संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी |
परमरहस्य
अध्याय पहिला
।। श्रीगणेशाय नम:। श्रीगुरुभ्यो नम:।।
जयजयाजी सदाशिवा। परब्रह्मा अद्वयानंदवैभवा। नमो तुज देवाधिदेवा। परमेश्वरा जगद्गुरु।।१।। आतां नमूं चिच्छक्ति। जी जगन्माता पार्वती। अज्ञ जनां उत्तम गति। जयेचिया अनुग्रहें।।२।। वेदां परशिवा परब्रह्मा। नेणवे तुझा महिमा। साकार होवोनिया आम्हां। पुरविसी हेतु इच्छित।।३।। श्रीसद्गुरुकृपेंकरून। आधी नमूं शिवगण। जे कां अमर सर्र्वांहून। तयास प्रेमें शरण मी।।४।। रुद्रगणां तयेपरी। शरण रिघो ये अवसरी। शिवगणांची असे थोरी। ग्रंथांतरीं न वर्णवे।।५।। असंख्यात शिवगण। आदि अनादि ते जाण। नित्यानंदीं विराजमान। भक्तां पावन करीत असे।।६।। सातशें त्रेसष्ट गण। अवतीर्ण जे पुरातन। नुरोंदय्यादि शरण। महाविख्यात जे।।७।। सदाशिव परशिव। सच्चिदानंद गुरुदेव। आचाराग्रणीं स्वयमेव। सदा वैभव शिवाचे।।८।। तीर्थ प्रसाद नेमेंसीं। जे सेविती अहर्निशीं। आलस्य त्यजोनि प्रेमेंशीं। भक्तिभावें त्या शरण।।९।। ऐसें नमूनि शिवगण। पंचाचार्य ते मुख्य जाण। जे वीरशैवकुलोत्पन्न। गण सृष्टिकर्ते जे ।।१०।। परि याचे अवतार। चतुर्युगांत साचार। कोणकोणते नामधार। ईश्वरमुखीं उद्भवलें।।११।। तया आचार्र्यां करूं नमन। रेवणसिद्ध मरुळसिद्ध जाण। तिसरा एकोराम ज्ञानिया पूर्ण। चौथा तो पंडिताराध्य।।१२।। हे चहुयुगीं आचार्य चारी। मुख्य शिवाचारासीं पुढारी। पांचवा असे सहकारी। विश्वार्याप्रति वंदिलें।।१३।। युगपरत्वें आचार्य पांच। धर्मरक्षणार्थ अवतार साच। हे तो शिवआज्ञेकरूनिच। प्रगट होती मृत्युलोकीं।।१४।। तो नमूं श्रीगुरु कैवल्यदानी। अगम्य अगोचर अद्वैत निर्वाणी। अविनाश अनिर्वचनी। अनुपम्य स्वामी।।१५।। अनाम तूं अपरंपारा। श्रीगुरुमूर्ति नागेश्वरा। नागेश हें आडनांव दातारा। एèहवीं अनाम तूं।।१६।। तुज रूप ना रेखा नाम। आम्हीं भक्ति धरूनि ठेविलें नाम। एèहवीं वेदशास्त्रांशीं अगम्य। अगोचर तूं।।१७।। परि भक्तीलागीं आकारलासी। गुरुरूप होऊन तारिसी भक्तांसी। म्हणोनि आज्ञापी परमरहस्यासी। टीका करावया।।१८।। स्फूर्ति उन्मेष देवोनि। स्वयें वाचेची वाचा होऊनि। प्रेमरसें अक्षर घोळूनि। वाचेनें वदवी स्वामिया।।१९।। मी तंव नेणें विवेकप्रबोधु। बोलो नेणें साहित्यसंगीतशब्दु। येथें कृपादृष्टीं पाहोनि प्रबंधु। चालवा स्वामी।।२०।। ऐसें विनवूनि भूमि विन्यासी माथा। तंव कृपा आली श्रीगुरुनाथा। अशीरिणी वदे तत्त्वतां। वर असे तुज पैं।।२१।। तुवां जो भाव प्रकटविला आतां। तोचि वर तुज दिधला तत्त्वतां। प्रेमभावें करी आतांŸ। टीका परमरहस्याचीŸ।।२२।। श्रीगुरुवाक्य ऐकोनि कानींŸ। करकमल जोडिलें दोन्हींŸ। तुमचिया वदानें ग्रंथ पूर्णपणीं। निर्मीन आतां।।२३।। वक्ता येथें विश्वनाथ। श्रोते शिवगण समस्त। यातें स्तवूं जोडोनि हात। सावध व्हावें निरूपणीं।।