तुम्ही सांगितलें मुक्तस्वरूप। मागिले अध्यायीं अमूप। आतां वर्णावें जी स्वरूप। सद्गुरुनाथाचें।।१।।
देव्युवाच- रूपं सद्गुरुनाथस्य ज्ञातुमिच्छामि सांप्रतम्। ब्रूहि मे कृपया देव वल्लभोऽसि मम प्रिय:।।१।।
पार्वती म्हणे जी सदाशिवा। गुरु तोचि देव म्हणावा। ऐसें निरोपिलें एकभावा।
तें मज आतां स्पष्ट करा।।२।। सद्गुरुरूप कैसें। सांगावें जी मज सौरसें।
कोण भाव मूर्तत्वें असे। स्वरूपीं त्या।।३।।
शिव उवाच- गुरुर्माता गुरु: पिता हितकृत् श्रीगुरु: स्वयम्। गुरुदेवात्परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नम:।।२।।
शिव म्हणे हो वरानने। जो गुरूवांचोनि कांहीं नेणें। सर्वस्व माझे गुरु
म्हणे। अनन्यभावें शरण तो।।४।। गुरु माता गुरु पिता। स्वहितकर्ता गुरुचि
दाता। ज्यापरतें दैवत नाहीं तत्त्वतां। तया श्रीगुरूसीं नमूं आतां।।५।। सखा
तो जिवलग जीवीचा। गुरुचि बंधु मित्र पूर्वज कुळीचा। जयानें परशिव केला
जीवाचा। तया श्रीगुरूसीं नमो।।६।। आप्त सोयिरा लिंगांगीचा। जो उन्मेष
षट्स्थल ब्रह्माचा। बोधक ऐक्य-तत्त्वाचा। तया श्रीगुरूसीं नमावें।।७।। न गुरोरधिक: शम्भुर्न गुरोरधिको हरि:। शिवकोपे गुरुस्त्राता गुरुकोपे न कश्चन।।३।।
गुरूहूनि अधिक नाहीं त्रिपुरारी। गुरूविण अधिक नाहीं हरि। कोपे शिव
हरीच्या गुरु तारी। गुरु कोपी कोणी तारीना।।८।। हरि-हर गुरूचे अंकित। अखंड
स्तुति ध्यान करीत। कळिकाळ पायां लागत। गुरुभक्तांचिया।।९।। मन्नाथस्त्रिजगन्नाथो मद्गुरुस्त्रिजगद् गुरु:। स्वात्माऽपि सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नम:।।४।। म्हणोनि माझा नाथ जगन्नाथ। माझा गुरु तोच जगाचा गुरु होत। माझा आत्मा सर्वभूतात्मा निभ्रांत। तया श्रीगुरूसीं नमो नमो।।१०।। देव्युवाच- ध्यानं किमात्मकं ध्येयं पूजामूलं च किं भवेत्। को वा मंत्र: सदा जप्य: मोक्षमूलं च किं वद।।५।।
पार्वती वदे जी शंकरा। दयानिधे करुणाकरा। मज सांगा जी उदारा। प्रश्ननिर्णय
करोनि।।११।। कोण मूल ध्यानासीं। कोण मूल पूजेसीं। कोण मूल मंत्रासीं। मूळ
मुक्तीसीं कोण पैं।।१२।।
शिव उवाच- ध्यानमूलं गुरोर्मूर्ति: पूजामूलं गुरो: पदम्। मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरो: कृपा।।६।।
शंकर म्हणे पार्वतीप्रति। ध्यानास योग्य गुरुमूर्ति। तयाचें चरण सद्भावें
पुजिती। अन्य पूजा कासया।।१३।। ध्यान श्रीगुरूचेंचि करावें। ध्यानां मूळ
गुरुरूप जाणावें। पूजा मूळ गुरुचरण भावें। आन पूजा निरर्थक।।१४।। मंत्रासीं
