संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी |
परमरहस्य
अध्याय दुसरा
।। श्रीगणेशाय नम:। श्रीगुरुभ्यो नम:।।
प्रथम अध्यायीं गुरुस्तव। करोनि श्रोत्यां सावयव। प्राकृत भाषीं अभिनव। गुरुरूप वर्णिलें।।१।। जो साक्षात् शिवस्वरूप। जो तेजें प्रचंड प्रताप। जो वीरशैवधर्माधिप। मोक्षदायक जगतातें।।२।। आतां द्वितीय अध्यायीं साचार। तीर्थमहिमा वर्णिला फार। परिसोत श्रोते चतुर। सावध होवोनिया।।३।।
देव्युवाच-
श्रीगुरुपादतीर्थस्य सेवने qक फलं प्रभो। महिमां श्रोतुमिच्छामि कथयस्व महेश्वर।।१।।
पार्वती पुसे जी महेशा। गुरुपादतीर्थाचा महिमा कैसा। कोण फळ स्वयंप्रकाशा। निरोपा स्वामिया।।४।।
शिव उवाच-
मत्त: प्रवृत्ता वै सर्वे वेदायज्ञास्तथा क्रिया:। मद्रूपो हि जगन्मान्यो जंगम: परमो गुरु:।।२।।
शिव म्हणे वो गिरिजे। तुवां प्रश्न केला वोजे। तो आतां निरोपुं सहजें। तुझिये आवडी।।५।। क्रिया आणि वेदमंत्र। मजपासून सर्वत्र। उत्पन्न होती पवित्र। सप्तकोटी मुख्य जे।।६।। त्याची जी जीवनक्रिया। ती असे जंगम प्रिया। म्हणोनि गुरु आचार्यां। श्रेष्ठ जाणे मी देवी।।७।। क्रियाचार सतेज असतां। तेणें मंत्राची होय सिद्धता। qलगनिष्ठें मोक्ष येई हातां। क्षण न लागतां साच पैं।।८।।
qलगप्राणो गुरुर्देवि गुरो: प्राणं तु जंगम:। जंगमस्य प्रसादेन qलगप्राणं तु शांकरि।।३।।
शिव सांगे अंबेप्रति। मम प्राण गुरुमूर्ति। गुरु प्राणाची स्फूर्ति। जंगमरूपें तिष्ठतसे।।९।। तया जंगमप्राणाची व्याप्ती। प्रगट होय त्रिजगतीं। सकल व्यापार चालती। मद्इच्छेकरूनिया।।१०।। ती राहावी अखंड स्थिति। म्हणोनि निष्ठा गुरुतीर्थीं। षोडशोपचार पूजा करिती। अंतीं घेती शिवतीर्थ।।११।। एका गुरूचे पूजेंकरून। त्रयमूर्तींचें घडें अर्चन। तया श्रीगुरुqलगां व्यापून। माझें रूप असें।।१२।। गुरुपूजा करिता जाण। आधी कीजें लिंगपूजन। सवेचि स्पर्शी द्वयचरण। वरी मस्तक ठेवोनिया।।१३।। लिंगरूपीं मी साक्षात्। ब्रह्मतत्त्वीं वास करीŸ। चरलिंग तोचि वर्तत। पवित्र पावन सत्य पै।।१४।। यास्तव तीर्थ अविनाशी। श्रुतीनें वर्णिलें प्रेमेंशीं। चरणं पवित्रं विततं ऐसी। मंत्रे जाण तीर्थाचे।।१५।।
शोषणं पापपंकस्य दीपनं ज्ञानतेजस:। गुरुपादोदकं शुद्धं संसारद्रुमनाशनम्।।४।।
शंकर म्हणे वो गिरिजे। पापलक्षण चिखल जें। त्यातें शोषावया समर्थ जें। तें गुरुतीर्थ वो देवी।।१६।। तें गुरुतीर्थ विश्वासें सेविता। हृदयीं ज्ञानदीप प्रकाशे तत्त्वतां। संसारद्रुम उन्मळोनि सायुज्यता। ती लाहे वो देवी।।१७।।
देव्युवाच-
पादोदकविधि: कीदृक् कार्यं पादोदकं कथम्। तत्सर्वं कथ्यतां गुह्यं परमेश दयानिधे।।५।।
पार्वती म्हणे हे महेश। गुरुतीर्थ जें अविनाश। तें कैसें करावें विधीस। सत्य सांगा मजलागीं।।१८।।
शिव उवाच-
प्रणम्य दण्डवद्भूमौ निष्ठया परया मुदा। गुरो: संपूजयेत् पादौ गंधपुष्पाक्षतादिभि:।।६।।
