी देह आपण। ऐसा पढियंता तो आम्हां।।६४।। तया आम्हां वियोगतां। कधी न पडे तत्त्वतां। मी तयांत तो मज अतौता। होवोनि असे।।६५।। ऐसा जो सत्यशरण। तोचि प्रसादी सदा सावधान। अंतकाळीं तयाचा प्राण। वस्तूसीं समरसे।।६६।।
प्राणप्रयाणकाले च लिंगभोगोपभोगिन:।
अर्पयेत् सावधानेन स्वलिंगे प्राणनायक:।।७।।
लिंगभोग भोगी जो सत्यशरण। लिंगीं लिंगरूप जाहला आपण। त्यानें प्रयाणकाळीं सावधान। प्राण अर्पावा महालिंगीं।।६७।। लिंगभोग घेतां जो लिंगप्राणी। त्याने प्राण प्रयाणकाळीं मेळवोनि। महालिंगीं समरसोनि। महालिंगचि होईजें।।६८।। ऐसा तो अंतकाळीं सावधान। महालिंगीं मेळवी प्राण। त्या नामे प्राणलिंगी जाण। सत्यशरण वो देवी।।६९।। नातरी जन्मवरी सावधान। अंतकाळीं पडें विस्मरण। तरी केले कष्ट व्यर्थ जाण। जाले त्याचे कीं।।७०।। नरदेह पावोन उत्तम। करी सद्वर्तनाचा नेम। जो पुरुष सदा सप्रेम। शिवभक्ति करीतसे।।७१।। तोचि या यातनेतून। दूर असे भक्तजन। त्याची निमाली सर्वथा जाण। अविद्याबंधनें पैं।।७२।। जो आत्म-अनात्मविचार करी। त्यासीं प्राप्त होय मंगळेश्वरी। ऋद्धिसिद्धि परोपरी। राबती तेथें।।७३।। तो पुरुष शिवचि झाला। ब्रह्मीचा अधिकार त्याला। प्रतिईश्वर बोलियेला। दयाशील म्हणोनि।।७४।। ऐसिया दशेप्रत। प्राप्त होती शिवभक्त। जे आचरती शिवयोग निभ्रांत। एकनिष्ठपणें।।७५।। देहसंबंधें जी जी क्रिया घडे। तें तें सुखदु:ख घेतां रोकडे। न मानी आपुलें कर्म साकडे। ईश्वर-इच्छा भावीतसे।।७६।। अंतकाळीचे क्लेश। निजभक्तां लागूं नेदी सर्वेश। दूर करी तयाचा भवपाश। शिवभक्तिकारणें।।७७।। ऐसा निष्ठावंत भक्त। जो असेल गुरुकरजात। तो अहर्निश जपत। गुरुखुणेसीं।।७८।। पूर्वी ध्यास जो होता गुरुखुणेचा। जरी अंतकाळीं विसर पडे तयाचा। तरी जें आठवें तें साचा। होणें न चुके कदा।।७९।। गुरुखूण म्हणिजे श्रीगुरूचें स्वरूप। अरूपचि असें होवोनि रूप। जैसें पातळ तेंचि गोठोन तूप। तेंचि शुभ्र जाहलें।।८०।। उदकाची गार गोठोन। साकार झाली एक क्षण। अंतीं विरोन नीरपण। नव जाय कीं।।८१।। गार विरतां न विरतां। नीरचि असे विवेकें पाहतां। तैसें गुरुरूपी निराकारतां। सदा शिष्याची भावना।।८२।। निराकार गुरुरूपाची खूण। प्रयाणकाळीं जे आठवण। तरी तेंचि होईजें चैतन्यघन। परब्रह्मचि।।८३।। हेहि बोल बोधावया बोलिलो देवी। तयासीं आठव नव्हता काय पूर्वी। अंतकाळीं आठव जहाला हे पदवी। बोलचि नव्हे।।८४।। तरी अखंड ध्यास पूर्वी असे। तरी अंतकाळीं मुखासीं ये अपैंसे। आदि नसतां अंतकाळीं आठवूं बैसे। तरी आठवे केवि।।