संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी |
संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित
परमरहस्य
अध्याय आठवा
।। श्रीगणाधिपतये नम:।।
सप्तमीं निरूपिली वस्तुकळा। जी अतक्र्य ब्रह्मादि सुरां सकळां। तिचें परमगुह्य दयाळा। श्रवण केलें सादर।।१।।
देव्युवाच-
बाह्यांगे दृश्यते लिंगं प्राणो देहस्य मध्यत:।
कथं प्राणस्य लिंगेन संबंधो भवति तद्वद।।१।।
पार्वती विनवी जी त्रिपुरारी। लिंगासीं देह मिश्रित कवणेंपरी। प्राण असे देहाभीतरीं। तो देहासीं मिश्रित कैसा।।२।। लिंग देह प्राण तिन्ही। येरयेरासीं मिश्रित होवोनि। कैसे असती जी शूलपाणि। तें निरोपा मज।।३।।
शिव उवाच-
यथा प्राणस्य संबंधो विद्यते इंद्रियै: सह।
व्याप्यव्यापकभावेन सलिले पावको यथा।।२।।
जैसा प्राणलिंग सिद्ध झाला। तो सर्वेंद्रिय व्यापूनि राहिला। व्याप्य-व्यापकत्वें देहीं भरला। जळीं अग्निसम पैं।।४।। जैसें जळ उष्ण होय अग्नीसंगें। तैसें देह मिश्रित लिंगार्चनयोगें। प्राण तरी सहज अंगे। एकचि असे।।५।। तरी लिंगासीं देह मिश्रित कोणेपरी। पूर्वील देहबुद्धि अव्हेरी जरी। दाही इंद्रियें लिंगार्चन करी। अखंड लाविजें।।६।। ऐसी ज्याची सर्व संबंधे तुटली। त्याची लिंगकळेसी बुद्धि बांधिली। तया प्राणलिंग पदवी आली। तो अंश होय माझाचि।।७।।
घटमध्ये स्थितं तोयं वन्हिर्ज्वलति बाह्यत:।
वन्हिज्वालासुसंयोगात् उष्णं भवति वार्यपि।।३।।
जळ तरी घटामाजीं असे। अग्नि तो बाहेरीच दिसे। परि घटाग्निसंयोगें होत असें। जळ तप्त।।८।। घट तप्त होतां जळ तप्त। मग तिन्हीहि अग्निरूप होत। एकमेकांचें संयोगें मिश्रित। होती तात्काळ पैं।।९।। तेवि सत्क्रिया आणि लिंगार्चन। करिती गुरुत्वें पूजन। लिंगसंगें देह झाला लिंगरूप जाण। मग भेद कैंचा।।१०।। लिंगसंगें देह एक होतां। देहसंगें सहज प्राणऐक्यता। एवं देह प्राणलिंग एकरूपता। गुरुकळा बिंबे।।११।। ऐसे तिन्ही भावें करी एकार्चन। तोचि भक्त शिवाचारसंपन्न। अथवा जंगम झाला तरी भजन। येणेंचि भावें करावें।।१२।। इष्ट प्राण भाव जाण। लिंगरूपाची मुख्य खूण। गुरुमंत्रातें आठवून। पुजितां पुण्य विशेष।।१३।। जो ऐक्यभावें न करी पूजन। जरी भाव धरी भिन्न भिन्न। तरी तो भक्त असे परि जाण। पूजा त्याची निर्फळ।।१४।। सांडोनिया लिंगार्चना। जो करी आन देवतापूजना। तो शिवभक्त नोव्हे त्याचिया वदना। अवलोकूं नये।।१५।। आणखी सांगतो सोय एक। शिवलिंगपूजा न सोडावी देख। प्राणहानी झाली तरी नेमिक। व्रत न सोडावें पूजेचें।।१६।। लिंगपूजा सोडूनि मानव। जरी भोगी राज्यवैभव। तोहि पावे नरकार्णव। प्रायश्चित्ताकारणें।।१७।। जो सर्व देवांसीं असे श्रेष्ठ। सर्व ऋषिमुनींसीं वरिष्ठ। तो लिंग हृदयीं असोनि नष्ट। आन देवतांसीं पुजितो।।१८।। ज्यासीं हरि विरंचि ध्याती। हरीनें नयन वाहिलें जयाप्रति। तो इष्टलिंग हृदयीं असूनि पुजिती। देवतांतरा मूढ।।१९।। गण-गंधर्व-इंद्रादिकांसीं। वरिष्ठ शेष-कूर्म-वराहासीं। तो शिव सांडोनि देवतांतरांसीं। भजे तो मूर्ख जाणावा।।२०।। शिवभक्त म्हणविणें। परि शिवासीं न पुजणें। तरी निरयासीं जाणें। क्रियाभ्रष्ट म्हणोनिया।।२१।। थोरीव मिरवी शिवाचाराची। क्रिया राहटे आणिकाची। व्यभिचारिणी सेवा करी पतीची। परपुरुषीं जावया।।२२।। आपुला आचार सांडून। पर-आचारीं वर्ते रात्रंदिन। श्वान-सूकरयोनी जाण। भोगील कल्पवरी।।२३।। आणखी सांगणें तुज एक। कुलवधूची रीति देख। प्राण गेलिया न पाहें मुख। परपुरुषाचें।।२४।। सति पति सदाचारें वर्तती। तैसीच वीरशैवधर्म स्थिति। एकनिष्ठें भजावी लिंगमूर्ति। दुजी भक्ति दोषिक।।२५।।
अंतऱ्ज्ञान क्रियाबाह्यं एकीभावं भवत्यपि।
यथा कुंभोदकं तप्तं भवत्यग्निप्रभावत:।।४।।
यालागीं आपुली क्रिया न सांडिजें। गुरुकृपें ज्ञान साधिजें। ज्ञान आंतरबाह्य क्रिया कीजे। बरवी निपुण।।२६।। अंतरीं ज्ञान बाहेर क्रिया। दोन्ही एकचि झालिया। मग कैंचा प्रपंच कैची माया। तया सत्य शांत शरणांतें।।२७।।