शिव म्हणे वो गिरिजे। तुवां तीर्थविधि पुसिला वोजे। तो सांगेन तुज सहजें। श्रवण करी आदरें।।१९।। गुरु शिव एकाभावेन। तया उत्तम आसनीं बैसवून। साष्टांग प्रणिपात करून। आज्ञा घेईजे तीर्थासीं।।२०।। भूमि प्रणाम दंडवत् घालूनि। चरण गुरूचें निष्ठें अर्चोनि। गंधाक्षता धूपदीपें पूजोनि। तीर्थ सेविजें विश्वासें।।२१।। गुरु आज्ञा करी प्रेमें। लवलाही उठा नेमें। धूप दीप अनुपमे। पूजा कीजें त्रिविध।।२२।। सद्योजात मंत्रेंकरून। तें भस्म लावावें आपण। क्षणामाजीं नम्र होऊन। इष्टलिंगा पुजिजें।।२३।। दशांगुले चरणकमळीं। स्पर्शूनि शुद्धोदक मिळीं। भस्म लावून तये वेळी। सव्य भागीं ठेविजें।।२४।। मग कीजें लिंग ूजा। निर्जराच्या निजबीजा। पत्र पुष्प धूप राजा। अर्पितां पुण्य पैं।।२५।। महापूजा ती सर्वांगीं। अर्चूनिया शिवयोगी। अंती कीर्ति होय जगीं। पुष्पांजळी अर्पिल्या।।२६।। नैवेद्य तांबूल दक्षिणा। देईजे मौनें तत्क्षणां। पूजा सर्व उतरूनि जाणा। चरण धरिजें आवडीं।।२७।। पात्रीं प्रणव लिहूनि। मूल मंत्र अंगुष्ठस्थानीं। ईशान वस्तु म्हणोनि। ऊध्र्वकरीं दाविजें।।२८।। पूर्वी उदकें उपपात्र। ठेविलें लावून सर्व सूत्र। तेंचि घेऊनि पवित्र। तीर्थ कीजें परवस्तु।।२९।। मागे जे सांगितली श्रुति। येथें आदरें उच्चारिती। जयजयकारें गर्जती। मग सेविती तीर्थातें।।३०।। गुरुतीर्थ पात्रीं असतां। लिंगी लीन होय तत्त्वतां। मुखामाजीं प्राशन करितां। जंगम-तीर्थ साच तें।।३१।। हेंचि जाणिजे त्रिविध। दुजें असे दशविध। परि तें दश त्रिविध। होत असे अनुक्रमें।।३२।। ही परसूत्राची मूर्त। याचे कैसें सेवावें तीर्थ। म्हणे तो नोव्हे शिवभक्त। लिंगधारी वा जंगम।।३३।। तीर्थीं भेद धरितां घडे दोष। प्रसादा उच्छिष्ट पाप विशेष। जो जाणे तीर्थप्रसाद नेमास। तोचि वीरशैव जाणावा।।३४।। जें तीर्थ परमपददायक। जें होय भवभयमोचक। तया धि:कारितां महापातक। भोगी जाण अभक्त तो।।३५।। तीर्थ झालिया जाय उठून। qकवा धरून बैसे अभिमान। तो पंचमहापातकी जाण। जंगम अथवा भक्त।।३६।। जो म्हणे आणा बैसल्या ठायीं। आचारविधि नेणेंचि कांहीं। तो वीरशैवमार्गीचा नाहीं। गणवंशज नोव्हे तो।।३७।। तीर्थासी घे म्हणूं नये। कोणाहि पाचारूं नये। पाचारितां दोष होय। तो सांगता नये येथें।।३८।। दाटून म्हणे घे घे तीर्थासी। अवलिलें पाचारितां अन्यांसीं। न घेतां घे म्हणणारा दोषासी। पावे जाण तो देवी।।३९।। जो वीरशैवमार्गी पुरुष। घे म्हणणें न लगे तयास। ज्याचा तीर्थप्रसादीं विश्वास। कदाकाळीं न सोडी तो।।४०।। तीर्थाचा वस्त्रास पुसूं नये हात। भूमीं पाडूं नये किंचित्। आदरें सेवी तो जंगम भक्त। येर तो सोंग बहुरूपियाचें।।४१।। निगुरुया तीर्थ न दिजें। गुरुपुत्रासीं न वर्जिजें। qलगभक्ति सोडून अन्य देवता पुजी जे। तीर्थ न दिजें तयासीं।।४२।। ऐशिया भ्रष्टास तीर्थ देतां। तो जंगम नोव्हे सर्वथा। आशा अथवा भीड धरितां। तरी तो दोषी होय कीं।।४३।। आचारमार्गाचे ठायीं। रावरंक सारखाचि पाही। मार्ग चुकतां अग्रेसरहि। येई नीच पदासी।।४४।। मार्गें चाले तो पंचानन बोलिजे। अमार्गें वर्ते तोचि श्वान जाणिजे। वीरशैवमार्गें वर्ते तो सहजे। गुरु सर्वांसीं वो देवी।।४५।। सप्तसागरीचें जल। सृष्टीचीं तीर्र्थे सकल। परि गुरुतीर्थथेंबाचें फल। सहस्रांशें अधिक।।४६।। गुरुतीर्थबिंदूची सरी। काशी न पावे बरोबरी। मा इतराची काय थोरी। पादतीर्थापुढें वर्णावया।।४७।। काशी मेलियां मुक्ति देत। सद्भावें सेवितां श्रीगुरुतीर्थ। तो सहज होय जीवन्मुक्त। तीर्थमाहात्म्य ऐसें हें।।