८५।। ज्याचें जेथ असेल मानस। अंतकाळीं तेंचि आठवें तयास। तें होणें न चुकें सावकाश। ऋषिमुनिजनां।।८६।। ज्या ज्या भावनें देह जाये। त्या त्या भावनें होणें आहे। हें न चुके तेंचि होय। तुझीच आण।।८७।। कोणी म्हणती पार्वतीची आण। वाहिली काय म्हणोन। तेंचि तेहि ऐका श्रोतेजन। खूण सांगेन जी।।८८।। पार्वती ते भक्तराज। भक्त म्हणिजे देवपणाचें बीज। देवपण आलें भक्तांगें सहज। ए-हवीं अव्यक्त अनाम।।८९।। भक्त तरी देवपणें उच्चारिती। देव तरी भक्तीनें मिरविती। येरयेरांवांचून स्थिति। नुरेचि उभयां।।९०।। भक्त भक्तीनें देवो झाला। तंव उभयासीं भेद खंडला। आतां देव भक्त म्हणणें बोल ठेला। भक्त देव एकचि।।९१।। यालागीं देव तोचि भक्त भक्त तोचि देव। ऐसा जरी धरी अनुभव। तरी आणेचा संदेह। कां धरावा चतुरीं।।९२।। पार्वती स्त्रीरूप दिसताहि। तो निजात्मचि असे पाही। विचार आत्मा आत्मी वस्तूचे ठायीं। असे काय पाहतां।।९३।। जैसा बहुरूपी नटे सोंग। सोंग लटिकें बहुरूपी अभंग। परि सोंगांवेगळें त्याचे अंग। अनेक ऐकिले काय।।९४।। मत्स्य कच्छ पशु पक्षी योगी स्त्री। देव नृपति अंत्यज श्वान रूप धरी। इतुकीं रूपें करी खेळांभीतरीं। परि रूपीं न मिळे बहुरूपी तो।।९५।। तैसा प्रभु तो एकला। अनंत रूपें तोचि नटला। तरी पार्वती आणि शिवाला। वेगळीक असे काय।।९६।। म्हणोनि निजप्रीतिभावें। देवीची आण वाहिली देवें। हे सत्यशरण जाणती स्वभावें। अभेदपण।।९७।। ऐसा अभेदपणें करी पूजन। अंतकाळीं असे सावधान। त्यासींच बोलिजें सावधान पुरुष जाण। सदाशिव साक्षात् तो।।९८।।
लिंगार्पिततनुप्राणमर्पितं च पृथक् पृथक् ।
अर्पितं मुखसंबंधो सुखमींद्रियगोचरम्।।८।।
देहक्रिया प्राणक्रिया जे जे होत। ते ते जाणोनि महालिंगीं अर्पित। अकर्ता क्रियाकर्मा अलिप्त। तो सत्यशरण जाणिजें।।९९।। देह प्राण क्रिया होतां। तेथें सुख होय जें तत्त्वतां। तें तें होय अर्पितां। महालिंगीं जेवि।।१००।।
न कायप्राणकर्माणि प्राणलिंगांगसंगिन:।
कालोऽपि शरणं याति जीवन्मुक्त: स्वभाविन:।।९।।
लिंगप्राणी जो पुरुष। कर्मबंध नाहीं तयास। कां म्हणसी तरी सावकाश। विश्वास धरूनि ऐक पां।।१०१।। देहक्रिया ज्ञानक्रियेस। तो न लिंपे उभयास। अकर्ता ज्ञानी बोलिजें तयास। तोचि शुद्धमुक्त जाण।।१०२।। प्राण आणि लिंग एक कीजें। तयासीं प्राणलिंगी बोलिजें। कालभय शरण येई सहजें। तया सत्यशरणासीं।।१०३।।
स लिंगीं प्राणमुक्तश्च मनोमुक्तस्तु जंगम:।
प्रसादी कायमुक्तश्च त्रिविधस्तत्त्वनिर्णय:।।१०।।
