Thursday, 26 December 2013

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य अध्याय तिसरा

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित
परमरहस्य


अध्याय तिसरा
।। श्रीपरब्रह्मणे नम:।।  द्वितीय अध्यायीं परम पावन। निरोपिला तीर्थमहिमा जाण। वीरशैवाचें मुख्य लक्षण। गुरुभक्ति वर्णिली।।१।। वर्णिली तैसीच गुरुमूर्ति। ती कैसी पुजावी प्रेमप्रीqत। आनंदूनि जगदंबा पार्वती। प्रश्न करी शंकरासीं।।२।।
देव्युवाच-
को मार्गो वीरशैवानां का स्थिति: का च धारणा। का पूजा qलगनिष्ठा का ब्रूहि मे परमेश्वर।।१।।

कोण मार्ग स्वामी वीरशैवाचा। स्थिति धारणा कोण नेम तयाचा। कैसा नियम qलगार्चनाचा। तो निरोपा स्वामी।।३।।
शिव उवाच-
qलगार्पितं विना भुंक्ते नामृतं विषमप्यथ। गते qलगे त्यजेत्प्राणं वीरशैव: स एव हि।।२।।

शिव म्हणे वो गिरिजे। आतां वीरशैव सांगूं वोजें। जया मार्गासीं म्यां वंदिजें। गुरुभावनेनें।।४।। qलग हाचि जयाचा प्राण। तो हरवताचि सोडी प्राण। ऐसें हें वीरशैव लक्षण। जाण देवी साच पैं।।५।। जो मार्ग पतितपावन। त्या मार्गें जो चाले तो विरक्त पूर्ण। त्यासीं वंदितां तुटें बंधन। चौèयांशीचें।।६।। जो वीरशैवमार्गीं पुरतां। तो क्रियानिष्ठें आचरे शुद्धता। अणुमात्र क्रिया भंगतां। देहचि टाकी।।७।। qलगार्पित केलियावांचून। कांहीं पदार्थ न करी सेवन। पात्रीं अर्पिल्या विष म्हणोन। न सोडी कदापि।।८।। qलगनिष्ठा परिपूर्ण। तो qलगीं असे qलग होवोन। qलग गेलियां प्राण। राहे केqव तयाचा।।९।। आधीच qलगीं प्राण भरला असे। तो qलगचि होऊन वसे। qलग गेलियां तो उरे ऐसें। केqव घडे।।१०।। qलग हृदयींचें जीवन। qलग प्राणाचा प्राण। qलगामाजीं मिश्रित होऊन। असे जो कां।।११।। तें qलग गेलियां देह ठेवी। हें ऐसें न घडेचि देवी। पति गेलियां वांचणें जीवीं। तरी ते नोव्हे पतिव्रता।।१२।। तैसे qलग गेलियां जो राहे। तो वीरशैवचि नोव्हे। प्राण गेलियां देह। प्रेतचि बोलिजे।।१३।। जयाचा प्राण qलगीं भरला। तो कैसा असे देहीं उरला। qलग गेलियां देहीं संचारला। पिशाचवत् जाणिजें।।१४।। qलगाविण वाचणें। ते प्रेतासम जाणणें। कीं भ्रताराविणें जिणें। विधवा जैसी।।१५।। विधवा झाली तरी काय होते। देवें काय उणें केलें दुजियातें। यातें उत्तर देईजेल तें। परिस वो देवी।।१६।। जरी तिनें दुजा भ्रतार केला। तरी पाटकरीण म्हणती तिला। सवाशीणपणाचा महिमा गेला। देवीधर्मीं नाहीं ती।।१७।। तेqवं qलग गेलियां बांधी आणिक। तो पाटकरणीसमान देख। वीरशैव नोहे पोटवाईक। वेषधारी बोलिजें।।१८।। म्हणोनि एकनिष्ठें वर्तिजें। गर्भकालीं प्राप्त शिवqलग जें। तयासीच प्रेमभावें पुजिजें। एकनिष्ठेंकरूनिया।।१९।। तोचि प्रेमें करावा जतन। वीरशैवाची जी मूळ खूण। ग्रंथांतरीं अवलोकून। भ्रष्टाचारें न वर्तावें।।