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Friday, 3 January 2014
संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य अध्याय सहावा
संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी
संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित
परमरहस्य
अध्याय सहावा
।।श्रीगणेशाय नम:।।
जयजय सद्गुरु परशिवा। सत् चित् सुखात्मका भवोद्भवा। परब्रह्मीचा तूं निज ठेवा। तुज नमूं।।१।। पंचम अध्यायाचे अंतीं। तुवां निरोपिलें मुक्तीप्रति। पुढील ग्रंथश्रवणीं प्रीति। विरूढली हृदयीं मम।।२।। ऐसें विनवूनि उठाउठीं। गिरिजा अंकीं बैसोनि गोमटी। आदरें प्रार्थूनिया धुर्जटी। प्रश्न करी।।३।।
देव्युवाच-
को वा प्रकृतिकायश्च ज्ञानकाया यथा भवेत्।
भेदं च किं द्वयोर्देव किं बीजं कथयस्व मे।।१।।
गिरिजा प्रश्न करी शंभूसीं। प्रकृतिकाया ती कैसी। ज्ञानकाया म्हणिजे कोण्हासी। हा बीजभेद निरोपा स्वामी।।४।। दोन्ही कायेचे सविस्तर। मज सांगावें भेदाकार। बीजाक्षराचाहि विचार। प्रकट कीजें मजलागीं।।५।।
शिव उवाच-
विकल्पहीनशिष्यस्य श्रोत्रे बीजं च सद्गुरु:।
अव्यक्तं प्रोक्तवान् शुद्धं ज्ञानांगं तत् समीरितम्।।२।।
ईश्वर म्हणें अंबेप्रति। तुझे प्रश्न गहन असती। परि अज्ञान जनाचे चित्तीं। प्रेमभाव प्रगटेल।।६।। जो शिष्य शुद्ध प्राज्ञिक। सुज्ञ सुबुद्धि सुचित्त चोख। निरभिमानी सात्त्विक। भजनशीळ पैं।।७।। ऐशा सानुराग शिष्यास। श्रीगुरु निरोपिती श्रोत्रीं बीजास। मग अविद्याकल्पनेचा होय नाश। ते ज्ञानलक्षणयुक्त काया।।८।। तरीच गुरुमंत्र बीज। तयाचे कर्णीं राहे सहज। धर्मनीतीचे उदकें काज। होती अंकुर बीजांतें।।९।। बीज विरूढता कर्णीं। पातकाची होय हानी। अव्यक्त ज्ञान मुरूनि। ज्ञानांगें दृढ होय।।१०।।
शिवमंत्राक्षरं बीजं प्राप्तं येन गुरोर्मुखात्।
स प्राणी ज्ञानकायश्च प्रकृतिप्रति बिंबवत्।।३।।
शिवमंत्र बीजाक्षर बरवे। ते उपदेशिले श्रीगुरुदेवें। शुद्ध काया म्हणोनि सद्भावें। बिंबले तेथें।।११।। तें सद्गुरूचें बीजाक्षर। जेथें बिंबलें तेथें झालें ब्रह्माकार। प्रपंचाचा झाला संहार। म्हणोनि ज्ञानकाया बोलिजे।।१२।। श्रीगुरु-उपदेशेंकरून। अंतर्बाह्य गुरुचि झाला आपण। मग प्रकृतिकाया विरोन। ज्ञानकाया जाहली।।१३।। जैसें प्रथम होतें सघन वन। नाना वृक्षवेष्टित ऐंचण। तें शुद्ध कीजें सर्व छेदून। क्षेत्रालागीं कृषकें।।१४।। पिकाचि लागीं असे कृषि। नांगरोनि मोगडोनि धरी कुळवाडीसीं। मग वनपण जाय क्षेत्र म्हणिजें त्यासीं। बीजायोग्य म्हणूनिया।।१५।। तैसें अरण्य म्हणिजें। प्रकृतिकाया ती बोलिजे। षड् विकार वृक्ष सहजें। वन केलें तेणें हें।।