प्राणलिंगी तो प्राणमुक्त जाणिजें। जंगम तो मनोमुक्त मानिजें। प्रसादी तो शरीरमुक्त म्हणिजें। याचा निर्णय सांगूं ऐक।।१०४।। प्राण तो लिंगीं ऐक्य केला। म्हणोनि प्राणमुक्त बोलिजें त्याला। जंगम तो मनोमुक्त झाला। तेंहि निरोपुं तुज आतां।।१०५।। मनाचा संकल्प विकल्प। हेंचि बंधनाचें रूप। तें मनचि झालें उन्मनीं रूप। मनोमुक्त या लागीं।।१०६।। मनाचा संकल्प विकल्प तुटला। मनोमुक्त जंगम बोलिजें त्याला। सर्व विकारीं तो सुटला। म्हणोनिया।।१०७।। जंव संकल्प विकल्प तुटेना। तंव जन्ममरण सुटेना। संकल्प गेलिया मनोमुक्त जाणा। बोलिजें जंगम।।१०८।। प्रसाद विश्वासें सेवितुसे। प्रसादनिष्ठें देहबुद्धि नाशे। म्हणोनि शरीर मुक्त अपैंसे। तया प्रसादियाचें।।१०९।। ऐसी तिही प्रकारची मुक्तस्थिति। तत्त्वनिर्णय चढे त्याचे हातीं। स्वयें तत्त्वचि होय महामूर्ति। तोचि सत्यशरण देवी।।११०।। तयासीं लौकिक व्यवहार। नाहीं प्रपंच आचार। तो तारावया शिवाचार। सद्गुरु बोलिजें।।१११।।
प्राणलिंगी स्वयं शांतो लौकिकाचारवर्जित:।
सर्वसंगपरित्यागी वर्तते शिवभाववान्।।११।।
प्राणलिंगी जो पुरुष। तया लोकांचा उद्देश। लोकाचार नावडे तयास। तत्त्वीं रत सदा तो।।११२।। तो तिन्ही लोक वर्जित। त्यासीं नावडे स्वर्गपद पदार्थ। नावडे भोगविलास समस्त। तो परि रत माझे ठायीं।।११३।। त्यासीं पाषाण तैसें कांचन। गारेऐसें माणिक्यरत्न। स्त्रीपुरुषां निवडण। नाहीं तया।।११४।। हा गज हा मशक। हा स्वामी हा सेवक। हा राजा हा रंक। नेणेचि निवाडा।।११५।। हा पापी दोषी हा साधु। हा चतुर हा मूर्ख मैंदु। हा वैरी हा बंधु। भेद नाहीं तया।।११६।। निंदास्तुति सम धरी। मान अपमान नाठवे अंतरीं। मीतूंपणाची उजरी। नाहीं तया।।११७।। सर्वत्र मजलाचि देखत। जें जें देखें तें मजरूपचि मानीत। अर्ध क्षण मजविरहित। न राहे तो।।११८।। तो न राहे मजविण एक क्षण। मी नाहीं अर्ध क्षण त्याविण। तें माझे विश्रांतीचें स्थान। मी विश्रांति त्याची।।११९।। ऐसें असोनिया ज्ञान। स्वधर्मे वर्ते निष्ठेकरून। अज्ञ जनां तारावया जाण। क्रिया करी नेमेसीं।।१२०।। सर्वत्र मानितां अभेद। क्रिया भंग होय अबद्ध। असे धर्मशास्त्रीं प्रसिद्ध। भेद ठेवावा क्रियेलागीं।।१२१।। अलिंगि-स्पर्श होतां जाण। तात्काळ करावें स्नान। क्रिया करी देह झिजवून। तोचि धन्य संसारीं।।१२२।। जो तिन्ही लोकाचें सुख त्यागी। कष्ट करोनि राहे शिवमार्गीं। शिवयोगी रत विरागी। तो जाण निजभक्त।।१२३।। ऐसीं हीं नित्यमुक्त लक्षणें। श्रीशिवकृपें पार्वती जाणे। गुरुभक्ताविणें हें जाणणें। दुर्लभ देवी सर्वथा।।१२४।।
नाहं वसामि कैलासे न मेरौ न च मंदरे।