२०।। म्हणोनि qलगामाजीं जयाचा प्राण। तोचि वीरशैव महागण। क्रिया कर्मनिष्ठा पूर्ण। तारक शिवाचारासीं।।२१।। भवि देखतां अणुमात्र। न आचरें स्वकर्मतंत्र। भवीनें सेविलेें जें पात्र। तें हातीं धरीना।।२२।। इंद्रियाचें द्वारीं न बैसें। अंतरीं आत्म-ओवरी असे। तो बाहेर कदा येत नसे। स्वसुखीं रतला सदा।।२३।। तयाचियें लागतां चरणीं। कृपा करी तेंचि क्षणीं। अजात भक्तनयनीं। अश्रुपात होतसे।।२४।। नेमें षट्काल करी पूजा। तितुकीचि स्नानेेंहि वोजा। न्यासध्यानयुक्त सहजा। करीतसे अत्यादरें मंत्रपुष्पें।।२५।। सहा वेळां पूजा करी सहजा। त्या वेळां कोण कोण वोजा। जेणें संतोषें मी शिवराजा। निरोपुं तुज आतां।।२६।। पहिली पूजा अरुणोदयीं करी। प्रहर दिन आलियां दुसरी। दोन प्रहरां ती तिसरी। चौथी तिसरे प्रहरीं कीं।।२७।। पांचवीं सायंकाळीं करी। सहावीं पूजा मध्यरात्रीं। करावया आळस न करी। qलगपूजेसीं।।२८।। सहा पूजा न घडती जरी। तरी त्रिकाळ qलगनिष्ठा धरी। त्रिकाळहि न घडती तरी। तो पशु जडजीव।।२९।। बहु धांव एकान्तावरीं। एकान्तीं qलगअर्चा करी। भवि देखतां न करी। qलगपूजा तो।।३०।। qलगपूजें वीरशैव। सदा पावती वैभव। जे कां भुक्ति अभिनव। qलगपूजाप्रभावें।।३१।। त्यायोगें मीहि सुंदरी। वसे वीरशैवा-मंदिरीं। पूजान्तीं प्रसादाची थोरी। असे जाण तेथेंचि।।३२।। शिवभक्ताघरींचें अन्न। करी अज्ञान जनां पावन। तें असे सत्य शिवार्पण। अन्यार्पण नसेंचि।।३३।। जें जें असे शिवार्पित। तें तें जाण परम पुनीत। तें सेविल्या मजसीच पावत। अनायासें तत्त्वतां।।३४।। अqलगीं अथवा qलगधारीं। जो शिवधर्माची qनदा करी। त्याचें मुख न पाहे कांतारीं। तो वीरशैव जाणावा।।३५।। जया वस्त्राची परवा नाहीं। पांघरी तरी एक घोंगडी पाहीं। अंगास जें वस्त्र तेहि। भलतैसें।।३६।। जोड वस्त्र qलगासीं। जोड कौपिन लावी तैसी। मिळाले तरी घाली पायतणाशीं। नित्य नेमें।।३७।। पायीं नसूनि पादुका। न चालावे मार्गी देखा। वाहनीं आरूढावें अनेका। देश-संचाराकारणें।।३८।। कौपिन जोडी शुद्धि करितां। हस्त पाऊड हातीं धरितां। सोऽहं सोहळा पवित्र युक्ता। शोभे भाळीं त्रिपुंड्र।।३९।। रुद्राक्षमाळा शोभे गळां। स्नानपूजेचिया वेळां। न देखें भविजन मेळा। त्यातें भाषण न करी।।४०।। सहजाचें घेणें देणें। तेंहि शरणांवांचून न घेणें। बहुत बोलणें विनोदें हंसणें। न करी कदा।।४१।। आम्ही म्हणितलें सहजीं घेणें। परि सहजा तया जाणें। विधियुक्त घेणें करणें। आचारातें मिळे तैसें।।४२।। चरण धरूनि तीन वेळां। कृपा करा म्हणतां वेळोवेळां। तरीच घेईजे ऐसिया कळा। असत तो विरक्तमार्ग।।४३।। बिन्हाविण कांहीं। घेणेंचि तया नाहीं। सोने रुपें आदि कांहीं। न शिवी हातीं।।४४।। ज्ञान वैराग्य मिळे क्रियेशीं। राखें तोचि वीरशैव बोलिजे त्यासीं। क्रिया टाकी तयासीं। शिवगण न मानिती।।