२४।। आतां श्रोतियां श्रीगणां प्रमथां। विनवूं चरणावरी ठेवूनि माथा। सावध होवोनि निरूपणीं आतां। ऐका टीका परमरहस्याची।।२५।। शिवगणां सावध होईजे ऐसें। बोलिलो मी अज्ञान पिसें। ते सर्वकाळ सावध असे। बोलिलो ते अन्यायें।।२६।। शिवगण कांहीं असती असावधान। म्यां तयासीं म्हणितलें व्हावें सावधान। ते सदा सावध म्हणोन। जगत्रय वर्ततसे।।२७।। तरी अन्याय क्षमा कीजें। पितयासारिखे साहूनि जाईजें। मज अपत्यातें कृपादृष्टीनें पाहिजें। शिवगणी तुम्ही।।२८।। तुम्ही शिवगण प्रमथु। गणंगळ सत्यवादी कृपावंतु। मी तुमचे अनाथु। म्हणोनि सलगीनें बोलिलो।।२९।। तुम्हां अवधान द्या म्हणितलें खोटें। तुमचें अवधान लाहून ईश तुष्टें। ऐसें बोल निपजती ओठें। याचा अभिमान तुम्हां।।३०।। मी परिहार कासया देऊं आतां। तुमचे तुम्ही बोलवा ग्रंथा। टीका करवाल आपुलिया स्वार्र्थां। मज कुंथाकुंथी कायसी।।३१।। ग्रंथ संवाद शिवगौरीचा। निजठेवा तुम्हां शिवगणांचा। यालागीं बोलवाल वाचा। आपुलिया सुखालागीं।।३२।। तुम्ही सुखरूप सदा असा आनंदें। परि जडजीव तरती तुमचिया प्रसादें। यालागीं टीका करवाल स्वानंदें। मज रंकाकडोनि पैं।।३३।। तंव श्रोते शिवगण बोलती। आतां परिहार देसी किती। शिव काय बोलिले पार्वतीप्रति। तें निरोपी आतां।।३४।। बरवे स्वामी म्हणोनि। मस्तक ठेविला चरणीं। पार्वतीस बोधी शूळपाणि। तेंचि निरोपुं आतां।।३५।। आधी पुसेल गुरुमाहात्म्य। मग पुसेल परमरहस्य उत्तम। गौरीनें हृदयीं धरोनिया नेम। श्रवणीं तत्पर झाली।।३६।। त्याच क्रमें हा परम ग्रंथ। आरंभी qककर मन्मथ। श्रवणीं श्रोते वीरशैव समस्त। ग्रीवा आनंदें डोलवितीŸ।।३७।।
कैलासशिखरे रम्ये भक्तिसंधाननायकम्। प्रणम्य पार्वती भक्त्या शंकरं परिपृच्छति।।१।।
कैलासशिखरीं रम्य स्थळीं। भक्तिसाधन धरोनि हिमनगबाळी। प्रणाम करोनि ते वेळीं। पुसे शंकरासीं।।३८।।
देव्युवाच-
भगवन् सर्वधर्मज्ञ ज्ञानविज्ञाननायक। ब्रूहि मे कृपया देव गुरुमाहात्म्यमुत्तमम्।।२।।
सर्व धर्मासी कोण जो धनी। ज्ञान विज्ञान वर्तें जयापासोनि। तो तूं भगवंता कैवल्यदानी। वर्णी महिमा श्रीगुरूचा।।३९।।
शिव उवाच-
यो गुरु: स शिव: प्रोक्तो य: शिव: स गुरु: स्मृत:। भुक्तिमुक्तिप्रदात्रे च तस्मै श्रीगुरवे नम:।।३।।
जो परमात्मा परमेश्वरु। तोचि सदाशिव सर्वां गुरु। तोचि मुक्तीचा उदारु। निजभक्तांसीं।।४०।। तोचि ज्ञान-विज्ञानदायक। तोचि कर्मधर्मासीं सहाय्यक। तोचि तीर्थ-व्रतांसीं नायक। सद्गुरु तोचि जाणिजे।।४१।।
देव्युवाच-
रूपं भुक्तेश्च मुक्तेश्च ज्ञानविज्ञानयोस्तथा। कर्मधर्मस्य वा रूपं कथयस्व समासत:।।४।।
आतां भुक्ति मुक्ति कोण कैसी। ज्ञान विज्ञान म्हणावें कोणासीं। धर्म आणि कर्मनिर्णयासीं। निरोपा म्हणे पार्वती।।४२।।
शिव उवाच-
लौकिकं सुखमात्यंतं भुक्तिरित्यभिधीयतेŸ। निवृत्तिर्घोरसंसारसागरान्मुक्त