यथा कुंभजलं देवि दह्यते अग्निवेधत:।
तथा ज्ञानक्रियावेधाद्देहो लिंगमयो भवेत्।।५।।
बाह्य क्रिया अंतरीं ज्ञान। दोहीचें कैसें होय एकपण। तयासीं दृष्टान्त देईन। तो परिस देवी।।२८।। अग्नि तरी असे बाहेरी। जळ असे घटाभीतरीं। घट तप्त होय अग्निकरी। तंव जळ तप्त होय।।२९।। तेवि क्रिया करितां निपुण। इष्टलिंगां करितां अष्टविधार्चन। एवं क्रियायोगें देह प्राण। लिंगकळा पावती कीं।।३०।। यालागीं स्वक्रिया न सांडावी। गुरुकृपें अंतऱ्ज्ञानकळा धुंडावी। ऐसी एकविध भक्ति होआवी। वीरशैवीं निश्चळ।।३१।।
शिवप्रसादसंपत्त्या जातनिर्मलदेहिनाम्।
पंचेंद्रियप्रवृत्ति: स्यात् पंचतनुप्रतर्पणम्।।६।।
प्राणाची मलिनता गेलियाविण। प्राणलिंगीं लिंगकळा न ये जाण। म्हणोनि दश इंद्रियें दमून। स्वाधीन ठेविजें।।३२।। प्राणाचें भोक्तव्य असें जें जें। तें आधी लिंगासीं अर्पिजें। मग आपण आरोगिजें। ऐसा नेम असावा।।३३।। यापरी क्रिया आचरण। हें प्राणलिंगीचें लक्षण। क्रिया आणि ज्ञानाविण। न पावे मोक्षमार्ग।।३४।। ऐसे पूर्व अवगुण जातां सहज। प्राणलिंगकळेचें प्रकाशेल तेज। मग देह होय प्राणलिंगी सहज। लिंगलक्षण अंगां ये।।३५।। तें कैसें म्हणसी तरी ऐक। ईश्वराचीं जीं पंचमुखें नेमक। पंचेद्रियें अर्पिजें सुख। जें जें होईल तें तें।।३६।। येणेंपरी क्रिया आचरण। होतां सहजचि प्राणलिंगां अर्पण। म्हणोनि क्रिया ज्ञान उभयांविण। न साधे वस्तु।।३७।। क्रियाहीन ज्ञानेकुन। वस्तु साधू म्हणती अज्ञान। अथवा क्रियेनेंचि साधू ज्ञानेविण। भाविती तेहि मूर्ख।।३८।।
न क्रियारहितं ज्ञानं न ज्ञानरहिता क्रिया।
उभयोर्योग एवास्य जन्तोर्बंधनमोचक:।।७।।
क्रियेविण न शोभें ज्ञान। ज्ञानेविण न शोभे क्रिया जाण। म्हणोनि दोहींसीं अनुलक्षून। वर्तिजें भावें संसारीं।।३९।। जैसें प्रकृति पुरुष दोन्ही। एकचि मतें होऊनि। सृष्टिकर्म अनुदिनी। चालविती तैसें हें।।४०।। क्रियेविण ज्ञान दुर्बल। ज्ञानाविण क्रिया निर्फळ। उभययोग होतां प्रबळ। वस्तु येत निजहातां।।४१।। यासीं दृष्टान्त सांगतसे एक। जेणें संदेह फिटे देख। आपले मनीचा संकल्प। सुटोनि जाय तत्क्षणीं।।४२।।
प्रदीप्तपावके देशे अन्धपंगुसुसंगतौ।
परस्परसहायेन दु:खान्मुक्तौ बभूवतु:।।८।।
एक अंध एक पंगु तत्त्वतां। उभय एका स्थळीं असतां। तेथ अनल लागला तत्त्वतां। तो देखिला पंगूनें।।४३।। पंगु तें ज्ञान जाणें डोळस। अंध तो क्रिया करी दृष्टी नाहीं त्यास। परि पंगूनें देखिलें अग्नीस। गृह जळतां।।४४।। परि क्रिया-पायाविण अडला। तेथून न निघवे सुखस्थळाला। मग अंधासीं विचार मांडिला। पंगूनें कैसा।।४५।। पंगु म्हणे अंधालागूनि। काय निश्चिंत अससी गृहीं लागला अग्नि। आतां मी तूं एक होवोनि। जाऊं निघोनि वेगेसीं।।४६।। पंगु म्हणें अंधालागून। मी तुझे खांदीं बैसोन। जिकडे जिकडे मार्ग दावीन। तिकडे तिकडे चालावें।।४७।। हा विचारु जरी न कीजें। तरी दोघेहि जळोन जाईजें। एकेविण एक न पाविजें। सुखस्थळातें।।४८।। तंव ते दोघे एक होऊनि। पावले गुरुकृपें सुखस्थानीं। तेवि ज्ञान क्रिया एकपणीं। वस्तु पाविजे वो देवी।।४९।। यालागीं येरयेराविण। स्वहित साधू म्हणती तें अज्ञान। न प्रकाशें चैतन्यघन। कल्पांतीहि पार्वती।।५०।। तेलवातीविण कैसे प्रकाशे ज्योती। वाद्ये वाजविल्याविण नाद काय उमटती। मेघभूमीविण निपजती। धान्यबीज काई।।५१।। यालागीं क्रिया-ज्ञानाविण। न प्रकाशें चैतन्यघन। म्हणोनि न विसंबती सज्ञान। उभयांसीं जाण पां।।५२।। दोही पंखांविण पक्ष्यासीं। न उडवे जेवि आकाशीं। तेवि क्रिया-ज्ञानेविण वस्तूसीं। न पाविजे कदा।।५३।। शतयोजन एक पक्ष असे। तरी पक्षी उडो लाहे काय कैसे। तेवि ज्ञान अथवा क्रिया एकचि असे। तरी तो तरे काई।।५४।। म्हणोन ज्ञान क्रिया दोहीविण। न तरे पार्वती सत्य जाण। दो पक्षांविण उड्डाण। न घडें पक्ष्यासीं।।५५।। क्रियाकर्म बरवे करिती। परि वस्तुज्ञान नेणती। तरी ते सरते न होती। शिवस्वरूपीं।।५६।। अथवा ज्ञान वस्तूचें बरवें जाणती। आणि क्रियाकर्म न करिती। तरी तेहि न तरती। म्हणोनि दोन्ही युक्त असिजें।।५७।।
