Saturday, 28 December 2013

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य अध्याय पाचवा

 संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी
 संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित
परमरहस्य


अध्याय पाचवा

।। श्रीजंगमलिंगाय नम:।।
 
 
तुम्ही सांगितलें मुक्तस्वरूप। मागिले अध्यायीं अमूप। आतां वर्णावें जी स्वरूप। सद्गुरुनाथाचें।।१।।
 
देव्युवाच-
रूपं सद्गुरुनाथस्य ज्ञातुमिच्छामि सांप्रतम्।
ब्रूहि मे कृपया देव वल्लभोऽसि मम प्रिय:।।१।।

पार्वती म्हणे जी सदाशिवा। गुरु तोचि देव म्हणावा। ऐसें निरोपिलें एकभावा। तें मज आतां स्पष्ट करा।।२।। सद्गुरुरूप कैसें। सांगावें जी मज सौरसें। कोण भाव मूर्तत्वें असे। स्वरूपीं त्या।।३।।
 
शिव उवाच-
गुरुर्माता गुरु: पिता हितकृत् श्रीगुरु: स्वयम्।
गुरुदेवात्परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नम:।।२।।

शिव म्हणे हो वरानने। जो गुरूवांचोनि कांहीं नेणें। सर्वस्व माझे गुरु म्हणे। अनन्यभावें शरण तो।।४।। गुरु माता गुरु पिता। स्वहितकर्ता गुरुचि दाता। ज्यापरतें दैवत नाहीं तत्त्वतां। तया श्रीगुरूसीं नमूं आतां।।५।। सखा तो जिवलग जीवीचा। गुरुचि बंधु मित्र पूर्वज कुळीचा। जयानें परशिव केला जीवाचा। तया श्रीगुरूसीं नमो।।६।। आप्त सोयिरा लिंगांगीचा। जो उन्मेष षट्स्थल ब्रह्माचा। बोधक ऐक्य-तत्त्वाचा। तया श्रीगुरूसीं नमावें।।७।।
न गुरोरधिक: शम्भुर्न गुरोरधिको हरि:।
शिवकोपे गुरुस्त्राता गुरुकोपे न कश्चन।।३।।

गुरूहूनि अधिक नाहीं त्रिपुरारी। गुरूविण अधिक नाहीं हरि। कोपे शिव हरीच्या गुरु तारी। गुरु कोपी कोणी तारीना।।८।। हरि-हर गुरूचे अंकित। अखंड स्तुति ध्यान करीत। कळिकाळ पायां लागत। गुरुभक्तांचिया।।९।।
मन्नाथस्त्रिजगन्नाथो मद्गुरुस्त्रिजगद् गुरु:।
स्वात्माऽपि सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नम:।।४।।

म्हणोनि माझा नाथ जगन्नाथ। माझा गुरु तोच जगाचा गुरु होत। माझा आत्मा सर्वभूतात्मा निभ्रांत। तया श्रीगुरूसीं नमो नमो।।१०।।
देव्युवाच-
ध्यानं किमात्मकं ध्येयं पूजामूलं च किं भवेत्।
को वा मंत्र: सदा जप्य: मोक्षमूलं च किं वद।।५।।

पार्वती वदे जी शंकरा। दयानिधे करुणाकरा। मज सांगा जी उदारा। प्रश्ननिर्णय करोनि।।११।। कोण मूल ध्यानासीं। कोण मूल पूजेसीं। कोण मूल मंत्रासीं। मूळ मुक्तीसीं कोण पैं।।१२।।
 
शिव उवाच-
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्ति: पूजामूलं गुरो: पदम्।
मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरो: कृपा।।६।।

शंकर म्हणे पार्वतीप्रति। ध्यानास योग्य गुरुमूर्ति। तयाचें चरण सद्भावें पुजिती। अन्य पूजा कासया।।१३।। ध्यान श्रीगुरूचेंचि करावें। ध्यानां मूळ गुरुरूप जाणावें। पूजा मूळ गुरुचरण भावें। आन पूजा निरर्थक।।१४।। मंत्रासीं मूळ गुरुवाक्य जाण। आन मंत्र निष्कारण। जयासीं कृपा करी पूर्ण। तोचि मुक्त जाणावा।।१५।। श्रीगुरूविण मुक्ति नाहीं। वेद गर्जे ऊर्ध्वबाहीं। मुक्तिदाता श्रीगुरु पाही। मम रूप जाणिजें।।१६।। देवामाजीं मीचि ईश्वर। मर्त्यलोकीं वीरमाहेश्वर। क्रियाचारासीं आधार। सत्य जाण वो देवी।।१७।।
अंगुष्ठाग्रे अष्टषष्टितीर्थान्यपि वसंति ते।
सप्तसागरपादोध्र्वे तदध: कुलपर्वता:।।७।।

अंगुष्ठीं अडुसष्ट तीर्थें असती। अष्ट तीर्थें स्नानीं वसती। सप्त पदीं नांदती। जया श्रीगुरूचिया।।१८।। महातीर्थें सप्तसागर। तेंहि चरणीं वसती स्थिर। कुल पर्वत धुरंधर। गुरुपदीं नांदती तें।।१९।।
नक्षत्रग्रहरुद्राद्या तस्य गुल्फे वरानने।
जंघायां वसति नित्यं षट् त्रिंशत्तत्त्वमालिका।।८।।

ईशानादि रुद्र जे असती। गुल्फद्वयीं नवग्रह वसती। जांघें छत्तीस तत्त्वें नांदती। तया श्रीगुरूच्या।।२०।।
सप्तसागरपर्यंतं तीर्थस्नानेषु यत्फलम्।
सहस्रगुणितं तस्माद् गुरुपादांबुधारणम्।।९।।

सप्तसागर सृष्टीचीं तीर्थें। तें जें देती दानफळातें। सहस्रांशें गुरु-अंगुष्ठथेंबातें। सरी न पावती कीं।।२१।। फल जें गुरुतीर्थसेवनाचें। शेष वर्णूं शकेना महिमान त्याचें। मा म्यां काय वदावें वाचें। पामरानें।।२२।।
निराकारो गुरु: प्रोक्त: साकारो लिंगरूपभाक्।
ज्ञात्वैक्यमुभयोर्नित्यं भजेत्सायुज्यसिद्धये।।१०।।

श्रीगुरुमूर्ति असे निराकार। लिंगमूर्ति असे साकार। परि जाणोनि उभय निराकार। एकत्वें भजिजें।।२३।। पातळ घृत तेंचि गोठलें। तरी काय घृतपणा उणें आलें। तेवि निराकार गुरुत्व आकारलें। लिंगरूपें।।२४।। कापूर आकार दिसे रवा। परि तो परिमळचि आघवा। तैसा लिंगरूप जाणावा। गुरुचि आकारला।।२५।। म्हणोनि लिंग तो गुरुचि जाणिजें। अभेदत्वें उभया पुजिजें। तयाच्या अंगसंग होवोनि असिजें। निरंतर वो पार्वती।।२६।।
गुरुरूपं तु यो विद्वान् शिवरूपमिति स्मरन्।
अशरीरात्मसंबधी गुरु: शिष्यमनुग्रहेत्।।११।।

ज्ञानियां गुरु आणि शिव एक असे। उभयवर्ग निर्गुण निराकार भासे। गुरु निराकार भाविजें विश्वासें। सदा शिष्यानें।।२७।। लिंगरूपी जो परमपुरुष। जो न कळेचि वेदश्रुतींस। तया न म्हणावें आकारास। निर्गुण निराकारचि जाणावें।।२८।। गुरुहि आहे तयेपरी। तयाची देवाहून अधिक थोरी। वर्णितां शिणले वेद चारी। अगम्य रूपा अगोचरा।।२९।। शिव तो निराभास भासेना कोण्हासीं। पाहतां वेदशास्त्र-पुराणांसीं। तो भासवी सत्शिष्यासीं। म्हणोनि शिवासीं गुरु अधिक।।३०।। जो ध्यानाजपानामावरी। गवसेना कोण्हासीं कोण्हे परी। तो शिव स्वयें शिष्यासीं करी। म्हणोनि अधिक गुरु।।३१।। शिव परब्रह्म होय सही। परि भेटीं बोलणें न घडें कांहीं। हा भेटे बोले समाधान करी सर्वहि। यालागीं गुरु अधिक।।३२।। पूजापत्री भावभक्ति। कैसी करावी निराकाराप्रति। सेवेसी पूजेसी गुरुमूर्ति। म्हणोनि विशेष हा।।३३।। गुरु परशिव एकचि पाहीं। परि परशिवां बोधणें बोलणें नाहीं। हा बोधी बोले स्वयें स्वरूपाचे ठायीं। समरस करी।।३४।। निराकारचि आकारला। जडजीव तारावया गुरुरूप झाला। म्हणोनि मनुष्य म्हणूं नये तयाला। परब्रह्मचि तो।।३५।।
यो गुरुं कायरूपेण गुरुभावं च भावयेत्।
शिष्यज्ञानप्रदीपेन अप्रमाणमगोचरम्।।१२।।

शिष्यानें देहभावना गुरूसीं न भाविजें। अप्रमाण अगोचर गुरूतें जाणिजें। ऐसें जाणोनि भजे तरी ज्ञान सहजें। अप्रमाण अगोचर होय।।३६।। गुरूसीं देहधारी मानिता माणूस। ब्रह्मत्वें न बैसे विश्वास। तरी तो केवि पावें परब्रह्मास। गुरु माणूस मानितां।।३७।। गुरु मानव न भाविजें विश्वासें। तयासीं स्वयें ज्ञान प्रकाशें। मग आपणहि होय गुरुरूप सरिसें। गुरुध्यानें।।३८।। कीट भृंगी वैरध्यानें। तात्काळ भृंगचि होणें। मा शिष्य तरी सद्भावध्यानें। गुरुरूप केवि नव्हिजें।।३९।। म्हणोनि गुरूचें ध्यान करावें। तरी गुरुरूपचि व्हावें। झालिया कळिकाळ स्वभावें। शरण येती वो देवी।।४०।। गुरु देहधारी न म्हणावें। ब्रह्म अगोचर तया जाणावें। तरीच परब्रह्मां पावावें। येणे भावें करूनिया।।४१।। सद्गुरु अव्यक्त असती। व्यक्त शिष्यां उपदेशिती। प्रदीप्त ऐसी ज्ञानज्योति। दाखविती पूर्ण ब्रह्म।।४२।। तेव्हां तेहि होती गुरुरूप। घेती ब्रह्मानंदीं झेप। शिष्य-गुरुत्वाचा विक्षेप। न उरे कदा तेथें।।४३।। गुरुशिष्यां ना दिसे भेद। ध्यानयोगें असे अभेद। गुरुकृपें होय सद्गद। तो सत्शिष्य जाणावा।।४४।।
एक मूर्तिस्त्रयोभागा: गुरुलिंगं तु जंगम:।
जंगमं च गुरुर्लिंगं त्रिविधं लिंगमुच्यते।।१३।।

एक निर्गुण मूर्ति त्रिभागां आली। गुरु लिंग जंगम ऐसी भासलीं। तिन्ही मिळूनि एकरूप जई झाली। तोचि जंगम अथवा लिंग ।४५।। जो गुरु तोचि जंगम। जंगम तोचि लिंग उत्तम। त्रिविध लिंग ऐसा नेम। असिजो वो पार्वती।।४६।। यास्तव तीन रूपांमाझारीं। माझा वास असे सुंदरी। तदन्य स्थानांभीतरीं। अजाग्रत असे मी।।४७।। लिंगरूपी जो सद्गुरु। वाहे स्वधर्माचा अहंकारु। तोचि वीरशैवाचारु। उद्धारु जगामाजीं।।४८।। जो भाव गुरूसीं पाही। तोचि असावा लिंगाचें ठायीं। तोचि भाव जंगमाचे पायीं। विश्वासें असावा।।४९।।
गुरुदेवं महादेवमेकभावेन भावयेत्।
भावद्वयविभागेन नरके कालमक्षयम्।।१४।।

श्रीगुरूसीं सदाशिवासीं ऐक्यभावें। भजिजें तरी गुरुरूपचि व्हावें। द्वैतभावें निरयासी जावें। कल्पांतवरी।।५०।। गुरुदेव आणि महादेव। उभयीं नसे भेदभाव। म्हणोनि असे श्रेष्ठ प्रभाव। गुरुपूजनीं ठेविला।।५१।।
गुरुरूपोद्भवं लिंगं लिंगरूपोद्भवो गुरु:।
भक्त्तो भेदवादी यो चांडालो गुरुपातकी।।१५।।

गुरूपासोनि लिंगप्राप्ती। लिंगापासोनि गुरुतृप्ति। उभयां ठायीं शिवाची व्याप्ती। असे जाण पार्वती।।५२।। गुरूमाजीं लिंग लिंगामाजीं गुरु। ऐसा भक्ताचा असावा निर्धारु। लौकिकभावें धरी भेदाकारु। तो चांडाळ गुरुपातकी।।५३।। लिंगासीं गुरुभावनें पुजिजें। तें पूजन गुरूसीं अर्पें सहजें। म्हणोनि अष्टविधार्चनें पुजिजें। त्रिकाळ लिंगासीं।।५४।। स्थावर आणि दुजे चर। हे दोन लिंगाचे प्रकार। दोन्ही रूपीं मीच ईश्वर। परि गुरु चरलिंग जाणावें।।५५।। म्हणोनि गुरूसीं ध्यातां अर्चितां जाण। कोटी लिंगांचें घडें पूजन। अर्बुद पात्रीं भोजनदान। घडतसें अनायासें।।५६।। कोण्ही म्हणती लिंग तरी साकार। तेथें भजतां केवि संतोषें निराकार। यासीं दृष्टान्त ऐक साचार। जेणें संदेह फिटे।।५७।। नट सोंगरूप अवगला। सोंग देखून सभें संतोष झाला। सोंगा त्याग दिधला। नानाविध।।५८।। त्याग सोंगानें भोगिला। कीं सोंगातील नटासींच पातला। सोंग लटिकें म्हणोनि पावला। त्याग नटासीच कीं।।५९।। म्हणोनि लिंगजंगमीं भजन जें जें। कीजें तें तें अर्पें गुरूसीं सहजें। ऐसिया अभेदें जो भजें। तोचि गुरुभक्त वो देवी।।६०।।
यो गुरुं मृतभावेन तद्दिने यश्च शोचति।
गुरुलिंगप्रसादं च नास्ति तस्य वरानने।।१६।।

गुरु मृत्यु पावला हे भावना। भावून अंतकाळीं करी रुदना। तो गुरुपुत्र नव्हे अज्ञाना-। माजीं लेखिजें।।६१।। कां म्हणसी तरी तो निराकार। त्यासीं मुळीच नाहीं शरीर। तो अविनाश अजर अमर। मृत्यातीत तो।।६२।। ऐसिया सद्गुरूसीं नेणोनि। जो मृत मानी तो चांडाळ अज्ञानी। त्यासीं गुरुलिंगाचा प्रसाद कोण्ही। न देआवा वो देवी।।६३।। गुरु ब्रह्म ऐसें नेणोनि। भक्ति करी भावें जनीं। मृत्यु पावला हे मनीं आणी। तो चांडाळ जाणावा।।६४।। गुरुरूप सबराभरीत। त्याचा न लागें मानवा अंत। अदृश्य अगोचर अतीत। असें जाण सर्वांठायीं।।६५।। चरगुरु चिरंजीव। न मानी जो मानव। तया प्रसादवैभव। नाहीं नाहीं सर्वथा।।६६।। प्राण लिंगीं ऐक्य करोनि। लिंगां प्राणाहूनि प्रिय मानी। ऐसें अभ्यासोनि वर्तें जनीं। तोचि वीरशैव जाणावा।।६७।। त्यानें केला देहत्याग। तो जाणावा महायाग। प्राण राहे लिंगीं सांग। म्हणोनि दग्ध करूं नये।।६८।।
प्राणेन लिंगसंयुक्तं लिंगेन प्राणसंयुतम्।
प्राणेन त्यक्तकायस्य दहनं वर्जयेत् सुधी:।।१७।।

लिंग आणि प्राण एक होऊनि। प्राण लिंगीं लिंग प्राणीं मिळोनि। जे असती त्याचिया देहालागूनि। दग्ध न कीजें वो।।६९।। कां म्हणसी तरी ऐक पुढती। तुज निरोपितो दृष्टान्तीं। जेणें देहाची बुंथी। तात्काळ जाय।।७०।।
दग्धस्य दहनं नास्ति पाकस्य पचनं न हि।
ज्ञानाग्निदग्धदेहस्य नच दाहो नच क्रिया।।१८।।