शंकर म्हणे वो गिरिजे। आतां प्रश्ननिर्णय ऐक वोजें। ऐकोनि हृदयीं धरिजे। फल पाविजें विश्वासें।।४३।। ऐक भुक्ति जे बोलिजे। अन्न धन संसारसुख जें जें। ते सद्युन् भुक्ति जाणिजे। देतां मी ईश्वरु।।४४।। मुक्ति द्विविधा असती। ऐक त्या सगुणा चाèही मुक्ति। काळाची कांबी होय गाजती। चहूंचिया माथां।।४५।। निर्गुण पांचवी सायुज्यता जाणिजे। तेणें स्वयें परब्रह्म होईजें। देह असतां जातां अखंड असिजें। वस्तुचि आपण।।४६।। तरंग क्षीरसागरीचा। भंगतां न भंगे सागरुचि साचा। तेव देह भंगतां न भंगे ब्रह्मीचा। ब्रह्मपुतळाचि तो।।४७।। स्वयें स्वस्वरूप होणें आपण। नाहीं क्रिया-कर्मबंधन। सोऽहं सिद्धि सदा सावधान। तेंचि मुक्तिपद पार्वती।।४८।। qपडब्रह्मांडीचा जाणोनि झाडा। सत्-चिदानंदाचा निवाडा। करोनि जाणिजें निजतत्त्व पुढा। त्या नांव विज्ञान।।४९।। जाणोनि तेंचि होईजें। झालेपणाचा आठव आटिजे। जाणीव ज्ञानाची मग निमे सहजे। विज्ञान तेंचि जाण।।५०।। धर्म तो कुळीचा जाणिजे। आपले धर्मीं निष्ठत्वें वर्तिजें। अधर्माची शीग निमे सहजे। तोचि धर्म वो देवी।।५१।। कर्म तें क्रिया जाणिजे। आपुली क्रिया निपुण आचरिजे। निष्कामबुद्धि कीजे। तेंचि कर्म शुद्ध पैं।।५२।। ऐसा जो भुक्ति-मुक्ति-ज्ञान-विज्ञानदात
चैतन्यं शाश्वतं शांतं व्योमातीतं निरंजनम्। नादqबदुकलातीतं तस्मै श्रीगुरवे नम:।।६।।
qपड ब्रह्मांड सृष्ट सर्वांगीं। व्यापक चैतन्य अंगसंगीं। जडातें चेतवी चैतन्य रूपांगीं। ऐसा सद्गुरु तो जाणिजे।।५४।। शाश्वत म्हणिजे सदा असत। अक्षयी अजर अमर सदोदित। म्हणोनि नामें शाश्वत। श्रीगुरुपद तें।।५५।। शांत म्हणिजे कांहीं कर्तृत्व नाहीं। षड्विकार षडूर्मि नुठती कांहीं। मनबुद्धि निमे म्हणोनि शांत पाही। सदा सद्गुरुस्वरूप।।५६।। व्योमातीत म्हणिजे आकाशरहित। निरंजन जनवन व्यापूनि अतीत। नादqबदुकळाज्योतिरहित। ऐसिया सद्गुरूसीं नमो नमोŸ।।५७।।
स्थावरं जंगमाधारं निर्मलं स्थिरमेव च। जगद्वंदितपादाय तस्मै श्रीगुरवे नम:।।७।।
पृथ्वी पर्वत वृक्ष स्थावर बोलिजें। चालतेबोलते जंगम म्हणिजें। या समस्तांसीं आधार जे जे। तें गुरुपद बोलिलें।।५८।। जो निर्मल त्रिगुण मलासी। जो स्थिर गंभीर व्यापक सर्वांसीं। त्रिलोक वंदिती ज्या पदांसीं। तया सद्गुरूसीं नमो नमो।।५९।।
स्थावरं निर्मलं शांतं जंगमं स्थिरमेव च। व्याप्तं येन जगत्सर्वं तस्मै श्रीगुरवे नम:।।८।।
स्थावर निर्मल आणि शांत। जंगम स्थिर समस्त। या सर्व जगासीं जो व्याप्त। तया श्रीगुरूसीं नमो नमो।।६०।।
ज्ञानशक्तिसमारूढस्तत्त्वमालावि
जो ज्ञानशक्तीं आरूढ होऊन। लेऊन तत्त्वमालांचें भूषण। जो अज्ञानांधकार छेदितभान। तया श्रीगुरूसीं नमो नमो।।६१।।
अखंडमंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्। तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:।।१०।।
जी वस्तु अखंड मंडळाकार। ती व्यापूनि असे चराचर। तें पद दाखवी जो निरंतर। तया सद्गुरूसीं नमो नमो।।६२।Ÿ।
ब्रह्माविष्णुश्च रुद्रश्च ईश्वरश्च सदाशिव:। एते गर्भगता यस्य तस्मै श्रीगुरवे नम:।।११।।