गवां सर्पिशरीरस्थं न करोत्यात्मपोषणम्।
विकृतं कर्मरचितं पुनस्तासां तु भेषजम्।।९।।
गाईचें जें दिव्य घृत। अप्रत्यक्षपणें तियेचें शरीरीच वर्तत। परि ते पोषण न करी यथार्थ। तया गोदेहाचें।।५८।। दोहन करोनि दुग्धाचें। अग्निसंगें तापवून तयाचें। विरझण घालावें साचें। मग दधि होय पैं।।५९।। दधिमंथनेकरून। नवनीत बाहेर ये निघोन। तें कढवितां परिपूर्ण। घृत हातां येतसें।।६०।। तें घृत देतां गाईस। परित: पुष्टी करी तियेस। औषधरूप आले देहस्थ घृतास। क्रियेचेनि योगें।।६१।। शुद्धकर्म ती गाय जाण। तिचें भरणपोषण करून। बुद्धिविवेकें घेईजें दोहून। क्षीर तियेचें।।६२।। तें क्षीर लक्ष लावून ताविजें। निश्चयार्थ विरझण घालिजें। मग तें विवेकें घुसळिजें। निज नवनीत हातां।।६३।। तेंहि ताविजें स्वानुभवेकरून। मग तें घृत चिदानंदघन। तें दिनेंदिनें करीत आरोगण। पुष्टी चढे अनुपम्य।।६४।। नातरी घृत घेऊनि त्यागितां गाईसीं। मग घृतलेश कैसा येर दिवशीं। ऐसें न करावें करितां निजसुखासीं। मुकिजेल सत्य पैं।।६५।। ऐसी क्रिया घृतदात्री कळली। तीस विसंबूं नये पाहिजे पाळिली। मग दिनेंदिनें घेईजें नव्हाळी। निजघृताची।।६६।। घृत नासे कांहीं काला। अक्रिय ज्ञान तैसें बाळा। दुर्गंध सर्पीचा कंटाळा। तैसें जाण ज्ञान तें।।६७।। म्हणोनि नित्य गाईचें दोहन। तद्घृतेंचि होय शुद्ध अन्न। बहु दिवसाचें करवी वमन। तेवि ज्ञान अक्रियेचें।।६८।। यास्तव एका ज्ञानेंकरून। न होय सत्य योगसाधन। क्रिया आचरतां निर्वाण। विज्ञान येई हातां।।६९।। ऐसी क्रियेची आहे थोरी। केवळ ज्ञान न करी बरोबरी। क्रिया ज्ञान होतां एकसरी। विज्ञान प्राप्त।।७०।। विज्ञान तें कैसें ऐक। जेथ खुंटला विवेक। चिद्रूप ब्रह्म नैष्ठिक। स्वस्वरूपीं बिंबलें।।७१।। तेणें बाणें पूर्ण समाधान। अन्य विद्येमाजीं असे अभिमान। जेणें गर्वित करी भाषण। तें ज्ञान निंद्य जाणावें।।७२।। यालागीं प्रामाणिक क्रिया करिजें। मग सम्यक् ज्ञान होईल सहजें। दोहीविण कदापि न होईजें। प्राणलिंगसंबंध।।७३।।
देव्युवाच-
स्थावरं केन संमिश्रं जंगमं केन वा पुन:।
संबंधो ब्रूहि मे देव कृपया भूतभावन।।१०।।
पार्वती प्रश्न करीतसे। स्वामी स्थावर जंगम मिश्रित कैसे। हें निरोपावें प्रकाशें। ज्ञानाचेनि।।७४।।
शिव उवाच-
भक्तो माहेश्वरश्चैव प्रसादी स्थावरं भवेत्।
प्राणलिंगी शरण्यश्च लिंगैक्यो जंगमस्तथा।।११।।
तंव शंकर म्हणे गिरिजे। साही स्थळ जें बोलिजें। तें तीन तीन वाटणी म्हणिजे। स्थावर जंगम।।७५।। तें षट्स्थल म्हणसी कोण। भक्त माहेश्वर प्रसादी जाण। ते तिन्ही मिश्रित होऊन। स्थावर बोलीं बोलिजें।।७६।। प्राणलिंगी शरण ऐक्य जाणिजें। हे तिन्ही मिश्रित जंगम बोलिजें। येणेंचि परी षड् लिंग वोजें। मिश्रित स्थावरजंगमीं।।७७।।
आचारं गुरुलिंगं च स्थावरं शिवलिंगकम्।
चरलिंगं प्रसादं च महालिंगं च जंगमम्।।१२।।
आचार आणि गुरुलिंग। शिवलिंगहि असें स्थावरांग। चरप्रसाद महालिंग। जंगमांगीं वसती सदा।।७८।।
स्थावरं जंगमं चैव द्विविधं लिंगमुच्यते।
जंगमस्यावमानेन स्थावरं निष्फलं भवेत्।।१३।।
स्थावर आणि जंगम। हीं दोन लिंगें उत्तम। परि चरलिंग पूजा नेम। विशेष पुण्याकारणें।।७९।। स्थावरलिंगां संस्कारून। अर्चिती शिवकळा कल्पून। चरलिंग आहे याहून भिन्न। जंगम म्हणती जया।।८०।। स्थावराचे होय जंगम। जंगमाचे स्थावर हा भ्रम। न कळे गुरूवांचोनि वर्म। स्थिर चर काय तें।।८१।। स्थावर जंगम एक तरी न मानिजें। जंगम उदरोनि स्थावर पुजिजें। तरी ते पूजा निष्फळ जाणिजे। भेदवादी म्हणोनिया।।८२।।
स्थावरं जंगमं चैव एकरूपं तु मूलत:।
इति भेदपरिज्ञानं दुर्लभं श्रुणु पार्वति।।१४।।