१६।। ते अनुतापकुऱ्हाडी धरून। षड् विकारादि वृक्षसंहरण। करोनि शेतीचें आरंभण। पालव्या छेदून आशामनिशेचिया।।१७।। बुद्धिकुदळीं खणोन। कामक्रोधादि खुंटे टाकिली छेदून। मग ज्ञाननांगर धरोन। वनाचें क्षेत्र केलें।।१८।। गुरूनें बीज देऊनि पिकविलें। वनासीं शेत हें नांव पावलें। तैसें प्रकृतिशरीर ज्ञानकाया झाले। श्रीगुरुकृपेंकरोनिया।।१९।। ते जाणिजे शुद्ध काया। न करी कर्मेंद्रियांची दया। सदा शुद्धभावें गुरुराया। शरण असे वरिष्ठ।।२०।। जया शुद्ध कायेभीतरीं। गुरुकृपेनें बीजाक्षरीं। मंत्र संपादण्याची थोरी। देवादिका दुर्लभ।।२१।। मंत्र साध्य झालियाविण। ज्ञानकाया नोव्हे जाण। मंत्रामाजीं पंचानन। शिवमंत्र असे पैं।।२२।।
प्रकृतिज्ञानकायश्च तथा भेदसमन्वित:।
तत्तद् गुणेन भावेन ज्ञानकायस्तथा भवेत्।।४।।
प्रकृतिकाया ज्ञानकायेसीं भिन्न। जैसें पात्रीं वाढिलें अपक्वान्न। क्षुधाक्रांत भक्षितां होय खिन्न। तैसी जाण प्रकृतिकाया।।२३।। तेंचि पक्वान्न पात्रीं वाढितां। जेवि तृप्ति होय तत्त्वतां। तेवि ज्ञानकायेची वार्ता। समाधान पावतसे।।२४।। जरी प्रकृति ज्ञानकाया दिसे भिन्न। ती प्रकृतिकाया लाभें ज्ञान। तरी तेंचि बोलिली पूर्ण। ज्ञानकाया वो देवी।।२५।। ऐसी अज्ञान तें ज्ञानकाया जाहली। तत्त्वमात्र सर्व बोलों ठेलीं। सकळ ब्रह्मत्वें स्थिति झाली। ती ज्ञानकाया बोलिजे।।२६।।
न जाग्रद्वा सुषुप्तोऽथ स्वप्नमज्ञानवृत्ति वा।
दिवारात्रस्य न ज्ञानं न कालस्यापि कल्पनम्।।५।।
ऐसी जे ज्ञानकाया पाही। तया दिनरात्रीं कालकल्पना नाहीं। जरा-मृत्यु-जन्मांतर कांहीं। नुठेचि ते ज्ञानकाया।।२७।। षडूर्मि षड्व विकार। नाहीं तेथें द्वेष मत्सर। निर्लोभ निरहंकार। ती ज्ञानकाया म्हणिजे।।२८।। आशा मनिशा तृष्णा। नाहीं भिन्न भावभावना। अभेदभावें नातळें त्रिगुणा। ती ज्ञानकाया बोलिजे।।२९।। कामक्रोधादि षड् विकार संग। नातळें जयाचें अणुमात्र अंग। नाहीं मीतूंपणा कडसणी सांग। ती ज्ञानकाया बोलिजे।।३०।। समाधानी सदा शांत। सदा संतुष्ट सदोदित। नाहीं हळहळ पूर्णभरित। ती ज्ञानकाया बोलिजे।।३१।।
यद्दिवा यच्च रात्रं च तथा कालस्य कल्पना।
प्रपंचमयभावश्च प्रतिबिंबे दृढस्तथा।।६।।
अज्ञानकाया म्हणिजे ऐक। जेथ स्वरूपाची विस्मृति विशेख। अहंकृति जेथें निष्टंक। ती अज्ञानकाया।।३२।। जे देहीं काळकल्पना असे। दिनरात्र काळकल्पना भासे। सदा प्रपंचाकार वर्ततसे। ती अज्ञानकाया।।३३।। जैसें प्रतिबिंब साच मानणें। तैसी प्रकृतिकाया म्हणे। येणें निश्चतार्थें वर्तणें। ते अज्ञानकाया बोलिजें।।३४।। आतां बहु काय बोलूं ऐका। जें ज्ञानकायेचें लक्षण निरोपिलें देखा। ते ज्या नसती आवश्यका। ती अज्ञानकाया।।३५।। ऐसी ही कर्मब्रह्मसंपदा। तुज निरोपिली सुबुद्धा। तुवांहि असावें गौरी सदा। ज्ञानकाया जाणोनि।।३६।। मजहि असे ज्ञानकायेचें कोड। अत्यंत त्या कायेची आवड। म्हणोनि तुवांहि असावे अखंड। ज्ञानकाया होवोनि।।३७।।