४५।। शिष्य आचार करी पूर्ण। देशिकां दे योग्य भोजन। त्यातें स्वयें देखोन। आनंद मानीतसे।।४६।। ज्ञान वैराग्य क्रियेशीं। राखीं तो धन्य वीरशैव वंशीं। क्रिया सोडोनि चाले त्यासीं। शिक्षेनें मार्गां लाविजें।।४७।। जो झालासे क्रियात्याज्य। तया कोण मानील पूज्य। अधर्में वर्ततां राज्य। नष्ट होय वैभव।।४८।। जरी ज्ञानी पूर्ण झाला। तरी स्वधर्माचारें मान त्याला। आचारभ्रष्ट होतां व्यर्थ गेला। जन्मां येऊनिया।।४९।। त्यानें अनेक परोपकारु। केली तीर्थें लहानथोरु। तैसेंचि दानें अपारु। गो वाजी रथ दिले।।५०।। तरी क्रियेविण जें पुण्य। तें सुकृतासी होय उणें। म्हणोनि न टाकिजें सज्जनें। क्रियाचाराशीं।।५१।। वडील अग्रगण क्रिया टाकिती। तरी नेणतेहि तैसेंचि वर्तती। म्हणून न टाकिजें अधिक स्थिति। वाढविजें सज्जनीं।।५२।। एèहवीं क्रियारहित ज्ञान जाणें। परि जनाकारणें करणें। परोपकारार्थ वर्तणें। परि हें तो अक्रिय।।५३।। अंधां मार्गीं लाविजें। आपणहि हळूहळू चालिजें। तेqव अज्ञानअंध वोजें। लाविजें मार्गां क्रियेचिया।।५४।। ऐसा परोपकारी परम पुरुष। पट्टाधिकारी बोलिजें तयास। तोचि तारक शिवाचारास। धर्मगुरु।।५५।। आशा धरोनि बोधिना। पूजा मान इच्छिना। परस्त्रीस पाही ना। कामदृष्टीं कदा।।५६।। जीवqहसा करीना। शब्दें कोणास दुखविना। भुंवई उचलीना। कोणावरीं।।५७।। जयाचें नांव विरक्त। तो कासयासीं नोव्हे लिप्त। श्वानवमन मानीत। भोगविलास सर्व ते।।५८।। तयासीं लोह कांचन। गारा आणि सम रत्न। मान अपमान समान। आनंदभरित सर्वदा।।५९।। तया प्रिय अप्रिय कांहीं। सर्वथा उरलेंचि नाहीं। qनदास्तुति ऐकोनि। हर्षविषाद नोव्हे मनीं।।६०।। कोणी केली जरी qनदा। हर्ष मानी तयाच्या शब्दां। मान अपमानाचे भेदां। न जाणें विरागी तो।।६१।। शांति दया क्षमा सुबुद्धि। अनर्थ कोणां न करी कधीं। वासना तृष्णा कुबुद्धि। कुचाळी न करी कदा।।६२।। नाहीं जाणिवेचा तोरा। नाहीं क्रियेचा उबारा। तो शिवयोगी खरा। वीरशैवां श्रेष्ठ कीं।।६३।। ज्ञानानळीं इंद्रियव्यापार। होमिलें षड्विकार। तो आकाररूपी निराकार। शिवयोगी विदेही।।६४।। पातळ तेंचि गोठलें। घृत कण्याकार झालें। तेqव अमूर्त मूर्तीस आलें। वीरशैवरूपें।।६५।। काम क्रोध द्वेष मत्सर। लोभ मोह दंभ अहंकार। qनदा कुटाळी कुचेष्टा क्रूर व्यापार। नाहीं शिवयोगियां।।६६।। सोडणें बांधणें न करी जंजाळ। qचता उद्वेग नाहीं हळहळ। मन कल्पनारहित निर्मळ। धुतलें मोती जैसें।।६७।। सकळ तीर्र्थांसी अधिपति। चरणस्पर्शें तीर्थें पावन होती। जग उद्धरावया विचरती। निष्कामबुqद्ध।।६८।। कोठें गोडी धरोनि तोषेना। मान दिधल्यां फुगेना। अपमानिलियां कुंथेना। तोचि वीरशैव म्हणावा।।६९।। मृत्यूसीं कदा भिईना। मी मरेन हें ध्याईना। मी उपजलो हें आठवेना। स्वत:सिद्धपणें।।७०।। मी बाळ तरुण वृद्ध। हें नाठवें तया अखंडत्व बोध। जाति-कूळ-गोत्रसंबंध। नाठवें तया वीरशैवां।।