सव्य वाम दिसती दोन्ही भाग। परि दोन्ही मिळोनि एकचि अंग। तेवि स्थावर जंगम एकचि लिंग। ऐसें जाणें तो दुर्लभ।।८३।। स्थावरजंगमाचीं स्थानें। तुज सांगूं पूर्णपणें। भक्त माहेश्वर प्रसादी जाणें। स्थावरांग जयाचें।।८४।। प्राणलिंगी शरण आणि ऐक्य। हें माझें सर्वदा प्राणाधिक्य। तयावेगळा मी राहणें अशक्य। ते जंगमरूप जाणावें।।८५।। ही माझी आत्मशक्ति। मी तुज सांगितली समूळ युक्ति। तैसीच आचरावी पार्वती। तरीच योग्य भक्त तो।।८६।।
देव्युवाच-
दासोऽहं भावक: को वा सोऽहं भावश्च कीदृश:।
भेदो भावद्वयस्येह ब्रूहि मे परमेश्वर।।१५।।
पार्वती प्रश्न करी सहजें। सोऽहंभाव कोणासीं म्हणिजें। आणि दासोऽहंभाव बोलिजें। कवणासीं पैं।।८७।। या उभयांसीं भेद कांहीं। असे अथवा मुळीचि नाहीं। बरवा अर्थ निरूपिजें लवलाही। कैलासपति देवराया।।८८।।
शिव उवाच-
दासोऽहं भक्तभावश्च सोऽहं भावश्च जंगम:।
भेदो भावद्वयोर्नास्ति प्रकृतिप्रतिबिंबवत्।।१६।।
शिव म्हणे वो पार्वती। तुज निरोपुं भावस्थिति। ते ऐकोन धरी चित्तीं। सावधपणें तत्त्वां।।८९।। दासोऽहं म्हणिजे भक्तोत्तम। सोऽहं म्हणिजे तो जंगम। या उभयां भेद नाहीं हें वर्म। गुरुमुखें जाणिजें।।९०।। बिंब आणि प्रतिबिंबासीं। जैसा भेद नाहीं दोहोसीं। तैसा भक्त आणि जंगमासीं। भेद नाहीं वो देवी।।९१।। मीचि भक्त मीचि जंगम जाण। आपुलिया सुखालागीं झालो दोन। परि भंगलें नाहीं एकपण। जाणती खूण ज्ञानी ते।।९२।। सोनें भूषणपणा आलें। तरी काय सोनेपण भंगलें। तैसें देव भक्त होवोनि ठेलें। माझें स्वरूप।।९३।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे स्थावरजंगमनिर्णयनिरूपणं नाम अष्टमोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक १७, ओव्या १२७.
परमरहस्य
अध्याय आठवा
।। श्रीगणाधिपतये नम:।।
सप्तमीं निरूपिली वस्तुकळा। जी अतक्र्य ब्रह्मादि सुरां सकळां। तिचें परमगुह्य दयाळा। श्रवण केलें सादर।।१।।
देव्युवाच-
बाह्यांगे दृश्यते लिंगं प्राणो देहस्य मध्यत:।
कथं प्राणस्य लिंगेन संबंधो भवति तद्वद।।१।।
पार्वती विनवी जी त्रिपुरारी। लिंगासीं देह मिश्रित कवणेंपरी। प्राण असे देहाभीतरीं। तो देहासीं मिश्रित कैसा।।२।। लिंग देह प्राण तिन्ही। येरयेरासीं मिश्रित होवोनि। कैसे असती जी शूलपाणि। तें निरोपा मज।।३।।
शिव उवाच-
यथा प्राणस्य संबंधो विद्यते इंद्रियै: सह।
व्याप्यव्यापकभावेन सलिले पावको यथा।।२।।
जैसा प्राणलिंग सिद्ध झाला। तो सर्वेंद्रिय व्यापूनि राहिला। व्याप्य-व्यापकत्वें देहीं भरला। जळीं अग्निसम पैं।।४।। जैसें जळ उष्ण होय अग्नीसंगें। तैसें देह मिश्रित लिंगार्चनयोगें। प्राण तरी सहज अंगे। एकचि असे।।५।। तरी लिंगासीं देह मिश्रित कोणेपरी। पूर्वील देहबुद्धि अव्हेरी जरी। दाही इंद्रियें लिंगार्चन करी। अखंड लाविजें।।६।। ऐसी ज्याची सर्व संबंधे तुटली। त्याची लिंगकळेसी बुद्धि बांधिली। तया प्राणलिंग पदवी आली। तो अंश होय माझाचि।।७।।
घटमध्ये स्थितं तोयं वन्हिर्ज्वलति बाह्यत:।
वन्हिज्वालासुसंयोगात् उष्णं भवति वार्यपि।।३।।
जळ तरी घटामाजीं असे। अग्नि तो बाहेरीच दिसे। परि घटाग्निसंयोगें होत असें। जळ तप्त।।८।। घट तप्त होतां जळ तप्त। मग तिन्हीहि अग्निरूप होत। एकमेकांचें संयोगें मिश्रित। होती तात्काळ पैं।।९।। तेवि सत्क्रिया आणि लिंगार्चन। करिती गुरुत्वें पूजन। लिंगसंगें देह झाला लिंगरूप जाण। मग भेद कैंचा।।१०।। लिंगसंगें देह एक होतां। देहसंगें सहज प्राणऐक्यता। एवं देह प्राणलिंग एकरूपता। गुरुकळा बिंबे।।११।। ऐसे तिन्ही भावें करी एकार्चन। तोचि भक्त शिवाचारसंपन्न। अथवा जंगम झाला तरी भजन। येणेंचि भावें करावें।।१२।। इष्ट प्राण भाव जाण। लिंगरूपाची मुख्य खूण। गुरुमंत्रातें आठवून। पुजितां पुण्य विशेष।।१३।। जो ऐक्यभावें न करी पूजन। जरी भाव धरी भिन्न भिन्न। तरी तो भक्त असे परि जाण। पूजा त्याची निर्फळ।।