मद्भक्ता यत्र तिष्ठन्ति तत्र तिष्ठामि पार्वति।।१२।।
ऐक पार्वती विश्वासें। मी कैलासीं तरी न वसे। मेरुशिखरीं सर्वथा नसे। मी असे भक्तांजवळी।।१२५।। मी मंदराचळीं नाहीं। ढवळागिरीं नसे पाही। माझे भक्त असती जें ठायीं। तेथें मी वसतुसे।।१२६।। माझे भक्त जेथ असती। तेथ मी तिष्ठे कैलासपति। ते अखंड माझे सांगाती। मी सांगाती तयांचा।।१२७।। देखून भक्तवृक्षासीं। मी राहे त्याचे छायेसीं। ऐसी एकोपता मज त्यासीं। ऐक्यभाव अभेद।।१२८।। यालागीं बसवेश्वरासीं म्हणे। तुझिया पालखातील मी तान्हें। मी श्लाघ्य तुझेनि भक्तिगुणें। भक्तिचिया प्रेमा मज।।१२९।। भक्ताचा मी विकला। भक्तनामी अंकिला। भक्तिभावें बांधिला। कैलासनाथ।।१३०।। ज्याचें हृदय निर्मळ। निष्कपट जैसें गंगाजळ। तेथ मी तिष्ठे जाश्वनीळ। सद्भाव देखोनिया।।१३१।।
सद्भावं सद्गुणं चैव स्वधर्मे सावधानक:।
सत्संगस्त्वनवद्यत्वं तत्र तिष्ठामि पार्वति।।१३।।
देवी मी वसे तो ठाव ऐक। जे सद्गुणी जन सद्भाविक। दशक्रिया सुधार्मिक। तेथ मी तिष्ठतसे।।१३२।। सात्त्विक आणि सत्यवादी। निरभिमानी सद्बुद्धि। सावधानी निरवधि। तेथें मी वसतसे सदा।।१३३।। शंकर म्हणे पार्वतीप्रति। जो सद्भावें अर्ची प्रेमें प्रीति। तयाचे गर्भवास चुकती। स्वधर्मनिष्ठेंकरोनिया।।१३४।। जे जे भाविक भक्त शुद्ध। तयाकारणें न लगे बोध। ते स्वधर्माचारें वर्तती सिद्ध। आचारज्ञानयोगें।।१३५।। तया जे मानिती आप्त। तया जन्मयातना न होय प्राप्त। शिवपदालागीं अव्यक्त। भक्त असे तोहि पैं।।१३६।। व्यक्त भक्तां ओळख। लिंगभस्मधारण देख। रुद्राक्षमाळाभरणें सुरेख। शोभतसे प्राणी तो।।१३७।। लिंगधारण जया नाहीं। त्यांनीं पार्थिव पुजावें पाही। अथवा प्राणलिंगाचीहि। पूजा करावी आदरें।।१३८।। लिंगधारण नाहीं ज्यास। जरी लिंगधारीचा घडे सहवास। तरी तो अलिंगी शुद्धपदास। पावे शिवस्पर्शें।।१३९।। तैसाचि भस्माचा गुण। वीरशैवाचें भस्म पावन। अत्यादरें स्पर्श करितां जाण। तुटती जन्मफेरे।।१४०।। रुद्राक्षपरिधानाची गोडी। जया असे परम आवडी। तोही पावे कैलास भवंडी। शिवचिन्हेंकरोनिया।।१४१।। शिवचिन्हाची थोरवी मोठी। न वर्णवे कोणा उठाउठीं। धारण करितां शंकरभेटी। घडतसे निश्चयें।।१४२।। ऐसे भक्तराज उत्तम। आचरती धरोनि नेम। तयाजवळी वसे सप्रेम। अन्य स्थळ नावडे।।१४३।।
सद्भक्तिश्च सदाचार: सद्गोष्टिश्च सदा सुखी।
सम्यक्ज्ञानं सदानंदं तत्र तिष्ठामि पार्वति।।१४।।
