![]() |
संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी |
संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित
परमरहस्य
अध्याय सातवा
।। श्रीगुरुवे नम:।।
सहावे अध्यायीं संपूर्ण। कथिलें षड्चक्र ज्ञान। पंचाक्षर षडक्षर महिमान।
अत्युत्तम वर्णिलें।।१।। षड् लिंगाचे भेद सहा। दाखविले कृपें पाहा।
त्यामाजीं चित्हृदगुहां। प्रवेशले स्वभावें।।२।। तेणें वस्तूची लागली गोडी।
न उठे दृष्टी झाली वेडी। परात्परां पाहातां थोकडी। बुद्धि वैखरी
निमग्न।।३।।
देव्युवाच-
किंवा वस्तु कथं जातं ग्राह्यं वा केन तत्पुन:।
कलास्थानं तथा रूपं ब्रूहि मे परमेश्वर।।१।।
वस्तु म्हणजे कोण कैसी। कवणें परी जाणावें तियेसीं। कैसी कळा स्थान
सकळांसीं। तें निरोपावें स्वामी।।४।। जी कळा अगम्य सकळां। ती मज निरोपावी
दयाळा। म्हणोनि ती हिमनगबाळा। चरणीं लागली सांबाच्या।।५।।
शिव उवाच-
वस्तुत्वगम्यमव्यक्तं निर्गुणं निश्चलं तथा।
अगम्यं वेदशास्त्रैश्च तत् कलापि च पार्वति।।२।।
शंकर म्हणे वो गिरिजे ऐक। तुवां प्रश्न केला सुखदायक। माझें उल्हासलें
निजसुख। तुझ्या प्रश्नेंकरोनिया।।६।। कोण्ही म्हणती प्रश्नें सुख
उल्हासलें। पहिलें काय होतें तें मुरालें। यया बोलां अखंडत्व खंडलें। तया
चित्-सुखाचें।।७।। तरी यास दृष्टान्त देईन। जैसा कुंडामाजीं असे अग्न।
घृतधारा पडतां तो हुताशन। दैदिप्यमान होय पैं।।८।। जरी कुंडामाजीं अग्नि
नसे। तरी घृतें रक्षा काय प्रकाशे। असे म्हणोनिचि प्रकाशतसे।
घृतधारेसरिसा।।९।। तैसें पार्वती-प्रश्नाचेनि मिषें। उल्हासलें वस्तुज्ञान
प्रकाशें। तया वस्तुकळेस उल्हासें। निरोपितां झाला।।१०।। शंकर म्हणे
पार्वतीस। तुवां वस्तु पुसिली व्यापक सर्वांस। परि ते सद्गुरूवांचोनि
कोणास। न कळेचि सर्वथा।।११।। अग्निचक्राचे पैलतीरीं। मसूरप्राय
छिद्राभीतरीं। विलोकितां अमरपुरी। दृष्टिगोचर होतसे।।१२।। तेंचि पाहतां
पाहतां जाण। अचल भासे वस्तु निर्गुण। सांगता नये गूढ मौन। गुरुकृपें
ओळखावें।।१३।। ती वस्तुकळा अगम्य अगोचर। ती व्यक्तातीत अव्यक्त अपार। ती
निरवयव निराकार। वस्तु पुसिली त्वां।।१४।। ती वस्तु निरामय निर्गुण। अढळ
ढळेना निश्चळ जाण। अनंत कोटी निमाले भान। जया वस्तुप्रकाशीं।।१५।। जेथें
वेदशास्त्रांसीं पडें मौन। जें ज्ञानातीत विज्ञान। तें अनिर्वाच्य न वदवें
वाचेकडून। नये जपतपधारणेसीं।।१६।। वस्तु देहामाजीं अमरत्वें असत। परि देहीं
असूनि देहासीं अतीत। गुरुकृपें प्रगटलिया निभ्रांत। देहबुद्धि नाशीत।।१७।।