१४।। सांडोनिया लिंगार्चना। जो करी आन देवतापूजना। तो शिवभक्त नोव्हे त्याचिया वदना। अवलोकूं नये।।१५।। आणखी सांगतो सोय एक। शिवलिंगपूजा न सोडावी देख। प्राणहानी झाली तरी नेमिक। व्रत न सोडावें पूजेचें।।१६।। लिंगपूजा सोडूनि मानव। जरी भोगी राज्यवैभव। तोहि पावे नरकार्णव। प्रायश्चित्ताकारणें।।१७।। जो सर्व देवांसीं असे श्रेष्ठ। सर्व ऋषिमुनींसीं वरिष्ठ। तो लिंग हृदयीं असोनि नष्ट। आन देवतांसीं पुजितो।।१८।। ज्यासीं हरि विरंचि ध्याती। हरीनें नयन वाहिलें जयाप्रति। तो इष्टलिंग हृदयीं असूनि पुजिती। देवतांतरा मूढ।।१९।। गण-गंधर्व-इंद्रादिकांसीं। वरिष्ठ शेष-कूर्म-वराहासीं। तो शिव सांडोनि देवतांतरांसीं। भजे तो मूर्ख जाणावा।।२०।। शिवभक्त म्हणविणें। परि शिवासीं न पुजणें। तरी निरयासीं जाणें। क्रियाभ्रष्ट म्हणोनिया।।२१।। थोरीव मिरवी शिवाचाराची। क्रिया राहटे आणिकाची। व्यभिचारिणी सेवा करी पतीची। परपुरुषीं जावया।।२२।। आपुला आचार सांडून। पर-आचारीं वर्ते रात्रंदिन। श्वान-सूकरयोनी जाण। भोगील कल्पवरी।।२३।। आणखी सांगणें तुज एक। कुलवधूची रीति देख। प्राण गेलिया न पाहें मुख। परपुरुषाचें।।२४।। सति पति सदाचारें वर्तती। तैसीच वीरशैवधर्म स्थिति। एकनिष्ठें भजावी लिंगमूर्ति। दुजी भक्ति दोषिक।।२५।।
अंतऱ्ज्ञान क्रियाबाह्यं एकीभावं भवत्यपि।
यथा कुंभोदकं तप्तं भवत्यग्निप्रभावत:।।४।।
यालागीं आपुली क्रिया न सांडिजें। गुरुकृपें ज्ञान साधिजें। ज्ञान आंतरबाह्य क्रिया कीजे। बरवी निपुण।।२६।। अंतरीं ज्ञान बाहेर क्रिया। दोन्ही एकचि झालिया। मग कैंचा प्रपंच कैची माया। तया सत्य शांत शरणांतें।।२७।।
यथा कुंभजलं देवि दह्यते अग्निवेधत:।
तथा ज्ञानक्रियावेधाद्देहो लिंगमयो भवेत्।।५।।
बाह्य क्रिया अंतरीं ज्ञान। दोहीचें कैसें होय एकपण। तयासीं दृष्टान्त देईन। तो परिस देवी।।२८।। अग्नि तरी असे बाहेरी। जळ असे घटाभीतरीं। घट तप्त होय अग्निकरी। तंव जळ तप्त होय।।२९।। तेवि क्रिया करितां निपुण। इष्टलिंगां करितां अष्टविधार्चन। एवं क्रियायोगें देह प्राण। लिंगकळा पावती कीं।।३०।। यालागीं स्वक्रिया न सांडावी। गुरुकृपें अंतऱ्ज्ञानकळा धुंडावी। ऐसी एकविध भक्ति होआवी। वीरशैवीं निश्चळ।।३१।।
शिवप्रसादसंपत्त्या जातनिर्मलदेहिनाम्।
पंचेंद्रियप्रवृत्ति: स्यात् पंचतनुप्रतर्पणम्।।६।।
प्राणाची मलिनता गेलियाविण। प्राणलिंगीं लिंगकळा न ये जाण। म्हणोनि दश इंद्रियें दमून। स्वाधीन ठेविजें।।३२।। प्राणाचें भोक्तव्य असें जें जें। तें आधी लिंगासीं अर्पिजें। मग आपण आरोगिजें। ऐसा नेम असावा।।३३।। यापरी क्रिया आचरण। हें प्राणलिंगीचें लक्षण। क्रिया आणि ज्ञानाविण। न पावे मोक्षमार्ग।।३४।। ऐसे पूर्व अवगुण जातां सहज। प्राणलिंगकळेचें प्रकाशेल तेज। मग देह होय प्राणलिंगी सहज। लिंगलक्षण अंगां ये।।३५।। तें कैसें म्हणसी तरी ऐक। ईश्वराचीं जीं पंचमुखें नेमक। पंचेद्रियें अर्पिजें सुख। जें जें होईल तें तें।।३६।। येणेंपरी क्रिया आचरण। होतां सहजचि प्राणलिंगां अर्पण। म्हणोनि क्रिया ज्ञान उभयांविण। न साधे वस्तु।।३७।। क्रियाहीन ज्ञानेकुन। वस्तु साधू म्हणती अज्ञान। अथवा क्रियेनेंचि साधू ज्ञानेविण। भाविती तेहि मूर्ख।।३८।।
न क्रियारहितं ज्ञानं न ज्ञानरहिता क्रिया।
उभयोर्योग एवास्य जन्तोर्बंधनमोचक:।।७।।
क्रियेविण न शोभें ज्ञान। ज्ञानेविण न शोभे क्रिया जाण। म्हणोनि दोहींसीं अनुलक्षून। वर्तिजें भावें संसारीं।।३९।। जैसें प्रकृति पुरुष दोन्ही। एकचि मतें होऊनि। सृष्टिकर्म अनुदिनी। चालविती तैसें हें।।४०।। क्रियेविण ज्ञान दुर्बल। ज्ञानाविण क्रिया निर्फळ। उभययोग होतां प्रबळ। वस्तु येत निजहातां।।४१।। यासीं दृष्टान्त सांगतसे एक। जेणें संदेह फिटे देख। आपले मनीचा संकल्प। सुटोनि जाय तत्क्षणीं।।४२।।
प्रदीप्तपावके देशे अन्धपंगुसुसंगतौ।
परस्परसहायेन दु:खान्मुक्तौ बभूवतु:।।८।।