मूळ गुरुवाक्य जाण। आन मंत्र निष्कारण। जयासीं कृपा करी पूर्ण। तोचि मुक्त
जाणावा।।१५।। श्रीगुरूविण मुक्ति नाहीं। वेद गर्जे ऊर्ध्वबाहीं।
मुक्तिदाता श्रीगुरु पाही। मम रूप जाणिजें।।१६।। देवामाजीं मीचि ईश्वर।
मर्त्यलोकीं वीरमाहेश्वर। क्रियाचारासीं आधार। सत्य जाण वो देवी।।१७।। अंगुष्ठाग्रे अष्टषष्टितीर्थान्यपि वसंति ते। सप्तसागरपादोध्र्वे तदध: कुलपर्वता:।।७।।
अंगुष्ठीं अडुसष्ट तीर्थें असती। अष्ट तीर्थें स्नानीं वसती। सप्त पदीं
नांदती। जया श्रीगुरूचिया।।१८।। महातीर्थें सप्तसागर। तेंहि चरणीं वसती
स्थिर। कुल पर्वत धुरंधर। गुरुपदीं नांदती तें।।१९।। नक्षत्रग्रहरुद्राद्या तस्य गुल्फे वरानने। जंघायां वसति नित्यं षट् त्रिंशत्तत्त्वमालिका।।८।। ईशानादि रुद्र जे असती। गुल्फद्वयीं नवग्रह वसती। जांघें छत्तीस तत्त्वें नांदती। तया श्रीगुरूच्या।।२०।। सप्तसागरपर्यंतं तीर्थस्नानेषु यत्फलम्। सहस्रगुणितं तस्माद् गुरुपादांबुधारणम्।।९।।
सप्तसागर सृष्टीचीं तीर्थें। तें जें देती दानफळातें। सहस्रांशें
गुरु-अंगुष्ठथेंबातें। सरी न पावती कीं।।२१।। फल जें गुरुतीर्थसेवनाचें।
शेष वर्णूं शकेना महिमान त्याचें। मा म्यां काय वदावें वाचें।
पामरानें।।२२।। निराकारो गुरु: प्रोक्त: साकारो लिंगरूपभाक्। ज्ञात्वैक्यमुभयोर्नित्यं भजेत्सायुज्यसिद्धये।।१०।।
श्रीगुरुमूर्ति असे निराकार। लिंगमूर्ति असे साकार। परि जाणोनि उभय
निराकार। एकत्वें भजिजें।।२३।। पातळ घृत तेंचि गोठलें। तरी काय घृतपणा उणें
आलें। तेवि निराकार गुरुत्व आकारलें। लिंगरूपें।।२४।। कापूर आकार दिसे
रवा। परि तो परिमळचि आघवा। तैसा लिंगरूप जाणावा। गुरुचि आकारला।।२५।।
म्हणोनि लिंग तो गुरुचि जाणिजें। अभेदत्वें उभया पुजिजें। तयाच्या अंगसंग
होवोनि असिजें। निरंतर वो पार्वती।।२६।। गुरुरूपं तु यो विद्वान् शिवरूपमिति स्मरन्। अशरीरात्मसंबधी गुरु: शिष्यमनुग्रहेत्।।११।।
ज्ञानियां गुरु आणि शिव एक असे। उभयवर्ग निर्गुण निराकार भासे। गुरु
निराकार भाविजें विश्वासें। सदा शिष्यानें।।२७।। लिंगरूपी जो परमपुरुष। जो न
कळेचि वेदश्रुतींस। तया न म्हणावें आकारास। निर्गुण निराकारचि
जाणावें।।२८।। गुरुहि आहे तयेपरी। तयाची देवाहून अधिक थोरी। वर्णितां शिणले
वेद चारी। अगम्य रूपा अगोचरा।।२९।। शिव तो निराभास भासेना कोण्हासीं।
पाहतां वेदशास्त्र-पुराणांसीं। तो भासवी सत्शिष्यासीं। म्हणोनि शिवासीं
