संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी |
परमरहस्य
अध्याय नववा
।। श्रीगणाधिपाय नम: ।।
अष्टम अध्यायाचे अंतीं। निरूपिली तपश्चर्येची स्थिति। संतोषोनि गिरिजा शिवाप्रति। काय पुसे ते ऐका।।१।।
देव्युवाच-
के भेदा भक्तिमार्गस्य गुणा: के तस्य वै शुभा:।
तद्रूपं न हि जानामि कथयस्व महेश्वर।।१।।
पार्वती म्हणे देवोत्तमा। ज्या भक्तीची सांगता एवढी महिमा। त्या भक्तस्थळाची भेदगरिमा। निरोपा स्वामी।।२।। ज्या भक्तीचिया सामुग्री आतुडा तुम्ही। म्हणतसा भक्ताचे घरीं अंगें राबे मी। त्या भक्ताचे गुणभेद स्वामी। निरोपावें मजलागीं।।३।।
शिव उवाच-
सदाचार: शिवेभक्तिर्लिंगजंगमएकधी:।
लांछने लीनभावश्च भक्तस्थलमुदीरितम्।।२।।
शिव म्हणे वो पार्वती। भक्तस्थळ निरोपुं तुजप्रति। जें ऐकतां पावन त्रिजगती। चराचर होय।।४।। महापापाच्या झाल्या असतां राशी। जें ऐकतांच जाती क्षयासी। ऐसें भक्तस्थळ तुजपासीं। निरोपीन वो देवी।।५।। सदाचारें शिवभक्तीनें वर्तिजें। गुरुलिंगजंगम ऐक्यभावें मानिजे। परि आधी गुरु कीजें। दीक्षा घेईजें सद्भावें।।६।। सद्भावें विश्वास गुरुचरणीं। तोचि भाव लिंगपूजनीं। जंगमहि तेचि भावी मनीं। तोचि उत्तम भक्त जाणिजें।।७।। जेथें देखे गुरुलांछन। तेथ सद्भावें करी शरण। निरभिमानी होऊन। करी भक्ति।।८।। एकभावें धरी प्रेम। वंदी सदा गुरु लिंग जंगम। त्यासीं तीर्थप्रसादाचा नेम। नित्याचारें वर्ते तो।।९।। जंगम देखूनि भावें वंदावें। माझें तुझें बगीचें न म्हणावें। रूप देखोनि शरण जावें। हें गुरुभक्तिलक्षण।।१०।। जंगमाचे गुण अवगुण। न उच्चारावे आपण। तो कैसा तरी असो परि वंदन। भावें कीजें।।११।। जंगमाचे पूर्वज न विचारिजें। तो गुरुरूपचि मानिजे। आवडी नावडी न धरिजे। जंगमलिंगाचे ठायीं।।१२।। जें जें आपणां आवडत। तें तें जंगमलिंगीं अर्पित। ज-ही हातां आलें अमृत। तरी न वंची तो।।१३।। मुखीं षडक्षरी मंत्र सतत। लल्हाटीं विभूति शोभत। कंठीं रुद्राक्षमाळा मिरवत। भक्तरायाच्या।।१४।। तीर्थप्रसादाची आवडी मोठी। सेवितां पडो नेदी भवीच्या दृष्टी। शिवाचार परिपाठीं। आणिकाहि लावीतसे।।१५।। जंगम देखतांचि दृष्टीं। धांवोनि सद्भावें घाली मिठी। लिंगयुक्त शरण लल्हाटीं। चरणरज लावी।।१६।। प्राण गेला तरी जावो। परि न सांडी निष्ठाभावो। तोचि निजभक्तीसीं ठावो। शुद्ध भक्तस्थळ या नांव।।१७।। तनु मन धन अर्पितां। शीण न मानी सर्वथा। म्हणे ज्याचें त्यासीं देतां। मी कां कुंथो।।