जैसा अग्नि काष्ठीं असतां। परि तो काष्ठांसीं न दाही तत्त्वतां। अरणीमिषें
प्रगटलिया नासिता। होय सगळीया काष्ठांते।।१८।। तेवि गुरुकृपा-अरणीसंबंधें।
वस्तुकळा प्रगटे स्वानंदें। मग देहबुद्धि नासे स्वच्छंदें। क्षणामाजीं
तत्त्वतां।।१९।।
यथाऽग्नौ दाहकत्वं च यथा क्षीरे घृतं स्थितम्।
यथा तिले स्थितं तैलं सर्वस्थाने तथा कला।।३।।
म्हणोनि काष्ठीं जेवि अग्नि असे। कीं घृत क्षीरामाजीं वसें। तेवि वस्तु
सर्व देहीं दिसे। ज्ञानियांसीं।।२०।। जेवि तिळांमाजीं तैल। कीं पुष्पीं
असें परिमळ। तेवि वस्तुकळा सकळ। व्याप्त असे साकारीं।।२१।। आकार तो भ्रम
भासत। पाहतां निराकारचि असत। जरी थिजोनि घृत आकारत। तरी घृतपणा मुकेल
काय।।२२।। तैसी वस्तु वस्तुपणेंचि असे। आकार तो भ्रमबुद्धि भासे। जैसें
निद्रेचेनि सौरसें। काय एक न देखिजें।।२३।। परि तें जागृतीसरिसें।
स्वप्नीचा सर्वहि आभास नासे। तेवि आकार जो जो दिसे। तो नासे वस्तु
प्रकटलिया।।२४।। ती वस्तुकळा प्रकटे कैसी। म्हणसी तरी ऐक त्या विवेकासी।
एका ज्ञानियावांचोन कोणासीं। न कळेचि वस्तु ती।।२५।। तूं म्हणसी बाळियां
भोळियांसीं। ज्ञान कैसें होय त्या अबलांसीं। तोहि उपाय निरोपिन तुजसी।
अभ्यासयोगें।।२६।। अष्ट प्रहरांमाजीं एक निमिष। एकनिष्ठें भजिजें धरूनि
विश्वास। मग निमिषोनिमिषीं प्रकाश। लाहिजे अभ्यासें।।२७।। जें निमिषें
निमिषें भजनसुख घडें। तितुकेचि भवदु:ख विघडें। इकडे भजन जितुकें चढें।
तितुकें झडें पापहि।।२८।। भानु निमिषें निमिषें पैं चढे। तैसा तैसा प्रकाश
मांडे। मांडतां मांडतां माध्यान्हीयाकडे। पाहो शके कोण तो।।२९।। तेवि भजन
नित्य नित्य चढतां। शिवत्वाच्या माध्यान्हीं येत तत्त्वतां। मग त्याकडे
सर्वथा। कळिकाळ पाहूं न शके।।३०।। निमिषोनिमिषीं भजतां। तो सुख चढतसें
चित्तां। मग चित्त चैतन्य तत्त्वतां। होवोनि ठाकें।।३१।। नदी चढतां तरी
दिसत नाहीं। परि चढतां भेदी दरडिया पाही। आच्छादूनि कांहीं ना बाही। पाणी
चालें अमाप।।३२।। तेवि निमिषें भजन दिसें थोडें। परि संतोषें चढतां होय
गाढें। तेणें भजनें परमात्मा आंतुडे। मा ज्ञान बापुडें न यें केवि।।३३।।
तरी एक निमिष लक्ष लावोन। एकचित्तें केलिया स्मरण। तितुकियानेंच होय पावन।
ऐसें न घडेचि कां।।३४।। जैसें कीजें नामस्मरण। तैसी येई अंगीं शांति पूर्ण।
शांतियोगें अक्षय ज्ञान। येई हातां क्रमानें।।३५।। भाव ठेवोनिया पूर्ण।
जें जें कीजें नामस्मरण। तें तें कीजें गुरूसीं अर्पण। निष्कामबुद्धि।।३६।।