जैसें सिद्ध अन्नातें उपरी। पुन: पचविता निर्धारीं। विषतुल्य होय सत्वरीं। प्राणहरण करावया।।७१।। तयाचे परी लिंगधारी। दहन करितां दोष भारी। प्राणहानी होय एकसरी। म्हणोनि दाहो वर्जावा।।७२।। जें दग्ध झालें तें काय जाळावें। जें पाक झालें तें काय शिजवावें। तैसें ज्ञानाग्नीनें दग्ध स्वभावें। त्यासीं दग्ध करूं नये।।७३।। लिंग आणि प्राण एक होऊनि। येरयेरासीं वस्तुपणीं। तयाचा देह घालू नये अग्नीं। मा देहक्रिया कैंची।।७४।। जें शिवाग्नीनें दग्ध झालें। त्याचें दहन कदा काळें। करूं नये हिमनगबाळे। उदकक्रिया वर्जावीं।।७५।।
वरानने गुरुस्तस्मात् पशूनां पतिरिष्यते।
पशुपाशविनिर्मुक्त्यै गुरुभावं निरीक्षयेत्।।१९।।

आवो वरानने ऐक स्वभावपण। गुरु तो सर्व पशूंसीं पति म्हणोन। पशूंचे पाश छेदूनि निर्मुक्तपण। करी नाममात्रें।।७६।। ऐक्यभावें गुरु वस्तु निरीक्षितां। पशु प्राणी पावती मुक्तता। गुरु तोचि परब्रह्म भावितां। आपणहि तेंचि होय।।७७।। मीच असे पशुपति। सगुण रूपें श्रीगुरुमूर्ति। जन्मा खुंटवोनि मुक्ति। पाश छेदूनि देतसे।।७८।। जन्मां येण्याचीं कारणें अनेक। परि पापपुण्य समानचि देख। त्यावांचोनि नरदेहां सुख। मिळणेच नाहीं जाण पां।।७९।। जरी नरदेह पावला उत्तम। तरी पुढें चौऱ्यांशीचा नेम। ठेविला करोनि प्रचंड यम। शिक्षा द्यावया प्राणियांसीं।।८०।। त्याचे हेर चित्रगुप्त। भूमंडळीं असती अलिप्त। ज्या ज्या कर्मीं प्राणी होती लिप्त। तें तें वरिष्ठ लिहिताती।।८१।। अंतीं तया तेचि नेती। पापपुण्याचा झाडा घेती। निर्दय शिक्षा अधोगति। प्राणी भोगिती यातना।।८२।। परि जे माझे पूर्ण भक्त। तयापुढें यम राबत। तयासीं प्रार्थूनिया शिवदूत। अंतीं नेती शिवपदा।।८३।। माझिया दूतांची सरी। दुजे देव कांहीं न करी। ममाज्ञा मोडितां एकसरी। प्राप्त होती कष्टाते।।८४।। भस्मरुद्राक्षांकित देह। जरी यमदूत स्पर्शे लवलाहे। त्याचें शिर छेदूं पाहें। वीरभद्र साक्ष पैं।।८५।। जो प्राणी माझा अंकिला। त्या न पाहे यम डोळां। आज्ञा असे कळिकाळां। शिवभक्तां वंदावे।।८६।। शिवाचाराचेनि योगें। जे चालती अनुरागें। तया मोक्षाचिया जागे। कीजें सत्य कैलासीं।।८७।।
पतिरेव गुरु: स्त्रीणां परानुग्रह नैव च।
सुरतार्चितसंतुष्ट: सुभगो लिंलगसंयुत:।।२०।।

स्त्रीसीं पतीच गुरु बोलिजे। तियेसीं पराची दीक्षा न दिजे। तनमनधन अर्पण कीजें। तियेसीं तेचि भक्ती।।८८।। जेणें जेणें अंगें पति संतुष्ट होय। तेणें तेणें अंगें होतु जाय। पतिव्रता म्हणावया कारण काय। जे पतिच व्रत तियेसीं।।८९।। ऐसियाचे अष्टभोगी संतुष्ट। जो लिंगसंयोगें भोगी लिंगनिष्ठ। अभेदभावनें भोगी वरिष्ठ। लिंगसंयोगें भोगी तो।।९०।। लिंगांगीची स्वपत्नी श्रेष्ठ। अभेदभाव भोगे वरिष्ठ। लिंगपूजा करी एकनिष्ठ। सदा संतुष्ट मानसीं।।९१।। पतिपत्नी असती एक। सव्यापसव्य अंगभौतिक। पूर्वार्जित असे नैष्ठिक। तरीच घडे सत्य हें।।९२।। गुरु लिंग आणि आपण एक। यालागीं स्त्रीसीं पतीचा अनुग्रह देख। म्हणोनि जरी दोहांसीं गुरु एक। घडे तरी भेद नाहीं।।९३।।
दीक्षा च पतिपत्न्योश्च गुरुरेको भवेत् खलु।
तन्मन: प्राणनैवेद्यमतिसौख्यं वरानने।।२१।।

स्त्री-पुरुषासीं एकचि गुरु। एकचि दीक्षा दिजे हा निर्धारु। दोहीची भावभक्ती घडे एकाकारु। भेद न घडे दोहीसीं।।९४।। त्या दोहीचें घडें जें भक्तिसुख। तो सर्वभोक्ता होय गुरुचि एक। संतोषोनि होय मोक्षदायक। उभय वर्गासीं।।९५।।
गुरुदीक्षा पतिपत्न्योरन्यान्या भेदभावत:।
यदि स्याच्चेतदा तत्तु भक्तिहीनं सुरेश्वरि।।२२।।

पतीसीं पत्नीसीं दोन्ही गुरु बोलिले नाहीं। घडले तरी भेद झाला पाहीं। दोघे भजती दो ठायीं। तंव दोन भाव जाहले।।९६।। दोन गुरु तंव दोनी भाव। दोन भाव तंव दोन देव। तंव मोक्षपदहि सर्वथैव। दो प्रकारीं असें कीं।।९७।। पतिपत्नी म्हणती एक। ती त्याची अर्धांगी अर्धभौतिक। हें तंव वाक्य झाले मिथ्यैक्य। जंव झालें दोन भाव।।९८।। हे ज्ञानिये तरी न मानिती। उभयाचा एकभाव असावा म्हणती। म्हणोनि दोहींसीं दीक्षाप्राप्ती। एक गुरुनें दीजे।।९९।। मुळीच दोन्ही भिन्न असावी। तरी दो गुरूची दीक्षा घ्यावी। ते आधीच ऐक्य स्वभावीं। जैसे देह आणि आत्मा।।१००।। यालागीं उभयासीं गुरु एक। एकभावना होतां होय निजसुख। भेद खंडतां मोक्षदायक। होय श्रीगुरुनाथ।।१०१।।
पतिपत्निभ्रातृपुत्रदासीगृहपदातिनाम्।
एकदीक्षा भवेद् देवि विशेषशुद्धभक्तिमान्।।२३।।

यालागीं पति पत्नी बंधु पुत्रां। एकचि गुरुदीक्षा सर्वत्रां। गृहीचे दासी सेवक पुत्रां। एकचि गुरु पाहिजे।।१०२।। कां म्हणसी तरी ऐक। सर्व घरचिया गुरु झालिया एक। तरी एकभाव होय सर्वांचा देख। एका गुरूचे पायीं।।१०३।। सर्वांचा एकभाव एकविश्वास झालिया। मग सहज जाती मोक्षाचिया ठायां। ते भिन्न भिन्न दिसती परि काया। एकचि सर्व असे।।१०४।। एकभावें विशेष शुद्ध भक्ति। जया घडे एकचित्तीं। तयासीं मोक्षपदाची प्राप्ती। घडे ऐक्य वो देवी।।१०५।।
गुरुरेको तथा लिंगं एकदीक्षा विशेषत:।
प्रसादस्त्वेकमेव स्यात्सत्यमेव मयोदितम्।।२४।।

घरीच्या सर्वांसीं गुरु एक। सर्वांसीं लिंग देतां एक गुरु देख। एक दीक्षा प्रसाद आणिक। दुसरा नाहीं।।१०६।। एक गुरु एक लिंग एक प्रसाद। एकत्वीं तेथें खंडला भेद। दुसरे नास्ति म्हणोनि मोक्षपद। अभंग वो वरानने।।१०७।। सति पति दोघे नांदता। दोहींचा भाव एक नसता। तरी मुक्तीची केवि होय प्राप्तता। म्हणोनि उभयां एक गुरु।।१०८।। भिन्न गुरु असतां जाण। भिन्नाचारें वर्तें मन। तेथें स्त्रीपुरुषां सौजन्य। कदाकाळीं असेना।।१०९।। दोन भाव दोन भक्ति। भिन्नाचारें उत्पन्न होती। परधर्मीं तया निंदिती। एकी नसे म्हणोनिया।।११०।।
न भवेत्पतिपत्न्योश्च गुरुद्वय वरानने।
गुरुद्वयं च लिंगं च द्वयमेव भवेत्तदा।।२५।।

पति आणि पत्नीस। एकचि गुरु असे उभयांस। दोहींस दोन गुरु होतां विश्वास। दो ठायीं झाला।।१११।। दोन गुरु तंव दोन लिंग दोन लिंग तंव भावहि द्विअंग। द्विभाव तंव मोक्ष न घडे चांग। म्हणोनि एकचि गुरु कीजें।।११२।। पुरुष हा स्वस्त्रियेचा गुरु। हाचि शास्त्राचा होय विचारु। परि पतिगुरु तो स्त्रीगुरु। निर्धारें जाणावा।।११३।। पतिगुरूच्या वचनें। सतीनें वर्तावें अनुदिनें। नाहीं तरी द्विभावें वरानने। मोक्ष नये हातासीं।।११४।। जरी स्त्रीपुरुषां दोन विचार। तरी तो जाणावा अनाचार। एकविचारें वर्ततां साचार। यशकीर्ति वाढतसे।।११५।। म्हणोनि भेदभावां त्यागावें। एका गुरुलिंगासीं भजावें। तेणें गुरुकृपाहि स्वभावें। प्राप्त होय अनायासे।।११६।। गुरुकृपा होता नि:शंक। तो गुरुरूप आवश्यक। गुरुपदाचा गर्व देख। आणीता नरक कल्पवरी।।११७।। देह कावलासी कैवल्य केलें। जेणें स्वस्वरूप शिष्यास दिलें। जीवां शिवपदीं बैसविलें। गुरुमातेनें वात्सल्यें।।११८।। ऐसें सगुण-निर्गुणातीत करोन। चारी मुक्तीचिया पैलतीरीं नेऊन। पांचवीच्या सिंहासनीं पूर्ण। बैसविलें कृपाळुत्वें।।११९।। म्हणोनि परब्रह्मीं जो पावला। त्यानें न विसरावें गुरुस्वामीला। विसरे तो जाय अधोगतीला। सत्य सत्य पार्वती।।१२०।। यास्तव गुरूपरतें दैवत। नाहीं नाहीं त्रिभुवनांत। मी तुज सांगितलें निभ्रांत। भजा निश्चयें श्रीगुरूसीं।।१२१।।
यदा दीक्षा द्विधा चैव प्रसादो द्विविधो भवेत्।
एवं हि द्वैविधं देवि विशेषं पातकं भवेत्।।२६।।

जेथें दीक्षा दोन तरी प्रसाद दोन। दोन भावें केवि होय पावन। भिन्न भेद तेथें पातक दारुण। घडें वो देवी।।१२२।।
पतिपत्निगुरुर्लिंगं एकभावं न पश्यति।
अष्टविंशतिकोटिस्तु नरके कालमक्षयम्।।२७।।

पतिपत्नी गुरुलिंगमूर्ति। जे एकभावें न पाहती। अठ्ठावीस कोटी वरुषें जातीं। निरयभोगासीं।।१२३।। म्हणोनि भेदभावां त्यागावें। एकत्वें गुरुलिंगजंगमीं भजावें। मग गुरुत्वचि स्वभावें। अंगासीं ये।।१२४।। जरी गुरुत्व ये अंगासीं। तऱ्ही फुगारा न ये त्यासीं। ऐसा गुरुभजनें पावून गुरुत्वासीं। गुरुभजनीच असिजें।।१२५।। शास्त्रीं जे पंचमा मुक्ति म्हणती। चहु मुक्तीचिया माथां तिची वसती। जी सायुज्यावरती गुरु-भक्ति। ते पांचवी बोलिजे।।१२६।। एऱ्हवीं सायुज्यपर जो जाला। तो तेव्हांचि क्रियाकर्मांसीं मुकला। परि गुरुभक्तीसीं उरला। सप्रेमभावें।।१२७।। जेणें कावलाचें कैवल्य केलें। रंकासीं राज्यपद दिधलें। जीवासीं शिवपदीं बैसविलें। जया गुरुनाथें।।१२८।। शेखीं सेवकत्वहि नेलें। निर्गुणत्व जेणें दिल्हें। गुण नास्ति म्हणोनि निर्गुणत्व दिल्हें। अनुपम्य केलें गुरुरायें।।१२९।। ऐसें सगुणनिर्गुणातीत करोन। स्वत:सिद्ध केलें चिदानंदघन। तया गुरूसीं न भजे ऐसा कोण। चांडाळ पातकी असे।।१३०।। म्हणोनि परब्रह्म जरी झाला। तरी भजिजें श्रीगुरुस्वामीला। न भजतां जाय निरयाला। सत्य सत्य वो पार्वती।।१३१।। म्हणोनि गुरूपरतें दैवत। नाहीं नाहीं वो निभ्रांत। यालागीं पूजन भजन एकान्त। त्यासींच कीजें।।१३२।। ऐसें गुरुमाहात्म्य निरोपिलें। तेणें पार्वतीचें चित्त संतोषलें। संतोषोनि पुसूं आरंभिलें। परमरहस्याते।।१३३।। इति श्रीगुरुमाहात्म्य उत्तम। हें गुरुपुत्रासीं गुह्य परम। तूं माझी भक्त म्हणोनि परम। निरोपिलें वो देवी।।१३४।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृत्य किंकर मन्मथ। पंचम अध्याय संपविला।।१३५।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे गुरुमाहात्म्यनिरूपणं नाम पंचमोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक २७, ओव्या १३५.
(संगणकीय अक्षरलेखन : सौ. उषा पसारकर, केतकी फ़ोटो टाईप सेटर्स, सोलापूर)
 

वीरशैव मराठी वाङ्मय : निर्मिति-प्रेरणा आणि स्वरूप

वीरशैव मराठी वाङ्मय : निर्मिति-प्रेरणा आणि स्वरूप

डॉ. शे. दे. पसारकर (https://www.facebook.com/shashi.pasarkar?hc_location=stream)
अध्यक्ष,
पहिले अखिल भारतीय वीरशैव मराठी साहित्य संमेलन, लातूर
प्रास्ताविक
वीरशैव मराठी वाङ्मयाची समृद्धी अलीकडे दृष्टिपथात येऊ लागली आहे. या वाङ्मयाचे एक संमेलनही नुकतेच लातूर येथे पार पडले. म० बसवेश्वरांच्या पूर्वकालातच महाराष्ट्रात वीरशैव संप्रदाय प्रतिष्ठित झाला होता असे साधार म्हणता येते. बुलढाणा जिल्ह्यातील साखरखेर्डा ह्या गावी असलेल्या श्रीपलसिद्ध बृहन्मठाची स्थापना इ० स० १०५८ मध्ये झाली, असा उल्लेख आढळतो. म० बसवेश्वरांचे जन्मवर्ष ११०५ असल्याचे एक मत आहे, तर ते ११३२ असल्याचे दुसरे मत आहे. यावरून वीरशैव संप्रदायाचा आणि वीरशैव समाजाचा वावर दहाव्या-अकराव्या शतकापासून आजच्या महाराष्ट्रात होता असे अनुमान काढता येते. यादवांच्या राज्यव्यवस्थेत वीरशैवांना उच्चाधिकार मिळाल्याची उदाहरणे आहेत. महादेव यादवाचा महाप्रधान देवराज आणि रामदेवरायाचा सेनापती चाउंडरस हे वीरशैव संप्रदायाचे अनुयायी होते. देवराजाने सोलापुरातील सिद्धरामेश्वरांनी स्थापिलेल्या कपिलसिद्ध मल्लिकार्जुनाचे दर्शन घेऊन पूजेअर्चेसाठी एक गाव इनाम दिल्याची नोंद संगुर शिलालेखात (शके ११२६) आहे. याचा अर्थ असा की, मराठीच्या प्रारंभकाळीच वीरशैव समाज महाराष्ट्राशी आणि मराठीशी एकरूप झालेला होता.
म० बसवेश्वरांचे क्रांतिकेंद्र कल्याणी (बसवकल्याण) मराठी सीमेला लागून होते. एवढेच नव्हे तर महाराष्ट्रातील मंगळवेढे येथे बसवेश्वरांचे वास्तव्य होते आणि तेथेच नवसमाजनिर्मितीच्या दिशेने त्यांनी पहिले पाऊल टाकले. त्यांच्या वैचारिक जडणघडणीत मराठी भूमीचा वाटा होता. मराठी राज्यकर्त्यांनी आजच्या कर्नाटकात सत्ताविस्तार केला होता आणि कानडी राज्यकर्त्यांनी आजच्या महाराष्ट्रातील काही भागांत आपली सत्ता स्थापन केली होती. त्यामुळे महाराष्ट्र आणि कर्नाटक ह्या दोन्ही प्रांतांत मोठ्या प्रमाणावर सांस्कृतिक देवाणघेवाण झाली. त्याचे प्रतिबिंब मराठी वाङ्मयात आणि विशेषत: वीरशैव मराठी वाङ्मयात पडलेले दिसून येते.