७१।। जयाचा गर्भीच मंत्रqपड। संस्कारें निपजला मार्तंड। अविद्या अनाचार हे बंड। राहेल केqव।।७२।। गुरुकृपेनें मांसqपड गेला। तो संस्कारें मंत्र-qपड झाला। अविद्या-अंधार दूर केला। प्रकाशला स्वप्रकाश।।७३।। आत्मा तरी स्वत:सिद्ध असे। तया कांहीं पावन नसें। पावनता जगीं जी वसे। देहाचियालागीं ती।।७४।। पाहतां देह तरी अपवित्र। तयाहि पावन करी गुरुमंत्र। आत्मा स्वत:सिद्ध सर्वत्र। वस्तुरूप झालासे।।७५।। बाह्य अभ्यंतरीं अवघाचि। कोंदाटला परब्रह्म तोचि। तो बोलें चालें तोचि। निजस्वभावें।।७६।। बोल बोलें प्रेमप्रीqत। अमृतासीं परे सर म्हणती। ऐके तो आनंदें चित्तीं। सद्भाव उठे मनीं तया।।७७।। जें बोलें तें प्रतिबंधक। परिसे त्या होय सुखदायक। न बोलें लौकिक भेदिक। परमार्थालागोनि।।७८।। कायावाचामनें। जगालागीं सुख देणें। ऐसें असें जयाचें वर्तणें। तोचि विरक्त जाणावा।।७९।। पुढें पाहोनि चालणें। जीवमात्रासीं राखणें। सर्वांघटीं जाणणें। सदा शिवस्वरूप।।८०।। सदा शमदमीं वर्तत। अंत:करणीं शम इंद्रिय दमित। अखंड वैराग्य-भरित। षट्स्थल ब्रह्म बोधी सदा।।८१।। ऐसा हा विरक्त पुरुष। तोचि तो परमात्मा अविनाश। तद्रूप स्वयंप्रकाश। शिवयोगी तो।।८२।। जी वस्तु अगम्य अगोचर। अव्यक्त अनंत अपरंपार। ब्रह्मरूपाचें हें बीजांकुर। घवघवीत विरूढलें।।८३।। तोचि शिवयोगी साचार। उद्धरावया चराचर। वर्ततसे महीवर। ममाज्ञेंकरूनिया।।८४।। जें कां अद्वैत अनुपम। अगोचर आणि अनाम। जें अचल अलक्ष परब्रह्म। तेंचि निस्सीम होवोनि असे।।८५।। जो निजरूप अगम्य निर्गुण। जो निर्मुक्त निरामय निरंजन। तो परमपुरुष गुणनिधान। ऐसाचि होवोनि ठेला।।८६।। तो नि:संग निर्लेप निष्प्रपंच। जो निजरूप अनिर्वाच्य। तोचि सुनिश्चय साच। होवोनि ठेला।।८७।। तोचि चिद्रूप चिन्मात्रैक। जो चिदानंद चित्प्रकाशक। तोचि समरस होऊनि एक। राहे स्वरूपीं सदा।।८८।। ऐसें जें वीरशैव-मार्गिक। ते स्वयं स्वतंत्र सुखदायक। तया मज नाहीं वेगळीक। पार्वती सत्य जाण पां।।८९।। ते मज क्षणभरी न विसंबती। मीहि तैसाच तयाप्रति। म्हणोनि ते पूज्य सर्र्वांप्रति। जाण देवी निश्चयें।।९०।। आम्ही तयासीं ध्याऊं। सदा तयाचे गुण गाऊं। तया गुरुत्वें भावूं। आम्ही देवी सर्वदा।।९१।। तो देव आम्ही भक्त। तया ध्याऊं हृदयांत। आम्हां देवपण निश्चित। तयाचेनि योगें।।९२।। तो प्राणसखा आम्हां बहु। त्याचे चरण हृदयीं ध्याऊं। तयावांचूनि न पाहूं। परवस्तु आणिक।।९३।। परशिव म्हणिजें तयासीं। तो अतीत व्याप्य-व्यापकासीं। आतां बहु काय बोलणें आम्हांसीं। मुकुटमणि होय तो।।९४।। तो सर्र्वांसीं गुरुरूप होय। त्याचे भावें वंदी जो पाय। तो तात्काळ होवोनि ठाय। निजरूपचि।।९५।। स्थावरqलगां जे ध्याती। तया स्थावर गुरु म्हणती। उपासनेची निजस्थिति। कार्या कारण असे।।