येणेंपरी भजनभक्ति करितां। सहज वस्तुकळा ये हातां। मग स्वयें होय
वस्तुतां। परि भजन न सोडिजें।।३७।। भजन करोनिया काय। जरी जीवां दु:ख देणें
होय। तरी तें भजनचि न होय। विषम पडे म्हणोनि।।३८।। इकडे माझी पूजा करोनि
बरवेपरीं। तिकडे जीवाची हिंसा करी। तरी त्याची पूजा कैसी घेऊ अवधारी। मुखीं
घांस माथीं डांग।।३९।। म्हणोनि सर्व जीवीं निर्वैर व्हावें। सर्व जीवीं
वस्तूसीं देखावें। कायावाचां सुख द्यावें। सर्व जीवांसीं।।४०।। सर्वत्र
व्यापक वस्तूची कळा। सर्व जीवां वस्तूचा जिव्हाळा। काष्ठीं अग्नीची ज्वाला।
गुप्त जैसी।।४१।। तैसी वस्तूची कळा जाण। सर्व देहीं असे व्यापून। क्षीरीं
घृत कीं तिळीं तैल भरोन। सर्वांगीं असे।।४२।। तैसी वस्तु सर्वत्र असे। ऐसें
जाणोनि भजे विश्वासें। मग वस्तुच होईजें अपैसें। भक्तिमार्गें वो
देवी।।४३।। म्हणोनि भक्तिमार्गीं वर्ततां। वस्तु सहजचि ये हातां। मग
स्वयेंचि होय वस्तुतां। श्रीगुरुकृपेनें।।४४।। ती वस्तु सर्वत्र व्यापक
असे। सर्व देहीं तिची कळा वसे। तुज सूक्ष्मत्वे सांगतसे। व्यापक वस्तु
ती।।४५।।
ज्वालाकालानलाभासा तडित्कांचनसुप्रभा।
तत्कोटिभास्वरा दिव्या चिद्रूपा परमा कला।।४।।
जैसी अग्निज्वाला सूक्ष्म असे। प्रकाशरूपें लखलखीत दिसे। तैसी वस्तुकळा
सर्वत्र वसे। चिद्रूपाकार।।४६।। ती वस्तुकळा सर्व ज्ञानरूप। होवोनि असें
सूक्ष्मत्वें अमूप। परि श्रीगुरूविण निजस्वरूप। न भासें कोणांसीं।।४७।। न
भासें म्हणो तरी काय एकांग दिसें। एकांग न भासें तरी काय नसें। ऐसें
विषमत्व काई असें। वस्तूसीं त्या।।४८।। वस्तु तरी सबराभरीत।
आपादशिखापर्यंत। भरिली असे सदोदित। भरिलेपणेविणें।।४९।। भरिले म्हणो तरी
रिते होते काये। तरी भरलेपण म्हणो लाहे। पाहतां रिते भरिले आहे। वस्तूसीं
काय।।५०।। म्हणोनि ते भरीवचि आहे सर्वांगें। परि भरिला ऐसें जें बोलिलो
मागें। तें बोलावेचि लागे निरूपणांगें। बोधावया नि:संशय।।५१।।
वाचातीतमनोतीतं वर्णातीतं च तत्पदम् ।
ज्ञानातीतं निरंजन्यं कलासौक्ष्म्यं तु भावयेत्।।५।।
जी सर्वत्र जाणती कळा। तीचि ही साजे अत्यंत सूक्ष्म कळा। तीमाजीं निमग्न
सकळा। वाचादिकां सर्वहि।।५२।। परा पश्यंति मध्यमा वैखरी। वाचा निमाल्या
जेथे चाऱ्ही। आतां विचारावें कवणें अक्षरीं। विचारी पां।।५३।। जेथ पन्नास
अक्षरां पुसिली लीप। मा कैंचा तेथ वेदस्वरूप। श्रुतिस्मृतिहि माप। करूं
सरली।।५४।। मा शास्त्र आणि पुराणांतें। कोण पुसे हो तेथें। वाचावें
सांगावें ज्या मनादिकाचे हातें। तें मनचि निमालें।।५५।। आतां वर्ण
