Saturday, 28 December 2013

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य अध्याय चौथा

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी
संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित
परमरहस्य

अध्याय चौथा


।। श्रीगुरुवे नम:।।
 
तृतीय अध्यायाचे अंतीं। शिवें निरूपिलीं वीरशैव स्थिति। आतां प्रश्न करील पार्वती। ते ऐका सादर।।१।।

 
देव्युवाच-
को वा बंधश्च मोक्ष: क: स्वरूपमुभयस्य च।
कथयस्व तथा स्वामिन् अतीतं बंधमोक्षयो:।।१।।

 
पार्वती विनवी देवाप्रति। बंधमोक्षाची निरोपा स्थिति। बंधमोक्षाची कैसी रीति। निरोपावें स्वामी मज।।२।।

शिव उवाच-
विकल्परहित: शांतो निरहंकार एव च।
तद्रूपो ब्रह्मसम्बंधी मुक्तात्मा भवति ध्रुवम्।।२।।


सर्व संकल्प विकल्प जेथ निमती। निरहंकार सदा शांति। तद्रूप ब्रह्मचि होऊनि असति। तोचि मोक्ष पैं देवी।।३।। मी परब्रह्म निश्चयेसीं। नास्ति देखे भेदासीं। आपणाविण न देखे कवणासीं। तोचि मोक्ष जाणावा।।४।। इंद्रियव्यापारां बोळवण। ध्यानधारणा निमालें साधन। निमाली बुद्धि मन होय उन्मन। तोचि मोक्ष जाणिजे।।५।। गंगा सागराशीं मिळाली। ती पुन्हा न परते सागरुचि झाली। तैसी चित्तवृत्ति समरसली। पूर्णानंदीं शाश्वत।।६।। त्वंपद आणि तत्पदाचा। शबल शुद्धांश निवडिजे दोहींचा। उत्तम शबलांश शुद्ध गुण साचा। ऐक्यबोधु जो।।७।। जो ऐक्यबोधु तो असिपद। जो जीवाचा समरस आनंद। तो आपण होईजे स्वत:सिद्ध। तोचि मोक्ष जाणावा।।८।। सत् चित् आनंद तिन्ही जाणोन। तिन्हींचा जो साक्षी चिदानंदघन। तो स्वयें झाला जो आपण। तोचि मोक्ष वो देवी।।९।। आतां विशेष मोक्ष ऐक। जेथ साक्षित्वहि निमालें देख। दुजें नाहीं जेथें साक्ष आणिक। तेथें उरे कोण स्वरूपें।।१०।। आतां बद्धता जेथें नाहीं। तेथें मोक्ष कैंचा कांहीं। वर्म नेणती म्हणूनि पाही। बद्धमोक्ष रूढविती।।११।। आतां बद्धता ती ऐक। ते दुष्कृत्याचे लेख। तेहि सांगू दोषिक। बद्धतालक्षण।।१२।। जो अहंकारें गर्वित। कामाग्नींत लोलांगत। काम्यकर्मीं ज्याचें चित्त। तेंचि बद्धता।।१३।। मी आचार्य महागण। आमुचे क्रियेपुढें आहे कोण। वाहे क्रियाकर्माचा अभिमान। तोचि बद्ध जाण देवी।।१४।। आम्ही वीरशैव जंगम। आम्हांपुढें कोणी नाहीं उत्तम। आम्हीच जाणो म्हणती लिंगवर्म। तेंचि बद्धता।।१५।। जळीं देखें आपुलिया छायेसीं। मी बुडालो म्हणोनि शोक करी मानसीं। तेवि नसतिया जन्ममरणासीं। भावितसे तेंचि बद्धता।।१६।। स्वप्नीचिया मरणां भिऊन। जागृती म्हणे मी कैसा वांचेन। तेवि संसारा लटिकिया दे मान। तेंचि बद्धता वो देवी।।१७।। वस्तूचें अत्यंत विस्मरण। विषयाचेंचि सदा ध्यान। संकल्पविकल्पें भरिलें मन। तीच बद्धता जाण।।१८।। अहंतामदें अखंडित। मीतूं-भेद वाहे मनांत। कामकर्दमीं जयाचें चित्त। सदा धुसधुसीत पैं।।१९।। ऐसें बद्धतेचें लक्षण। यालागीं व्हावें सावधान। श्रीसद्गुरूसीं नमून। कृपाहस्त दान मागावें।।२०।।