गुरु अधिक।।३०।। जो ध्यानाजपानामावरी। गवसेना कोण्हासीं कोण्हे परी। तो शिव
स्वयें शिष्यासीं करी। म्हणोनि अधिक गुरु।।३१।। शिव परब्रह्म होय सही। परि
भेटीं बोलणें न घडें कांहीं। हा भेटे बोले समाधान करी सर्वहि। यालागीं
गुरु अधिक।।३२।। पूजापत्री भावभक्ति। कैसी करावी निराकाराप्रति। सेवेसी
पूजेसी गुरुमूर्ति। म्हणोनि विशेष हा।।३३।। गुरु परशिव एकचि पाहीं। परि
परशिवां बोधणें बोलणें नाहीं। हा बोधी बोले स्वयें स्वरूपाचे ठायीं। समरस
करी।।३४।। निराकारचि आकारला। जडजीव तारावया गुरुरूप झाला। म्हणोनि मनुष्य
म्हणूं नये तयाला। परब्रह्मचि तो।।३५।। यो गुरुं कायरूपेण गुरुभावं च भावयेत्। शिष्यज्ञानप्रदीपेन अप्रमाणमगोचरम्।।१२।।
शिष्यानें देहभावना गुरूसीं न भाविजें। अप्रमाण अगोचर गुरूतें जाणिजें।
ऐसें जाणोनि भजे तरी ज्ञान सहजें। अप्रमाण अगोचर होय।।३६।। गुरूसीं देहधारी
मानिता माणूस। ब्रह्मत्वें न बैसे विश्वास। तरी तो केवि पावें परब्रह्मास।
गुरु माणूस मानितां।।३७।। गुरु मानव न भाविजें विश्वासें। तयासीं स्वयें
ज्ञान प्रकाशें। मग आपणहि होय गुरुरूप सरिसें। गुरुध्यानें।।३८।। कीट भृंगी
वैरध्यानें। तात्काळ भृंगचि होणें। मा शिष्य तरी सद्भावध्यानें। गुरुरूप
केवि नव्हिजें।।३९।। म्हणोनि गुरूचें ध्यान करावें। तरी गुरुरूपचि व्हावें।
झालिया कळिकाळ स्वभावें। शरण येती वो देवी।।४०।। गुरु देहधारी न म्हणावें।
ब्रह्म अगोचर तया जाणावें। तरीच परब्रह्मां पावावें। येणे भावें
करूनिया।।४१।। सद्गुरु अव्यक्त असती। व्यक्त शिष्यां उपदेशिती। प्रदीप्त
ऐसी ज्ञानज्योति। दाखविती पूर्ण ब्रह्म।।४२।। तेव्हां तेहि होती गुरुरूप।
घेती ब्रह्मानंदीं झेप। शिष्य-गुरुत्वाचा विक्षेप। न उरे कदा तेथें।।४३।।
गुरुशिष्यां ना दिसे भेद। ध्यानयोगें असे अभेद। गुरुकृपें होय सद्गद। तो
सत्शिष्य जाणावा।।४४।। एक मूर्तिस्त्रयोभागा: गुरुलिंगं तु जंगम:। जंगमं च गुरुर्लिंगं त्रिविधं लिंगमुच्यते।।१३।।
एक निर्गुण मूर्ति त्रिभागां आली। गुरु लिंग जंगम ऐसी भासलीं। तिन्ही
मिळूनि एकरूप जई झाली। तोचि जंगम अथवा लिंग ।४५।। जो गुरु तोचि जंगम। जंगम
तोचि लिंग उत्तम। त्रिविध लिंग ऐसा नेम। असिजो वो पार्वती।।४६।। यास्तव तीन
रूपांमाझारीं। माझा वास असे सुंदरी। तदन्य स्थानांभीतरीं। अजाग्रत असे
मी।।४७।। लिंगरूपी जो सद्गुरु। वाहे स्वधर्माचा अहंकारु। तोचि वीरशैवाचारु।
उद्धारु जगामाजीं।।४८।। जो भाव गुरूसीं पाही। तोचि असावा लिंगाचें ठायीं।