फाले त्रिपुंड्रकं यस्य गले रुद्राक्षमालिका।
वक्त्रे षडक्षरो मंत्र: स रुद्रो नात्र संशय:।।७।।
तैसी जी ज्ञानकाया सुचित। त्या कायेसीं भाळीं त्रिपुंड्र विभूत। चंद्रकोर विशेष शोभत। मद्रूप देवी।।३८।। भाळीं त्रिपुंड्र मुखीं बीजाक्षर मंत्र। कंठीं रुद्राक्षमाळा शोभती पवित्र। ते साक्षात् जाणिजें महारुद्र। यासीं संशय नाहीं।।३९।। मंत्रावांचूनि मुख निर्फळ। मुग्धपणें नसावी तळमळ। अमंत्रें क्षोभें जाश्वनीळ। म्हणोनि समंत्रें पुजी कां।।४०।। षडक्षर मंत्रेंविण। शिवार्चन निष्फळ होय जाण। षडक्षराची उत्पत्ति गुणभेद जाणोन। भजिजें शिव शिवभक्तीं।।४१।।
देव्युवाच-
केन मंत्रेण वा पूजा कर्तव्या साधकोत्तमै:।
केन मंत्रेण सिद्धि: स्यात् जपपूजादिकस्य च।।८।।
कोणत्या मंत्रें करावी पूजा। ऐसें विचारीतसे गिरिजा। कोण मंत्र जपसिद्धिबीजा। नंदिध्वजा सर्व सांगा।।४२।। महामंत्र सप्तकोटी। असती जाण धुर्जटी। तुम्ही कथिलें परमेष्टी। ते श्रवण मज झाले।।४३।।
शिव उवाच-
स्नात्वा अघ्र्यादिसामान्यसंस्थाप्याप्यु
पचारकै:।
पंचाक्षरेण मंत्रेण अर्चितव्यो महात्मभि:।।९।।
शिव म्हणे वो देवी। तुझी पृच्छा असे बरवी। जेणें अज्ञानाची गोवी। जाय गळोनि।।४४।। शुद्ध स्नान करूनि जाण। महामंत्रें करावें ध्यान। अर्घ्य पाद्य पात्रेंकरून। आरंभावें संकल्पां।।४५।। नित्य संकल्प होतां पूर्ण। मग करावें माझें ध्यान। ध्यानासरिसे प्रार्थून। शुभ्रासनीं बैसवावें।।४६।। मग अर्घ्य पाद्य होतां मान्य। घालावें शुद्धोदकें स्नान। वस्त्रालंकारें गौरवून। परिमळ धूपां अर्पावें।।४७।। पात्रीं नैवेद्य षड्रसान्न। समर्पावें भावेंकरून। एकारती दीपां ओवाळून। ध्यान स्वरूपीं लावावे।।४८।। ती पूजा करकमळीं। करीतसे वीरमंडळी। पूजा होतां पुष्पांजळी। वेदमंत्रें करीतसे।।४९।। महामंत्र षडक्षरी। जपालागीं झडकरी। एकाग्रतेचि यापरी। वैखरीनें उच्चारी कां।।५०।। हा मंत्र ऐकता कर्णीं। मी सदा होतसे ऋणी। जी इच्छा जापकाचें मनीं। आनंदें पुरवीतसे।।५१।। पंचाक्षरी महामंत्राची थोरी। वर्णितां न वर्णवे निर्धारी। सप्तकोटी मंत्रांचा पुढारी। उद्धारक जगताचा।।५२।।
देव्युवाच-
पंचाक्षरस्य चोत्पत्ति: पंचाक्षरगुणस्तथा।
पंचाक्षरस्य वा भेदा ब्रूहि मे परमेश्वर।।१०।।
गिरिजा म्हणें जी शंकरा। कैसी षडक्षराची उत्पत्ति दातारा। गुणभेद कोण परमेश्वरा। निरोपा स्वामी।।५३।।
शिव उवाच-
यथा क्षेत्रस्य बीजस्य संबंध: फलदस्तथा।
तथा शिष्यस्य कर्णे तु मंत्र: पंचाक्षरो मत:।।११।।