सद्भक्त सदाचारी असती। सद्गोष्टी सदा वसती। सदा शुचित्वें वर्तती। तेथ मी तिष्ठे सदाकाळ।।१४४।। सम्यक् ज्ञान सदा आनंद। सदा शांत सद्बोध। त्याचें हृदयीं शिवानंद। सदा क्रीडतसे।।१४५।। जो उदासवृत्ति सोडून। सदा आनंदी ठेवोनि मन। कालमृत्यूतें विसरून। राहे सावधान मद्भजनीं।।१४६।। जो अनिंदक अद्वैत। जो निराश निजभरित। तयाचें हृदयीं सदोदित। वास माझा असे वो देवी।।१४७।।
विषयान् विषवत्त्यक्त्वा क्रोधं पारुष्यमेव च।
भक्तिप्रेमदयायुक्तस्तत्र तिष्ठामि पार्वति।।१५।।
विषयां विषासम मानोनि। जेणें त्यागिलें तत्क्षणीं। त्याचें हृदयीं मी शूळपाणि। सदा तिष्ठतु असे।।१४८।। अक्रोधी जो सदा निवांत। क्रोधातें मांग मानोनि नातळत। त्याचें हृदयीं मी कैलासनाथ। अखंड असे।।१४९।। जो नि:संग कोणाचा। संग न धरी त्रिगुणिकांचा। सुहृद असे जीवाचा। तेथ मी असे सदा।।१५०।। भक्ति तरी प्रेमें करी। भूतदया सर्वांवरी। तेथ मी त्रिपुरारी। सदा वसतसे।।१५१।।
मद्भक्तिरतो नित्यं मन्नामस्मरणं सदा।
शरण्योऽऽचारसंयुक्तस्तत्र तिष्ठामि पार्वति।।१६।।
एकविध भक्तिप्रेम करी। भूतदयायुक्त जो अंतरीं। तेथें असे मी त्रिपुरारी। अन्या ठायीं नसे कदा।।१५२।। वेदशास्त्रें सांगती युक्ति। जीवें करावी शिवभक्ति। तेथें कलिकालाची नसे शक्ति। महिमा अद्भुत भक्तीचा।।१५३।। माझी भक्ति कोणती म्हणसी। माझें नांव गावें सप्रेमेशीं। माझें ध्यान अहर्निशीं। त्यापासीं सदा वसे।।१५४।। नित्य नाम असे घेतां। मद्रूप होय तत्त्वतां। देखे लावी भक्तिपंथा। आचरोनि जो कां।।१५५।। शिवकथा शिवगोष्टी। सांगतां उल्हास न माये पोटीं। तयापासीं मी धुर्जटी। सदा तिष्ठतु असे।।१५६।। ते माझे अति जिवलग। ते आत्मा मी त्याचें अंग। तया मज वियोग। कदा नाहीं।।१५७।। तेणेंचि केला सर्व नेम। त्यानेंचि केला सर्व धर्म। तोचि उत्तमाचा उत्तम। जो ध्यातो सादर नाम माझें।।१५८।। त्या सत्यशरणाचा मी अंकित। तो चालतां मी खडे वेचीत। सदा मी त्याभोवतां भोवत। विघ्न निवारीत तयाचें।।१५९।। जयास तो वचन देईल। म्हणे जाय तुझें बरें होईल। तया मज देणें लागेल। तो म्हणेल तेंचि तें।।१६०।। सेवक जैसा स्वामिसेवेसीं। सदा सादर अहर्निशीं। तैसा मीहि भक्तापासीं। सेवेसीं सादर सदा।।१६१।। मी सदा वर्ते त्याचे बोली। सदा असे त्याचेजवळी। अहर्निश तयाचे मेळीं। मी चंद्रमौळी भक्तीस्तव।।१६२।। त्याचें आम्हांसीं ध्यान। आम्ही हृदयीं धरूं त्याचें चरण। तयाचेनि मज देवपण। तो भक्त म्हणोनि।।१६३।। तयाचेनि योगें मी श्लाघ्य त्रिनयन। तो आमुचे देवतार्चन। तयाचे सद्भावें रात्रंदिन। करी पूजन मी देवी।।१६४।। तो आम्हां पढियंता अत्यंत। तोचि जंगम तोचि भक्त। निराकारां आकार त्यानिमित्त। घेणे घडे आम्हां।।