विकल्पी क्रोधनोऽशांत अहंकारसमन्वित:।
दुर्धर्षो लोलुपो जीवो बद्धो भवति निश्चितम्।।३।।

संकल्पविकल्प वाहे ज्याचें मन। मी कर्ता धरोनि अभिमान। अशांत क्रोधलोभाकडोन। सदा बांधिला तो।।२१।। नाशिवंत संसारीं सुख। अत्यानंदें मानी मूर्ख। क्रोधें करी रखरख। सर्वथा बद्ध तो।।२२।। मी जीव असे ही देहबुद्धि। ब्रह्मभावना नाठवे कधीं। कुकर्माचा सांगाती कुबुद्धिनिधि। तोचि बद्ध वो पार्वती।।२३।। कुबुद्धि कुकर्माचा नाद। विषयीं काक जैसा सावध। न घे शिवपूजेचा स्वाद। बंधा कारण येणेंचि।।२४।। ऐसें बद्ध-मुक्ताचें लक्षण। निरोपिलें तुज निवडोन। आतां बद्धमुक्तातीत कोण। ऐक वो देवी।।२५।। ते गोष्टी असे अगम्य। कोणासीहि नोव्हे गम्य। तूं माझा आत्मा म्हणोन। उत्तम गुह्य तुज सांगतसे।।२६।। परि तो न कळे सहज। अगम्य अगोचर तुज। मी सांगेन परम गुज। लक्ष देई आदरें।।२७।। जें गुह्य शास्त्रपुराणां न कळेंचि। जपतपध्यानां नाघवेचि। जें कां व्याकरणां ज्ञानां न येचि। तें गुह्य निरोपुं वो देवी।।२८।। जें बद्धमोक्षातीत। तें क्षराक्षरां साक्षभूत। तोचि तुज सांगू गुह्यार्थ। सावध परिस आतां।।२९।। ज्याचें होतां मानवां दर्शन। त्याचें तुटें बंधन। तो मज पावला जाण। स्तनपान न करी कदा।।३०।।

बंधमोक्षद्वयं नास्ति तद्द्वयातीत एव स:।
साक्षिरूपो महातेजा स्वयं ब्रह्मस्वरूपभाक्।।४।।