वीरशैव मराठी वाङ्मय : निर्मिति-प्रेरणा

मराठीच्या प्रारंभकाळातील वीरशैव वाङ्मय उपलब्ध झालेले नाही. परंतु, तेराव्या शतकातील ‘विसोबा खेचर-विरचित षट्स्थल (शडूस्छळि)' हा यादवकालीन ग्रंथ मात्र उपलब्ध झाला आहे. या ग्रंथात वीरशैवांच्या षट्स्थल-सिद्धान्ताचे प्रतिबिंब पडलेले आढळते. वीरशैवांचा संप्रदायमान्य षट्स्थल-सिद्धान्त जसाच्या तसा येथे आढळत नाही, परंतु हा ग्रंथ वीरशैवप्रभावित आहे हे मान्य करावे लागते. त्यामुळे उपलब्ध वीरशैव मराठी वाङ्मयातील पहिलेपणाचा मान या ग्रंथाकडेच जातो. त्यानंतर मात्र अडीच-तीन शतके वीरशैवांच्या मराठी वाङ्मयमंदिरात नकारघंटाच वाजताना दिसते. या काळातील वीरशैव वाङ्मय कालौघात नष्ट तरी झाले असेल, किंवा ज्ञानदेव-नामदेव-एकनाथादी प्रभावी संतपरंपरेपुढे हा संप्रदाय कसाबसा तग धरून राहिला असल्यामुळे वाङ्मयनिर्मितीच झाली नसेल. सोळाव्या शतकाच्या उत्तरार्धापासून मात्र वीरशैवांचे मराठी वाङ्मय विपुल प्रमाणात आणि कसदारपणे निर्माण झालेले दिसते. सोळाव्या शतकापासून निर्माण झालेल्या वीरशैव मराठी वाङ्मयाच्या आधारेच त्याच्या निर्मिती-प्रेरणा स्पष्ट करता येतात.

१. अस्मितेचे पोषण

सोळाव्या शतकात महाराष्ट्रातील सामाजिक आणि सांस्कृतिक परिस्थितीच अशी होती की त्यामुळे वीरशैव संतकवींना वीरशैवांच्या अस्मितेला आवाहन करावे लागले आणि तिचे पोषणही करावे लागले. सुलतानी सत्तेची दहशत आणि वारकरी संप्रदायाचे आकर्षण यांमुळे महाराष्ट्रातील वीरशैव संप्रदायाचे अस्तित्वच संपण्याचा त्या काळात धोका होता. त्यामुळे मन्मथादी वीरशैव संतकवींनी वीरशैवांची सांप्रदायिक अस्मिता जागी करण्याचा यशस्वी प्रयत्न केला. अस्मितेचे पोषण करण्यासाठी अभंगरचना आणि ग्रंथरचना केली.

‘सदा भस्म लावा भाळी। लिंग पूजा बिल्वदळी।।'

‘जयाचीये वाचें नये शिवनाम। तो जाणा अधम महादोषी।'

‘इष्टलिंग हृदयावरी। अन्य देवा नमस्कारी।।
महा पाप तया जोडें। तेणें अध:पात घडे।'

‘शिव शिव म्हणतां वाचें। काय गेलें तुझ्या बाचे।'
‘सांडोनी स्वधर्म परधर्मीं रत। पाप तें तयास आचरतां।'
‘निजूं नका जागा जागा। आपुल्या स्वधर्मानें वागा।'
‘सांडोनी शिवातें दुजियातें ध्याती।
त्याचें तोंडीं माती जन्मोजन्मी।।'
‘शिव तोची देव येर ते सेवक। विष्णुब्रह्मादिक सुरासुर।।'
‘शिवभक्ताचे कुळीं जन्मुनी करंटा। न भजे चोरटा शंकरासी।।
छपवूनी लिंगा घाली तुळशीमाळ। जन्मला चांडाळ मातेगर्भी।।'

अशी कठोर वचने मन्मथवाणीतून प्रकटली ती वीरशैवांची अस्मिता जागी करण्याच्या उद्देशाने! त्यांनी ‘परमरहस्य' हा भाष्यग्रंथ रचला तोही वीरशैवांची आचारसंहिता आचारशून्य वीरशैवांच्या समोर ठेवण्यासाठी. परपंथप्रवेशासाठी उतावीळ झालेल्या स्वजनांना त्या धर्मपंथातील ज्याचे म्हणून आकर्षण वाटले ते सर्व मन्मथादी संतकवींनी वीरशैव संप्रदायात आणले. ‘हरिपाठा'प्रमाणे ‘शिवपाठ' आणला, सांप्रदायिक भजने रचली, कीर्तन परंपरा निर्माण केली. हरिभक्तपरायण मंडळीप्रमाणे शिवभक्तपरायण माणसे तयार केली. भारूडाप्रमाणे गबाळरचना केली. एवढेच नव्हे तर लिंगरूपात पूजिल्या जाणाऱ्या शिवाला त्यांनी
‘भाळी भस्म चंद्रकळा। गळां शोभे रुंडमाळा।।
गौरवपु शुभ्रकांती। अंगी चर्चिली विभूती।।'
अशा सगुण-साकार रूपात उभे केले. वारकरी संप्रदायाशी समांतर अशीच ही वाटचाल होती. यावरून अस्मितेचे पोषण ही वीरशैव मराठी वाङ्मयाची निर्मिति-प्रेरणा होती असे म्हणता येते.

२. संप्रदाय-विचाराची ओळख
संप्रदाय-विचाराची ओळख करून देणे ही वीरशैव मराठी वाङ्मयाची दुसरी निर्मिति-प्रेरणा होय, हे परमरहस्य, विवेकचिंतामणी, शिवागम, सिद्धान्तसार, वीरशैवधर्मनिर्णयटीका, अष्टावरणमाहात्म्य, शिवागमोक्तसार, शिवरहस्य, वीरशैवतत्त्वसारामृत इत्यादी ओवीबद्ध ग्रंथांची निर्मिती पाहिल्यावर पटते. शक्तिविशिष्टाद्वैत, षट्स्थल-सिद्धान्त, अष्टावरण व पंचाचार हे वीरशैव विचारविश्वाचे चार स्तंभ आहेत. ओवीग्रंथांमधून आणि अभंगादी स्फुट रचनांमधून वीरशैव संतकवींनी त्यांची ओळख करून देण्याचा प्रयत्न केला आहे. त्यासाठी संस्कृत व कन्नड ग्रंथांचा त्यांनी आधार घेतला आहे. केवळ विचाराचीच ओळख करून देऊन ते थांबले नाहीत, तर त्यांनी संप्रदायाचे आचरण केलेल्या श्रेष्ठ पुरुषांची चरित्रेही ओवीबद्ध केली आहेत. त्यामध्ये अल्लमप्रभू, म. बसवेश्वर, सिद्धरामेश्वर, मन्मथस्वामी, हावगीस्वामी आदी संतपुरुषांचा आणि शिवभक्तांचा समावेश आहे. शिवशरणांचा आत्मसंवाद असलेल्या कन्नड वचनांचेही मराठी अनुवाद याच प्रेरणेतून झालेले आहेत.

३. भक्तिभावनेचे प्रकटीकरण
भक्तिभावनेचे प्रकटीकरण ही वीरशैव मराठी वाङ्मयाची आणखी एक निर्मिति-प्रेरणा आहे. त्यांची अभंगकविता आत्मसंवादाच्या पातळीवर वावरते. अभंगांतून शंकराचे रूपचित्र रेखाटताना त्यांच्या भक्तिभावनेला भरते येते. त्याच्याशी लडिवाळ सलगी करताना, त्याच्या नामामृतात चिंब होताना
‘अंतरी बैसुन सुख द्यावे मज। आनंदाची भूज नाचवीन।।
नाचवीन मन तुझिया चरणी। गाईन कीर्तनी नाम तुझे।।'
अशी त्यांची आनंदविभोर अवस्था होते.
‘शिव नाद शिव छंद। वाचें शिव स्मरावा।।
शिव अवघा प्रेमानंद। सदाशिव स्मरावा।।'
अशा शब्दरूपात त्यांच्या अंत:करणातली भक्तिभावना साकार होते. आत्मनिवेदन, प्रेमकलह, करुणा, शिवभक्ती, उपदेश, स्वानुभव, गुरुगौरव, शिवगौरव अशा अनेक पैलूंनी मंडित झालेल्या वीरशैव अभंगवाणीमागे भक्तिभावनेला शब्दरूप देण्याची निखळ प्रेरणा आहे.

सुसंवाद आणि समन्वयशीलता
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वारकरी संप्रदायाकडे आकर्षित झालेल्या स्वजनांना थोपवणे हे जरी वीरशैव मराठी संतांचे उद्दिष्ट होते तरी त्यांनी अन्य संप्रदायांशी कधी संघर्ष केल्याच्या खुणा त्यांच्या वाङ्मयात आढळत नाहीत. उलट, वीरशैव संतकवींनी निर्मिती करताना मराठी संतसाहित्याशी सुसंवादी शैलीच उपयोजिली असे दिसते. वीरशैव संकल्पनांचे स्पष्टीकरण त्यांनी नेमकेपणाने आणि नेटकेपणाने केले. परंतु जो वीरशैव वारकऱ्यांच्या कीर्तन-भजनांत शांतिसुख शोधत होता त्याच्यासाठी, त्याला परिचित असलेल्या भाषेतच वीरशैव संकल्पना समजावून सांगण्याची आवश्यकता होती. लिंग (शिव) आणि अंग (जीव) यांची समरसता म्हणजे ‘लिंग\गांगसामरस्य.' परंतु हा पारिभाषिक शब्द न योजता मन्मथस्वामींनी मराठी संतसाहित्याशी सुसंवादी भाषेत मोक्षसंकल्पनेचे बहारदार वर्णन केले आहे--
‘गंगा सागराशीं मिळाली। ती पुन्हा न परते सागरुचि झाली।
तैसी चित्तवृति समरसली। पूर्णानंदी शाश्वत।।'परमरहस्य, ४.६
किंवा ‘ऐक्यस्थल' या संकल्पनेचे वर्णन पाहा--
‘ते परब्रह्मचि मुसावले। भक्तिसुखालागीं अवतरले।
वीरशैव नाम पावले। ऐक्यस्थल ते।। १२.१०८'
श्लोकानुवाद करताना मन्मथस्वामी सिद्धान्ताची (वीरशैव तत्त्वज्ञानाची) परिभाषा योजितात आणि श्लोकार्थाचा विस्तार करताना वेदान्ताची परिभाषा योजितात, हे ‘परमरहस्या'चा सूक्ष्म अभ्यास करणाऱ्या अभ्यासकांच्या लक्षात येईल. हे सर्वच वीरशैव संतकवींच्या वाङ्मयात आढळून येते. याचा अर्थ असा की, वीरशैव संतकवींचे वाङ्मय हे वीरशैवांचे सांप्रदायिक वैशिष्ट्ये एका बाजूने नोंदविते तर दुसऱया बाजूने ते वारकरी संतसाहित्याशी सुसंवादही करते. कन्नड आणि संस्कृत भाषांतील ग्रंथांचा अनुवाद असलेल्या वीरशैव मराठी संतांच्या रचना अस्सल मराठी वळणाच्या आहेत, हे लक्षात घेण्यासारखे आहे.
सुसंवादाप्रमाणेच विचारातील समन्वयशीलतेचा आढळ ह्या वाङ्मयात होतो. प्रारंभी मन्मथस्वामींच्या अभंगातील ‘हरि हर ऐसा नामी आहे भेद' असा शिव आणि विष्णू यांच्यातील भेद स्पष्ट करणारा विचार पुढील काळात
‘हरिहरा नाही द्वैत। व्यर्थ वादकाचे मत।।
जैसी ब्रह्म आणि माया। तैसी पुरुषाअंगी छाया।।
मायपीठ पांडुरंग। वरी ब्रह्म शिवलिंग।।' (शिवदास)
असा समन्वयशील झाला. भांडणाऱ्यांना भांडू द्या, पण आपण मात्र निरर्थक निंदेपासून अलिप्त राहावयास हवे, असे शिवदास तळमळीने सांगतात--
‘शिव थोर विष्णु थोर। ऐसे भांडो भांडणार।।
आम्हीं न लागूं त्या छंदा। व्यर्थ कोण करी निंदा।।'
वीरशैव संतकवी लक्ष्मण महाराज तर पंढरीच्या पांडुरंगावर एक तुलसीदलही वाहतात--
‘भवनाशनी पंढरी। पाहू चला हो झडकरी।।
पूर्णब्रह्म तो श्रीहरी। भीमातटी शोभतसे।'
प्रत्येक पंथाचे तत्त्वज्ञान आणि उपासनापद्धती भिन्न असली तरी त्यांचे परमध्येय एकच असते. नाम-रूपभेदाने उपास्य वेगळे भासले तरी भक्तितत्त्व समानच असते, याची वीरशैव संतांना स्वच्छ जाणीव होती. म्हणूनच त्यांच्या वाङ्मयातून उपासनेच्या कट्टरपणाबरोबरच हरिहरसमन्वयाचे बोलही घुमताना ऐकू येतात.

वीरशैव मराठी वाङ्मयाचे स्वरूप
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वीरशैव मराठी वाङ्मयाचे स्वरूप वैविध्यपूर्ण असून त्याचे वर्गीकरण पुढीलप्रमाणे करता येते.
(अ) ओवीग्रंथ : १. संस्कृत ग्रंथांवरील टीकाग्रंथ, २. संस्कृत व कन्नड ग्रंथांचे अनुवाद, ३. चरित्रपर ग्रंथ, ४. स्वतंत्र ग्रंथ.
(आ) अभंगरचना : १. स्फुट अभंग, २. कथात्मक अभंग, ३. चरित्रपर अभंग.
स्फुट अभंगांत गुरुगौरव, शिवगौरव, आत्मनिवेदन, उपदेश, विरहिणी, प्रेमकलह, करुणा असे कितीतरी विभाग करता येतात.
(इ) स्फुट रचना : १. लोकसाहित्य, २. अन्य स्फुट रचना.
लोकसाहित्यात भारूडे, वडप qकवा खापरी गीते, डफगाणे, डोलोत्सव गीते, लावणी, पोवाडा असे प्रकार आहेत.
भारूडांत जोहार, फुगडी, शरणार्थ, पिंगळा, बसवी, व्यभिचारिणी, ताकीदपत्र, नवरा, कोल्हाटीण, बाळसंतोष, भोळी, जागल्या, जोगवा, गोंधळ, वासुदेव, कापडी, सलाम, लखोटा, सौरी, मोहिनी, पाल, भूत, आग, चोर, सर्प, दरोडा, विंचू, फकीर, आंधळा, हलवाई, नटवा, पैलवान, पतिव्रता, उंदीर, घूस, तंटा, जोशी, होरा, पांगळा, चिरटे, जोकमार, म्हातारी अशी कित्येक भारूडे आहेत.
अन्य स्फुट रचनेत स्तोत्रे, पद, आरती, भूपाळी, अष्टक, पाळणा, गीत, कटाव आदी प्रकार आहेत.
पदांमध्ये मराठी, हिंदुस्थानी, हरदासी व कथात्मक पदांचा समावेश होतो.
यावरून वीरशैव मराठी वाङ्मयाचे वैविध्य आणि वैपुल्य लक्षात यावे.
वीरशैव मराठी संतकवींची आणि भक्तकवींची एक सुदीर्घ अशी परंपरा महाराष्ट्रात आढळते. सोळाव्या शतकात होऊन गेलेले संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी आणि त्यांच्या शिष्य-प्रशिष्यांनी विपुल वाङ्मय निर्मिले आहे. सोळाव्या शतकातच शिखरशिंगणापूर येथे शांतलिंगस्वामींनी मराठीत वीरशैव साहित्यनिर्मिती केली. जाणिवपूर्वक हे साहित्य समृद्ध करणाऱ्या संतकवींच्या आणि भक्तकवींच्या नावांची नोंद येथे करणे आवश्यक वाटते. मन्मथस्वामी, शांतलिंगस्वामी, लिंगेश्वर, बसवलिंग, सत्यात्मज, लक्ष्मण महाराज, शिवदास, महादेवप्रभू, काशीनाथ सुपेकर, वीरनाथ महाराज, गंगाधरस्वामी वडांगळीकर, शंकर मृगेंद्र स्वामी, मल्लनाथ महाराज, चन्नाप्पा वारद, बाळाबुवा कबाडी, विरूपाक्षप्पा शेटे, शिवगुरुदास, बसवदास, शंभू तुकाराम, आप्पा स्वामी, पंचाक्षरी स्वामी, गुरुदास आणि वीरशैव भक्तकवयित्री भावंडीबाई आदी कवींनी वीरशैव मराठी वाङ्मयाची निर्मिती केली आहे.
वीरशैव मराठी साहित्याच्या निर्मितीला सोळाव्या शतकाच्या अखेरीस प्रारंभ झाला, ती निर्मिती आजही अव्याहत चालूच आहे. आजच्या पिढीतील अनेक लेखक-कवी आपापल्या परीने वाङ्मयनिर्मितीची ही परंपरा पुढे चालवीत आहेत. ओवी-अभंग आजही लिहिले जात आहेत. कादंबरी, नाटक, कविता, कथा, चरित्र अशा ललित वाङ्मयप्रकारांतही वीरशैव मराठी वाङ्मयाची निर्मिती होत आहे. संस्कृत ग्रंथांचे व कन्नड वचनांचे अनुवाद, वीरशैव सत्पुरुष आणि समाजातील कर्तृत्वसंपन्न पुरुष यांचे चरित्रलेखन, वीरशैव मराठी वाङ्मयाची संपादने, समीक्षा, प्रबंध यांची निर्मिती अजूनही होत आहे. मध्ययुगीन काळात उगम पावलेली ही साहित्यधारा अजूनही वाहते आहे. ती थांबली नाही, आटली नाही, साचलीही नाही. आपली निष्ठा न सोडता वाक-वळणे घेत ती वाहत राहिली.