१८।। उदयकाळीं उठतां। हीच मनीं वाहे चिंता। कीं जंगमलिंगां अर्पितां। तरी भाग्य बरवें।।१९।। लिंगार्चितासीं जंगम आलिया। धांवोनि विश्वासें लागे पायां। शीतल विभूति पुढें करोनिया। म्हणे स्वामी कृपा करा।।२०।। नेवोनि बैसवी सिंहासनावरी। भावें बरवी पादार्चना करी। तीर्थ अर्पोनि प्रसाद स्वीकारी। उत्तम भक्त या नांवें।।२१।। भोजनोत्तर मुखशुद्धि। तांबूल अर्पितसे सुबुद्धि। भावें करूनि त्रिशुद्धि। शरण होत प्रीतीनें।।२२।। जे सुखभोग ते जंगमलिंगाचे। जे कष्ट ते प्रारब्धाचे। ऐसा भाव धरोनि वर्ते साचे। तोचि भक्त जाणावा।।२३।।
भृत्याचारसमाचारो लिंगजंगमरूपिणी।
द्वयोरैक्यसमायुक्तो भक्तराज: सुबुद्धिमान्।।३।।
सेवकभाव अंगीं धरोनि। भक्तीचा अभिमान सांडोनि। एक भाव लिंगजंगमपूजनीं। करी तोचि उत्तम भक्त।।२४।। लिंगजंगमीं भिन्न भाव धरितां। केली भक्ति निर्फळ होय तत्त्वतां। मा मुक्ति सायुज्यता। तयासी कैंची।।२५।।
किंकरवाणीसमायुक्तो लिंगरूपेण जंगमम्।
मनसा भावयत्येव भक्तस्थलसमन्वित:।।४।।
qककरवाणी वृत्ति धरोनि। शांतिरूपी मन लीन होऊनि। लिंग जंगम एकरूप मानूनि। सद्भावें पुजी जो।।२६।। तो माझा मुकुटमणि जाण। महाभक्त शिवाचारसंपन्न। त्याचेनि माझें शिवपण। मिरवतसें।।२७।। तो भक्त भक्तस्थळालागीं। जीवन जीववयालागीं। आहे म्हणोनि सर्वांग संगीं। भक्ति नांदतसे उल्हासें।।२८।।
अर्थप्राणाभिमानं च गृहदारादिकं तथा।
अर्पयेत् परया भक्त्या भक्तस्थली सुबुद्धिमान्।।५।।
अर्थ प्राणाभिमान। पुत्रदारादि गृह जाण। ही सर्वहि कीजें अर्पण। लिंग-जंगमीं भक्तीनें।।२९।। कायावाचामनेंकरोन। उदार व्हावें भक्तीलागोन। एकभावें तल्लीन होऊन। समर्पावें लिंग-जंगमीं।।३०।। अमृताहूनि अधिक। प्रसाद मानी तो देख। सकळ तीर्थां विशेख। पादतीर्थां मानी।।३१।। त्यासीं शिवलिंग जंगम प्राण। होऊनि सत्यत्वें असे जाण। ही खूण जाणती सत्यशरण। जे भक्तिपंथा लाधले।।३२।।
गुरुधर्माभिमानी स्यात् लिंगनिष्ठो हि जंगम:।
उपाचार्य: सदाचारी भक्तिमान् सुदृढव्रती।।६।।
स्वधर्माभिमान असावा गुरूसीं। भावें पाळीत शास्त्राज्ञेसीं। कदापि न चुकती वचनासीं। धर्माभिमानी सत्य ते।।३३।। लिंगाचा इच्छित हेतु। पूर्ण करितां जंगम भक्तु। तया वेगळी मातु। नसे जाण दुसरी।।३४।। यालागीं वीरशैवीं। दुजी सेवा न करावी। इष्टलिंगासीं अर्पावी। शुद्ध कर्में आपुलीं।।३५।। अमृताहूनि अधिक। प्रसाद मानिती देख। पंक्तिभोजन आवश्यक। इच्छीतसे भक्त पैं।।३६।। शिव सांगे गणांप्रति। जे शिवाचारें वर्तती। तया नसे अधोगति। सत्य जाणा वचन हें।।३७।। भक्त तयासीच नांव। येरां नसे अनुभव। भवाचें भय सावेव। स्वप्नीं नसे सद्भक्तां।।३८।।