शंभु म्हणें वो गिरिजे। तुवां गुह्य पुसिलें जें। त्यास दृष्टान्त निरोपिन जे जे। ते तूं बरवे परिस देवी।।५४।। जैसीं क्षेत्रबीजां पडे गाठी। तें पीक असंभाव्य उठी। तेवि षडक्षर श्रोत्रक्षेत्रां भेटी। होतां पिके अपार।।५५।।
तच्छिष्यज्ञानक्षेत्रे तु कर्णद्वारे च सद्गुरु:।
तन्मंत्रबीजमव्यक्तं तच्च क्षेत्रसमन्वितम्।।१२।।
शिष्याचें क्षेत्र ज्ञानदेह जाणिजें। त्याचें श्रोत्र तें द्वार म्हणिजें। तेथें शिवमंत्र बीजाक्षर वोजें। पडतां पिके अपार।।५६।।
तद्बीजं द्विविधं ज्ञेयं मंत्रन्यासविभेदत:। एको दीर्घस्तु य: कुर्यात् पंचमाशक्तिमाश्रयेत्।।१३।।
मंत्रबीज दोन रूपीं। न्यासबीज विघ्नें थोपी। र्हस्वदीर्घ उच्चार अर्पी। पंचमशक्तिकारणें।।५७।। तया बीजाचें रूप द्विविध। पंचाक्षरी षडक्षरी प्रसिद्ध। उभयां एका प्रणवाचा भेद। उत्पत्तीस कारण तोचि पैं।।५८।। न्यासभेदाकुन। बीजभेद झाला जाण। पंचाक्षरी षडक्षर म्हणोन। प्रसिद्धीसी पावले।।५९।। त्या बीजाचें रूप द्विविध भासें। षडक्षरी बोलिला असे। पाहतां पंचाक्षरी मिश्रित वसे। ॐकाराचे पोटीं।।६०।। ॐकारापासूनि अक्षरांच्या हारी। त्यामाजीं निवडून काढिला पंचाक्षरी। तोचि निर्णय निरोपुं अवधारी। ऐक चित्त देवोनिया।।६१।। ॐकारा-पासूनि सर्व वर्ण। उत्पन्न झाले ते बावन्न। तयामध्यें मुख्य जाण। तयाचे दशद्वय भेद।।६२।।
अक्षरादितवर्गान्तं पवर्गान्तं शुभानने।
शिकारोऽथ यवर्गान्तं मवर्गान्तं बभूव तत्।।१४।।
ऐक अक्षराचा भेद। पंचाक्षरी असे संबंध। पन्नास अक्षरांतून बीजबोध। काढिला तो।।६३।। तकाराचा अंत नकार। प वर्णाचा अंत मकार। य वर्गाचा अंत शकार। एवं तिन्हीहि ॐकारापासाव।।६४।। थांतस्थ नकार। तो संयोजिला सह अकार। यवर्गादिस्थ यकार। पंचाक्षरी विनटला।।६५।।
दांतं बांतं च यांतं तु तृतीयस्वरभूषितम्।
लांतं यांतसमायुक्तो मंत्र: पंचाक्षरो भवेत्।।१५।।
द काराचा अंत नकार। य काराचा शेवट तो मकार। य वर्गांतस्थ शकार। इ स्वरानें अंकिला।।६६।। तेवि य वर्गाचा जो अंत्य। अकारादेशें वर्ते सत्य। जेणें घेतलेसे य वर्गाधिपत्य। तोहि येथें घेतला।।६७।। एवं पंचाक्षरी विस्तार। एका प्रणवापासोनि साचार। जे कां सप्तकोटी मंत्राचें सार। वर्णिलें शास्त्रीं।।६८।। ऐसीं हीं पंचाक्षरें गोमटीं। असती प्रणवाचिया संपुटीं। तीं प्रगटलीं भक्तिसुखासाठीं। वीरशैवाकारणें।।६९।।
ह्येष पंचाक्षरो मंत्र: सर्वश्रुतिशिरोगत:।
प्रणवेन समायुक्तो षडक्षर इहोच्यते।।१६।।
आतां निरोपिला जो पंचाक्षरी। तोचि ओंकारासहित षडक्षरी। जैसा द्विविध झाला निर्धारी। ते तुज निरोपुं आतां।।७०।।
त्वदीयं प्रणवं चैव मदीयं प्रणवं तथा।
एतद्धि देवि मंत्राणां शक्तिभूतं न संशय:।।१७।।