ओवीग्रंथ
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ओवीग्रंथांचे जे तीन प्रकार पडतात, त्यामध्ये परमरहस्य, गुरुगीता, शिवानंदबोध, वीरशैवधर्मनिर्णयटीका, अष्टावरणमाहात्म्य, शिवरहस्य इत्यादी संस्कृत ग्रंथांवरील टीकाग्रंथ होत. विवेकचिंतामणी, कर्णहस्तकी, लीलाविश्वंभर आदी कन्नड ग्रंथांचे अनुवाद आहेत. शिवकथामृत, सिद्धान्तसार, शिवागमोक्त्तसार, लिंगानंदबोध, ब्रह्मोत्तरखंड, शिवागम, वीरशैवतत्त्वसारामृत, गुरुमाहात्म्य असे संस्कृत ग्रंथाधिष्ठित ग्रंथ आहेत. सिद्धेश्वरपुराण, बसवपुराण, वीरशैवलीलामृत, बसवेश्वराख्यान, हावगीलीलामृत, श्रीबसवचरित्रामृत, बसवगीतापुराण, श्रीमन्मथचरितामृत, श्रीरमतेरामकथामृत इत्यादी चरित्रपर ग्रंथ आहेत आणि षट्स्थल, शांतबोध, अनुभवानंद, स्वयंप्रकाश, ज्ञानबोध, निजात्मसार असे स्वतंत्र ग्रंथही आहेत.
हया ओवीग्रंथांतील वाङ्मयीन वैशिष्ट्यांची समीक्षा अभ्यासकांनी आपापल्या परीने केली आहे. व्यक्तिदर्शन, संवादकौशल्य, प्रवाही निवेदन, विचार-भाव-कल्पना यांचे सौंदर्य, अलंकार आणि प्रतिमासृष्टी, त्यातील समाजदर्शन, प्रासादिकता या कसोट्यांवर यातील काही ग्रंथ निस्संशय उजवे ठरतात. सहजस्फूर्त आणि रसमय ओव्या वाचताना त्यांतील अर्थ सहजपणे उलगडत जातो. नमुन्यादाखल काही ओव्यांचा उल्लेख करतो. ‘परमरहस्या'त आपल्या भक्तांचे कौतुक करताना शंकर म्हणतात--
‘सीवकथा सीवगोष्टी। सांगतां उल्हास न माय पोटी।
तथापें मी धुर्जेटी। सदां तीष्ठतुसे।।१५.१२२
तें माझें अति जीवलग। तें आत्मा मी त्यांचे आंग।
तया मज वियोग। कदां नाही।।१२३
त्यां सत्यशरणांचा मी अंकित। तो चाले की मी खडे वेचीत।
मी त्या भोवता भोवत। वीघ्न वारीत तयाची।।१२५
जयासी तो वचन देईल। म्हणे जाय तुझे बरे होईल।
तया मज द्यावे लागेल। तो म्हणेल तेची।।१२६
त्याचे आह्मासी ध्यान। त्याचें आह्मा स्मरण।
त्याचें आह्मीं चरण। हृदयी धरुं।।१२८'
‘ज्ञानेश्वरी'तील ओव्यांची आठवण करून देणाऱ्या या ओव्या आहेत. विस्तारभयास्तव अधिक उदाहरणे देणे शक्य नाही. ओवीग्रंथांतील बहुतेक कवींची रचना प्रसाद-माधुर्यादी काव्यगुणांनी युक्त आहे. प्रतिपाद्य विषय श्रोत्यांच्या मनावर बिंबविण्याचे सामर्थ्य त्यांच्या लेखणीत आढळते. रसिकांचे रंजन करणे हे त्यांच्या रचनेचे ध्येय नसले तरी प्रतिपाद्य विषयांचे सुगम विवरण करताना अधूनमधून काव्यालंकारांची पखरण हे ग्रंथकार करतात आणि आपले प्रतिपाद्य आस्वाद्य बनवितात. समाजजीवनाच्या सूक्ष्म निरीक्षणामुळे व्यभिचारिणी, कुलवधू, मोळीविक्या, भाटनागर, बहुरूपी, कैकाड्याचे माकड, बासरीवादक आदी प्रतिमांचा ते वापर करताना दिसतात. यातील निवडक ओवीग्रंथांचा स्वतंत्र अभ्यास करून त्यांची वाङ्मयीन महत्ता स्पष्ट करण्याची आवश्यकता भासू लागली आहे.

अभंगरचना
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वीरशैवांचे अभंगवाङ्मय समृद्ध असून ते २०,००० पेक्षा अधिक संख्येने उपलब्ध झाले आहे. मन्मथस्वामी हे पहिले अभंगकार. त्यांच्यापासून प्रेरणा घेऊन पुढे अनेक कवींनी अभंगरचना केली. वीरशैवांची अभंगवाणी ही वारकरी संतांच्या अभंगवाणीबरोबरच नांदण्याच्या योग्यतेची आहे, असा समीक्षकांचा अभिप्राय आहे. त्यामध्ये आत्मनिवेदन, गुरुगौरव, शिवगौरव, शिवपाठ, करुणा, प्रेमकलह, विरहिणी, अद्वैत, योग, पूजन-भजन-कीर्तन, मनोबोध, वाचेस बोध, स्वानुभव, उपदेश असे सर्व पैलू समाविष्ट आहेत. त्यातील काही मधुर नमुने पाहा--
परमार्थ हा नोहे लेकराच्या गोष्टी। येथें व्हावा पोटी अनुताप।।
दगडाहून जीव करावा कठीण। अंतरींचा शीण सांडूनिया।। (बसवलिंग)
तृषाक्रांता जैसी जीवनाची गोडी। तैसी तुझी गोडी लागो मज।।
तारुण्यी वनिता भ्रतारा आवडी। तैसी तुझी गोडी लागो मज।। (लिंगेश्वर)
तुज पहातां शंकरा। सुख झालें विश्वंभरा।।
झाला सुखाचा सुकाळ। दु:ख गेले हे सकळ।। (लक्ष्मण)
पाहुनियां नीलकंठा। डोळां धरियेला ताठा।।
प्रेमें सुखाचें उमाळें। जैसा सिंधु उचंबळें।। (शिवदास)
देऊळा आधार देवाचाची झाला। देवळाने केला देव उभा।।
देवे आणियेली देऊळासी शोभा। देऊळाची प्रभा देवावरी।। (मन्मथ)
सुंदर रूपडे दिसे दृष्टीपुढें। मन झालें वेडें मन झालें वेडें।। (महादेवप्रभू)
अशी किती उदाहरणे सांगावीत? वीरशैव संतकवींचे भक्तिबहळ मन, त्यांची समाजविषयक कळकळ, दांभिकावर त्यांनी केलेले प्रहार, त्यांचे प्रगल्भ विचार आणि त्यांची पारंपरिक परंतु समृद्ध प्रतिमासृष्टी यांचे दर्शन त्यांच्या अभंगवाणीत घडते.
एका अभंगात संक्षिप्तपणाने अथवा अनेक अभंगांत विस्ताराने शिवभक्तांच्या अनेक कथा या संतकवींनी शब्दबद्ध केल्या आहेत. मृत झालेल्या चोराच्या मस्तकावर एका कुत्र्याने राखेने भरलेला पाय ठेवला, त्यामुळे त्याला त्रिपुंड्रधारणेचे पुण्य लाभले आणि तो चोर शिवलोकी गेला. ही कथा मन्मथस्वामींनी एकाच अभंगात सांगितली आहे. लिंगेश्वरांनी अशाच चार कथा चार अभंगांतून वर्णिल्या आहेत. परंतु लक्ष्मण महाराजांनी मात्र एका कथेवर अनेक अभंगांचा साज चढवून त्या रंगवून-खुलवून सांगितल्या. लक्ष्मण महाराजांनी स्कंदपुराण, शिवपुराण, बसवपुराण, शिवरहस्य आदी ग्रंथांतील भोळ्या शिवभक्तांच्या कथा अभंगबद्ध केल्या. या कथा अभंगबद्ध करताना त्यांनी मूळ कथांचा कोठे संक्षेप केला तर कोठे विस्तार केला. पुराणसंदर्भ असलेल्या कथांत आपल्या भोवतीच्या समाजजीवनाचे रंग भरले आणि संस्कृत-कन्नडमधील कथांवर मराठी साज चढवून त्या मराठी वाचकांपुढे ठेवल्या.
या सर्व कथांतून शिवभक्तीचे श्रेष्ठत्व प्रतिपादन केलेले आहे. शिवपूजन नकळत घडले तरी त्यामुळे पापात्म्याचा उद्धार होतो, हे भक्तिसूत्र लक्ष्मण महाराजांना सर्वांच्या मनावर बिंबवायचे आहे. वाल्ह्याचा वाल्मीकी होतो, या भारतीय परंपरेने मान्य केलेल्या परिवर्तनाची नोंद या कथांतून ते पदोपदी करीत आहेत असे जाणवते. त्यांच्या काही कथांची शीर्षके वाचली तरी याची कल्पना येईल. जार पुरुष, पातकी ब्राह्मण, पातकी भिल्लीण, भ्रष्टाचारी ब्राह्मण, दुष्ट भिल्ल इत्यादी. दुष्कर्मरत स्त्री-पुरुषांचा देखील शिवभक्तीने उद्धार होतो हे या कथांतून वर्णन करीत शिवभक्तीचे सर्वोत्तमत्व व सुलभता लक्ष्मण महाराज गर्जून सांगतात. याबरोबरच बिज्जमहादेवी, शिवभक्त बालिका, शिवभक्त धनगरपुत्र, महाशैव ब्राह्मण, शिवभक्त गोपबालक अशी शिवार्चनरत भक्तचरित्रेही त्यांनी रंगवून, रंगून सांगितली आहेत. काही कथांतून दुष्प्रवृत्त पुरुषांचे सच्छील शिवभक्तात परिवर्तन होते असा दिलासा ते देतात, तर काही कथांतून शिवभक्त पुरुषाचा आदर्श डोळ्यांसमोर उभा करतात.
लक्ष्मण महाराजांच्या कथात्मक अभंगांची धाटणी पौराणिक वळणाची असली तरी तत्कालीन समाजातील विविध प्रवृत्तींचे चित्रणही त्यांच्या अभंगांत आढळते. आपल्या मुलाला असाध्य रोग झाला म्हणून शोक करणारी बिज्जमहादेवी आपले हृदय पिळवटून टाकते. मुलाच्या मृत्यूने शोकाकूल झालेली तत्कालीन माताच त्यांनी आपल्यापुढे उभी केली आहे असे वाटते. शिवलिंगाला दूध पिण्याचा आग्रह करणारी बालिका, शंकराला वेड्यात काढणारा भोळा रुद्रपशुपती, जारिणीचा अनुनय करणारा जारपुरुष, रुसून बसलेली जारिणी, खोटे बोलून अवगुणी मुलाला पाठीशी घालणारी आई, कामातुर पतीला स्त्रीदेहातील अमंगळपण पटवून देणारी पत्नी, मद्यपान करून उन्मत्त झालेली भिल्लीण, सर्वांगावर कुष्ठ उठलेला रोगी अशी विविध पात्रे लक्ष्मण महाराजांनी कथात्मक अभंगांतून उभी केली आहेत. लक्ष्मण महाराज ज्या समाजात वावरत होते त्या समाजातील ही पात्रे होती, असे म्हणता येते. कथात्मक अभंगांत निवेदनकौशल्य आहे. क्वचित् काही ठिकाणी पाल्हाळिकता जाणवत असली तरी कथौघ पुढे पुढे वाहत राहतो. ही रचना प्रासादिक आहे, अर्थसुभग आहे. प्रसंगनिर्मिती, स्वभावरेखन, संवादलेखन ही कथेची वैशिष्ट्ये या अभंगांत आढळतात.
संतपुरुषावर चरित्रपर अभंगही अनेकांनी लिहिलेले आहेत.

स्फुट रचना
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स्फुट रचनेत लोकसाहित्य म्हणता येईल अशी भारूडे, वडप, डफगाणे, डोलोस्तव गीते, लावणी, पोवाडा आदी प्रकार समाविष्ट आहेत. यांतून लोकमानसाची विविध रूपे प्रकट होतात. लोकसाहित्य अधिकांशाने मौखिक असले तरी थोड्या प्रमाणात ते लिखित स्वरूपातही उपलब्ध झाले आहे. ‘जोहार मायबाप जोहार।' या भारूडातून मन्मथस्वामींनी देहगावच्या पाटलाचा भोळा कारभार वर्णन केला आहे. शिवदासांनी देहनगरच्या मनाजीपंत कुलकर्ण्याला ताकीदपत्र दिले आहे. त्यांत गावाची खराबी केली, परमार्थाच्या वाटा बंद केल्या, म्हणून तुम्हाला धरणे येईल अशी भीती घातली आहे. लक्ष्मण महाराजांचा ‘पिंगळा' कलियुगात कोणते अनर्थ होतील याचे भविष्यकथन करतो--
‘काळ आला दुर्धर। धर्म बुडेल फार।
फार होतील जारचोर। अल्पआयुष्यी नर।।
लेक मारील बापाला। स्त्री भ्रताराला।
शिष्य वधील गुरूला। मोठा दिसे हा घाला।।'
या वर्णनातील सत्य आजही पटण्यासारखे आहे. चन्नांनी, शिवदासांनी अनेक भारूडे लिहिली आहेत. सदानंद जोडजवळेकरांचे एक जळजळीत भारूड असे आहे--
‘थूऽ रांड थूऽ तुझ्या तोंडावर थूऽ ।।
परधर्मअभिलाषी व्यभिचारिणी तू।।धृ.।।
ज्याचे संगे लग्न केले, सुख नाही बोला।
बळे जशी लोकापाशी, घर देशी त्याला।।१।।
दाणे नसता भांडून मागे आपल्या नवऱ्याला।
पलंगावरी सुख देई पहा आणिकाला।।२।।
अंग सती, लिंग पती वीरशैवा झाली।
अलिंगीशी शरण जाशी लाज कोठे गेली?।।३।।'
या लोकसाहित्याला ‘गबाळ' अशीही एक संज्ञा आहे.
वीरशैवांत विवाहप्रसंगी ‘खापरीची गीते' म्हटली जातात. त्याला गुग्गळ, धूप जाळणे असेही म्हणतात. त्यावेळी जी गीते म्हणतात ती वडप होत. हा पथनाट्यासारखा एक प्रकार आहे. गीताच्या शेवटी ‘अहा रे वीरा' असा घोष केला जातो.
मन्मथस्वामींची ‘कराडच्या देवीवरील लावणी' प्रसिद्ध आहे. ते महाराष्ट्रातील पहिले लावणीकार ठरले आहेत. अशा प्रकारे पोवाडे, पदे, पाळणे, गीते, आरत्या, भूपाळ्या, अष्टके, स्तोत्रे अशी कितीतरी वीरशैवांची स्फुट रचना उपलब्ध आहे. श्रीराम गुळवणे यांच्या अष्टकाचा एक नमुना पाहा:-
‘नमो धर्मवीरा नमो देशिकेंद्रा। झडो त्वकृपे आमुची मोहनिद्रा।
जडो नित्य चित्ती तुझी ध्यानमुद्रा। घडो सत्कृती, मार्ग दावी दयाद्र्रा।।१।।
बुडालो अम्ही खोल पापार्णवात। प्रपंचाचिया घातकी कर्दमात।
अम्हा तारण्या स्वामि तूची समर्थ। तयाकारणे प्रार्थितो तूज नित्य।।२।।'
असे हे वीरशैव मराठी वाङ्मयाचे समृद्ध दालन आहे. या वाङ्मयावर पंधरा शोधप्रबंध लिहिले गेले आणि प्रबंधलेखकांना पीएच०डी० पदव्याही मिळाल्या. परंतु अजूनही या हिमनगाचा पूर्ण अभ्यास झालेला नाही. वाङ्मय उपलब्ध आहे, परंतु अप्रकाशित आहे. या वाङ्मयाच्या साक्षेपी अभ्यासानंतरच महाराष्ट्राच्या जडणघडणीत आणि मराठी वाङ्मयात वीरशैव मराठी वाङ्मयाचे कोणते आणि किती योगदान आहे हे समजू शकेल.
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जालना येथील जे० ई० एस० महाविद्यालयात,
महाविद्यालय आणि विद्यापीठ अनुदान आयोग यांच्या संयुक्त विद्यमाने आयोजित
राष्ट्रीय चर्चासत्रात वाचलेला शोधनिबंध
१२ फेब्रुवारी २००५