प्रभाते मुखप्रक्षाल्य हस्तपादौ च क्षालयेत्।
दंतधावनशौचादि कृत्वा नित्यं शुचिर्भवेत्।।७।।
प्रात:काळीं उठूनि सत्वर। शौचमार्गें मौन धरूनि साचार। न बोलतां परस्पर। परतोनि यावे स्वगृहीं।।३९।। ऐसे स्तब्ध येण्याचा काय हेतु। स्वमस्तकांतील ज्ञानतंतु। खर्ची घालूं नये व्यर्थु। योग्य विचारां योजावे।।४०।। जो जो बोलण्याचा व्यापार। तो तो ज्ञानतंतु होती जर्जर। निद्रेअंतीं तयाचे अंकुर। सतेज पुन्हां होती पैं।।४१।। म्हणोन तया खर्ची व्यर्थ। घालू नये हें यथार्थ। शिक्षक गुरु समर्थ। सांगतसे शिष्यांतें।।४२।। मौनें घरीं येतां परतून। सप्त मृत्तिका करांसीं लावून। वर उदक दुस-याकडोन। घ्यावें तेणें क्रिया शुद्ध।।४३।। पादप्रक्षाळन करून। मग लिंगोदकें मुखमंडन। दंताचा मल धुवून। टाकी सत्य प्रतिदिनीं।।४४।। येणेंपरी मुखमार्जन कीजें। मग लल्लाटावरून हस्त उतरिजे। परि मुखीं घेऊन न घालिजें। शीतळ लल्लाटावरी।।४५।। आत्मस्थान असें भ्रूस्थानीं। म्हणोनि न घालिजें मुखपाणी। तेथेंहि देवाची मिळणी। सदा असे।।४६।। म्हणोनि अर्ध मुखीं अर्ध करीं। ऐसें जल न घालिजें लल्लाटावरी। ऐसे न विचारोनि घालिजे जरी। तरी दोषी होईजे।।४७।। येणेंपरी मुखमार्जन करून। मग करावें भस्मधारण। पूजासामुग्री मेळवून। शुचिर्भूत असावें सदा।।४८।।
मज्जनं च त्रिकालेषु शुचिपाकसदासुधी:।
भविसंगपरित्याग इत्येतद् हितकारकम्।।८।।
मग शुद्ध स्नान करोन। नेसावें शुक्ल धौत वसन। वरी उत्तरीय धारण करोन। प्रवर्तावें पूजनीं।।४९।। ऐक लिंगपूजेचें विधान। लिंगाचें त्रिकाळ कीजें पूजन। एकान्त स्थळ पाहोन। शिवपूजा कीजें सावध।।५०।। आधी दोन्ही हात प्रक्षाळून। मग पात्रार्चन करोन। विभूति शीतळ पात्रासीं लावून। मग लिंगासीं काढिजें।।५१।। लिंग करस्थळीं धरोन। लिंगमुखीं शीतल घालून। तयाचें कीजें मुखमार्जन। आचमनादिकीं पैं।।५२।। मग आरंभिजें शिवलिंगार्चन। बैसिजें मन आकर्षित करोन। शुद्धासनीं बैसून। करावें ध्यान शिवाचें।।५३।। आधी लिंगासीं विभूति अवधरिजे। बोटीं शेष उरले ते मस्तकीं लाविजे। मग त्रिपुंड्र चर्चिजें। ललाटभरी।।५४।। परि तें मंत्रीं शुद्धि करून। ऊध्र्वमुखीं ललाटीं लावून। गंध धूप दीप नैवेद्य निवेदून। घंटासंयुक्त कीजे।।५५।। शंख चवरे दर्पण। आणिकहि जें पूजेचें भूषण। तें तें समुदाय घेऊन। लिंगार्चना पैं कीजे।।