व्यक्तीचा लकारु। केवि साजे हा भेदविकारु। तें तत्पद निर्विकारु। ज्ञानासीं
अतीत।।५६।। अज्ञानछेद करी। म्हणोनि कीं ज्ञानाची थोरी। जेथ अज्ञानचि नाहीं
मा ज्ञान कोणेपरी। मिरवूं शके तें।।५७।। सूर्यासीं अंधार मुळीचि नाहीं। मा
सायास करावें कांहीं। अंधकार दूर करावा ठायीं। ठायावरूनि।।५८।। तेवि
वस्तूचे ठायीं काय अज्ञान आहे। मा तेथें ज्ञान मिरवूं लाहे। म्हणोनि
निरंजनकळा पाहे। ज्ञानासीं अतीत ते।।५९।। जी अत्यंत सूक्ष्म कळा जाण।
तीमाजीं गेले सर्व निमोन। ऐसी वस्तुकळा लिंगाची विवेचून। निरोपिली तुज
देवी।।६०।।
एषा वस्तुकला देवि सद्गुरु: शिष्यमस्तके।
हस्ताभिमर्षणं कृत्वा बोधयेत्तत्त्वरूपत:।।६।।
ऐसी सूक्ष्म वस्तूची कळा जाण। गुरु उपदेशिती मस्तकीं हस्त ठेवोन। जैसा
हस्त तैसी कळा उत्पन्न। होय शिष्यां चैतन्य।।६१।। जैसी अंधकारीं लागली
ज्योति। तैसीच होय देहस्थिति। अज्ञान जाऊनि मागुति। ज्ञानबुद्धि उपजत
असे।।६२।। ज्या गुरूची जैसी उपदेशकळा। शिष्यां तैसीच ये भावलीला। जैसें बीज
तैसें येतसें फळां। वृक्ष जेवि।।६३।। घरोघरीं गुरु म्हणविती। शिष्यां
स्वार्थें उपदेशिती। परि वस्तुकळा जे बोधिती। ते सद्गुरु जाणावें।।६४।।
यथा कला तथा भावो यथा भावस्तथा मन:।
यथा मनस्तथा दृष्टिर्यथा दृष्टिस्तथा लय:।।७।।
म्हणोनि जैसा उपदेशी गुरु भेटे। तैसीच ती कळा प्रगटे। जैसी कळा तैसा भाव
उमटे। शिष्यचैतन्यीं।।६५।। जैसा भाव तैसेंचि होय मन। जैसें मन तैसी दृष्टी
होय जाण। तैसीच लयगत राहे होऊन। स्मरणीं भजनीं।।६६।। एवं भाव मन दृष्टी
तिन्ही। एकमतें वर्तती म्हणोनि। लय लागे निश्चयेकरूनि। शुद्धकर्मीं
जीवांसीं।।६७।। जैसें भजन तैसें फळ घेईजें। जैसें फळ तैसे भोग भोगिजें।
जैसा भोग तैसें पाविजें। सुख अथवा दु:ख।।६८।। या सर्वांसीं मूळ कारण।
श्रीगुरुचि असे जाण। आपला कुलधर्म जाणोन। सद्गुरु कीजें स्वधर्मीचा।।६९।।
गुरु अनेक कळेचे असती। तरी त्यांसीं गुरुचि म्हणती। परि जे ज्ञानकळा जाणती।
तेंचि सद्गुरु जाणावे।।७०।।
कर्णे वाक्यं करे लिंगं दत्वा संबोधयेद्गुरु:।
इष्टप्राणस्तथा भावलिंगानामैक्यतत्त्वत:।।८।।
सत्शिष्याचिया कर्णद्वारीं उपदेशिती। महावाक्यबीज निश्चिती। मग हस्तकीं
लिंग देती। कृपाळुत्वें श्रीगुरु।।७१।। श्रीगुरु इष्टलिंग देऊनि पाहे। काय
बोलती शिष्यां स्वहित लाहे। हा इष्ट आणि प्राणलिंग पाहे। भावलिंग तिसरा
तो।।७२।। या तिही लिंगां ऐक्यभावें । याच्या ठायीं गुरुत्वेंचि भजावें। भेद
सांडोनि राहावें । गुरुवचनीं निष्ठा धरोनि।।७३।।