एक अंध एक पंगु तत्त्वतां। उभय एका स्थळीं असतां। तेथ अनल लागला तत्त्वतां। तो देखिला पंगूनें।।४३।। पंगु तें ज्ञान जाणें डोळस। अंध तो क्रिया करी दृष्टी नाहीं त्यास। परि पंगूनें देखिलें अग्नीस। गृह जळतां।।४४।। परि क्रिया-पायाविण अडला। तेथून न निघवे सुखस्थळाला। मग अंधासीं विचार मांडिला। पंगूनें कैसा।।४५।। पंगु म्हणे अंधालागूनि। काय निश्चिंत अससी गृहीं लागला अग्नि। आतां मी तूं एक होवोनि। जाऊं निघोनि वेगेसीं।।४६।। पंगु म्हणें अंधालागून। मी तुझे खांदीं बैसोन। जिकडे जिकडे मार्ग दावीन। तिकडे तिकडे चालावें।।४७।। हा विचारु जरी न कीजें। तरी दोघेहि जळोन जाईजें। एकेविण एक न पाविजें। सुखस्थळातें।।४८।। तंव ते दोघे एक होऊनि। पावले गुरुकृपें सुखस्थानीं। तेवि ज्ञान क्रिया एकपणीं। वस्तु पाविजे वो देवी।।४९।। यालागीं येरयेराविण। स्वहित साधू म्हणती तें अज्ञान। न प्रकाशें चैतन्यघन। कल्पांतीहि पार्वती।।५०।। तेलवातीविण कैसे प्रकाशे ज्योती। वाद्ये वाजविल्याविण नाद काय उमटती। मेघभूमीविण निपजती। धान्यबीज काई।।५१।। यालागीं क्रिया-ज्ञानाविण। न प्रकाशें चैतन्यघन। म्हणोनि न विसंबती सज्ञान। उभयांसीं जाण पां।।५२।। दोही पंखांविण पक्ष्यासीं। न उडवे जेवि आकाशीं। तेवि क्रिया-ज्ञानेविण वस्तूसीं। न पाविजे कदा।।५३।। शतयोजन एक पक्ष असे। तरी पक्षी उडो लाहे काय कैसे। तेवि ज्ञान अथवा क्रिया एकचि असे। तरी तो तरे काई।।५४।। म्हणोन ज्ञान क्रिया दोहीविण। न तरे पार्वती सत्य जाण। दो पक्षांविण उड्डाण। न घडें पक्ष्यासीं।।५५।। क्रियाकर्म बरवे करिती। परि वस्तुज्ञान नेणती। तरी ते सरते न होती। शिवस्वरूपीं।।५६।। अथवा ज्ञान वस्तूचें बरवें जाणती। आणि क्रियाकर्म न करिती। तरी तेहि न तरती। म्हणोनि दोन्ही युक्त असिजें।।५७।।
गवां सर्पिशरीरस्थं न करोत्यात्मपोषणम्।
विकृतं कर्मरचितं पुनस्तासां तु भेषजम्।।९।।
गाईचें जें दिव्य घृत। अप्रत्यक्षपणें तियेचें शरीरीच वर्तत। परि ते पोषण न करी यथार्थ। तया गोदेहाचें।।५८।। दोहन करोनि दुग्धाचें। अग्निसंगें तापवून तयाचें। विरझण घालावें साचें। मग दधि होय पैं।।५९।। दधिमंथनेकरून। नवनीत बाहेर ये निघोन। तें कढवितां परिपूर्ण। घृत हातां येतसें।।६०।। तें घृत देतां गाईस। परित: पुष्टी करी तियेस। औषधरूप आले देहस्थ घृतास। क्रियेचेनि योगें।।६१।। शुद्धकर्म ती गाय जाण। तिचें भरणपोषण करून। बुद्धिविवेकें घेईजें दोहून। क्षीर तियेचें।।६२।। तें क्षीर लक्ष लावून ताविजें। निश्चयार्थ विरझण घालिजें। मग तें विवेकें घुसळिजें। निज नवनीत हातां।।६३।। तेंहि ताविजें स्वानुभवेकरून। मग तें घृत चिदानंदघन। तें दिनेंदिनें करीत आरोगण। पुष्टी चढे अनुपम्य।।६४।। नातरी घृत घेऊनि त्यागितां गाईसीं। मग घृतलेश कैसा येर दिवशीं। ऐसें न करावें करितां निजसुखासीं। मुकिजेल सत्य पैं।।६५।। ऐसी क्रिया घृतदात्री कळली। तीस विसंबूं नये पाहिजे पाळिली। मग दिनेंदिनें घेईजें नव्हाळी। निजघृताची।।६६।। घृत नासे कांहीं काला। अक्रिय ज्ञान तैसें बाळा। दुर्गंध सर्पीचा कंटाळा। तैसें जाण ज्ञान तें।।६७।। म्हणोनि नित्य गाईचें दोहन। तद्घृतेंचि होय शुद्ध अन्न। बहु दिवसाचें करवी वमन। तेवि ज्ञान अक्रियेचें।।६८।। यास्तव एका ज्ञानेंकरून। न होय सत्य योगसाधन। क्रिया आचरतां निर्वाण। विज्ञान येई हातां।।६९।। ऐसी क्रियेची आहे थोरी। केवळ ज्ञान न करी बरोबरी। क्रिया ज्ञान होतां एकसरी। विज्ञान प्राप्त।।७०।। विज्ञान तें कैसें ऐक। जेथ खुंटला विवेक। चिद्रूप ब्रह्म नैष्ठिक। स्वस्वरूपीं बिंबलें।।७१।। तेणें बाणें पूर्ण समाधान। अन्य विद्येमाजीं असे अभिमान। जेणें गर्वित करी भाषण। तें ज्ञान निंद्य जाणावें।।७२।। यालागीं प्रामाणिक क्रिया करिजें। मग सम्यक् ज्ञान होईल सहजें। दोहीविण कदापि न होईजें। प्राणलिंगसंबंध।।७३।।
देव्युवाच-
स्थावरं केन संमिश्रं जंगमं केन वा पुन:।