तोचि भाव जंगमाचे पायीं। विश्वासें असावा।।४९।। गुरुदेवं महादेवमेकभावेन भावयेत्। भावद्वयविभागेन नरके कालमक्षयम्।।१४।।
श्रीगुरूसीं सदाशिवासीं ऐक्यभावें। भजिजें तरी गुरुरूपचि व्हावें।
द्वैतभावें निरयासी जावें। कल्पांतवरी।।५०।। गुरुदेव आणि महादेव। उभयीं नसे
भेदभाव। म्हणोनि असे श्रेष्ठ प्रभाव। गुरुपूजनीं ठेविला।।५१।। गुरुरूपोद्भवं लिंगं लिंगरूपोद्भवो गुरु:। भक्त्तो भेदवादी यो चांडालो गुरुपातकी।।१५।।
गुरूपासोनि लिंगप्राप्ती। लिंगापासोनि गुरुतृप्ति। उभयां ठायीं शिवाची
व्याप्ती। असे जाण पार्वती।।५२।। गुरूमाजीं लिंग लिंगामाजीं गुरु। ऐसा
भक्ताचा असावा निर्धारु। लौकिकभावें धरी भेदाकारु। तो चांडाळ
गुरुपातकी।।५३।। लिंगासीं गुरुभावनें पुजिजें। तें पूजन गुरूसीं अर्पें
सहजें। म्हणोनि अष्टविधार्चनें पुजिजें। त्रिकाळ लिंगासीं।।५४।। स्थावर आणि
दुजे चर। हे दोन लिंगाचे प्रकार। दोन्ही रूपीं मीच ईश्वर। परि गुरु चरलिंग
जाणावें।।५५।। म्हणोनि गुरूसीं ध्यातां अर्चितां जाण। कोटी लिंगांचें घडें
पूजन। अर्बुद पात्रीं भोजनदान। घडतसें अनायासें।।५६।। कोण्ही म्हणती लिंग
तरी साकार। तेथें भजतां केवि संतोषें निराकार। यासीं दृष्टान्त ऐक साचार।
जेणें संदेह फिटे।।५७।। नट सोंगरूप अवगला। सोंग देखून सभें संतोष झाला।
सोंगा त्याग दिधला। नानाविध।।५८।। त्याग सोंगानें भोगिला। कीं सोंगातील
नटासींच पातला। सोंग लटिकें म्हणोनि पावला। त्याग नटासीच कीं।।५९।। म्हणोनि
लिंगजंगमीं भजन जें जें। कीजें तें तें अर्पें गुरूसीं सहजें। ऐसिया
अभेदें जो भजें। तोचि गुरुभक्त वो देवी।।६०।। यो गुरुं मृतभावेन तद्दिने यश्च शोचति। गुरुलिंगप्रसादं च नास्ति तस्य वरानने।।१६।।
गुरु मृत्यु पावला हे भावना। भावून अंतकाळीं करी रुदना। तो गुरुपुत्र
नव्हे अज्ञाना-। माजीं लेखिजें।।६१।। कां म्हणसी तरी तो निराकार। त्यासीं
मुळीच नाहीं शरीर। तो अविनाश अजर अमर। मृत्यातीत तो।।६२।। ऐसिया सद्गुरूसीं
नेणोनि। जो मृत मानी तो चांडाळ अज्ञानी। त्यासीं गुरुलिंगाचा प्रसाद
कोण्ही। न देआवा वो देवी।।६३।। गुरु ब्रह्म ऐसें नेणोनि। भक्ति करी भावें
जनीं। मृत्यु पावला हे मनीं आणी। तो चांडाळ जाणावा।।६४।। गुरुरूप सबराभरीत।
त्याचा न लागें मानवा अंत। अदृश्य अगोचर अतीत। असें जाण सर्वांठायीं।।६५।।
चरगुरु चिरंजीव। न मानी जो मानव। तया प्रसादवैभव। नाहीं नाहीं
सर्वथा।।६६।। प्राण लिंगीं ऐक्य करोनि। लिंगां प्राणाहूनि प्रिय मानी। ऐसें