१६५।। आम्हां तया भेद नाहीं। मी तोचि तो विवेकें पाही। मी त्यामाजीं मी त्याचे ठायीं। मीच होवोनि असे तो।।१६६।। काशी आदि सर्व तीर्थें जाण। तयाचे चरणीं होती पावन। गंगा यमुना सरस्वती मिळोन। चरणधुळी वांछिती।।१६७।। कां म्हणसी तरी ऐक। तीर्थीं पाप फेडोनि जाती लोक। त्या तीर्थाचें पाप क्षाळी देख। सत्यशरणाचें चरणरज।।१६८।। त्याचें चरणतीर्थ पावन। त्याचें चरण देवतासीं उद्धरण। पाषाणासीं येतें देवपण। तयाचें चरणतीर्थें।।१६९।। ऐसे ते माझे मुकुटमणि। मी अखंड त्याचे ध्यानीं। आतां किती वर्णूं मी वाणी। तूंहि जाणसी वो देवी।।१७०।। तो मज पूज्यमान जंगम। तोचि सत्यशरण जाण उत्तम। त्याच्या चरणीचें तीर्थ पावन। तिन्ही देवतांसीं।।१७१।। ही शरणाची परम गति। तुज कथिली वो पार्वती। अभक्ताची काय स्थिति। ती परिसावी सावध।।१७२।। जो अभक्त खल दुर्जन। निंदी सद्भक्ताचें वचन। अवमानी धर्मनीति जाण। कुमार्गीं रत सदा।।१७३।। धर्मनियम तोडोनि पाही। स्वमताचार रूढवी कांहीं। पाखंड वाढवूनि लवलाही। स्वधर्मातें त्यजवी तो।।१७४।। दुर्वासनें वर्ते आपण। तैसाचि करवी रोखून। तया वश न होतां जाण। खोड मोडी दुष्टत्वें।।१७५।। जन्मापासून चालतां धर्म। त्यागून पाळवी अधर्म। प्रसिद्ध खूण सोडून। दुजे सांगे वर्तावया।।१७६।। स्वजातीची करी निंदा। त्याचें वचन न मानी कदा। यम घालूनिया आपुलिया फंदा। नेत तया यमपुरासीं।।१७७।। तेथ त्याची घेती झडती। पापपुण्याची करिती गणती। जे शिक्षेलागीं पात्र होती। तया ताडिती शस्त्रघायें।।१७८।। स्वधर्मीं निष्ठा नसे ज्यासीं। कुंभीपाकादि शिक्षा त्यासीं। काचरसाचे कुंडापासीं। नेती त्या बुडवावया।।१७९।। अग्निस्तंभां भेटवून। सवेचि करविती वृश्चिकदंशन। तीक्ष्ण शस्त्रें टाकिती छेदून। पुनर्जन्मां पाठविती।।१८०।। पापपुण्य होतां समस्थिति। मनुष्यजन्मातें घालती। तेथें जरी स्वधर्मे वागती। नाहीं भीति यमाची त्या।।१८१।। स्वधर्मीं पुण्य प्राण्यांस। विनयें भोगविती विलास। पुण्यक्षय झालिया नि:शेष। मृत्युलोकांस पाठविती।।१८२।। ऐसी ही स्वधर्म-पुण्याची भीति। यमादिकां असे निश्चिती। पुण्यकर्माचा महिमा देव जाणती। वाखाणिती बहुसाल।।१८३।। स्वधर्माचरणाचें यश। लाजवितसें शक्रास। म्हणोनि सांभाळावें तयास। स्वात्मसुखालागीं।।१८४।। माझे जे परम भक्त। त्याचे धर्मावर ग्रंथ। सूक्ष्म असती अत्यंत। गुरुगम्य ते।।१८५।। जे मज आठविती रात्रंदिन। मज अर्चिती पंचाक्षरेंकरोन। ते मज प्रिय अनुदिन। लिंगधारी।।