५६।। ऐसी लिंगाची पूजा त्रिकाळ। जो करी सद्भावें होऊन निर्मळ। जाणावें शुद्ध भक्तिस्थळ। उत्तम साच तें।।५७।। ते त्रिकाळ म्हणशील कोण कोण। प्रात:काळीं उदय होतां अरुण। ते काळीं कीजें लिंगार्चन। तैसेचि मग माध्यान्हीं।।५८।। चांदणी निघाली नसतां। आणि सूर्य अस्तमान होतां। त्या सायंकाळीं लिंग पुजतां तत्त्वतां। यया त्रिकाळीं लिंगार्चन होय।।५९।। ऐसें त्रिकाळ लिंगार्चन। वरी शुद्ध शुचि पाक करून। लिंगासीं कीजें निवेदन। न देखतां भवि।।६०।। स्नान केल्याविणे स्वयंपाक। केलिया अनाचार पातक। घडें ऐसें शास्त्रादिक। सांगती धर्मग्रंथीं।।६१।। स्त्रिया शुचिर्भूत असाव्या सदा। भविस्पर्श करू नये कदा। जरी संसारीं असे आपदा। तरी आचारां सोडूं नये।।६२।। स्वधर्माचारें वर्ततां। इंद्रसंपत्ति ये हातां। खोटें नाहीं हो सर्वथा। स्वधर्मनिष्ठा श्रेष्ठ।।६३।। पाक झालिया पात्रशुद्धि। करावी भस्मधारणेआधी। जंगम पंक्ति सत्यविधि। भोजनालागीं असावा।।६४।। लिंगपूजा होतां क्षणीं। नैवेद्य अर्पण मंत्रेंकरूनि। लिंगार्पित प्रसाद मानूनि। ग्रहण करी सदा।।६५।। वीरशैवाघरींचें अन्न। पवित्र असें परिपूर्ण। तयाचा अंश घरांतून। बाहेर कदा न जावा।।६६।। यास्तव तयाचा स्पर्श। घेतां देतां जेवितां विशेष। आसन-वस्त्रां अंगां लेश। लागूं देतां दोष घडे।।६७।। ऐसी क्रिया लिंगधर्मीं। पाळी तो विशेष मर्मीं। तयाची वाढतसे नित्य लक्ष्मी। क्रमानें।।६८।। भवि देखतां शिवातें अर्पण। न कीजें ऐसें नीलकंठीचें प्रमाण। म्हणोनि भविसंग त्यागोन। भक्तिमार्गी वर्तिजें।।६९।। ऐसा शिवार्चनाचा नेम। तेंचि भक्तस्थळ उत्तम। परि भवि म्हणावें कवण तो नेम। ऐक वो देवी।।७०।। ज्यासीं पंचकलश दीक्षा नाहीं। तीर्थप्रसाद तो नेणेंचि कांहीं। तोचि भवि पार्वती पाही। गुरुविण नांदे म्हणोनि।।७१।। त्याचा संग त्यागावा। शिवमंत्र नाहीं म्हणोनि बोलावा। तोचि प्राणी भवि म्हणावा। अनंत जन्माकारणें।।७२।। म्हणोनि धन्य ते शिवभक्त। जे झाले गुरुकरजात। आणि भविसंग न करीत। शिवभक्त शुद्ध ते।।७३।। वीरशैव सदाचार स्थिति। जाणे तो एक जंगममूर्ति। जनां संस्काराची स्फूर्ति। प्रगट कीजे सत्वर।।७४।। ऐसे जे भक्त असती। ते माझे मुकुटमणि वो पार्वती। तो आत्मा मी देह ऐसी प्रीति। भक्ताची मज।।७५।। ऐसें भक्तिस्थळ उत्तम। तुज निरोपिलें जाणोनि तुझें प्रेम। ऐसें आचरे तेंहि वर्म। तुज दाखविलें वो देवी।।७६।। ऐकोनि भक्तस्थळ पार्वती। पूर्ण संतोषली चित्तीं। मग नमस्कार करोनि पुसती। झाली कांहीं आणिक।।७७।। वीरशैव सदाचार स्थिति। जाणे तो एक जंगममूर्ति। जन्मसंस्काराची स्थिति। प्रगट कीजे सत्वर।।७८।।