देव्युवाच-
लिंगभक्तिरितिख्याता गुरुहस्तसमुद्भवा।
कथं प्राणेन संमिश्रा कथयस्व ममानघ।।९।।
गुरूच्या हस्तकीं लिंगभक्ति। उत्पन्नली तिची निरोपा ख्याती। तेथें कैसे मिश्रित असती। देह प्राण आणि लिंग।।७४।।
शिव उवाच-
वपुर्यदा समुत्पन्ना तदा प्राणेषु मिश्रिता।
गुरुकरजातलिंगं तु शिष्यप्राणेषु मिश्रितम्।।१०।।
प्राण देहसंयोगें उत्पन्नला। तो प्राण देहसंयोगें मिश्रित झाला। त्या
देहीं संयोग घडला। इष्टलिंगाचा।।७५।। जो गुरुहस्तकीं लिंग जन्मला। त्यासीं
देहसंयोगें प्राण मिश्रित केला। तोचि भक्तिसंयोग झाला। जाणिजें वो
पार्वती।।७६।।
तत्प्राणो लिंगदेहश्च जातो गुरुकरेऽप्यथ।
ज्ञात्वैक्यमेत यो: सम्यक् भजते ज्ञानवान् पुमान्।।११।।
प्राणलिंग गुरुहस्तकीं जो जन्मला। त्यासीं ऐक्य जो लिंगदेही बोलिजे
त्याला। यापरि लिंगभक्ति लाधला। तोचि ज्ञानी पुरुष।।७७।। त्या पुरुषानें
षडलिंगीं भावें। ऐक्यत्वें पूजन करावें। मिश्रित होवोनि भजे स्वभावें। तो
गुरुकरजात बोलिजें।।७८।।
आचारं गुरुलिंगं च जंगमं च प्रसादकम्।
महालिंगं तु विज्ञेयं षडविधं स्थलभेदत:।।१२।।
तें षडलिंग म्हणसी कोण कोण। आचारलिंग गुरुलिंग जाण। शिवलिंग जंगमलिंग
ओळखण। चतुर्थाचि बोलिजें।।७९।। प्रसादलिंग प्राणलिंग नेमून। हीं महालिंगें
बरवी जाणून। जो मिश्रभावें करी पूजन। तोचि भक्त जंगम तोचि।।८०।।
मिश्रभावसमायुक्तं पूजागुह्यं तु तत्त्वत:।
अज्ञात्वा कुरुते यस्तु पूजा तस्य च निष्फला।।१३।।
जो हा मिश्रपूजनाचा प्रकार। अति रहस्यमय साचार। जाणोनि करिजे पूर्ण आचार।
गुरुमुखेंकरोनि।।८१।। जो न जाणताचि पूजा करी। त्याची व्यर्थ जाय पूजापत्री।
त्याचा प्रसाद तोहि अवधारी। निष्फळ होय।।८२।। जो आचारसंपन्न शिवगण। तो
वीरशैव शिवयोगी पूर्ण। तोचि जाणतो या मार्गाची खूण। येरां न कळे वो
देवी।।८३।। जो करी प्राण लिंगीं मिश्रित। तिन्ही मिश्रित करोनि वर्तत। तोचि
जाणिजे शिवभक्त। सत्य सत्य पार्वती।।८४।।
देव्युवाच-
भगवन् तापसश्रेष्ठ तपोमार्गं निरूपय।
येन पाशनिवृत्तिस्याद्वीरशैवाध्वर्तिनाम्।।१४।।
देवी म्हणे देवाधिदेवा। तपश्चर्येचा मार्ग दाखवा। ज्या नियमें उद्धार व्हावा। पशुजीवांचा।।८५।।
शिव उवाच-
त्रिदीक्षासंयुतो मत्र्य: शांतिदांतिसमन्वित:।
गृहं त्यक्त्वा वनं गच्छेत्तपस्तप्तुमथारभेत्।।१५।।
श्रीशंकर हास्यवदनेंकरून। सांगूं लागले तपोविज्ञान। पार्वती तें सावधान
श्रवण। चित्त देऊनि करीतसे।।८६।। तपश्चर्या योग कठीण। न साधे संसारीं
राहून। त्याकारणें सेवावें वन। योगसिद्धि होय मग।।८७।। तपश्चर्येकारणें