षडक्षरासीं तुझी माझी शक्ति। म्हणोनि मंत्रासीं बळ असे निगुती। तो षडक्षर मंत्र बोलिला स्थिति। ॐकारसहित।।७१।। त्या ॐकारां उभयाची शक्ति। अर्ध भाग तूं अर्ध मी निश्चिती। म्हणोनि मंत्रासीं सामर्थ्य स्थिति। प्राप्त असे वो देवी।।७२।।
उकारश्च मकारश्च अकार: प्रणवो मम।
अर्धमात्रा स्वरूपा त्वं शक्तिभूता सनातनी।।१८।।
अकार उकार मकार। हे माझे अंश साचार। परि तुझे संबंधें उच्चार। होत असे मम सत्तें।।७३।। हीं तीन बीजें स्वतंत्र। यापासाव कर्में चालती सर्वत्र। तेथें तुझाहि संबंध असे पवित्र। अर्धमात्रेच्या रूपानें।।७४।। यालागीं प्रणव द्वितीय बोलिजें। माझा अंश संबंधें तुझ्या उच्चारिजें। म्हणोनिचि मंत्र म्हणवी वोजें। ॐकारु हा।।७५।। याचा भेद न कळे कवणासीं। हे दुर्लभ मुमुक्षु जनांसीं। हे जाणे जो जंगम बोलिजें त्यासीं। पवित्र सत्यशरण।।७६।। तया जंगमीं तुझे माझे दिसे। अंश संबंधत्वें तेथ वसे। उभयसंयोगें जंगम असे। सत्य जाण पार्वती।।७७।।
षडक्षरसमाख्यातं षडाननमुदीरितम्।
षड्भेदं यो न जानाति पूजा तस्य तु निष्फला।।१९।।
षडक्षराची उत्पत्ति षण्मुखीं। ती षण्मुखीची ऐकतां निकी। जाणोनि जप करी तो सुखी। जंगम अथवा भक्त।।७८।। षडक्षरी मंत्रासारिखा मंत्र नाहीं। कार्तिकस्वामी सदा जपत राही। षड्भेद जाणोनि लवलाही। पूजा कीजे एकाग्र।।७९।। याचा भेद न कळे कोणां। दुर्लभ असे अज्ञ जनां। गुह्य जाणे शिष्यराणा। जंगममुखें करोनिया।।८०।। एवं लिंगपूजकावांचोन। न होय षडक्षरसाधन। श्रीगुरुमुखें करोनि ग्रहण। करिता जप सिद्धि होय।।८१।। याचा भेद नेणोनि पूजा करी। त्याची पूजा निर्फळ होय अवधारी। तोहि अज्ञानियाचा पुढारी। गुरुपुत्र नव्हे तो।।८२।। षड्चक्राचें स्वरूप सरोभरी। तुवां पुसिलें गौरी। निरोपिन पुढारी। चक्राक्षर भेद ऐक आतां।।८३।।
षडक्षराणि क्रमश: चक्रबीजानि वै यथा।
चक्रबीजाक्षरज्ञाता दुर्लभो भुवि पार्वति।।२०।।
हीं सहा अक्षरें षड्चक्रासीं। आधार असतीं त्या कर्मासीं। तयाविण गति चक्रासीं। कदांकाळीं असेना।।८४।। कोण चक्रीं कोण अक्षर। हा असे शिवयोग विचार। जो वर्ते पूर्ण जाणोनि साचार। दुर्लभ ऐसा सत्यशरण।।८५।। ज्यानें देहीं षड्चक्रें भेदिलीं। तेणें ब्रह्मांडे सर्व जिंकलीं। वर्णाक्षरोत्पत्ति वहिली। ऐक गिरिजे सावध।।८६।।
एकैकाक्षरतो जाता: पंचपंचाक्षरा: पुन: ।
गुह्यं हि परमं ह्येतज्ज्ञायते श्रीगुरोर्मुखात्।।२१।।
एका एका अक्षराचे ठायीं। पांच पांच उद्भवली अव्ययी। संहारकाळीं पावती लयी। पंचाक्षरी सर्व वर्ण।।८७।। ऐसीं हीं अक्षरें पंचप्रकारी। वर्ततां आपुलिया परी। हा भेद जाणावा चतुरीं। श्रीगुरुमुखापासोनि।।८८।। ती पंचाक्षरें परस्पर। पावन करिती चराचर। अंतीं सामावती सत्वर। निजस्वरूपीं सदा।।८९।।