अभ्यासोनि वर्तें जनीं। तोचि वीरशैव जाणावा।।६७।। त्यानें केला देहत्याग।
तो जाणावा महायाग। प्राण राहे लिंगीं सांग। म्हणोनि दग्ध करूं नये।।६८।। प्राणेन लिंगसंयुक्तं लिंगेन प्राणसंयुतम्। प्राणेन त्यक्तकायस्य दहनं वर्जयेत् सुधी:।।१७।।
लिंग आणि प्राण एक होऊनि। प्राण लिंगीं लिंग प्राणीं मिळोनि। जे असती
त्याचिया देहालागूनि। दग्ध न कीजें वो।।६९।। कां म्हणसी तरी ऐक पुढती। तुज
निरोपितो दृष्टान्तीं। जेणें देहाची बुंथी। तात्काळ जाय।।७०।। दग्धस्य दहनं नास्ति पाकस्य पचनं न हि। ज्ञानाग्निदग्धदेहस्य नच दाहो नच क्रिया।।१८।।
जैसें सिद्ध अन्नातें उपरी। पुन: पचविता निर्धारीं। विषतुल्य होय सत्वरीं।
प्राणहरण करावया।।७१।। तयाचे परी लिंगधारी। दहन करितां दोष भारी।
प्राणहानी होय एकसरी। म्हणोनि दाहो वर्जावा।।७२।। जें दग्ध झालें तें काय
जाळावें। जें पाक झालें तें काय शिजवावें। तैसें ज्ञानाग्नीनें दग्ध
स्वभावें। त्यासीं दग्ध करूं नये।।७३।। लिंग आणि प्राण एक होऊनि।
येरयेरासीं वस्तुपणीं। तयाचा देह घालू नये अग्नीं। मा देहक्रिया
कैंची।।७४।। जें शिवाग्नीनें दग्ध झालें। त्याचें दहन कदा काळें। करूं नये
हिमनगबाळे। उदकक्रिया वर्जावीं।।७५।। वरानने गुरुस्तस्मात् पशूनां पतिरिष्यते। पशुपाशविनिर्मुक्त्यै गुरुभावं निरीक्षयेत्।।१९।।
आवो वरानने ऐक स्वभावपण। गुरु तो सर्व पशूंसीं पति म्हणोन। पशूंचे पाश
छेदूनि निर्मुक्तपण। करी नाममात्रें।।७६।। ऐक्यभावें गुरु वस्तु
निरीक्षितां। पशु प्राणी पावती मुक्तता। गुरु तोचि परब्रह्म भावितां। आपणहि
तेंचि होय।।७७।। मीच असे पशुपति। सगुण रूपें श्रीगुरुमूर्ति। जन्मा
खुंटवोनि मुक्ति। पाश छेदूनि देतसे।।७८।। जन्मां येण्याचीं कारणें अनेक।
परि पापपुण्य समानचि देख। त्यावांचोनि नरदेहां सुख। मिळणेच नाहीं जाण
पां।।७९।। जरी नरदेह पावला उत्तम। तरी पुढें चौऱ्यांशीचा नेम। ठेविला करोनि
प्रचंड यम। शिक्षा द्यावया प्राणियांसीं।।८०।। त्याचे हेर चित्रगुप्त।
भूमंडळीं असती अलिप्त। ज्या ज्या कर्मीं प्राणी होती लिप्त। तें तें वरिष्ठ
लिहिताती।।८१।। अंतीं तया तेचि नेती। पापपुण्याचा झाडा घेती। निर्दय
शिक्षा अधोगति। प्राणी भोगिती यातना।।८२।। परि जे माझे पूर्ण भक्त।
तयापुढें यम राबत। तयासीं प्रार्थूनिया शिवदूत। अंतीं नेती शिवपदा।।८३।।
माझिया दूतांची सरी। दुजे देव कांहीं न करी। ममाज्ञा मोडितां एकसरी।
प्राप्त होती कष्टाते।।८४।। भस्मरुद्राक्षांकित देह। जरी यमदूत स्पर्शे