शंकर म्हणे पार्वतीप्रति। अलक्ष लक्षी ब्रह्मज्योति। तेथें लोभ भय वसती। नसे कदा काळीं।।३१।। ऐक पार्वती तिसरीयाचें लक्ष। अलक्षरूपें उभयांसीं साक्ष। बद्धता नाहीं तेथें कैंचा मोक्ष। तया परब्रह्मासीं।।३२।। जो लोभें नाहीं बांधिला। तो भवभया चुकला। म्हणोनि तो मुक्तचि बोलिला। लोभें केला बद्ध एकें।।३३।। जो बद्ध मोक्ष उभयपक्ष। जाणोनि असे सर्वसाक्ष। त्या केवि बाधे बंधमोक्ष। सदा सावध स्वरूपीं।।३४।। अजन्म नित्य परब्रह्म मानसीं। तया बद्धता मुक्तता कायसी। बद्ध तो बांधला मुक्त सुटला त्यासीं। म्हणणें केवि।।३५।। जरी मुळी बांधिलाचि नाहीं। तया सुटला म्हणणें कांहीं। बद्धमुक्त आठवुं जया नाहीं। तो सहजमुक्त तिसरा।।३६।। जो बंध मोक्ष उभया साक्ष। तो केवि बोलिजें बंधमोक्ष। तो साक्षीचाहि साक्ष। देहीं न राहे परि असे।।३७।। जेथ एकपण न सरें। तया साक्षित्व साहें केवि दुसरें। परि जाणावयालागीं खूणमात्रें। बोलावें लागतसें।।३८।। एरहवीं ठाव कैंचा बोलां। जेथ पन्नास अक्षरांचा ठावो पुसिला। चहु वाचेचा गजर निमाला। तो कोण्या वाचें बोलिजे।।३९।। परि एक नवल असें। तें बोलासंगेचि भासें। बोल निमालियावांचूनि येत नसें। हातां कोणाचिया।।४०।। परि ते असो ऐक सावध होऊनि। जैसा काष्ठ जाळोनि अग्नि। मग आपणहि जाय सरोनि। उरे भस्मलेशु।।४१।। तैसें इंद्रियविकार अज्ञान। जाळोनि जें समर्थ ज्ञान। तें ज्ञानहि जाय ज्ञेयीं बुडोन। मग जें उरें तें गे तें।।४२।। बंधरूप मृगजळ। मोक्षरूप किरणें केवळ। उभयां साक्षी सूर्यमंडळ। तेवि तें प्रकाशस्वरूप।।४३।। तिसरा प्रकाशलिया पुरुष। प्रकृति-पुरुषाचा करी नाश। जेवि उभय काष्ठीं प्रकाशला अग्निलेश। तो जाळी दोहीं काष्ठां।।४४।। दृश्य द्रष्टा लोपून। महाद्रष्टा असे होऊन। तो न दिसे तरी नास्तिपण। मानूं नको।।४५।। कापूर अग्नीनें जाळिला। सरिसा अग्निहि विझाला। परि परिमळरूपें उरला। असेचि कीं।।४६।। तेवि दृश्य द्रष्टा निमालें। परि उभया साक्षित्व उरलें। उरलेंपणेंविण संचलें। आईतेचि असे।।४७।। साखर साखरेचा रवा जैसा। उदकीं रवेपणा मुकला सहसा। परि गोडीपणें उरला ऐसा। मानावाचि कीं।।४८।। दृश्यत्वें दिसेना। ज्ञानासीं भासेना। म्हणोनि नाहींपणा। मानिसीं झणीं।।४९।। कांहीं नसोनि असें। परि तें असोनहि नसें। जाणत्यांहि जाणतु असें। तरी जाणपण नाहीं।।५०।। जरी दुसरेपण असतें। तरी जाणतेपण साजतें। जेथ प्रळयांबूचें भरतें। तेथ प्रवाहो कैंचा।।५१।। जैसें जागृति ना स्वप्न। सुषुप्तिहि जाय विरोन। की प्रलयतेजें ग्रासिलें रात्रंदिन। मग अवघाचि प्रकाशु।।५२।। तेवि प्रकृति पुरुष गिळोन। अहं सोऽहं जाय मिळोन। मागें जें उरें तें घनानंद पूर्ण। निजरूप आमुचें।।५३।। तिन्ही देवांचें विश्रामधाम। तेंचि आमुचें गुह्यरूप परम। तयाचें सत्तें सृष्टिकर्म। करिती देव आनंदें।।५४।। तया रूप नाम ना रेखा। तें एक ना दुजें आहे ना नाहीं लेखा। नुरेंचि जेथें मीतूंपण आशंका। प्रकाशमय तें।।५५।। ध्येय-ध्याता-ध्यान। नसें ज्ञेय-ज्ञाता-ज्ञान। कर्ता-कार्य-कारण। या त्रिपुटीसीं साक्ष तो।।५६।। जो भोग्य-भोक्ता-भोगातीत। दृश्य-द्रष्टा-दर्शनविरहित। साध्य-साधक-साधना जाणत। स्वयें देव।।५७।। जेथ विवेक शब्देसीं बुडाला। अनुभव अनुभवासीं निर्बुजला। वक्ता श्रोता निमाला। तेथें देखें कवण कवणां।।५८।। देखणारा देखणेसीं। बुडाला भावितां भावनेशीं। गुरुशिष्यनामासीं। उच्चार नुरेंचि कांहीं।।