९६।। कर्म उपासनें बांधूनि गांठीं। जे सर्वकाळ वाहती कंठीं। न करी दुजी वाटाघाटी। चरqलग त्यां म्हणिजें।।९७।। तोचि जाणावा परशिव। गुरुमुखें घ्यावा अनुभव। आमुचा त्यावरी पूर्ण भाव। नसे परवस्तु आणिक।।९८।। तो सर्वां गुरुरूप होय। त्याचे भावें वंदी जो पाय। तो तैसाचि होऊनि जाय। निमग्न वस्तुरूपीं।।९९।। ऐसा जो श्रीगुरुनाथ। परम पावन पुनीत। जंगमरूपें वर्तत। तारावया भक्तांतें।।१००।। तया सर्वस्वें भजावें। तनु मन धन अर्पावें। अन्नवस्त्रादिकीं सेवावें। गुरुरूप म्हणोनिया।।१०१।।
अन्नवस्त्रादिकं देयं गुरवे तत्परायण:। अभावे सर्ववस्तूनां स्वशरीरं निवेदयेत्।।३।।
तया सर्वस्वें भजावें। तनु मन धन अर्पावें। अन्नवस्त्र प्रेमें वोपावें। निष्कामबुqद्ध।।१०२।। ज्यासीं वित्तविषय नाहीं। तेणें अंगें सेवा करावी कांहीं। सेवें शरीर निवेदिलें जेंहि। तत्पर होवोनि।।१०३।। ऐसी अंगें करिता सेवा। शिवपद प्राप्त होय जीवां। गुरूतें भावितां ब्रह्मभावां। तरी स्वयें ब्रह्मचि होय।।१०४।। ऐसा वेदान्तीचा भाव। गुरु न म्हणावा मानव। म्हणता दोष अभिनव। घडती सत्य जाणा।।१०५।। गुरु मनुष्य ऐसें भाविता। तरी दोष होय तत्त्वतां। आपणिया ब्रह्मरूपता। घडें केqव।।१०६।। म्हणोनि गुरु परब्रह्म भाविजें। मग आपणहि ब्रह्म होईजें। श्रीगुरु निजवस्तु जाणिजें। सेवा कीजें सद्भावें।।१०७।।
कर्मणा मनसा वाचा गुरवे भक्तिवत्सल:। शरीरं प्राणमर्थं च सद्गुरुभ्यो निवेदयेत्।।४।।
मनबुद्धिवाचें जें जें कर्म होतीं। तें भक्तिवत्सल गुरूसीं अर्पिती। जें शरीर प्राण अर्थ निवेदिती। तेंचि अधिकारी मोक्षासीं।।१०८।। गुरुवांचोनि सर्वथा। आणिक नेणती देवता। गुरुमंत्रेंविण तत्त्वतां। फल नसे जापकांसीं।।१०९।। गुरु-आज्ञेंवेगळे न वर्तती। गुरु संतोषजे करिती। गुरुकृपा तेचि निजमुक्ति। सर्वकाळ शिष्यांसीं।।११०।। ऐसें गुरुभक्त पार्वती। तयाची अत्यंत मज प्रीति। ऐकोन संतोषली मूळ शक्ति। चरणीं माथा ठेविला।।१११।। म्हणे मी नेणें या वर्मा। बरवा निरूपिला गुरुमहिमा। धन्य धन्य भक्तविश्रामा। कृपा केली मजवरी।।११२।। श्रीगुरु महिमा सादर। ऐकता श्रोते चतुर। पावन होती सत्वर। भवार्णवापासूनिया।।११३।। पुढें प्रश्न करील पार्वती। ऐकून तोषेल पशुपति। अति रहस्य उमेप्रति। निवेदील शिव तो।।११४।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। शिवगौरीसंवादीं वर्तत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृत्य मन्मथ।।११५।।
 
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे वीरशैवविरक्तलक्षणनिरूपणं नाम तृतीयोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक ४, ओव्या ११५.
(संगणकीय अक्षरलेखन : सौ. उषा पसारकर, केतकी फ़ोटो टाईप सेटर्स, सोलापूर)
 

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