गर्भाधानं पुंसवनं सीमंतं जातकर्म च।
तथा दीक्षाप्रभावेन लिंगनिष्ठा भवेद् ध्रुवम्।।९।।
गर्भाधान हा संस्कार। सर्वांसींच असावा साचार। त्याचा न करावा अनादर। पंचाचार विधीनें कीजे तो।।७९।। हाचि जाणावा संस्कार प्रथम। दुजा तो डोहाळे इच्छा काम। तिसराहि पुण्य पराक्रम। जननापूर्वी होतसे।।८०।। चौथा तो जातकर्म जाण। जन्मकालीं लिंगधारण। ऐसें शास्त्र बोलें वचन। वीरशैवधर्माचें।।८१।। ऐसे हे चार गर्भसंस्कार। वीरशैव धर्माचे प्रकार। तया धर्माध्यक्ष वारंवार। श्रुत करी लिंगायतां।।८२।। नामकरण बारावे दिवशीं। उत्साहेकरोनि बालकासीं। नांव ठेवणेंचि अनायासी। आप्तगोत्रां कळावया।।८३।। अन्नभक्षणाचा विधि। धर्मनीति दिनशुद्धि। पाहूनिया उदय संधी। ग्रह शुभ स्थानासीं।।८४।। उपनिष्क्रम म्हणती। जेथें असे ती परमभक्ति। शिशूसीं चालावयाची शक्ति। आणूं पाहती आवडी।।८५।। चौल संस्कार आठवा। देहस्थितीचा मानावा। सुखदु:खाचा वानवा। कळतसे तेणें पैं।।८६।। सर्व संस्कारांचा राजा। जयाचेनि योगें शिवपूजा। करितां घडे पुण्यकाजा। स्वधर्मनिष्ठा ती।।८७।। दीक्षासंस्कारावांचून। लिंगायतचि नव्हे जाण। ज्ञातिधर्माची असे खूण। सत्य जाण पार्वती।।८८।। लिंगायतां हा संस्कार। लागू असे शास्त्राधार। तयावांचून क्रियाचार। शुद्ध नसे साक्षिपें।।८९।। जंगमदीक्षा असे दुसरी। अगाध असे तयेची थोरी। महेश्वरी अधिक तिसरी। वंद्य देख देवादिकां।।९०।। या दोही दीक्षा जाण। गुरुपदाचें भूषण। स्वधर्माचा अभिमान। जेणें राहे सत्य पैं।।९१।। म्हणोनिया धन्य ते भक्त। जे झाले गुरुकरजात। तेचि वीरशैव सद्भक्त। अन्य धर्मांवेगळे।।९२।। येथें झाले नऊ संस्कार। पुढें विवाहाचा होय प्रकार। गोत्र सूत्र वधु कुलाचार। पाहोनिया योजावा।।९३।। हे ऐसे दश संस्कार। तयापुढें धर्म पर। सांगोनि अंतीं विचार। मुख्य संस्कार हे।।९४।। याचे परि उपसंस्कार। षोडश संख्या समग्र। त्याचा विधिमंत्र फार। लिहिला असे धर्मशास्त्रीं।।९५।। ते पाहून लिंगधारी। सर्व विधि प्रेमें करी। असत्य मानी तो भिकारी। जन्मोजन्मीं होईल।।९६।। जो याच नेमें जाणे स्वधर्म। कदा न होय तया चिंताभ्रम। सावधान आणि सप्रेम। निष्ठा असे धर्मावरी।।९७।। यावरील संस्काराचे मंत्र। महाशुद्ध आणि पवित्र। तयावेगळे स्वतंत्र। दुजे मंत्रचि नसती।।९८।। हे मंत्र उपाचार्यमुखीं। वसती सदा पुण्यश्लोकीं। त्यावेगळी मिरवी शेखी। तया अज्ञान मानावें।।९९।। उपाचार्यें आपुलें कर्म। सांभाळावें मुख्य धर्म। तयांचें मंत्रापासीं प्रेम। सर्वकाळ असावें।।१००।। उपाचार्य जंगम असती। ते लिंगायताप्रति पाळिती। आचारधर्माची काळजी वाहती। सावरिती वेळोवेळीं।।१०१।।