संबंधो ब्रूहि मे देव कृपया भूतभावन।।१०।।
पार्वती प्रश्न करीतसे। स्वामी स्थावर जंगम मिश्रित कैसे। हें निरोपावें प्रकाशें। ज्ञानाचेनि।।७४।।
शिव उवाच-
भक्तो माहेश्वरश्चैव प्रसादी स्थावरं भवेत्।
प्राणलिंगी शरण्यश्च लिंगैक्यो जंगमस्तथा।।११।।
तंव शंकर म्हणे गिरिजे। साही स्थळ जें बोलिजें। तें तीन तीन वाटणी म्हणिजे। स्थावर जंगम।।७५।। तें षट्स्थल म्हणसी कोण। भक्त माहेश्वर प्रसादी जाण। ते तिन्ही मिश्रित होऊन। स्थावर बोलीं बोलिजें।।७६।। प्राणलिंगी शरण ऐक्य जाणिजें। हे तिन्ही मिश्रित जंगम बोलिजें। येणेंचि परी षड् लिंग वोजें। मिश्रित स्थावरजंगमीं।।७७।।
आचारं गुरुलिंगं च स्थावरं शिवलिंगकम्।
चरलिंगं प्रसादं च महालिंगं च जंगमम्।।१२।।
आचार आणि गुरुलिंग। शिवलिंगहि असें स्थावरांग। चरप्रसाद महालिंग। जंगमांगीं वसती सदा।।७८।।
स्थावरं जंगमं चैव द्विविधं लिंगमुच्यते।
जंगमस्यावमानेन स्थावरं निष्फलं भवेत्।।१३।।
स्थावर आणि जंगम। हीं दोन लिंगें उत्तम। परि चरलिंग पूजा नेम। विशेष पुण्याकारणें।।७९।। स्थावरलिंगां संस्कारून। अर्चिती शिवकळा कल्पून। चरलिंग आहे याहून भिन्न। जंगम म्हणती जया।।८०।। स्थावराचे होय जंगम। जंगमाचे स्थावर हा भ्रम। न कळे गुरूवांचोनि वर्म। स्थिर चर काय तें।।८१।। स्थावर जंगम एक तरी न मानिजें। जंगम उदरोनि स्थावर पुजिजें। तरी ते पूजा निष्फळ जाणिजे। भेदवादी म्हणोनिया।।८२।।
स्थावरं जंगमं चैव एकरूपं तु मूलत:।
इति भेदपरिज्ञानं दुर्लभं श्रुणु पार्वति।।१४।।
सव्य वाम दिसती दोन्ही भाग। परि दोन्ही मिळोनि एकचि अंग। तेवि स्थावर जंगम एकचि लिंग। ऐसें जाणें तो दुर्लभ।।८३।। स्थावरजंगमाचीं स्थानें। तुज सांगूं पूर्णपणें। भक्त माहेश्वर प्रसादी जाणें। स्थावरांग जयाचें।।८४।। प्राणलिंगी शरण आणि ऐक्य। हें माझें सर्वदा प्राणाधिक्य। तयावेगळा मी राहणें अशक्य। ते जंगमरूप जाणावें।।८५।। ही माझी आत्मशक्ति। मी तुज सांगितली समूळ युक्ति। तैसीच आचरावी पार्वती। तरीच योग्य भक्त तो।।८६।।
देव्युवाच-
दासोऽहं भावक: को वा सोऽहं भावश्च कीदृश:।
भेदो भावद्वयस्येह ब्रूहि मे परमेश्वर।।१५।।
पार्वती प्रश्न करी सहजें। सोऽहंभाव कोणासीं म्हणिजें। आणि दासोऽहंभाव बोलिजें। कवणासीं पैं।।८७।। या उभयांसीं भेद कांहीं। असे अथवा मुळीचि नाहीं। बरवा अर्थ निरूपिजें लवलाही। कैलासपति देवराया।।८८।।
शिव उवाच-
दासोऽहं भक्तभावश्च सोऽहं भावश्च जंगम:।
भेदो भावद्वयोर्नास्ति प्रकृतिप्रतिबिंबवत्।।१६।।
शिव म्हणे वो पार्वती। तुज निरोपुं भावस्थिति। ते ऐकोन धरी चित्तीं। सावधपणें तत्त्वां।।८९।। दासोऽहं म्हणिजे भक्तोत्तम। सोऽहं म्हणिजे तो जंगम। या उभयां भेद नाहीं हें वर्म। गुरुमुखें जाणिजें।।९०।। बिंब आणि प्रतिबिंबासीं। जैसा भेद नाहीं दोहोसीं। तैसा भक्त आणि जंगमासीं। भेद नाहीं वो देवी।।९१।। मीचि भक्त मीचि जंगम जाण। आपुलिया सुखालागीं झालो दोन। परि भंगलें नाहीं एकपण। जाणती खूण ज्ञानी ते।।९२।। सोनें भूषणपणा आलें। तरी काय सोनेपण भंगलें। तैसें देव भक्त होवोनि ठेलें। माझें स्वरूप।।९३।।
सोऽहं दासोऽहंमाख्यातं केवलं नामभेदत:।
वस्तुभावद्वयं नास्ति प्रतिqबबसमं मतम्।।१७।।
सोऽहं दासोऽहं हें केवळ नामचि दोन। जैसे बिंब प्रतिबिंब असती अभिन्न।
तैसें देव-भक्तां नाहीं दुजेपण। देहीं आत्मा जैसा।।९४।। म्हणोनि भक्त माझा
आत्मा जाण। भक्त असे माझें हृदयींचें ध्यान। भक्त माझें जीवाचें जीवन।
जाणावी खूण पार्वती।।९५।। मज ईश्वरा ईश्वरपण। तें भक्तेंचि दिधलें जाण। मी
मिरवतो दैवतपण। तें भक्तांचेनि योगें।।९६।। मज भक्तांचेनि येथें असणें।
भक्तांचेनि योगें माझें जिणें। मी भक्तांचेनि महिमानें। श्लाघ्यतु
असे।।९७।। भक्तांचेनि मज भूषणें। भक्तांचेनि मज लेणें नेसणें। भक्तांचेनि
आज्ञावचनें। मी वर्तत असे वो देवी।।९८।। भक्तांचेनि कार्यगुणें। मज