प्राणी। असावे सावधान अंत:करणीं। घ्यावया लिंगपूजेची आवरणी। दीक्षेप्रति
साधिती।।८८।। त्या दीक्षा त्रिविधा असती। क्रिया मांत्री वेधा निगुती।
गुरुकृपें सहजस्थिति। प्राप्त होती कुलक्रमें।।८९।। शिवदीक्षा झाल्याविण।
जो मूढ करी शिवपूजन। तो पामर जीव म्हणून। देव पूजन न घेती त्याचें।।९०।।
दीक्षावंत भक्त पवित्र। सदा मुखीं जपे शिवमंत्र। तो असे स्वतंत्र।
शिवानुष्ठानाकारणें।।९१।। तेणें आसन ध्यान भस्मधारण। गळां शोभें
रुद्राक्षाभरण। सदा शुचि वस्त्रपरिधान। करावा जप महामंत्रें।।९२।।
मंत्रजपालागीं जाण। तपनीं घाली आसन। नित्यनेम झालियाविण। स्थान चालन न
करावें।।९३।। उत्तम आसनीं बैसून। करावें मन तें उन्मन। चित्त चैतन्यां
व्यापून। ज्ञानमुद्रा साधावी।।९४।। तेणें होय ज्ञानदृष्टी। सम पाहावी सर्व
सृष्टी। तेणें कर्म सुटें उठाउठीं। जन्मलिया वेळीचें।।९५।। निष्कर्म जीव
होता जाण। न करी कोणासीं संभाषण। शत्रु मित्र जया समान। उदारशीळ
तापसी।।९६।। जयाचे वैखरीं शिव शिव। हृदयीं मुराला अहंभाव। सवेचि विज्ञान
संभव। आकळून राहतसे।।९७।। कर्तुमाकर्तुमन्यथा कर्तुमाची शक्ति। प्राप्त होय
सहजगति। तया सत्य देव मानिती। पूर्ण वस्तु म्हणोनिया।।९८।। हा माझा राजयोग
उत्तम। मानावा शिवप्राप्तीचा क्रम। सांगितला तुज पूर्ण नेम। आचरावा सत्य
पैं।।९९।। दुसरा मार्ग असे भजन। निर्भयपणें आनंदून। करीत असावें रात्रंदिन।
दुजी चिंता नसावी।।१००।। अबला जनां हें सुलभ। गर्वरहित होवोनि गर्जवी नभ।
तनुमनधनें करितां दुर्लभ। सिद्धि प्राप्त होती त्यां।।१०१।। स्वधर्मीं
ठेवितां विश्वास। पुण्य घडें तया विशेष। मोक्षप्राप्ती अविनाश। होईल पां
वरानने।।१०२।। येणेंपरी संचलें संचित। तें वाचें उच्चारूं नये निभ्रांत।
अर्पण करावें हें उचित। शिवालागीं सत्वर।।१०३।। हा महिमा परम अद्भुत।
लिंगधारी आचरती व्रत। तपयोग त्यासींच घडत। जंगमभक्तीकारणें।।१०४।। स्त्रिया
लिंगपूजा करिती। त्यासीं नसे हो अधोगति। दीक्षावंत सती पवित्र असती।
लिंगाईत धर्मनिष्ठ।।१०५।। ऐसें हें रहस्य सुंदर। अपर्णेसीं बोधी श्रीशंकर।
पुढें करील प्रश्नोत्तर। श्रोते सावधान परिसावें।।१०६।। इति
श्रीपरमरहस्यसारामृत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृतार्थ मन्मथ।
सप्तमोऽध्याय संपूर्ण हा।।१०७।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे वस्तुकलानिरूपणं नाम सप्तमोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक १५, ओव्या १०७.