देव्युवाच-
जंगमस्य कथं रूपं जंगमस्य च के गुणा:।
जंगमस्य च के भेदा ब्रूहि मे परमेश्वर।।१०।।
पार्वती पुसे शंकरासीं। जंगमाचें रूप निरोपा मजसीं। जंगम म्हणावें कवणासीं। कैसा लक्षणभेद त्याचा।।१०२।। कैसें आचरण कोण स्थिति। कैसी नीलकंठी कोण वृत्ति। ते निरोपा कैलासपति। आवडी माझिये।।१०३।।
शिव उवाच-
ज्ञानं जंगमरूपं स्यात् सोपाधिनिरुपाधिकम्।
भक्तप्राणसमायुक्तं एतज्जंगमलक्षणम्।।११।।
सदाशिव म्हणे मेनके ऐक। जंगमाचें रूप ज्ञान एक। ज्ञानावांचून आणिक। शोभेचिना।।१०४।। ज्ञान म्हणसी ते कोण। तरी वस्तूचें जाणपण। जाणोनि स्वयेचि झाला आपण। तोचि जंगम जाणिजे।।१०५।। वस्तु होवोनि सदा असत। सदा शिवानंदें डुल्लत। करी ना तो करवीत। कर्ता ना अकर्ता तो।।१०६।। मीतूंपणाचा भास तयासीं। नु-हेचि कोणे काळेसीं। उपाधिनिरुपाधीसीं। विरहित तोचि जंगम।।१०७।। तो स्वतंत्र विधीनें असे। कोणाआधीन तो नसे। गुरुबुद्धिविण कांहीं करीतु नसे। तोचि जंगम उत्तम।।१०८।। तोचि गुरु मोक्षदाता। मोक्षहि होय पायां लागतां। न मानी तो सर्वथा। श्लाघ्यता कांहीं।।१०९।। मुक्त म्हणिजे सुटिला। बद्ध म्हणिजे बांधिला। जो मुळीच बांधिला नाहीं त्याला। सुटला म्हणावें काई।।११०।। कां जो बंधमोक्षातीत। वस्तुरूपचि असे साक्षिभूत। वस्तूसीं बंध मोक्ष म्हणता संत। हासती ऐकोनिया।।१११।। तो स्वयें स्वरूपचि होओन। असे निर्विकल्प निर्गुण। निराश निजभरित निर्वाण। तोचि जंगम उत्तम।।११२।। तो ध्येय-ध्याता-ध्यानासीं। अतीत ज्ञेय-ज्ञाता-ज्ञानासीं। भोक्ता-भोग्य-भोगासीं। विरहित जंगम।।११३।। कर्ता-कार्य-कारणासीं। अतीत दृश्य-द्रष्टा-दर्शनासीं। सत्त्व-रज-तम त्रिगुणांसीं। विरहित तो जंगम।।११४।। ऐसा जंगम तो वीरशैव। तोचि भक्ताचा सगुण जीव। न धरी कदापि द्वेषभाव। स्वधर्मीं जनां तारक।।११५।।
अंगमिश्रितमाचार आचार: प्राणमिश्रित:।
तत्प्राणमिश्रितं लिंगं लिंगं जंगममिश्रितम्।।१२।।
अंग आचारासीं मिश्रित असें। आचार प्राणासीं मिश्रित वसे। प्राण तो लिंगासीं आश्रित असे। लिंग जंगमीं मिश्रित।।११६।। एवं परस्पर येरयेरांस। मिश्रित होओनि असती समरस। येणें विधि वर्ते जो गुरुरूप त्यास। बोलिजें शुद्ध जंगम।।११७।।