निराकारां आकारणें। मी निर्गुण परि गुणासीं येणें। भक्तांचि लागीं।।९९।। मी
भक्ताचे प्रीतिभक्तीपायीं। संतोषोनि तुजहि देवी पाही। रावणासीं देतां
मागें पुढें कांहीं। पाहिलें काय म्यां।।१००।। नाना भक्ताची मज अत्यंत
प्रीति। म्हणोनि तुज भक्ताचे हातीं। देतां भिन्न भाव चित्तीं। मज न
उपजेचि।।१०१।। मी प्रसन्न होतो भक्तातें। भक्त फिरोनि पडती मातें। परि मी
घातपात त्याते। विचारीत नाहीं।।१०२।। तुझेचि देखतां पार्वती। मी प्रसन्न
झालो भस्मासुराप्रति। तो माझ्याचि मस्तकीं हात ठेवूं पाहे चित्तीं-। विकल्प
धरोनि।।१०३।। आपण त्याचा क्षय करावा। कीं मियांचि तयाचा फळभोग भोगवावा।
ऐसें विचारून धरिता शांतभावा। स्वगुणेंचि भस्म जाहला तो।।१०४।। येथवरी मज
भक्ताची प्रीति। मी सर्वस्वें असे भक्तांचे हातीं। भक्तांवांचून या
त्रिजगतीं। प्रिय नाहीं मज अन्य।।१०५।। भक्त माझें ध्येय मी त्यांचा
ध्याता। भक्त माझें ज्ञेय मी त्यांचा ज्ञाता। भक्त माझें भोग्य मी त्यांचा
भोक्ता। ऐसा पढियंता आम्हां तो।।१०६।। मी त्याचा देह तो माझा आत्मा जाण।
तयाचें हृदयीं माझी सेज सुखासन। येराविण येर एक क्षण। न राहो आम्ही।।१०७।।
आम्ही भक्तिभावाचे पाहुणे। भक्तीविण नावडती शाहणे। जे फुगती
भक्ति-अभिमानें। ते प्रिय न होती मज।।१०८।। करिती माझी भक्ति प्रीति। परि
माझिया भक्तां निंदिती। ते नावडती मज जरी प्रीति। निंदकु म्हणोनि।।१०९।।
माझी अत्यंत भक्ति करिती। येरीकडे हिंसा करी जीवघातीं। ती भक्ति नव्हे
माझिया घाताप्रति। प्रवर्तला तो।।११०।। तरी त्याची भक्ति घडे कैसी। मुखीं
घालोनि पंचामृतासीं। मग वरोनि हाणी डांगेसीं। मस्तकावरी।।१११।। माझी अत्यंत
भक्ति करी। कामक्रोधासीं थारा अंतरीं। चित्ताचें अनुसंधान विषयांवरी। तरी
तोहि नावडे।।११२।। म्हणोनि सांडोनि अभिमान। अखंड माझे करितां अनुसंधान। मग
मीचि तो आपण। होऊनि ठाके।।११३।। मी भक्तिभावाचा विकला। मी भक्तिभावें होय
जोडिला। भक्ताचे अंकित होय त्याचिया बोलां-। माजीं वर्तत।।११४।। म्हणोनि
भक्ता मज वेगळीक। नाहीं दोघे मिश्रित असो एकीएक। अष्ट महासिद्धि दासी
त्यांच्या देख। घरी राबती मुक्ति चाऱ्ही।।११५।। मुक्ति राबती हें नवल काई।
मी अंगें राबें पार्वती पाही। यापरतें विशेष नवल कांहीं। सांगावें
चोज।।११६।। जैसें मृत्युकाळीं अमृत गोड। कीं दुष्काळीं भणंगां
मिष्टान्नाचें कोड। याहून भक्तीची मज आवड। अत्यंत गोड वो देवी।।११७।। परि
क्रिया शुद्ध असे ज्याची। पूर्ण भक्ति मानूं त्याची। ज्ञान क्रिया उभयाची।
मेळणी असावी तेथेंहि।।११८।। ही माझी आत्मशक्ति। मी तुज सांगितली समूळ
युक्ति। तैसीच आचरावी पार्वती। तरी योग्य धर्म तो।।११९।। लिंगांगीं धर्म
अति सूक्ष्म। क्रियाहि तैसीच तीक्ष्णक्रम। उत्तम धर्माचा हा नेम। कठिणचि
जाणिजे।।१२०।। वीरशैवमतां बोधी। इतर धर्माची न लगे उपाधि। शिवतत्त्व
सर्वज्ञ संबोधी। असे उत्तम धर्म हा।।१२१।। त्यामाजीं हा परमरहस्य। ग्रंथ
उभवी श्रीपरमेश। लिंगाईत धर्माचे अधीश। बोधिती जनां संक्षेपें।।१२२।। हा
ग्रंथ अति उत्तम। लिंगभक्तीचा नित्यनेम। तयासाठीं अनुपम। निर्मियलें ज्ञान
पैं।।१२३।। जो येथ न धरी विश्वास। त्याचा सदा होईल कार्यनाश। आदरें रूढवी
जगास। लिंगभक्ति थोर पैं।।१२४।। शील क्रिया भक्ति धर्म। नम्रपणें वर्ततां
विक्रम। परधर्माचा तुटे भ्रम। स्वधर्मांकुर विरूढलिया।।१२५।। स्वधर्माचें
करावें मंडन। परधर्माचें होय खंडन। अशी दृढ शास्त्रांतून। वाक्यें शोधून
पाहावीं।।१२६।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। ईश्वरपार्वतीसंवादीं वर्तत।
त्याचा साद्यंत मथितार्थ। आदरें श्रुत केला मन्मथें।।१२७।।।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे स्थावरजंगमनिर्णयनिरूपणं नाम अष्टमोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक १७, ओव्या १२७.
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