देव्युवाच-
ज्ञानदेह: समाख्यात: षडाधारेण संयुत:।
तद्बीजाक्षरभेदश्च क्रमेण कथयस्व मे।।२२।।
शिवाप्रति पार्वती पुसे। ज्ञानकाया जी षड्चक्रयुक्त असे। तरी कोण्या चक्रीं कोण अक्षर वसें। तें निरोपावें स्वामिया।।९०।। षड्चक्राचें मुख्य बीज। निवडोनि सांगावें जी मज। तरीच होय महत्काज। अपराधी जीवाचें।।९१।।
शिव उवाच-
आधाराख्ये नकारं स्यात् स्वाधिष्ठाने मकारकम्।
शिकारं मणिपुरे च वाकारं तु अनाहते।।२३।।
आधारस्थानामाझारीं। चतुर्दळ कमळाभीतरीं। नकार बीज वस्ती करीं। अपान शक्ति बोलिजें।।९२।। स्वाधिष्ठान असें उत्तम। षड्दल कमल असें अनुपम। मकार बीज सर्वोत्तम। तेथें राहें प्रीतीनें।।९३।। मणिपुरीची ऐक मौज। दशदलावरी पेरिलें बीज। शिकाररूपी वर्ते सहज। समान वायू तेथींचा।।९४।। अनुहत तें हृदय जाण। जेथें वकाराचें अधिष्ठान। द्वादशदळीं अंगुष्ठप्रमाण। प्राणवायु वसतसे।।९५।।
विशुद्धौ तु यकारं स्यादाज्ञायां प्रणव एव हि।
एवं बीजाक्षरस्थानं ज्ञानकाया प्रकीर्तिता।।२४।।
विशुद्धि हेचि तालुमूल। जेथें कमळ असें षोडशदल। यकार बीज हें अमल। उदानें तें रक्षिलें।।९६।। अग्निस्थान तेंचि ललाट। द्विदलें शोंभे श्रीगोल्हाट। ॐकार मूळ औटपीठ। चंद्रप्रभा तयावरी।।९७।। तेथें कोटी सूर्यांची प्रभा। परमहंस शिव उभा। स्वानंदाचा पूर्ण गाभा। दमदमीत।।९८।। देव गंधर्व यक्ष गण। किन्नर नारद तुंबरु जाण। स्तिमित होती तया देखून। स्थिर मौन निचेष्ट पैं।।९९।। ऐसीं हीं साही अक्षरें। तुज निरोपिली नाना प्रकारें। सर्वहि एकवटली एकाकारें। सातवें अक्षरीं।।१००।। सातवें तें निराक्षरीक। ज्या शरीरीं याचा असे विवेक। ती ज्ञानकाया बोलिजे सम्यक्। ऐक आतां शैलात्मजे।।१०१।। जें कां सहस्रदळ कमळ। महालिंग वसें निर्मळ। तेथें समरसे सकळ। ज्ञानकळा।।१०२।। ऐसी ज्ञानकाया ज्या पुरुषाची। तो कळा जाणे वस्तुलिंगाची। तया कळेमाजीं रमे सदा शुचि। उत्तम जंगम तो।।१०३।। ऐसे ऐकतां पाहतां डोळां। परम कळवळे हिमनगबाळा। हं क्षं तत्त्वाचा सोहळा। गर्जे घोष अहं सोऽहं।।१०४।। श्रीपरमरहस्ये ग्रंथानुवादें। उमामहेश्वराच्या संवादें। षडक्षर पंचाक्षर दोन भेदें। वर्णिलें ज्ञान भाविकां।।१०५।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृतार्थ किंकर मन्मथ। सहावा अध्याय संपविला।।१०६।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे पंचाक्षरषडक्षरभेदनिरूपणं नाम षष्ठोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक २४, ओव्या १०६.
(संगणकीय अक्षरलेखन : सौ. उषा पसारकर, केतकी फ़ोटो टाईप सेटर्स, सोलापूर)
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