कामक्रोधविनिर्मुक्तो लोभमोहविवर्जित:।
सर्वसंगपरित्यागी सर्वश्रेष्ठस्तु जंगम:।।१३।।
कामक्रोधादि विरहित। मोहदंभासीं अतीत। सर्व संगासीं विनिर्मुक्त। तोचि जंगमश्रेष्ठ बोलिजें।।११८।। आतां कामक्रोध कोण्या रीति। लोभ मोह कवणां म्हणती। त्याग म्हणिजे कोण स्थिति। जाणोनि मग त्यागिजे।।११९।। काम तो बहुतांपरी असे। एक काम स्वर्गसुख मानसीं वसें। स्वर्गांगनाभोग अमृतपान असे। त्यासाठीं कामीं लुब्धती।।१२०।। एक काम राज्यादि भोगासीं। इच्छिताती गजान्त लक्ष्मीसीं। एक पाताळादि भोगासीं। इच्छितो काम।।१२१।। एक काम विषय-इच्छा धरी। वरपडा पडे दाही विषयांवरी। एक काम फळ-इच्छा अंतरीं। पुढें भोगूं म्हणोनि।।१२२।। येणेंपरी काम असें बहुतांपरीसीं। त्यानें नाडिलें थोरथोरांसीं। तया त्यागून जो राहे त्यासी। शुद्ध जंगम बोलिजे।।१२३।। स्त्रीकाम महाबाधक। त्यातें त्यागितां असें महासुख। त्या कामासीं भिती ब्रह्मादिक। दुर्धर म्हणोनि।।१२४।। यालागीं धन्य त्याचें जाणपण। जेणें सर्व काम टाकिलें थुंकून। तोचि एक जंगम जाण। शिवाचारासीं तारक।।१२५।। ऐक क्रोधाची खूण। बरवेपण पराचें देखून। वाटें करावें तयाचें नाशन। त्या नांव क्रोध जाणिजें।।१२६।। इच्छिलें काम पूर्ण न होतां चित्तें। महा चरफडीचें यें भरतें। शुद्ध क्रोध म्हणो तयातें। कामाचा पुत्र क्रोध तो।।१२७।। कामाचा होता हरास। तरी ठाव नुरेचि क्रोधास। त्यां दोहीसीं अतीत जो त्यास। शुद्ध जंगम बोलिजें।।१२८।। लोभें लोभोनि मोहित। मोहिलें नुखळें चित्त। लोभें स्त्रीबाळें समस्त। आपुली म्हणूनि मोहिला।।१२९।। बरवा पदार्थ देखोन। तेथें लोभ मोह न धरोन। जो निरपेक्ष सत्यशरण। तोचि लोभमोहातीत।।१३०।। तो वरपडा नव्हे षड्विकारावरी। दर्शनमानें फुगारा न धरी। माझें तुझें भेदासीं अंतरीं। थारा नेदीच तो।।१३१।। विषयातें विष मानी। स्वर्गादि सुख तुच्छ गणीं। स्वयें गुरुरूपचि होवोनि। असे तो उत्तम जंगम।।१३२।। कोणासीं न करी कचकच। कोणासीं न बोलें उच्चनीच। लटिके त्यागूनि वदे साच। तो उत्तम जंगम।।१३३।। कुचेष्टा कुचाळी। न करी कदा रळींरांगोळीं। कुवाक्यें कोणां न सळीं। तोचि उत्तम जंगम।।१३४।। जो परजीवाची न करी हिंसाŸ। परनिंदा न करी कांहीं आशा। परस्त्रिया मानी मातेशा। तोचि जंगम उत्तम।।१३५।। तो निर्मळ तरी कैसा। पाताळगंगेचा ओघ जैसा। राव रंक जया सरिसा। तोचि उत्तम जंगम।।