लवलाहे। त्याचें शिर छेदूं पाहें। वीरभद्र साक्ष पैं।।८५।। जो प्राणी माझा
अंकिला। त्या न पाहे यम डोळां। आज्ञा असे कळिकाळां। शिवभक्तां वंदावे।।८६।।
शिवाचाराचेनि योगें। जे चालती अनुरागें। तया मोक्षाचिया जागे। कीजें सत्य
कैलासीं।।८७।। पतिरेव गुरु: स्त्रीणां परानुग्रह नैव च। सुरतार्चितसंतुष्ट: सुभगो लिंलगसंयुत:।।२०।।
स्त्रीसीं पतीच गुरु बोलिजे। तियेसीं पराची दीक्षा न दिजे। तनमनधन अर्पण
कीजें। तियेसीं तेचि भक्ती।।८८।। जेणें जेणें अंगें पति संतुष्ट होय। तेणें
तेणें अंगें होतु जाय। पतिव्रता म्हणावया कारण काय। जे पतिच व्रत
तियेसीं।।८९।। ऐसियाचे अष्टभोगी संतुष्ट। जो लिंगसंयोगें भोगी लिंगनिष्ठ।
अभेदभावनें भोगी वरिष्ठ। लिंगसंयोगें भोगी तो।।९०।। लिंगांगीची स्वपत्नी
श्रेष्ठ। अभेदभाव भोगे वरिष्ठ। लिंगपूजा करी एकनिष्ठ। सदा संतुष्ट
मानसीं।।९१।। पतिपत्नी असती एक। सव्यापसव्य अंगभौतिक। पूर्वार्जित असे
नैष्ठिक। तरीच घडे सत्य हें।।९२।। गुरु लिंग आणि आपण एक। यालागीं स्त्रीसीं
पतीचा अनुग्रह देख। म्हणोनि जरी दोहांसीं गुरु एक। घडे तरी भेद
नाहीं।।९३।। दीक्षा च पतिपत्न्योश्च गुरुरेको भवेत् खलु। तन्मन: प्राणनैवेद्यमतिसौख्यं वरानने।।२१।।
स्त्री-पुरुषासीं एकचि गुरु। एकचि दीक्षा दिजे हा निर्धारु। दोहीची
भावभक्ती घडे एकाकारु। भेद न घडे दोहीसीं।।९४।। त्या दोहीचें घडें जें
भक्तिसुख। तो सर्वभोक्ता होय गुरुचि एक। संतोषोनि होय मोक्षदायक। उभय
वर्गासीं।।९५।। गुरुदीक्षा पतिपत्न्योरन्यान्या भेदभावत:। यदि स्याच्चेतदा तत्तु भक्तिहीनं सुरेश्वरि।।२२।।
पतीसीं पत्नीसीं दोन्ही गुरु बोलिले नाहीं। घडले तरी भेद झाला पाहीं। दोघे
भजती दो ठायीं। तंव दोन भाव जाहले।।९६।। दोन गुरु तंव दोनी भाव। दोन भाव
तंव दोन देव। तंव मोक्षपदहि सर्वथैव। दो प्रकारीं असें कीं।।९७।। पतिपत्नी
म्हणती एक। ती त्याची अर्धांगी अर्धभौतिक। हें तंव वाक्य झाले मिथ्यैक्य।
जंव झालें दोन भाव।।९८।। हे ज्ञानिये तरी न मानिती। उभयाचा एकभाव असावा
म्हणती। म्हणोनि दोहींसीं दीक्षाप्राप्ती। एक गुरुनें दीजे।।९९।। मुळीच
दोन्ही भिन्न असावी। तरी दो गुरूची दीक्षा घ्यावी। ते आधीच ऐक्य स्वभावीं।
जैसे देह आणि आत्मा।।१००।। यालागीं उभयासीं गुरु एक। एकभावना होतां होय
निजसुख। भेद खंडतां मोक्षदायक। होय श्रीगुरुनाथ।।१०१।। पतिपत्निभ्रातृपुत्रदासीगृहपदातिनाम्। एकदीक्षा भवेद् देवि विशेषशुद्धभक्तिमान्।।२३।।