ब्रह्मा विष्णु आणि ईश्वर। सदाशिवादि सर्व अवतार। सृष्टिकर्ते गण साचार। शिवापासूनि उद्भवले।।६३।। हे सर्व गुरूचे सेवक। म्हणोनि सर्वां ज्ञानदायक। तेहि गुरुकृपेंस्तव देख। गर्र्भां येती श्रीगुरूच्या।।६४।। ऐसा श्रीगुरु समर्थ। ज्याचे गर्भीं विश्वनाथ। सदा राहे आनंदांत। तया गुरूसीं नमो नमो।।६५।।
गुरुदेवो महादेवो गुरुदेव: सदाशिव:। गुरुतत्त्वात्परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नम:।।१२।।
गुरु तोचि महादेव। गुरु तोचि सदाशिव। गुरुपरता नाहीं देव। म्हणोनि श्रीगुरूसीं भजिजें।।६६।। ब्रह्मा विष्णु महेश। हेहि श्रीगुरूचेचि अंश। तेहि ध्याती श्रीगुरूस। यालागीं गुरूसीं नमो नमो।।६७।।
अज्ञानतिमिरांधस्य ज्ञानांजनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:।।१३।।
अज्ञान त्रिगुण अंधकार। ज्ञानांजन लावून केला दूर। ज्ञानचक्षु प्रकाशिला निरंतर। तया श्रीगुरूसीं नमो नमो।।६८।।
भवारण्यप्रविष्टस्य मोहदिग्भ्रान्तचेतस:। येन मे दर्शित: पंथास्तस्मै श्रीगुरवे नम:।।१४।।
संसाररूपी अरण्यवनीं। अहंभ्रांqत भुलतां दिशा भुलोनि। तेथें काम-क्रोध qसह-व्याघ्र वेढूनि। ग्रासूं आरंभिले।।६९।। तेथें भेटले अदृष्ट कृपादानी। ज्याने दुष्ट श्वापदें टाकिली छेदूनि। सुपंथीं लाविले शुद्ध बोधूनि। तया श्रीगुरूसीं नमो नमो।।७०।।
अनेकजन्मसंप्राप्तकर्मेन्धनविदा
अनंत जन्म प्राप्त कां म्हणसी। कर्मधर्महीन वर्ततां जनांसीं। दु:ख भोगणें प्राप्त तयासीं। म्हणोनि होती जन्मफेरे।।७१।। यालागीं सद्गुरूसीं शरण जातां। उपदेशी तो शिवबोध तत्त्वतां। अष्टावरणाची महत्ता। क्रियेसहित सांगे तो।।७२।। गुर्वाज्ञेनें स्वधर्मीं वर्ततां। ज्ञानानळें कर्मकाष्ठां समस्तां। उभेचि दग्ध करी तत्त्वतां। तया श्रीगुरूसीं नमो नमो।।७३।।
नमामि श्रीगुरुं शांतं प्रत्यक्षशिवरूपिणम्। शिरसा योगपीठस्थं शीघ्रं मोक्षप्रदायकम्।।१६।।
जो श्रीगुरु परमशांत। ब्रह्मरंध्रीं योगपीठीं विराजित। जो कां प्रत्यक्ष उमानाथ। मोक्षदायक भक्तांसीं।।७४।। हालवूनि नवचक्रमेळा। दाखवी महामायेच्या खेळा। दासां उद्धरी अवलीला। तया श्रीगुरूसीं नमूं।।७५।।
देव्युवाच-
केन मार्गेण भो स्वामिन् जीवो ब्रह्ममयो भवेत्। कथमज्ञाननिवृत्तिस्तत्सर्वं कथयस्व मे।।१७।।
पार्वती म्हणे जगदीश्वरा। जे प्राणी देहधारी अवधारा। ब्रह्म केqव होती चरेश्वरा। तें गुह्य सांगा मज।।७६।। जेणें प्राप्त होय शिवयोग। जेणें समरसे qलगीं अंग। ऐसें गूढ तत्त्व अव्यंग। निरोपा मजलागीं।।७७।।
शिव उवाच-
यस्य देवे पराभक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ। तस्यैते कथिता: ह्यर्था: प्रकाशन्ते महात्मन:।।१८।।
ईश्वर म्हणे वो पार्वतीŸ। गुरु तोचि देव जाणतीŸ। सद्भावें सदा अर्चितीŸ। ते जाणती निजतत्त्वांŸ।।७८।।
प्रात: शिरसि शुक्लाब्जे द्विनेत्रं द्विभुजं गुरुम्। वराभयकरं शांतं स्मरेत्तन्नामपूर्वकम्।।१९।।