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य अध्याय चौथा

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी
संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित
परमरहस्य

अध्याय चौथा


।। श्रीगुरुवे नम:।।
 
तृतीय अध्यायाचे अंतीं। शिवें निरूपिलीं वीरशैव स्थिति। आतां प्रश्न करील पार्वती। ते ऐका सादर।।१।।

 
देव्युवाच-
को वा बंधश्च मोक्ष: क: स्वरूपमुभयस्य च।
कथयस्व तथा स्वामिन् अतीतं बंधमोक्षयो:।।१।।

 
पार्वती विनवी देवाप्रति। बंधमोक्षाची निरोपा स्थिति। बंधमोक्षाची कैसी रीति। निरोपावें स्वामी मज।।२।।

शिव उवाच-
विकल्परहित: शांतो निरहंकार एव च।
तद्रूपो ब्रह्मसम्बंधी मुक्तात्मा भवति ध्रुवम्।।२।।


सर्व संकल्प विकल्प जेथ निमती। निरहंकार सदा शांति। तद्रूप ब्रह्मचि होऊनि असति। तोचि मोक्ष पैं देवी।।३।। मी परब्रह्म निश्चयेसीं। नास्ति देखे भेदासीं। आपणाविण न देखे कवणासीं। तोचि मोक्ष जाणावा।।४।। इंद्रियव्यापारां बोळवण। ध्यानधारणा निमालें साधन। निमाली बुद्धि मन होय उन्मन। तोचि मोक्ष जाणिजे।।५।। गंगा सागराशीं मिळाली। ती पुन्हा न परते सागरुचि झाली। तैसी चित्तवृत्ति समरसली। पूर्णानंदीं शाश्वत।।६।। त्वंपद आणि तत्पदाचा। शबल शुद्धांश निवडिजे दोहींचा। उत्तम शबलांश शुद्ध गुण साचा। ऐक्यबोधु जो।।७।। जो ऐक्यबोधु तो असिपद। जो जीवाचा समरस आनंद। तो आपण होईजे स्वत:सिद्ध। तोचि मोक्ष जाणावा।।८।। सत् चित् आनंद तिन्ही जाणोन। तिन्हींचा जो साक्षी चिदानंदघन। तो स्वयें झाला जो आपण। तोचि मोक्ष वो देवी।।९।। आतां विशेष मोक्ष ऐक। जेथ साक्षित्वहि निमालें देख। दुजें नाहीं जेथें साक्ष आणिक। तेथें उरे कोण स्वरूपें।।१०।। आतां बद्धता जेथें नाहीं। तेथें मोक्ष कैंचा कांहीं। वर्म नेणती म्हणूनि पाही। बद्धमोक्ष रूढविती।।११।। आतां बद्धता ती ऐक। ते दुष्कृत्याचे लेख। तेहि सांगू दोषिक। बद्धतालक्षण।।१२।। जो अहंकारें गर्वित। कामाग्नींत लोलांगत। काम्यकर्मीं ज्याचें चित्त। तेंचि बद्धता।।१३।। मी आचार्य महागण। आमुचे क्रियेपुढें आहे कोण। वाहे क्रियाकर्माचा अभिमान। तोचि बद्ध जाण देवी।।१४।। आम्ही वीरशैव जंगम। आम्हांपुढें कोणी नाहीं उत्तम। आम्हीच जाणो म्हणती लिंगवर्म। तेंचि बद्धता।।१५।। जळीं देखें आपुलिया छायेसीं। मी बुडालो म्हणोनि शोक करी मानसीं। तेवि नसतिया जन्ममरणासीं। भावितसे तेंचि बद्धता।।१६।। स्वप्नीचिया मरणां भिऊन। जागृती म्हणे मी कैसा वांचेन। तेवि संसारा लटिकिया दे मान। तेंचि बद्धता वो देवी।।१७।। वस्तूचें अत्यंत विस्मरण। विषयाचेंचि सदा ध्यान। संकल्पविकल्पें भरिलें मन। तीच बद्धता जाण।।१८।। अहंतामदें अखंडित। मीतूं-भेद वाहे मनांत। कामकर्दमीं जयाचें चित्त। सदा धुसधुसीत पैं।।१९।। ऐसें बद्धतेचें लक्षण। यालागीं व्हावें सावधान। श्रीसद्गुरूसीं नमून। कृपाहस्त दान मागावें।।२०।।

विकल्पी क्रोधनोऽशांत अहंकारसमन्वित:।
दुर्धर्षो लोलुपो जीवो बद्धो भवति निश्चितम्।।३।।

संकल्पविकल्प वाहे ज्याचें मन। मी कर्ता धरोनि अभिमान। अशांत क्रोधलोभाकडोन। सदा बांधिला तो।।२१।। नाशिवंत संसारीं सुख। अत्यानंदें मानी मूर्ख। क्रोधें करी रखरख। सर्वथा बद्ध तो।।२२।। मी जीव असे ही देहबुद्धि। ब्रह्मभावना नाठवे कधीं। कुकर्माचा सांगाती कुबुद्धिनिधि। तोचि बद्ध वो पार्वती।।२३।। कुबुद्धि कुकर्माचा नाद। विषयीं काक जैसा सावध। न घे शिवपूजेचा स्वाद। बंधा कारण येणेंचि।।२४।। ऐसें बद्ध-मुक्ताचें लक्षण। निरोपिलें तुज निवडोन। आतां बद्धमुक्तातीत कोण। ऐक वो देवी।।२५।। ते गोष्टी असे अगम्य। कोणासीहि नोव्हे गम्य। तूं माझा आत्मा म्हणोन। उत्तम गुह्य तुज सांगतसे।।२६।। परि तो न कळे सहज। अगम्य अगोचर तुज। मी सांगेन परम गुज। लक्ष देई आदरें।।२७।। जें गुह्य शास्त्रपुराणां न कळेंचि। जपतपध्यानां नाघवेचि। जें कां व्याकरणां ज्ञानां न येचि। तें गुह्य निरोपुं वो देवी।।२८।। जें बद्धमोक्षातीत। तें क्षराक्षरां साक्षभूत। तोचि तुज सांगू गुह्यार्थ। सावध परिस आतां।।२९।। ज्याचें होतां मानवां दर्शन। त्याचें तुटें बंधन। तो मज पावला जाण। स्तनपान न करी कदा।।३०।।

बंधमोक्षद्वयं नास्ति तद्द्वयातीत एव स:।
साक्षिरूपो महातेजा स्वयं ब्रह्मस्वरूपभाक्।।४।।

शंकर म्हणे पार्वतीप्रति। अलक्ष लक्षी ब्रह्मज्योति। तेथें लोभ भय वसती। नसे कदा काळीं।।३१।। ऐक पार्वती तिसरीयाचें लक्ष। अलक्षरूपें उभयांसीं साक्ष। बद्धता नाहीं तेथें कैंचा मोक्ष। तया परब्रह्मासीं।।३२।। जो लोभें नाहीं बांधिला। तो भवभया चुकला। म्हणोनि तो मुक्तचि बोलिला। लोभें केला बद्ध एकें।।३३।। जो बद्ध मोक्ष उभयपक्ष। जाणोनि असे सर्वसाक्ष। त्या केवि बाधे बंधमोक्ष। सदा सावध स्वरूपीं।।३४।। अजन्म नित्य परब्रह्म मानसीं। तया बद्धता मुक्तता कायसी। बद्ध तो बांधला मुक्त सुटला त्यासीं। म्हणणें केवि।।३५।। जरी मुळी बांधिलाचि नाहीं। तया सुटला म्हणणें कांहीं। बद्धमुक्त आठवुं जया नाहीं। तो सहजमुक्त तिसरा।।३६।। जो बंध मोक्ष उभया साक्ष। तो केवि बोलिजें बंधमोक्ष। तो साक्षीचाहि साक्ष। देहीं न राहे परि असे।।३७।। जेथ एकपण न सरें। तया साक्षित्व साहें केवि दुसरें। परि जाणावयालागीं खूणमात्रें। बोलावें लागतसें।।३८।। एरहवीं ठाव कैंचा बोलां। जेथ पन्नास अक्षरांचा ठावो पुसिला। चहु वाचेचा गजर निमाला। तो कोण्या वाचें बोलिजे।।३९।। परि एक नवल असें। तें बोलासंगेचि भासें। बोल निमालियावांचूनि येत नसें। हातां कोणाचिया।।४०।। परि ते असो ऐक सावध होऊनि। जैसा काष्ठ जाळोनि अग्नि। मग आपणहि जाय सरोनि। उरे भस्मलेशु।।४१।। तैसें इंद्रियविकार अज्ञान। जाळोनि जें समर्थ ज्ञान। तें ज्ञानहि जाय ज्ञेयीं बुडोन। मग जें उरें तें गे तें।।४२।। बंधरूप मृगजळ। मोक्षरूप किरणें केवळ। उभयां साक्षी सूर्यमंडळ। तेवि तें प्रकाशस्वरूप।।४३।। तिसरा प्रकाशलिया पुरुष। प्रकृति-पुरुषाचा करी नाश। जेवि उभय काष्ठीं प्रकाशला अग्निलेश। तो जाळी दोहीं काष्ठां।।४४।। दृश्य द्रष्टा लोपून। महाद्रष्टा असे होऊन। तो न दिसे तरी नास्तिपण। मानूं नको।।४५।। कापूर अग्नीनें जाळिला। सरिसा अग्निहि विझाला। परि परिमळरूपें उरला। असेचि कीं।।४६।। तेवि दृश्य द्रष्टा निमालें। परि उभया साक्षित्व उरलें। उरलेंपणेंविण संचलें। आईतेचि असे।।४७।। साखर साखरेचा रवा जैसा। उदकीं रवेपणा मुकला सहसा। परि गोडीपणें उरला ऐसा। मानावाचि कीं।।४८।। दृश्यत्वें दिसेना। ज्ञानासीं भासेना। म्हणोनि नाहींपणा। मानिसीं झणीं।।४९।। कांहीं नसोनि असें। परि तें असोनहि नसें। जाणत्यांहि जाणतु असें। तरी जाणपण नाहीं।।५०।। जरी दुसरेपण असतें। तरी जाणतेपण साजतें। जेथ प्रळयांबूचें भरतें। तेथ प्रवाहो कैंचा।।५१।। जैसें जागृति ना स्वप्न। सुषुप्तिहि जाय विरोन। की प्रलयतेजें ग्रासिलें रात्रंदिन। मग अवघाचि प्रकाशु।।५२।। तेवि प्रकृति पुरुष गिळोन। अहं सोऽहं जाय मिळोन। मागें जें उरें तें घनानंद पूर्ण। निजरूप आमुचें।।५३।। तिन्ही देवांचें विश्रामधाम। तेंचि आमुचें गुह्यरूप परम। तयाचें सत्तें सृष्टिकर्म। करिती देव आनंदें।।५४।। तया रूप नाम ना रेखा। तें एक ना दुजें आहे ना नाहीं लेखा। नुरेंचि जेथें मीतूंपण आशंका। प्रकाशमय तें।।५५।। ध्येय-ध्याता-ध्यान। नसें ज्ञेय-ज्ञाता-ज्ञान। कर्ता-कार्य-कारण। या त्रिपुटीसीं साक्ष तो।।५६।। जो भोग्य-भोक्ता-भोगातीत। दृश्य-द्रष्टा-दर्शनविरहित। साध्य-साधक-साधना जाणत। स्वयें देव।।५७।। जेथ विवेक शब्देसीं बुडाला। अनुभव अनुभवासीं निर्बुजला। वक्ता श्रोता निमाला। तेथें देखें कवण कवणां।।५८।। देखणारा देखणेसीं। बुडाला भावितां भावनेशीं। गुरुशिष्यनामासीं। उच्चार नुरेंचि कांहीं।।५९।। जो गुरुशिष्याचा संवाद। जो निजानंदाचा आनंद। जो निजबोधाचाहि बोध। स्वत:सिद्ध आईता जो।।६०।। जो आला ना गेला। तो झाला ना मेला। धाला ना विरूढला। रचिला ना आईता कीं।।६१।। तो कांहीं नसोनि असे। तो न दिसोनि वसे। दिसण्या असण्या जाणतसे। जाणपणेंविण।।६२।। जाणणें नेणणें त्या नाहीं जाणें। जाणणें अवघेचि नेणें। सर्वस्व आपण होणें। अवघेचि।।६३।। तें म्हणतां हें येते। एक म्हणतां दुजें होतें। परि भेदांविण अभेदातें। केवि जाणिजें।।६४।। म्हणोनि भेदचि अभेद जाणिजे। गुणेंचि निर्गुण ओळखिजे। मग भेदगुण निमे सहजे। तद्रूपता आलिया।।६५।। म्हणसी ब्रह्म कैसें असें। तें चर्मचक्षूतें न दिसें। ज्ञानांजनें पूर्ण प्रकाशें। हृदाकाशीं वो देवी।।६६।। सुगंधपुष्पांमाझारीं। परिमळ न दिसे जरी। तरी नाहीं म्हणतां नये गौरी। घ्राणेंद्रियां सुख होय।।६७।। पानांपुष्पांमाझारीं। प्रभा दिसेना जरी। नास्ति म्हणो नये सुंदरी। अस्तित्व भरलें असें मगमगित।।६८।। चंद्रबिंबाभीतरीं। प्रकाश न दिसे जरी। परि भूमंडळावरीं। प्रकाश भरला असे।।६९।। तेथ दृश्य-द्रष्टा हरपें। मग आहे नाहीं कोण म्हणिपें। हेंचि अनुभवीं निर्विकल्पें। तेंचि वस्तुरूप।।७०।। एक माझी स्फूर्ति जाण। जागृत असे अनुदिन।तिचे शब्दें हें गगन। उत्पन्न झालीं तत्त्वें पैं।।७१।। तया कारणें मी सगुण। रूपा आलो देवी जाण। मागुती शक्ति आणि गण। उत्पादिलें ब्रह्मा-विष्णु।।७२।। त्या माझिया मूळस्वरूपां। विसरोनिया जन्मखेपां। अज्ञानें जीव त्रिविध तापां। पावती जाण वो देवी।।७३।। ती परवस्तु जाण। असे चराचर व्यापून। त्याची जाणावया खूण। गुरूसीं शरण रिघावें।।७४।। आतां बहुत करितां कथन। ग्रंथासीं होईल विस्तारपण। जी निरोपिली त्याची खूण। ती विसरूं नको।।७५।। जें माझ्या जीवाचें जीवन। जें माझें हृदयींचें ध्यान। तें तुज केलें निरूपण। बीजाचें निजबीज।।७६।। जें दुर्लभ ब्रह्मादिकांसीं। जें अनिर्वाच्य न ये लक्षासीं। जें न भासें वेदशास्त्रांसीं। तें तुज निरोपिलें।।७७।। ऐसी वस्तु जी पार्वती। तेचि वीरशैव अवतरती। तयां शिवयोगी बोलती। माझेचि अंश जाण ते।।७८।। ते सदा उदासवृत्ति। भोगविलास थुंकोनि टाकिती। विष्ठेसमान विषयसुख मानिती। सदा संतुष्ट ते।।७९।। ते मजला सदा पूज्य। उदासवृत्ति महाराज। ज्याच्या क्रियाचाराचें तेज। दूर करी भवातें।।८०।। त्यासीं लोह-सुवर्ण जाण। समानचि मान-अपमान। अरि-मित्र प्रिय-अप्रिय समान। सहजमुक्त जंगम तो।।८१।। ऐसा तो सहजमुक्त जंगम। गुरुपद पावला उत्तम। तो सद्गुरूवांचोनि परब्रह्म। आणिक नेणें दुजें।।८२।। आपुलेसहित श्रीगुरुच। अवघाचि अवघा तोच। ऐसें निश्चया आलें साच। गुरुविण आनु नेणें तो।।८३।। येथें संपवून ब्रह्मनिरूपण। पार्वतीप्रति सांगे आपण। जगन्माता आनंदून। प्रश्न करी शिवासीं।।८४।। त्या श्रवणां वीरशैव जन। बैसले लावूनिया ध्यान। वक्ता मनीं सद्गदून। श्रवण करवी श्रोतयांसीं।।८५।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। शिवगौरीसंवादीं वर्तत। त्याची टीका करूनिया प्राकृत। कृतकृतार्थ मन्मथ।।८६।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे मुक्ततत्त्वविवेकवर्णनोनाम चतुर्थोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक ४, ओव्या ८६.
(संगणकीय अक्षरलेखन : सौ. उषा पसारकर, केतकी फ़ोटो टाईप सेटर्स, सोलापूर)
 