१८६।। तया शिवभक्तां यम येत शरण। जे कां qलगधारी करिती भस्मधारण। तैसेचि घालती रुद्राक्षाभरण। तें पावन ब्रह्मादिकां।।१८७।। तेथें मी अहोरात्र वसे। भूतगणांसह परियेसे। अष्ट महासिद्धि सावकाशे। राबती तेथें।।१८८।। न आवडे कैलासवास। कैलासीं मी असे उदास। भक्तगृहीं संतोषवश। डुलतसे आनंदें।।१८९।। ऐसा सदाचारी तोचि जंगम। माझेंचि स्वरूप जाण सुगम। त्याविण मज नसें प्रेम। अन्या ठायीं।।१९०।।
मद्देहं जंगमं देहं मत्प्राणश्चरलिंगक:।
तस्माद्धिचरतीर्थेन मम तृप्तिर्वरानने।।१७।।
माझा देह तंव जंगमदेह। माझा प्राण तो जंगम आहे। पाहतां विचारें पाहे। पूज्यमान तो आम्हां।।१९१।। यालागीं चरणतीर्थ आम्हांसीं। सेवावया अधिकार नेमेसी। त्याचें तीर्थें तृप्ती आम्हांसीं। निजमानसीं वो देवी।।१९२।।
अनादिजंगमं देवि संपूज्य चरणोदकम्।
अर्पयेत्परया भक्त्या ब्रह्माविष्णुसुरेश्वरान्।।१८।।
अनादिसिद्ध जंगममूर्ति। निराकार तारावया भक्तांप्रति। अवतरला सत्यशरण जाणती। सत्यशरणाला।।१९३।। त्याच्या चरणीचें तीर्थ। आम्हां तिन्ही देवांसीं अर्पित। करावया अधिकार नेमस्त। असे वो पार्वती।।१९४।। त्याचें चरण प्रक्षाळून। अष्टविधार्चनें कीजें पूजन। अंगुष्ठतीर्थाचें सेवन। आदरें कीजें।।१९५।।
अनादिजंगमो नित्यो निजैवास्य चराचरम्।
चातुर्वर्णं भवेत् शिष्यं जंगमो गुरुरुच्यते।।१९।।
अनादिसिद्ध जंगम जाण। नित्य निर्गुण निरंजन। तो चातुर्वर्णासीं गुरु आपण। तारक जाणिजें।।१९६।। यालागीं तोचि गुरुराव। त्याची दीक्षा घेवोनि एकभाव। तो त्यजूनि करी अन्य गुरुदेव। तरी निरयासीं जाईजे।।१९७।। बहुलिंग बहुदैवतपूजन। बहुप्रसादी बहुगुरुसेवन। तयासीं दृष्टान्त जो देईन। तो ऐक वो देवी।।१९८।। जैसा दासीकुसीं पुत्र झाला। तो आप्पा म्हणेल भलत्याला। ऐसा विचार घडला त्याला। ज्याला गुरु बहु होती।।१९९।। एकनिष्ठा एकभावो। तोचि होय देवाधिदेवो। परि आधीच गुरुरावो। ज्ञानिया कीजें।।२००।। जो असे ज्ञानांकित। जयाची संतमुखीं स्तुत। त्याची दीक्षा निभ्रांत। घेईजें विशेषें।।२०१।। ऐसा जो गुरुरूप जंगम। मी तो जाण उत्तम। ज्याचे पूजेचा आम्हां नेम। तें विश्रामधाम आमुचें।।२०२।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। शिवगौरीसंवादीं वर्तत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृत्य मन्मथ।।२०३।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे शरणलक्षणनिरूपणं नाम पंचदशोऽध्याय: संपूर्ण:।।
श्लोक १९, ओव्या २०३.
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अक्षररचना : सौ. उषा पसारकर, सोलापूर