५९।। जो गुरुशिष्याचा संवाद। जो निजानंदाचा आनंद। जो निजबोधाचाहि बोध। स्वत:सिद्ध आईता जो।।६०।। जो आला ना गेला। तो झाला ना मेला। धाला ना विरूढला। रचिला ना आईता कीं।।६१।। तो कांहीं नसोनि असे। तो न दिसोनि वसे। दिसण्या असण्या जाणतसे। जाणपणेंविण।।६२।। जाणणें नेणणें त्या नाहीं जाणें। जाणणें अवघेचि नेणें। सर्वस्व आपण होणें। अवघेचि।।६३।। तें म्हणतां हें येते। एक म्हणतां दुजें होतें। परि भेदांविण अभेदातें। केवि जाणिजें।।६४।। म्हणोनि भेदचि अभेद जाणिजे। गुणेंचि निर्गुण ओळखिजे। मग भेदगुण निमे सहजे। तद्रूपता आलिया।।६५।। म्हणसी ब्रह्म कैसें असें। तें चर्मचक्षूतें न दिसें। ज्ञानांजनें पूर्ण प्रकाशें। हृदाकाशीं वो देवी।।६६।। सुगंधपुष्पांमाझारीं। परिमळ न दिसे जरी। तरी नाहीं म्हणतां नये गौरी। घ्राणेंद्रियां सुख होय।।६७।। पानांपुष्पांमाझारीं। प्रभा दिसेना जरी। नास्ति म्हणो नये सुंदरी। अस्तित्व भरलें असें मगमगित।।६८।। चंद्रबिंबाभीतरीं। प्रकाश न दिसे जरी। परि भूमंडळावरीं। प्रकाश भरला असे।।६९।। तेथ दृश्य-द्रष्टा हरपें। मग आहे नाहीं कोण म्हणिपें। हेंचि अनुभवीं निर्विकल्पें। तेंचि वस्तुरूप।।७०।। एक माझी स्फूर्ति जाण। जागृत असे अनुदिन।तिचे शब्दें हें गगन। उत्पन्न झालीं तत्त्वें पैं।।७१।। तया कारणें मी सगुण। रूपा आलो देवी जाण। मागुती शक्ति आणि गण। उत्पादिलें ब्रह्मा-विष्णु।।७२।। त्या माझिया मूळस्वरूपां। विसरोनिया जन्मखेपां। अज्ञानें जीव त्रिविध तापां। पावती जाण वो देवी।।७३।। ती परवस्तु जाण। असे चराचर व्यापून। त्याची जाणावया खूण। गुरूसीं शरण रिघावें।।७४।। आतां बहुत करितां कथन। ग्रंथासीं होईल विस्तारपण। जी निरोपिली त्याची खूण। ती विसरूं नको।।७५।। जें माझ्या जीवाचें जीवन। जें माझें हृदयींचें ध्यान। तें तुज केलें निरूपण। बीजाचें निजबीज।।७६।। जें दुर्लभ ब्रह्मादिकांसीं। जें अनिर्वाच्य न ये लक्षासीं। जें न भासें वेदशास्त्रांसीं। तें तुज निरोपिलें।।७७।। ऐसी वस्तु जी पार्वती। तेचि वीरशैव अवतरती। तयां शिवयोगी बोलती। माझेचि अंश जाण ते।।७८।। ते सदा उदासवृत्ति। भोगविलास थुंकोनि टाकिती। विष्ठेसमान विषयसुख मानिती। सदा संतुष्ट ते।।७९।। ते मजला सदा पूज्य। उदासवृत्ति महाराज। ज्याच्या क्रियाचाराचें तेज। दूर करी भवातें।।८०।। त्यासीं लोह-सुवर्ण जाण। समानचि मान-अपमान। अरि-मित्र प्रिय-अप्रिय समान। सहजमुक्त जंगम तो।।८१।। ऐसा तो सहजमुक्त जंगम। गुरुपद पावला उत्तम। तो सद्गुरूवांचोनि परब्रह्म। आणिक नेणें दुजें।।८२।। आपुलेसहित श्रीगुरुच। अवघाचि अवघा तोच। ऐसें निश्चया आलें साच। गुरुविण आनु नेणें तो।।८३।। येथें संपवून ब्रह्मनिरूपण। पार्वतीप्रति सांगे आपण। जगन्माता आनंदून। प्रश्न करी शिवासीं।।८४।। त्या श्रवणां वीरशैव जन। बैसले लावूनिया ध्यान। वक्ता मनीं सद्गदून। श्रवण करवी श्रोतयांसीं।।८५।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। शिवगौरीसंवादीं वर्तत। त्याची टीका करूनिया प्राकृत। कृतकृतार्थ मन्मथ।।८६।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे मुक्ततत्त्वविवेकवर्णनोनाम चतुर्थोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक ४, ओव्या ८६.
(संगणकीय अक्षरलेखन : सौ. उषा पसारकर, केतकी फ़ोटो टाईप सेटर्स, सोलापूर)
 

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