Thursday, 26 December 2013

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य अध्याय तिसरा

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित
परमरहस्य


अध्याय तिसरा
।। श्रीपरब्रह्मणे नम:।।  द्वितीय अध्यायीं परम पावन। निरोपिला तीर्थमहिमा जाण। वीरशैवाचें मुख्य लक्षण। गुरुभक्ति वर्णिली।।१।। वर्णिली तैसीच गुरुमूर्ति। ती कैसी पुजावी प्रेमप्रीqत। आनंदूनि जगदंबा पार्वती। प्रश्न करी शंकरासीं।।२।।
देव्युवाच-
को मार्गो वीरशैवानां का स्थिति: का च धारणा। का पूजा qलगनिष्ठा का ब्रूहि मे परमेश्वर।।१।।

कोण मार्ग स्वामी वीरशैवाचा। स्थिति धारणा कोण नेम तयाचा। कैसा नियम qलगार्चनाचा। तो निरोपा स्वामी।।३।।
शिव उवाच-
qलगार्पितं विना भुंक्ते नामृतं विषमप्यथ। गते qलगे त्यजेत्प्राणं वीरशैव: स एव हि।।२।।

शिव म्हणे वो गिरिजे। आतां वीरशैव सांगूं वोजें। जया मार्गासीं म्यां वंदिजें। गुरुभावनेनें।।४।। qलग हाचि जयाचा प्राण। तो हरवताचि सोडी प्राण। ऐसें हें वीरशैव लक्षण। जाण देवी साच पैं।।५।। जो मार्ग पतितपावन। त्या मार्गें जो चाले तो विरक्त पूर्ण। त्यासीं वंदितां तुटें बंधन। चौèयांशीचें।।६।। जो वीरशैवमार्गीं पुरतां। तो क्रियानिष्ठें आचरे शुद्धता। अणुमात्र क्रिया भंगतां। देहचि टाकी।।७।। qलगार्पित केलियावांचून। कांहीं पदार्थ न करी सेवन। पात्रीं अर्पिल्या विष म्हणोन। न सोडी कदापि।।८।। qलगनिष्ठा परिपूर्ण। तो qलगीं असे qलग होवोन। qलग गेलियां प्राण। राहे केqव तयाचा।।९।। आधीच qलगीं प्राण भरला असे। तो qलगचि होऊन वसे। qलग गेलियां तो उरे ऐसें। केqव घडे।।१०।। qलग हृदयींचें जीवन। qलग प्राणाचा प्राण। qलगामाजीं मिश्रित होऊन। असे जो कां।।११।। तें qलग गेलियां देह ठेवी। हें ऐसें न घडेचि देवी। पति गेलियां वांचणें जीवीं। तरी ते नोव्हे पतिव्रता।।१२।। तैसे qलग गेलियां जो राहे। तो वीरशैवचि नोव्हे। प्राण गेलियां देह। प्रेतचि बोलिजे।।१३।। जयाचा प्राण qलगीं भरला। तो कैसा असे देहीं उरला। qलग गेलियां देहीं संचारला। पिशाचवत् जाणिजें।।१४।। qलगाविण वाचणें। ते प्रेतासम जाणणें। कीं भ्रताराविणें जिणें। विधवा जैसी।।१५।। विधवा झाली तरी काय होते। देवें काय उणें केलें दुजियातें। यातें उत्तर देईजेल तें। परिस वो देवी।।१६।। जरी तिनें दुजा भ्रतार केला। तरी पाटकरीण म्हणती तिला। सवाशीणपणाचा महिमा गेला। देवीधर्मीं नाहीं ती।।१७।। तेqवं qलग गेलियां बांधी आणिक। तो पाटकरणीसमान देख। वीरशैव नोहे पोटवाईक। वेषधारी बोलिजें।।१८।। म्हणोनि एकनिष्ठें वर्तिजें। गर्भकालीं प्राप्त शिवqलग जें। तयासीच प्रेमभावें पुजिजें। एकनिष्ठेंकरूनिया।।१९।। तोचि प्रेमें करावा जतन। वीरशैवाची जी मूळ खूण। ग्रंथांतरीं अवलोकून। भ्रष्टाचारें न वर्तावें।।२०।। म्हणोनि qलगामाजीं जयाचा प्राण। तोचि वीरशैव महागण। क्रिया कर्मनिष्ठा पूर्ण। तारक शिवाचारासीं।।२१।। भवि देखतां अणुमात्र। न आचरें स्वकर्मतंत्र। भवीनें सेविलेें जें पात्र। तें हातीं धरीना।।२२।। इंद्रियाचें द्वारीं न बैसें। अंतरीं आत्म-ओवरी असे। तो बाहेर कदा येत नसे। स्वसुखीं रतला सदा।।२३।। तयाचियें लागतां चरणीं। कृपा करी तेंचि क्षणीं। अजात भक्तनयनीं। अश्रुपात होतसे।।२४।। नेमें षट्काल करी पूजा। तितुकीचि स्नानेेंहि वोजा। न्यासध्यानयुक्त सहजा। करीतसे अत्यादरें मंत्रपुष्पें।।२५।। सहा वेळां पूजा करी सहजा। त्या वेळां कोण कोण वोजा। जेणें संतोषें मी शिवराजा। निरोपुं तुज आतां।।२६।। पहिली पूजा अरुणोदयीं करी। प्रहर दिन आलियां दुसरी। दोन प्रहरां ती तिसरी। चौथी तिसरे प्रहरीं कीं।।२७।। पांचवीं सायंकाळीं करी। सहावीं पूजा मध्यरात्रीं। करावया आळस न करी। qलगपूजेसीं।।२८।। सहा पूजा न घडती जरी। तरी त्रिकाळ qलगनिष्ठा धरी। त्रिकाळहि न घडती तरी। तो पशु जडजीव।।२९।। बहु धांव एकान्तावरीं। एकान्तीं qलगअर्चा करी। भवि देखतां न करी। qलगपूजा तो।।३०।। qलगपूजें वीरशैव। सदा पावती वैभव। जे कां भुक्ति अभिनव। qलगपूजाप्रभावें।।३१।। त्यायोगें मीहि सुंदरी। वसे वीरशैवा-मंदिरीं। पूजान्तीं प्रसादाची थोरी। असे जाण तेथेंचि।।३२।। शिवभक्ताघरींचें अन्न। करी अज्ञान जनां पावन। तें असे सत्य शिवार्पण। अन्यार्पण नसेंचि।।३३।। जें जें असे शिवार्पित। तें तें जाण परम पुनीत। तें सेविल्या मजसीच पावत। अनायासें तत्त्वतां।।३४।। अqलगीं अथवा qलगधारीं। जो शिवधर्माची qनदा करी। त्याचें मुख न पाहे कांतारीं। तो वीरशैव जाणावा।।३५।। जया वस्त्राची परवा नाहीं। पांघरी तरी एक घोंगडी पाहीं। अंगास जें वस्त्र तेहि। भलतैसें।।३६।। जोड वस्त्र qलगासीं। जोड कौपिन लावी तैसी। मिळाले तरी घाली पायतणाशीं। नित्य नेमें।।३७।। पायीं नसूनि पादुका। न चालावे मार्गी देखा। वाहनीं आरूढावें अनेका। देश-संचाराकारणें।।३८।। कौपिन जोडी शुद्धि करितां। हस्त पाऊड हातीं धरितां। सोऽहं सोहळा पवित्र युक्ता। शोभे भाळीं त्रिपुंड्र।।३९।। रुद्राक्षमाळा शोभे गळां। स्नानपूजेचिया वेळां। न देखें भविजन मेळा। त्यातें भाषण न करी।।४०।। सहजाचें घेणें देणें। तेंहि शरणांवांचून न घेणें। बहुत बोलणें विनोदें हंसणें। न करी कदा।।४१।। आम्ही म्हणितलें सहजीं घेणें। परि सहजा तया जाणें। विधियुक्त घेणें करणें। आचारातें मिळे तैसें।।४२।। चरण धरूनि तीन वेळां। कृपा करा म्हणतां वेळोवेळां। तरीच घेईजे ऐसिया कळा। असत तो विरक्तमार्ग।।४३।। बिन्हाविण कांहीं। घेणेंचि तया नाहीं। सोने रुपें आदि कांहीं। न शिवी हातीं।।४४।। ज्ञान वैराग्य मिळे क्रियेशीं। राखें तोचि वीरशैव बोलिजे त्यासीं। क्रिया टाकी तयासीं। शिवगण न मानिती।।४५।। शिष्य आचार करी पूर्ण। देशिकां दे योग्य भोजन। त्यातें स्वयें देखोन। आनंद मानीतसे।।४६।। ज्ञान वैराग्य क्रियेशीं। राखीं तो धन्य वीरशैव वंशीं। क्रिया सोडोनि चाले त्यासीं। शिक्षेनें मार्गां लाविजें।।४७।। जो झालासे क्रियात्याज्य। तया कोण मानील पूज्य। अधर्में वर्ततां राज्य। नष्ट होय वैभव।।४८।। जरी ज्ञानी पूर्ण झाला। तरी स्वधर्माचारें मान त्याला। आचारभ्रष्ट होतां व्यर्थ गेला। जन्मां येऊनिया।।४९।। त्यानें अनेक परोपकारु। केली तीर्थें लहानथोरु। तैसेंचि दानें अपारु। गो वाजी रथ दिले।।५०।। तरी क्रियेविण जें पुण्य। तें सुकृतासी होय उणें। म्हणोनि न टाकिजें सज्जनें। क्रियाचाराशीं।।५१।। वडील अग्रगण क्रिया टाकिती। तरी नेणतेहि तैसेंचि वर्तती। म्हणून न टाकिजें अधिक स्थिति। वाढविजें सज्जनीं।।५२।। एèहवीं क्रियारहित ज्ञान जाणें। परि जनाकारणें करणें। परोपकारार्थ वर्तणें। परि हें तो अक्रिय।।५३।। अंधां मार्गीं लाविजें। आपणहि हळूहळू चालिजें। तेqव अज्ञानअंध वोजें। लाविजें मार्गां क्रियेचिया।।५४।। ऐसा परोपकारी परम पुरुष। पट्टाधिकारी बोलिजें तयास। तोचि तारक शिवाचारास। धर्मगुरु।।५५।। आशा धरोनि बोधिना। पूजा मान इच्छिना। परस्त्रीस पाही ना। कामदृष्टीं कदा।।५६।। जीवqहसा करीना। शब्दें कोणास दुखविना। भुंवई उचलीना। कोणावरीं।।५७।। जयाचें नांव विरक्त। तो कासयासीं नोव्हे लिप्त। श्वानवमन मानीत। भोगविलास सर्व ते।।५८।। तयासीं लोह कांचन। गारा आणि सम रत्न। मान अपमान समान। आनंदभरित सर्वदा।।५९।। तया प्रिय अप्रिय कांहीं। सर्वथा उरलेंचि नाहीं। qनदास्तुति ऐकोनि। हर्षविषाद नोव्हे मनीं।।६०।। कोणी केली जरी qनदा। हर्ष मानी तयाच्या शब्दां। मान अपमानाचे भेदां। न जाणें विरागी तो।।६१।। शांति दया क्षमा सुबुद्धि। अनर्थ कोणां न करी कधीं। वासना तृष्णा कुबुद्धि। कुचाळी न करी कदा।।६२।। नाहीं जाणिवेचा तोरा। नाहीं क्रियेचा उबारा। तो शिवयोगी खरा। वीरशैवां श्रेष्ठ कीं।।६३।। ज्ञानानळीं इंद्रियव्यापार। होमिलें षड्विकार। तो आकाररूपी निराकार। शिवयोगी विदेही।।६४।। पातळ तेंचि गोठलें। घृत कण्याकार झालें। तेqव अमूर्त मूर्तीस आलें। वीरशैवरूपें।।६५।। काम क्रोध द्वेष मत्सर। लोभ मोह दंभ अहंकार। qनदा कुटाळी कुचेष्टा क्रूर व्यापार। नाहीं शिवयोगियां।।६६।। सोडणें बांधणें न करी जंजाळ। qचता उद्वेग नाहीं हळहळ। मन कल्पनारहित निर्मळ। धुतलें मोती जैसें।।६७।। सकळ तीर्र्थांसी अधिपति। चरणस्पर्शें तीर्थें पावन होती। जग उद्धरावया विचरती। निष्कामबुqद्ध।।६८।। कोठें गोडी धरोनि तोषेना। मान दिधल्यां फुगेना। अपमानिलियां कुंथेना। तोचि वीरशैव म्हणावा।।६९।। मृत्यूसीं कदा भिईना। मी मरेन हें ध्याईना। मी उपजलो हें आठवेना। स्वत:सिद्धपणें।।७०।। मी बाळ तरुण वृद्ध। हें नाठवें तया अखंडत्व बोध। जाति-कूळ-गोत्रसंबंध। नाठवें तया वीरशैवां।।७१।। जयाचा गर्भीच मंत्रqपड। संस्कारें निपजला मार्तंड। अविद्या अनाचार हे बंड। राहेल केqव।।७२।। गुरुकृपेनें मांसqपड गेला। तो संस्कारें मंत्र-qपड झाला। अविद्या-अंधार दूर केला। प्रकाशला स्वप्रकाश।।७३।। आत्मा तरी स्वत:सिद्ध असे। तया कांहीं पावन नसें। पावनता जगीं जी वसे। देहाचियालागीं ती।।७४।। पाहतां देह तरी अपवित्र। तयाहि पावन करी गुरुमंत्र। आत्मा स्वत:सिद्ध सर्वत्र। वस्तुरूप झालासे।।७५।। बाह्य अभ्यंतरीं अवघाचि। कोंदाटला परब्रह्म तोचि। तो बोलें चालें तोचि। निजस्वभावें।।७६।। बोल बोलें प्रेमप्रीqत। अमृतासीं परे सर म्हणती। ऐके तो आनंदें चित्तीं। सद्भाव उठे मनीं तया।।७७।। जें बोलें तें प्रतिबंधक। परिसे त्या होय सुखदायक। न बोलें लौकिक भेदिक। परमार्थालागोनि।।७८।। कायावाचामनें। जगालागीं सुख देणें। ऐसें असें जयाचें वर्तणें। तोचि विरक्त जाणावा।।७९।। पुढें पाहोनि चालणें। जीवमात्रासीं राखणें। सर्वांघटीं जाणणें। सदा शिवस्वरूप।।८०।। सदा शमदमीं वर्तत। अंत:करणीं शम इंद्रिय दमित। अखंड वैराग्य-भरित। षट्स्थल ब्रह्म बोधी सदा।।८१।। ऐसा हा विरक्त पुरुष। तोचि तो परमात्मा अविनाश। तद्रूप स्वयंप्रकाश। शिवयोगी तो।।८२।। जी वस्तु अगम्य अगोचर। अव्यक्त अनंत अपरंपार। ब्रह्मरूपाचें हें बीजांकुर। घवघवीत विरूढलें।।८३।। तोचि शिवयोगी साचार। उद्धरावया चराचर। वर्ततसे महीवर। ममाज्ञेंकरूनिया।।८४।। जें कां अद्वैत अनुपम। अगोचर आणि अनाम। जें अचल अलक्ष परब्रह्म। तेंचि निस्सीम होवोनि असे।।८५।। जो निजरूप अगम्य निर्गुण। जो निर्मुक्त निरामय निरंजन। तो परमपुरुष गुणनिधान। ऐसाचि होवोनि ठेला।।८६।। तो नि:संग निर्लेप निष्प्रपंच। जो निजरूप अनिर्वाच्य। तोचि सुनिश्चय साच। होवोनि ठेला।।८७।। तोचि चिद्रूप चिन्मात्रैक। जो चिदानंद चित्प्रकाशक। तोचि समरस होऊनि एक। राहे स्वरूपीं सदा।।८८।। ऐसें जें वीरशैव-मार्गिक। ते स्वयं स्वतंत्र सुखदायक। तया मज नाहीं वेगळीक। पार्वती सत्य जाण पां।।८९।। ते मज क्षणभरी न विसंबती। मीहि तैसाच तयाप्रति। म्हणोनि ते पूज्य सर्र्वांप्रति। जाण देवी निश्चयें।।९०।। आम्ही तयासीं ध्याऊं। सदा तयाचे गुण गाऊं। तया गुरुत्वें भावूं। आम्ही देवी सर्वदा।।९१।। तो देव आम्ही भक्त। तया ध्याऊं हृदयांत। आम्हां देवपण निश्चित। तयाचेनि योगें।।९२।। तो प्राणसखा आम्हां बहु। त्याचे चरण हृदयीं ध्याऊं। तयावांचूनि न पाहूं। परवस्तु आणिक।।९३।। परशिव म्हणिजें तयासीं। तो अतीत व्याप्य-व्यापकासीं। आतां बहु काय बोलणें आम्हांसीं। मुकुटमणि होय तो।।९४।। तो सर्र्वांसीं गुरुरूप होय। त्याचे भावें वंदी जो पाय। तो तात्काळ होवोनि ठाय। निजरूपचि।।९५।। स्थावरqलगां जे ध्याती। तया स्थावर गुरु म्हणती। उपासनेची निजस्थिति। कार्या कारण असे।।९६।। कर्म उपासनें बांधूनि गांठीं। जे सर्वकाळ वाहती कंठीं। न करी दुजी वाटाघाटी। चरqलग त्यां म्हणिजें।।९७।। तोचि जाणावा परशिव। गुरुमुखें घ्यावा अनुभव। आमुचा त्यावरी पूर्ण भाव। नसे परवस्तु आणिक।।९८।। तो सर्वां गुरुरूप होय। त्याचे भावें वंदी जो पाय। तो तैसाचि होऊनि जाय। निमग्न वस्तुरूपीं।।९९।। ऐसा जो श्रीगुरुनाथ। परम पावन पुनीत। जंगमरूपें वर्तत। तारावया भक्तांतें।।१००।। तया सर्वस्वें भजावें। तनु मन धन अर्पावें। अन्नवस्त्रादिकीं सेवावें। गुरुरूप म्हणोनिया।।१०१।।
अन्नवस्त्रादिकं देयं गुरवे तत्परायण:। अभावे सर्ववस्तूनां स्वशरीरं निवेदयेत्।।३।।
तया सर्वस्वें भजावें। तनु मन धन अर्पावें। अन्नवस्त्र प्रेमें वोपावें। निष्कामबुqद्ध।।१०२।। ज्यासीं वित्तविषय नाहीं। तेणें अंगें सेवा करावी कांहीं। सेवें शरीर निवेदिलें जेंहि। तत्पर होवोनि।।१०३।। ऐसी अंगें करिता सेवा। शिवपद प्राप्त होय जीवां। गुरूतें भावितां ब्रह्मभावां। तरी स्वयें ब्रह्मचि होय।।१०४।। ऐसा वेदान्तीचा भाव। गुरु न म्हणावा मानव। म्हणता दोष अभिनव। घडती सत्य जाणा।।१०५।। गुरु मनुष्य ऐसें भाविता। तरी दोष होय तत्त्वतां। आपणिया ब्रह्मरूपता। घडें केqव।।१०६।। म्हणोनि गुरु परब्रह्म भाविजें। मग आपणहि ब्रह्म होईजें। श्रीगुरु निजवस्तु जाणिजें। सेवा कीजें सद्भावें।।१०७।।
कर्मणा मनसा वाचा गुरवे भक्तिवत्सल:। शरीरं प्राणमर्थं च सद्गुरुभ्यो निवेदयेत्।।४।।
मनबुद्धिवाचें जें जें कर्म होतीं। तें भक्तिवत्सल गुरूसीं अर्पिती। जें शरीर प्राण अर्थ निवेदिती। तेंचि अधिकारी मोक्षासीं।।१०८।। गुरुवांचोनि सर्वथा। आणिक नेणती देवता। गुरुमंत्रेंविण तत्त्वतां। फल नसे जापकांसीं।।१०९।। गुरु-आज्ञेंवेगळे न वर्तती। गुरु संतोषजे करिती। गुरुकृपा तेचि निजमुक्ति। सर्वकाळ शिष्यांसीं।।११०।। ऐसें गुरुभक्त पार्वती। तयाची अत्यंत मज प्रीति। ऐकोन संतोषली मूळ शक्ति। चरणीं माथा ठेविला।।१११।। म्हणे मी नेणें या वर्मा। बरवा निरूपिला गुरुमहिमा। धन्य धन्य भक्तविश्रामा। कृपा केली मजवरी।।११२।। श्रीगुरु महिमा सादर। ऐकता श्रोते चतुर। पावन होती सत्वर। भवार्णवापासूनिया।।११३।। पुढें प्रश्न करील पार्वती। ऐकून तोषेल पशुपति। अति रहस्य उमेप्रति। निवेदील शिव तो।।११४।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। शिवगौरीसंवादीं वर्तत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृत्य मन्मथ।।११५।।
 