यालागीं पति पत्नी बंधु पुत्रां। एकचि गुरुदीक्षा सर्वत्रां। गृहीचे दासी
सेवक पुत्रां। एकचि गुरु पाहिजे।।१०२।। कां म्हणसी तरी ऐक। सर्व घरचिया
गुरु झालिया एक। तरी एकभाव होय सर्वांचा देख। एका गुरूचे पायीं।।१०३।।
सर्वांचा एकभाव एकविश्वास झालिया। मग सहज जाती मोक्षाचिया ठायां। ते भिन्न
भिन्न दिसती परि काया। एकचि सर्व असे।।१०४।। एकभावें विशेष शुद्ध भक्ति।
जया घडे एकचित्तीं। तयासीं मोक्षपदाची प्राप्ती। घडे ऐक्य वो देवी।।१०५।। गुरुरेको तथा लिंगं एकदीक्षा विशेषत:। प्रसादस्त्वेकमेव स्यात्सत्यमेव मयोदितम्।।२४।।
घरीच्या सर्वांसीं गुरु एक। सर्वांसीं लिंग देतां एक गुरु देख। एक दीक्षा
प्रसाद आणिक। दुसरा नाहीं।।१०६।। एक गुरु एक लिंग एक प्रसाद। एकत्वीं तेथें
खंडला भेद। दुसरे नास्ति म्हणोनि मोक्षपद। अभंग वो वरानने।।१०७।। सति पति
दोघे नांदता। दोहींचा भाव एक नसता। तरी मुक्तीची केवि होय प्राप्तता।
म्हणोनि उभयां एक गुरु।।१०८।। भिन्न गुरु असतां जाण। भिन्नाचारें वर्तें
मन। तेथें स्त्रीपुरुषां सौजन्य। कदाकाळीं असेना।।१०९।। दोन भाव दोन भक्ति।
भिन्नाचारें उत्पन्न होती। परधर्मीं तया निंदिती। एकी नसे
म्हणोनिया।।११०।। न भवेत्पतिपत्न्योश्च गुरुद्वय वरानने। गुरुद्वयं च लिंगं च द्वयमेव भवेत्तदा।।२५।।
पति आणि पत्नीस। एकचि गुरु असे उभयांस। दोहींस दोन गुरु होतां विश्वास। दो
ठायीं झाला।।१११।। दोन गुरु तंव दोन लिंग दोन लिंग तंव भावहि द्विअंग।
द्विभाव तंव मोक्ष न घडे चांग। म्हणोनि एकचि गुरु कीजें।।११२।। पुरुष हा
स्वस्त्रियेचा गुरु। हाचि शास्त्राचा होय विचारु। परि पतिगुरु तो
स्त्रीगुरु। निर्धारें जाणावा।।११३।। पतिगुरूच्या वचनें। सतीनें वर्तावें
अनुदिनें। नाहीं तरी द्विभावें वरानने। मोक्ष नये हातासीं।।११४।। जरी
स्त्रीपुरुषां दोन विचार। तरी तो जाणावा अनाचार। एकविचारें वर्ततां साचार।
यशकीर्ति वाढतसे।।११५।। म्हणोनि भेदभावां त्यागावें। एका गुरुलिंगासीं
भजावें। तेणें गुरुकृपाहि स्वभावें। प्राप्त होय अनायासे।।११६।। गुरुकृपा
होता नि:शंक। तो गुरुरूप आवश्यक। गुरुपदाचा गर्व देख। आणीता नरक
कल्पवरी।।११७।। देह कावलासी कैवल्य केलें। जेणें स्वस्वरूप शिष्यास दिलें।
जीवां शिवपदीं बैसविलें। गुरुमातेनें वात्सल्यें।।११८।। ऐसें
सगुण-निर्गुणातीत करोन। चारी मुक्तीचिया पैलतीरीं नेऊन। पांचवीच्या
सिंहासनीं पूर्ण। बैसविलें कृपाळुत्वें।।११९।। म्हणोनि परब्रह्मीं जो