१३६।। तो परमानंदभरित। कधीं नाहीं हकहकित चित्त। कोणासीं न परिहासित। तोचि जंगम उत्तम।।१३७।। सहजस्थिति तेणें असणें। भक्तीविना न राहणें। परापेक्षा घेणें देणें। तोचि जंगम उत्तम।।१३८।। सर्व त्यागूनि विरक्त असणें। अन्नवस्त्रां लोलुप नसणें। वैराग्यवृत्ति सदा राहणें। जंगमोत्तमाचे।।१३९।। सर्व त्यागावें हें श्लोकीचें पद। तरी काय त्यागावें ऐक भेद। सर्व दोषांचा उपडिजें मूळ कंद। अहंकार तो।।१४०।। एकला अहंकार त्यागितां। सर्व त्यागिले होय तत्त्वतां। जेवि मुळीहूनि वृक्ष उन्माळितां। शाखापल्लव उन्माळिलें।।१४१।। तेवि अहंकार त्यागितां सर्व। त्यागिले होय भवभाव। तोचि जंगम जाणिजें देवाधिदेव। आम्हांसीं वंद्य तो देवी।।१४२।। त्याचें दर्शन स्पर्शन। जरी घडें संभाषण। तरी भक्ति मुक्ति वोळंगे अंगण। कल्पांतवरी।।१४३।। तो पाहे जयाकडे कृपादृष्टीं। तरी होय तया आनंदाची सृष्टी। स्वानंदां चढे पुष्टी। उठाउठीं तत्काळ।।१४४।। त्याची भेटी व्हावयासीं। कांहीं पुण्य असावें गाठीसीं। पुण्यावांचून न भेटें कवणासीं। सत्यशरण तो।।१४५।। पदरीं कांहीं पुण्याची असेल जोडी। तरीच जंगमलिंगीं होय आवडी। अन्य तो जाणावा कबाडी। संसारीं बद्ध तो।।१४६।। सुखपदार्थ दृष्टीं देखोनि। त्याची इच्छा करी लोभ धरोनि। कीं कुकर्मासीं आश्रय देऊनि। वर्ते त्या जंगमां सोडावें।।१४७।। स्वत: न पाळी शास्त्रनीति। सांगे तया विपरीत बोलती। अधर्में कुळें नरका जाती। सत्य जाण वो देवी।।१४८।। स्वधर्माची जो करी निंदा। स्वकर्णें ऐके मुदां। प्रत्युत्तर न देत कदा। जंगमवंश नव्हेचि तो।।१४९।। ज्ञाति जंगम असून। जो न धरी स्वधर्माभिमान। तो श्वान-शूकरयोनी जाण। भोगी देवी कल्पवरी।।१५०।। जो अखंड स्वधर्मातें। प्रतिपादितसे सदर्थें। करी धर्मप्रसिद्धि जगातें। जंगमवंश तोचि जाण।।१५१।। ऐसा आतां जो निरोपिला जंगम। तोचि वीरशैवमार्ग उत्तम। तुझें स्वरूप हें तुझें वर्म। तुज निरोपिलें वो देवी।।१५२।। श्रीशंकरानें पार्वतीप्रति। निरोपिली जंगमस्थिति। ही वीरशैव धर्माची स्तुति। उच्चारिता पुण्य बहु।।१५३।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। शिव-गौरीसंवादीं वर्तत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृत्य मन्मथ।।१५४।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे भक्तमार्गजंगमस्वरूपवर्णनं नाम नवमोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक १३, ओव्या १५४.
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