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे वीरशैवविरक्तलक्षणनिरूपणं नाम तृतीयोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक ४, ओव्या ११५.
(संगणकीय अक्षरलेखन : सौ. उषा पसारकर, केतकी फ़ोटो टाईप सेटर्स, सोलापूर)
 

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य अध्याय दुसरा

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी
संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित
परमरहस्य


अध्याय दुसरा
।। श्रीगणेशाय नम:। श्रीगुरुभ्यो नम:।।

 
प्रथम अध्यायीं गुरुस्तव। करोनि श्रोत्यां सावयव। प्राकृत भाषीं अभिनव। गुरुरूप वर्णिलें।।१।। जो साक्षात् शिवस्वरूप। जो तेजें प्रचंड प्रताप। जो वीरशैवधर्माधिप। मोक्षदायक जगतातें।।२।। आतां द्वितीय अध्यायीं साचार। तीर्थमहिमा वर्णिला फार। परिसोत श्रोते चतुर। सावध होवोनिया।।३।।
देव्युवाच-

श्रीगुरुपादतीर्थस्य सेवने qक फलं प्रभो। महिमां श्रोतुमिच्छामि कथयस्व महेश्वर।।१।।
पार्वती पुसे जी महेशा। गुरुपादतीर्थाचा महिमा कैसा। कोण फळ स्वयंप्रकाशा। निरोपा स्वामिया।।४।।
शिव उवाच-
मत्त: प्रवृत्ता वै सर्वे वेदायज्ञास्तथा क्रिया:। मद्रूपो हि जगन्मान्यो जंगम: परमो गुरु:।।२।।
शिव म्हणे वो गिरिजे। तुवां प्रश्न केला वोजे। तो आतां निरोपुं सहजें। तुझिये आवडी।।५।। क्रिया आणि वेदमंत्र। मजपासून सर्वत्र। उत्पन्न होती पवित्र। सप्तकोटी मुख्य जे।।६।। त्याची जी जीवनक्रिया। ती असे जंगम प्रिया। म्हणोनि गुरु आचार्यां। श्रेष्ठ जाणे मी देवी।।७।। क्रियाचार सतेज असतां। तेणें मंत्राची होय सिद्धता। qलगनिष्ठें मोक्ष येई हातां। क्षण न लागतां साच पैं।।८।।
qलगप्राणो गुरुर्देवि गुरो: प्राणं तु जंगम:। जंगमस्य प्रसादेन qलगप्राणं तु शांकरि।।३।।
शिव सांगे अंबेप्रति। मम प्राण गुरुमूर्ति। गुरु प्राणाची स्फूर्ति। जंगमरूपें तिष्ठतसे।।९।। तया जंगमप्राणाची व्याप्ती। प्रगट होय त्रिजगतीं। सकल व्यापार चालती। मद्इच्छेकरूनिया।।१०।। ती राहावी अखंड स्थिति। म्हणोनि निष्ठा गुरुतीर्थीं। षोडशोपचार पूजा करिती। अंतीं घेती शिवतीर्थ।।११।। एका गुरूचे पूजेंकरून। त्रयमूर्तींचें घडें अर्चन। तया श्रीगुरुqलगां व्यापून। माझें रूप असें।।१२।। गुरुपूजा करिता जाण। आधी कीजें लिंगपूजन। सवेचि स्पर्शी द्वयचरण। वरी मस्तक ठेवोनिया।।१३।। लिंगरूपीं मी साक्षात्। ब्रह्मतत्त्वीं वास करीŸ। चरलिंग तोचि वर्तत। पवित्र पावन सत्य पै।।१४।। यास्तव तीर्थ अविनाशी। श्रुतीनें वर्णिलें प्रेमेंशीं। चरणं पवित्रं विततं ऐसी। मंत्रे जाण तीर्थाचे।।१५।।
शोषणं पापपंकस्य दीपनं ज्ञानतेजस:। गुरुपादोदकं शुद्धं संसारद्रुमनाशनम्।।४।।
शंकर म्हणे वो गिरिजे। पापलक्षण चिखल जें। त्यातें शोषावया समर्थ जें। तें गुरुतीर्थ वो देवी।।१६।। तें गुरुतीर्थ विश्वासें सेविता। हृदयीं ज्ञानदीप प्रकाशे तत्त्वतां। संसारद्रुम उन्मळोनि सायुज्यता। ती लाहे वो देवी।।१७।।
देव्युवाच-
पादोदकविधि: कीदृक् कार्यं पादोदकं कथम्। तत्सर्वं कथ्यतां गुह्यं परमेश दयानिधे।।५।।

पार्वती म्हणे हे महेश। गुरुतीर्थ जें अविनाश। तें कैसें करावें विधीस। सत्य सांगा मजलागीं।।१८।।
शिव उवाच-
प्रणम्य दण्डवद्भूमौ निष्ठया परया मुदा। गुरो: संपूजयेत् पादौ गंधपुष्पाक्षतादिभि:।।६।।

शिव म्हणे वो गिरिजे। तुवां तीर्थविधि पुसिला वोजे। तो सांगेन तुज सहजें। श्रवण करी आदरें।।१९।। गुरु शिव एकाभावेन। तया उत्तम आसनीं बैसवून। साष्टांग प्रणिपात करून। आज्ञा घेईजे तीर्थासीं।।२०।। भूमि प्रणाम दंडवत् घालूनि। चरण गुरूचें निष्ठें अर्चोनि। गंधाक्षता धूपदीपें पूजोनि। तीर्थ सेविजें विश्वासें।।२१।। गुरु आज्ञा करी प्रेमें। लवलाही उठा नेमें। धूप दीप अनुपमे। पूजा कीजें त्रिविध।।२२।। सद्योजात मंत्रेंकरून। तें भस्म लावावें आपण। क्षणामाजीं नम्र होऊन। इष्टलिंगा पुजिजें।।२३।। दशांगुले चरणकमळीं। स्पर्शूनि शुद्धोदक मिळीं। भस्म लावून तये वेळी। सव्य भागीं ठेविजें।।२४।। मग कीजें लिंग ूजा। निर्जराच्या निजबीजा। पत्र पुष्प धूप राजा। अर्पितां पुण्य पैं।।२५।। महापूजा ती सर्वांगीं। अर्चूनिया शिवयोगी। अंती कीर्ति होय जगीं। पुष्पांजळी अर्पिल्या।।२६।। नैवेद्य तांबूल दक्षिणा। देईजे मौनें तत्क्षणां। पूजा सर्व उतरूनि जाणा। चरण धरिजें आवडीं।।२७।। पात्रीं प्रणव लिहूनि। मूल मंत्र अंगुष्ठस्थानीं। ईशान वस्तु म्हणोनि। ऊध्र्वकरीं दाविजें।।२८।। पूर्वी उदकें उपपात्र। ठेविलें लावून सर्व सूत्र। तेंचि घेऊनि पवित्र। तीर्थ कीजें परवस्तु।।२९।। मागे जे सांगितली श्रुति। येथें आदरें उच्चारिती। जयजयकारें गर्जती। मग सेविती तीर्थातें।।३०।। गुरुतीर्थ पात्रीं असतां। लिंगी लीन होय तत्त्वतां। मुखामाजीं प्राशन करितां। जंगम-तीर्थ साच तें।।३१।। हेंचि जाणिजे त्रिविध। दुजें असे दशविध। परि तें दश त्रिविध। होत असे अनुक्रमें।।३२।। ही परसूत्राची मूर्त। याचे कैसें सेवावें तीर्थ। म्हणे तो नोव्हे शिवभक्त। लिंगधारी वा जंगम।।३३।। तीर्थीं भेद धरितां घडे दोष। प्रसादा उच्छिष्ट पाप विशेष। जो जाणे तीर्थप्रसाद नेमास। तोचि वीरशैव जाणावा।।३४।। जें तीर्थ परमपददायक। जें होय भवभयमोचक। तया धि:कारितां महापातक। भोगी जाण अभक्त तो।।३५।। तीर्थ झालिया जाय उठून। qकवा धरून बैसे अभिमान। तो पंचमहापातकी जाण। जंगम अथवा भक्त।।३६।। जो म्हणे आणा बैसल्या ठायीं। आचारविधि नेणेंचि कांहीं। तो वीरशैवमार्गीचा नाहीं। गणवंशज नोव्हे तो।।३७।। तीर्थासी घे म्हणूं नये। कोणाहि पाचारूं नये। पाचारितां दोष होय। तो सांगता नये येथें।।३८।। दाटून म्हणे घे घे तीर्थासी। अवलिलें पाचारितां अन्यांसीं। न घेतां घे म्हणणारा दोषासी। पावे जाण तो देवी।।३९।। जो वीरशैवमार्गी पुरुष। घे म्हणणें न लगे तयास। ज्याचा तीर्थप्रसादीं विश्वास। कदाकाळीं न सोडी तो।।४०।। तीर्थाचा वस्त्रास पुसूं नये हात। भूमीं पाडूं नये किंचित्। आदरें सेवी तो जंगम भक्त। येर तो सोंग बहुरूपियाचें।।४१।। निगुरुया तीर्थ न दिजें। गुरुपुत्रासीं न वर्जिजें। qलगभक्ति सोडून अन्य देवता पुजी जे। तीर्थ न दिजें तयासीं।।४२।। ऐशिया भ्रष्टास तीर्थ देतां। तो जंगम नोव्हे सर्वथा। आशा अथवा भीड धरितां। तरी तो दोषी होय कीं।।४३।। आचारमार्गाचे ठायीं। रावरंक सारखाचि पाही। मार्ग चुकतां अग्रेसरहि। येई नीच पदासी।।४४।। मार्गें चाले तो पंचानन बोलिजे। अमार्गें वर्ते तोचि श्वान जाणिजे। वीरशैवमार्गें वर्ते तो सहजे। गुरु सर्वांसीं वो देवी।।४५।। सप्तसागरीचें जल। सृष्टीचीं तीर्र्थे सकल। परि गुरुतीर्थथेंबाचें फल। सहस्रांशें अधिक।।४६।। गुरुतीर्थबिंदूची सरी। काशी न पावे बरोबरी। मा इतराची काय थोरी। पादतीर्थापुढें वर्णावया।।४७।। काशी मेलियां मुक्ति देत। सद्भावें सेवितां श्रीगुरुतीर्थ। तो सहज होय जीवन्मुक्त। तीर्थमाहात्म्य ऐसें हें।।४८।। गंगातीर्थीं एक अवगुण। खोलीं जातां जाय बुडोन। गुरुतीर्थ न बुडवी म्हणोन। तरोनि जाती कैलासीं।।४९।। द्वादश लिंगां करितां परिक्रमा। परि गुरुतीर्थाचा नये महिमा। जेणें पाविजें स्वयें परब्रह्मा। त्याची सरी कोण करी।।५०।। तीर्थावीण बांधितां लिंग। तरी तो पाषाणचि चांग। जया तीर्थाचें न लागे अंग। तरी तो लिंगचि नोव्हे।।५१।। तीर्थाविणें लिंग तो पाषाण। तीर्थ असे लिंगाचें जीवन। त्याविना नसें लिंगासीं चैतन्य। लिंग प्रेतासमान तें।।५२।। तीर्थाविण लिंग अकारण। तीर्थाविण भक्ति निष्कारण। तीर्थाविण मिरवी जंगमपण। कैकाडियाचें मर्कट तें।।५३।। स्वधर्मीं निष्ठा नसे जाण। व्यर्थ मिरवी जंगमपण। तीर्र्थां सांडून करी कारण। जैसें भाषण अर्भकाचें।।५४।। जयासीं तीर्थीं नाहीं आवडी। प्रसाद सेवावयाची काय ती गोडी। तयासीं सुटका नसे संसार बांधवडीं। कल्प कोटी गेलियां।।५५।। विश्वासें जे सेविती तीर्थ। ते सरते होती शिवगणांत। तयापुढें भुक्ति मुक्ति राबत। कर जोडून सर्वदा।।५६।। जो तीर्थप्रसादाचा भेद जाणें। वीरशैव तयासीच म्हणणें। येर ते qहडती पोटाकारणें। भाटनागर जैसे ते।।५७।। तीर्थ करावें जयाचें। शुद्ध सर्वांग असावें तयाचें। तीर्थ न करावें अंगहीनाचें। ऐसें शास्त्र वदतसें।।५८।। हातीचें अथवा पायीचें। बोट गेलें असेल जयाचें। अंग असेल व्यापिले रोगें तयाचें। तीर्थ बोलिले नाहीं।।५९।। नाक डोळा कान। गेला असेल छेदून। तयाचें तीर्थ सेवन। करूं नये वो देवी।।६०।। जो क्रोधी द्वेषी तामसी। जो जंगमद्रोही करी हिंसेशींŸ। सेवूं नये तयाचें तीर्थासी। परि भोजन घालिजे।।६१।। अंगीं कुष्ठ असतां। पादपूजा न कीजें सर्वथा। जो शिवगण सर्वांगीं पुरता। पादपूजा कीजें तयाची।।६२।। पूज्य मूर्तीसीं द्वेषेंकरून। जरी लाविलें अन्य दूषण। तरी तो अपूज्य होय जाण। दोष मुक्त पावे तो।।६३।। यालागीं भूरुद्र देशिकांनी। सर्वदा अलगत्वें वर्तावें जनीं। अधिकार गुरुत्व पूर्णपणीं। संपादावें निर्दोष।।६४।। जो शिवयोगी पाहतां। निर्दोष मूर्ति असे तत्त्वतां। तोचि पूजेयोग्य धर्मवक्ता। लिंगी निष्ठा असे याची।।६५।। सुशील शांत आणि भाविक। जंगमभक्ति नित्य साधक। धर्म-अधर्मीं करी विवेक। पादपूजा कीजे त्याची।।६६।। सत्त्वगुणी भक्तजन। तो आवडे प्राणाहून। उभय ऐक्य झाल्याविण। पूजा नोव्हे सर्वथा।।६७।। उभयतां शुद्धासनें। असावीं दुकूल परिधानें। पूजा तीर्थातें सेवनें। आसन स्वकरें काढी कां।।६८।। ऐकोनि तीर्थमहिमा। परमसुख पावली उमा। म्हणे धन्य धन्य परमात्मा। सदाशिवा स्वामी।।६९।। तुम्ही जो निरोपिला तीर्थमहिमा। तो न कळे निगमागमां। वीरशैवावांचोनि पुरुषोत्तमा। न कळे कोणासीं।।७०।। वीरशैव कोण तें निरोपुं आतां। देह सांडी तो क्रिया चुकतां। मा वांचेल लिंग जातां। हें केवि घडेंŸ।।७१।। ऐसे एकनिष्ठ वीरशैव। मज कळविलें उमाधव। परि धर्मशास्त्राचा प्रभाव। पुढें अर्थ रस बहु।।७२।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। उमामहेश्वरसंवादीं वर्तत। त्याची टीका करूनि प्राकृत। कृतकृत्य मन्मथ।।७३।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे श्रीगुरुमाहात्म्यवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक ६, ओव्या ७३.