४८।। गंगातीर्थीं एक अवगुण। खोलीं जातां जाय बुडोन। गुरुतीर्थ न बुडवी म्हणोन। तरोनि जाती कैलासीं।।४९।। द्वादश लिंगां करितां परिक्रमा। परि गुरुतीर्थाचा नये महिमा। जेणें पाविजें स्वयें परब्रह्मा। त्याची सरी कोण करी।।५०।। तीर्थावीण बांधितां लिंग। तरी तो पाषाणचि चांग। जया तीर्थाचें न लागे अंग। तरी तो लिंगचि नोव्हे।।५१।। तीर्थाविणें लिंग तो पाषाण। तीर्थ असे लिंगाचें जीवन। त्याविना नसें लिंगासीं चैतन्य। लिंग प्रेतासमान तें।।५२।। तीर्थाविण लिंग अकारण। तीर्थाविण भक्ति निष्कारण। तीर्थाविण मिरवी जंगमपण। कैकाडियाचें मर्कट तें।।५३।। स्वधर्मीं निष्ठा नसे जाण। व्यर्थ मिरवी जंगमपण। तीर्र्थां सांडून करी कारण। जैसें भाषण अर्भकाचें।।५४।। जयासीं तीर्थीं नाहीं आवडी। प्रसाद सेवावयाची काय ती गोडी। तयासीं सुटका नसे संसार बांधवडीं। कल्प कोटी गेलियां।।५५।। विश्वासें जे सेविती तीर्थ। ते सरते होती शिवगणांत। तयापुढें भुक्ति मुक्ति राबत। कर जोडून सर्वदा।।५६।। जो तीर्थप्रसादाचा भेद जाणें। वीरशैव तयासीच म्हणणें। येर ते qहडती पोटाकारणें। भाटनागर जैसे ते।।५७।। तीर्थ करावें जयाचें। शुद्ध सर्वांग असावें तयाचें। तीर्थ न करावें अंगहीनाचें। ऐसें शास्त्र वदतसें।।५८।। हातीचें अथवा पायीचें। बोट गेलें असेल जयाचें। अंग असेल व्यापिले रोगें तयाचें। तीर्थ बोलिले नाहीं।।५९।। नाक डोळा कान। गेला असेल छेदून। तयाचें तीर्थ सेवन। करूं नये वो देवी।।६०।। जो क्रोधी द्वेषी तामसी। जो जंगमद्रोही करी हिंसेशींŸ। सेवूं नये तयाचें तीर्थासी। परि भोजन घालिजे।।६१।। अंगीं कुष्ठ असतां। पादपूजा न कीजें सर्वथा। जो शिवगण सर्वांगीं पुरता। पादपूजा कीजें तयाची।।६२।। पूज्य मूर्तीसीं द्वेषेंकरून। जरी लाविलें अन्य दूषण। तरी तो अपूज्य होय जाण। दोष मुक्त पावे तो।।६३।। यालागीं भूरुद्र देशिकांनी। सर्वदा अलगत्वें वर्तावें जनीं। अधिकार गुरुत्व पूर्णपणीं। संपादावें निर्दोष।।६४।। जो शिवयोगी पाहतां। निर्दोष मूर्ति असे तत्त्वतां। तोचि पूजेयोग्य धर्मवक्ता। लिंगी निष्ठा असे याची।।६५।। सुशील शांत आणि भाविक। जंगमभक्ति नित्य साधक। धर्म-अधर्मीं करी विवेक। पादपूजा कीजे त्याची।।६६।। सत्त्वगुणी भक्तजन। तो आवडे प्राणाहून। उभय ऐक्य झाल्याविण। पूजा नोव्हे सर्वथा।।६७।। उभयतां शुद्धासनें। असावीं दुकूल परिधानें। पूजा तीर्थातें सेवनें। आसन स्वकरें काढी कां।।६८।। ऐकोनि तीर्थमहिमा। परमसुख पावली उमा। म्हणे धन्य धन्य परमात्मा। सदाशिवा स्वामी।।६९।। तुम्ही जो निरोपिला तीर्थमहिमा। तो न कळे निगमागमां। वीरशैवावांचोनि पुरुषोत्तमा। न कळे कोणासीं।।७०।। वीरशैव कोण तें निरोपुं आतां। देह सांडी तो क्रिया चुकतां। मा वांचेल लिंग जातां। हें केवि घडेंŸ।।७१।। ऐसे एकनिष्ठ वीरशैव। मज कळविलें उमाधव। परि धर्मशास्त्राचा प्रभाव। पुढें अर्थ रस बहु।।७२।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। उमामहेश्वरसंवादीं वर्तत। त्याची टीका करूनि प्राकृत। कृतकृत्य मन्मथ।।७३।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे श्रीगुरुमाहात्म्यवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक ६, ओव्या ७३.
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