प्रात:काळीं उठोन। आसनीं बैसावें सावचित्त होऊन। मग भावें करावें ध्यान। श्रीगुरूचें।।७९।। जे कां शुभ्र सहस्रदळ कमळ। त्याची जी कलिका शुद्ध निर्मळ। तया ठायीं अविकळ। ध्यान करावें प्रेमभरें।।८०।। आणिक सांगतो तुज एक। जो द्विभुज द्विनेत्र देख। वर द्यावया आवश्यक। एकमुख शोभतसे।।८१।। जरी अनेक वदनें असती। तरी वर न पावे निश्चिती। म्हणोनिया आत्ममूर्ति। जगामाजीं प्रवर्तली।।८२।। गुरुपादोदकेंकरून। नित्य देहाचें होय क्षालन। तरी जन्मांतरीचीं पापें जळून। दिव्य शरीर होय पैंŸ।।८३।।
प्रसन्नवदनाक्षं च सर्वदेवस्वरूपिणम्। तत्पादोदकधाराश्च निपतन्ति स्वमूर्धनि।।२०।।
श्रीगुरुमूर्ति शांत सगुण। अद्वितीय प्रसन्नवदन। सर्वदेवस्वरूप म्हणोन। पूर्ण ब्रह्मरूप तोŸ।।८४।। गुरुपादोदकाची धार। पडतसे स्वमस्तकीं वारंवार। ऐसी भावना सत्वर। करावी शिष्यवर्यें।।८५।। तया अमृतधारेंकरूनŸ। होय गुरुबीजाक्षराचें संजीवनŸ। नित्य नवे बोधांकुर जाणŸ। प्रगट होय अंतरींŸ।।८६।।
तीर्थानि दक्षिणे पादे वेदास्तन्मुखमाश्रिता:। पूजयेदर्चिततनुं तदभिधानपूर्वकम्।।२१।।
तयाचे दक्षिण चरणीं। वसती सर्व तीर्र्थेंे जावोनि। वेदमुखाचा आश्रय करोनि। राहे तेथेंचि आनंदें।।८७।। ऐसिया सद्गुरुनाथाचें। भावें पूजन करावें साचे। नाम स्मरतां जन्माचें। सार्थक होय तत्त्वतां।।८८।।
काशीक्षेत्रनिवासोऽसौ जान्हवीचरणोदकम्। गुरुर्विश्वेश्वर: साक्षात् तारकं ब्रह्म निश्चितम्।।२२।।
भूकैलास वाराणसी। पुरी विराजित काशी। सप्तपुरीयांत अविनाशी। महातीर्थ वंद्य जें।।८९।। तेथें असे विश्वेश्वर। तैसाच मानिला गुरु साचार। उभय चरण स्पर्शी नीर। तेंच तीर्थ मानिलेंसे।।९०।। गुरुचरणीचें जें तीर्थ। जान्हवी सारिखेचि निश्चित। त्यावेगळा भावार्थ। करूं नये गुरुभक्तें।।९१।। ज्या ज्या तीर्थीं आहे पाणी। तीं तीं शिवाची पायधुणी। परि तेंचि उत्तम म्हणोनि। अभिषेकिती देवातें।।९२।। तैसेंचि गुरुचरणींचें उदक। परमपवित्र पावन देख। त्याचा करिता अभिषेक। संतोषित गौरी मी।।९३।। आतां सांगणें निश्चित एक। भावें जाणिल्या तीर्थ तारक। तैसें नोव्हे गुरुपादोदक। साक्षात् ब्रह्मदायक असे।।९४।। येथें संपवूनि गुरुमहिमा। पुढें रहस्या वदवी परमात्मा। तया श्रोतियां प्रत्यगात्मा। होवोनिया तुष्टवी।।९५।। जो असेल साच वीर। तया हा ग्रंथ भवपार। करोनि देईल मुक्ति थोर। सायुज्य ती निर्वाण।।९६।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। उमामहेश्वरसंवादीं वर्तत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृत्य मन्मथ।।९७।।
। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे श्रीगुरुमाहात्म्यवर्णनं नाम प्रथमोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक २२, ओव्या ९७.
Excellent! Jay Sadguru!Jay Shiv Shambho!
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