पावला। त्यानें न विसरावें गुरुस्वामीला। विसरे तो जाय अधोगतीला। सत्य सत्य
पार्वती।।१२०।। यास्तव गुरूपरतें दैवत। नाहीं नाहीं त्रिभुवनांत। मी तुज
सांगितलें निभ्रांत। भजा निश्चयें श्रीगुरूसीं।।१२१।। यदा दीक्षा द्विधा चैव प्रसादो द्विविधो भवेत्। एवं हि द्वैविधं देवि विशेषं पातकं भवेत्।।२६।। जेथें दीक्षा दोन तरी प्रसाद दोन। दोन भावें केवि होय पावन। भिन्न भेद तेथें पातक दारुण। घडें वो देवी।।१२२।। पतिपत्निगुरुर्लिंगं एकभावं न पश्यति। अष्टविंशतिकोटिस्तु नरके कालमक्षयम्।।२७।।
पतिपत्नी गुरुलिंगमूर्ति। जे एकभावें न पाहती। अठ्ठावीस कोटी वरुषें
जातीं। निरयभोगासीं।।१२३।। म्हणोनि भेदभावां त्यागावें। एकत्वें
गुरुलिंगजंगमीं भजावें। मग गुरुत्वचि स्वभावें। अंगासीं ये।।१२४।। जरी
गुरुत्व ये अंगासीं। तऱ्ही फुगारा न ये त्यासीं। ऐसा गुरुभजनें पावून
गुरुत्वासीं। गुरुभजनीच असिजें।।१२५।। शास्त्रीं जे पंचमा मुक्ति म्हणती।
चहु मुक्तीचिया माथां तिची वसती। जी सायुज्यावरती गुरु-भक्ति। ते पांचवी
बोलिजे।।१२६।। एऱ्हवीं सायुज्यपर जो जाला। तो तेव्हांचि क्रियाकर्मांसीं
मुकला। परि गुरुभक्तीसीं उरला। सप्रेमभावें।।१२७।। जेणें कावलाचें कैवल्य
केलें। रंकासीं राज्यपद दिधलें। जीवासीं शिवपदीं बैसविलें। जया
गुरुनाथें।।१२८।। शेखीं सेवकत्वहि नेलें। निर्गुणत्व जेणें दिल्हें। गुण
नास्ति म्हणोनि निर्गुणत्व दिल्हें। अनुपम्य केलें गुरुरायें।।१२९।। ऐसें
सगुणनिर्गुणातीत करोन। स्वत:सिद्ध केलें चिदानंदघन। तया गुरूसीं न भजे ऐसा
कोण। चांडाळ पातकी असे।।१३०।। म्हणोनि परब्रह्म जरी झाला। तरी भजिजें
श्रीगुरुस्वामीला। न भजतां जाय निरयाला। सत्य सत्य वो पार्वती।।१३१।।
म्हणोनि गुरूपरतें दैवत। नाहीं नाहीं वो निभ्रांत। यालागीं पूजन भजन
एकान्त। त्यासींच कीजें।।१३२।। ऐसें गुरुमाहात्म्य निरोपिलें। तेणें
पार्वतीचें चित्त संतोषलें। संतोषोनि पुसूं आरंभिलें। परमरहस्याते।।१३३।।
इति श्रीगुरुमाहात्म्य उत्तम। हें गुरुपुत्रासीं गुह्य परम। तूं माझी भक्त
म्हणोनि परम। निरोपिलें वो देवी।।१३४।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। त्याची
टीका करोनि प्राकृत। कृतकृत्य किंकर मन्मथ। पंचम अध्याय संपविला।।१३५।। ।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे गुरुमाहात्म्यनिरूपणं नाम पंचमोऽध्याय: समाप्त:।। श्लोक २७, ओव्या १३५.
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