देवी म्हणे देवाधिदेवा। तपश्चर्येचा मार्ग दाखवा। ज्या नियमें उद्धार व्हावा। पशुजीवांचा।।८५।।
शिव उवाच-
त्रिदीक्षासंयुतो मत्र्य: शांतिदांतिसमन्वित:।
गृहं त्यक्त्वा वनं गच्छेत्तपस्तप्तुमथारभेत्।।१५।।
श्रीशंकर हास्यवदनेंकरून। सांगूं लागले तपोविज्ञान। पार्वती तें सावधान श्रवण। चित्त देऊनि करीतसे।।८६।। तपश्चर्या योग कठीण। न साधे संसारीं राहून। त्याकारणें सेवावें वन। योगसिद्धि होय मग।।८७।। तपश्चर्येकारणें प्राणी। असावे सावधान अंत:करणीं। घ्यावया लिंगपूजेची आवरणी। दीक्षेप्रति साधिती।।८८।। त्या दीक्षा त्रिविधा असती। क्रिया मांत्री वेधा निगुती। गुरुकृपें सहजस्थिति। प्राप्त होती कुलक्रमें।।८९।। शिवदीक्षा झाल्याविण। जो मूढ करी शिवपूजन। तो पामर जीव म्हणून। देव पूजन न घेती त्याचें।।९०।। दीक्षावंत भक्त पवित्र। सदा मुखीं जपे शिवमंत्र। तो असे स्वतंत्र। शिवानुष्ठानाकारणें।।९१।। तेणें आसन ध्यान भस्मधारण। गळां शोभें रुद्राक्षाभरण। सदा शुचि वस्त्रपरिधान। करावा जप महामंत्रें।।९२।। मंत्रजपालागीं जाण। तपनीं घाली आसन। नित्यनेम झालियाविण। स्थान चालन न करावें।।९३।। उत्तम आसनीं बैसून। करावें मन तें उन्मन। चित्त चैतन्यां व्यापून। ज्ञानमुद्रा साधावी।।९४।। तेणें होय ज्ञानदृष्टी। सम पाहावी सर्व सृष्टी। तेणें कर्म सुटें उठाउठीं। जन्मलिया वेळीचें।।९५।। निष्कर्म जीव होता जाण। न करी कोणासीं संभाषण। शत्रु मित्र जया समान। उदारशीळ तापसी।।९६।। जयाचे वैखरीं शिव शिव। हृदयीं मुराला अहंभाव। सवेचि विज्ञान संभव। आकळून राहतसे।।९७।। कर्तुमाकर्तुमन्यथा कर्तुमाची शक्ति। प्राप्त होय सहजगति। तया सत्य देव मानिती। पूर्ण वस्तु म्हणोनिया।।९८।। हा माझा राजयोग उत्तम। मानावा शिवप्राप्तीचा क्रम। सांगितला तुज पूर्ण नेम। आचरावा सत्य पैं।।९९।। दुसरा मार्ग असे भजन। निर्भयपणें आनंदून। करीत असावें रात्रंदिन। दुजी चिंता नसावी।।१००।। अबला जनां हें सुलभ। गर्वरहित होवोनि गर्जवी नभ। तनुमनधनें करितां दुर्लभ। सिद्धि प्राप्त होती त्यां।।१०१।। स्वधर्मीं ठेवितां विश्वास। पुण्य घडें तया विशेष। मोक्षप्राप्ती अविनाश। होईल पां वरानने।।१०२।। येणेंपरी संचलें संचित। तें वाचें उच्चारूं नये निभ्रांत। अर्पण करावें हें उचित। शिवालागीं सत्वर।।१०३।। हा महिमा परम अद्भुत। लिंगधारी आचरती व्रत। तपयोग त्यासींच घडत। जंगमभक्तीकारणें।।१०४।। स्त्रिया लिंगपूजा करिती। त्यासीं नसे हो अधोगति। दीक्षावंत सती पवित्र असती। लिंगाईत धर्मनिष्ठ।।१०५।। ऐसें हें रहस्य सुंदर। अपर्णेसीं बोधी श्रीशंकर। पुढें करील प्रश्नोत्तर। श्रोते सावधान परिसावें।।१०६।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृतार्थ मन्मथ। सप्तमोऽध्याय संपूर्ण हा।।१०७।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे वस्तुकलानिरूपणं नाम सप्तमोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक १५, ओव्या १०७.
No comments:
Post a Comment