(संगणकीय अक्षरलेखन : सौ. उषा पसारकर, केतकी फ़ोटो टाईप सेटर्स, सोलापूर)


संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य अध्याय पहिला

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी
संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित
परमरहस्य

अध्याय पहिला

।। श्रीगणेशाय नम:। श्रीगुरुभ्यो नम:।।
 

जयजयाजी सदाशिवा। परब्रह्मा अद्वयानंदवैभवा। नमो तुज देवाधिदेवा। परमेश्वरा जगद्गुरु।।१।। आतां नमूं चिच्छक्ति। जी जगन्माता पार्वती। अज्ञ जनां उत्तम गति। जयेचिया अनुग्रहें।।२।। वेदां परशिवा परब्रह्मा। नेणवे तुझा महिमा। साकार होवोनिया आम्हां। पुरविसी हेतु इच्छित।।३।। श्रीसद्गुरुकृपेंकरून। आधी नमूं शिवगण। जे कां अमर सर्र्वांहून। तयास प्रेमें शरण मी।।४।। रुद्रगणां तयेपरी। शरण रिघो ये अवसरी। शिवगणांची असे थोरी। ग्रंथांतरीं न वर्णवे।।५।। असंख्यात शिवगण। आदि अनादि ते जाण। नित्यानंदीं विराजमान। भक्तां पावन करीत असे।।६।। सातशें त्रेसष्ट गण। अवतीर्ण जे पुरातन। नुरोंदय्यादि शरण। महाविख्यात जे।।७।। सदाशिव परशिव। सच्चिदानंद गुरुदेव। आचाराग्रणीं स्वयमेव। सदा वैभव शिवाचे।।८।। तीर्थ प्रसाद नेमेंसीं। जे सेविती अहर्निशीं। आलस्य त्यजोनि प्रेमेंशीं। भक्तिभावें त्या शरण।।९।। ऐसें नमूनि शिवगण। पंचाचार्य ते मुख्य जाण। जे वीरशैवकुलोत्पन्न। गण सृष्टिकर्ते जे ।।१०।। परि याचे अवतार। चतुर्युगांत साचार। कोणकोणते नामधार। ईश्वरमुखीं उद्भवलें।।११।। तया आचार्र्यां करूं नमन। रेवणसिद्ध मरुळसिद्ध जाण। तिसरा एकोराम ज्ञानिया पूर्ण। चौथा तो पंडिताराध्य।।१२।। हे चहुयुगीं आचार्य चारी। मुख्य शिवाचारासीं पुढारी। पांचवा असे सहकारी। विश्वार्याप्रति वंदिलें।।१३।। युगपरत्वें आचार्य पांच। धर्मरक्षणार्थ अवतार साच। हे तो शिवआज्ञेकरूनिच। प्रगट होती मृत्युलोकीं।।१४।। तो नमूं श्रीगुरु कैवल्यदानी। अगम्य अगोचर अद्वैत निर्वाणी। अविनाश अनिर्वचनी। अनुपम्य स्वामी।।१५।। अनाम तूं अपरंपारा। श्रीगुरुमूर्ति नागेश्वरा। नागेश हें आडनांव दातारा। एèहवीं अनाम तूं।।१६।। तुज रूप ना रेखा नाम। आम्हीं भक्ति धरूनि ठेविलें नाम। एèहवीं वेदशास्त्रांशीं अगम्य। अगोचर तूं।।१७।। परि भक्तीलागीं आकारलासी। गुरुरूप होऊन तारिसी भक्तांसी। म्हणोनि आज्ञापी परमरहस्यासी। टीका करावया।।१८।। स्फूर्ति उन्मेष देवोनि। स्वयें वाचेची वाचा होऊनि। प्रेमरसें अक्षर घोळूनि। वाचेनें वदवी स्वामिया।।१९।। मी तंव नेणें विवेकप्रबोधु। बोलो नेणें साहित्यसंगीतशब्दु। येथें कृपादृष्टीं पाहोनि प्रबंधु। चालवा स्वामी।।२०।। ऐसें विनवूनि भूमि विन्यासी माथा। तंव कृपा आली श्रीगुरुनाथा। अशीरिणी वदे तत्त्वतां। वर असे तुज पैं।।२१।। तुवां जो भाव प्रकटविला आतां। तोचि वर तुज दिधला तत्त्वतां। प्रेमभावें करी आतांŸ। टीका परमरहस्याचीŸ।।२२।। श्रीगुरुवाक्य ऐकोनि कानींŸ। करकमल जोडिलें दोन्हींŸ। तुमचिया वदानें ग्रंथ पूर्णपणीं। निर्मीन आतां।।२३।। वक्ता येथें विश्वनाथ। श्रोते शिवगण समस्त। यातें स्तवूं जोडोनि हात। सावध व्हावें निरूपणीं।।२४।। आतां श्रोतियां श्रीगणां प्रमथां। विनवूं चरणावरी ठेवूनि माथा। सावध होवोनि निरूपणीं आतां। ऐका टीका परमरहस्याची।।२५।। शिवगणां सावध होईजे ऐसें। बोलिलो मी अज्ञान पिसें। ते सर्वकाळ सावध असे। बोलिलो ते अन्यायें।।२६।। शिवगण कांहीं असती असावधान। म्यां तयासीं म्हणितलें व्हावें सावधान। ते सदा सावध म्हणोन। जगत्रय वर्ततसे।।२७।। तरी अन्याय क्षमा कीजें। पितयासारिखे साहूनि जाईजें। मज अपत्यातें कृपादृष्टीनें पाहिजें। शिवगणी तुम्ही।।२८।। तुम्ही शिवगण प्रमथु। गणंगळ सत्यवादी कृपावंतु। मी तुमचे अनाथु। म्हणोनि सलगीनें बोलिलो।।२९।। तुम्हां अवधान द्या म्हणितलें खोटें। तुमचें अवधान लाहून ईश तुष्टें। ऐसें बोल निपजती ओठें। याचा अभिमान तुम्हां।।३०।। मी परिहार कासया देऊं आतां। तुमचे तुम्ही बोलवा ग्रंथा। टीका करवाल आपुलिया स्वार्र्थां। मज कुंथाकुंथी कायसी।।३१।। ग्रंथ संवाद शिवगौरीचा। निजठेवा तुम्हां शिवगणांचा। यालागीं बोलवाल वाचा। आपुलिया सुखालागीं।।३२।। तुम्ही सुखरूप सदा असा आनंदें। परि जडजीव तरती तुमचिया प्रसादें। यालागीं टीका करवाल स्वानंदें। मज रंकाकडोनि पैं।।३३।। तंव श्रोते शिवगण बोलती। आतां परिहार देसी किती। शिव काय बोलिले पार्वतीप्रति। तें निरोपी आतां।।३४।। बरवे स्वामी म्हणोनि। मस्तक ठेविला चरणीं। पार्वतीस बोधी शूळपाणि। तेंचि निरोपुं आतां।।३५।। आधी पुसेल गुरुमाहात्म्य। मग पुसेल परमरहस्य उत्तम। गौरीनें हृदयीं धरोनिया नेम। श्रवणीं तत्पर झाली।।३६।। त्याच क्रमें हा परम ग्रंथ। आरंभी qककर मन्मथ। श्रवणीं श्रोते वीरशैव समस्त। ग्रीवा आनंदें डोलवितीŸ।।३७।।
कैलासशिखरे रम्ये भक्तिसंधाननायकम्। प्रणम्य पार्वती भक्त्या शंकरं परिपृच्छति।।१।।
कैलासशिखरीं रम्य स्थळीं। भक्तिसाधन धरोनि हिमनगबाळी। प्रणाम करोनि ते वेळीं। पुसे शंकरासीं।।३८।।
देव्युवाच-
भगवन् सर्वधर्मज्ञ ज्ञानविज्ञाननायक। ब्रूहि मे कृपया देव गुरुमाहात्म्यमुत्तमम्।।२।।

सर्व धर्मासी कोण जो धनी। ज्ञान विज्ञान वर्तें जयापासोनि। तो तूं भगवंता कैवल्यदानी। वर्णी महिमा श्रीगुरूचा।।३९।।
शिव उवाच-
यो गुरु: स शिव: प्रोक्तो य: शिव: स गुरु: स्मृत:। भुक्तिमुक्तिप्रदात्रे च तस्मै श्रीगुरवे नम:।।३।।

जो परमात्मा परमेश्वरु। तोचि सदाशिव सर्वां गुरु। तोचि मुक्तीचा उदारु। निजभक्तांसीं।।४०।। तोचि ज्ञान-विज्ञानदायक। तोचि कर्मधर्मासीं सहाय्यक। तोचि तीर्थ-व्रतांसीं नायक। सद्गुरु तोचि जाणिजे।।४१।।
देव्युवाच-
रूपं भुक्तेश्च मुक्तेश्च ज्ञानविज्ञानयोस्तथा। कर्मधर्मस्य वा रूपं कथयस्व समासत:।।४।।

आतां भुक्ति मुक्ति कोण कैसी। ज्ञान विज्ञान म्हणावें कोणासीं। धर्म आणि कर्मनिर्णयासीं। निरोपा म्हणे पार्वती।।४२।।
शिव उवाच-
लौकिकं सुखमात्यंतं भुक्तिरित्यभिधीयतेŸ। निवृत्तिर्घोरसंसारसागरान्मुक्त
िरुच्यतेŸ।।५।।
शंकर म्हणे वो गिरिजे। आतां प्रश्ननिर्णय ऐक वोजें। ऐकोनि हृदयीं धरिजे। फल पाविजें विश्वासें।।४३।। ऐक भुक्ति जे बोलिजे। अन्न धन संसारसुख जें जें। ते सद्युन् भुक्ति जाणिजे। देतां मी ईश्वरु।।४४।। मुक्ति द्विविधा असती। ऐक त्या सगुणा चाèही मुक्ति। काळाची कांबी होय गाजती। चहूंचिया माथां।।४५।। निर्गुण पांचवी सायुज्यता जाणिजे। तेणें स्वयें परब्रह्म होईजें। देह असतां जातां अखंड असिजें। वस्तुचि आपण।।४६।। तरंग क्षीरसागरीचा। भंगतां न भंगे सागरुचि साचा। तेव देह भंगतां न भंगे ब्रह्मीचा। ब्रह्मपुतळाचि तो।।४७।। स्वयें स्वस्वरूप होणें आपण। नाहीं क्रिया-कर्मबंधन। सोऽहं सिद्धि सदा सावधान। तेंचि मुक्तिपद पार्वती।।४८।। qपडब्रह्मांडीचा जाणोनि झाडा। सत्-चिदानंदाचा निवाडा। करोनि जाणिजें निजतत्त्व पुढा। त्या नांव विज्ञान।।४९।। जाणोनि तेंचि होईजें। झालेपणाचा आठव आटिजे। जाणीव ज्ञानाची मग निमे सहजे। विज्ञान तेंचि जाण।।५०।। धर्म तो कुळीचा जाणिजे। आपले धर्मीं निष्ठत्वें वर्तिजें। अधर्माची शीग निमे सहजे। तोचि धर्म वो देवी।।५१।। कर्म तें क्रिया जाणिजे। आपुली क्रिया निपुण आचरिजे। निष्कामबुद्धि कीजे। तेंचि कर्म शुद्ध पैं।।५२।। ऐसा जो भुक्ति-मुक्ति-ज्ञान-विज्ञानदाता। धर्म-कर्म-सर्वक्रियाभोक्ता। तो सदाशिव सद्गुरु कर्ताहर्ता। ऐसिया सद्गुरूसीं नमो नमो।।५३।।
चैतन्यं शाश्वतं शांतं व्योमातीतं निरंजनम्। नादqबदुकलातीतं तस्मै श्रीगुरवे नम:।।६।।
qपड ब्रह्मांड सृष्ट सर्वांगीं। व्यापक चैतन्य अंगसंगीं। जडातें चेतवी चैतन्य रूपांगीं। ऐसा सद्गुरु तो जाणिजे।।५४।। शाश्वत म्हणिजे सदा असत। अक्षयी अजर अमर सदोदित। म्हणोनि नामें शाश्वत। श्रीगुरुपद तें।।५५।। शांत म्हणिजे कांहीं कर्तृत्व नाहीं। षड्विकार षडूर्मि नुठती कांहीं। मनबुद्धि निमे म्हणोनि शांत पाही। सदा सद्गुरुस्वरूप।।५६।। व्योमातीत म्हणिजे आकाशरहित। निरंजन जनवन व्यापूनि अतीत। नादqबदुकळाज्योतिरहित। ऐसिया सद्गुरूसीं नमो नमोŸ।।५७।।
स्थावरं जंगमाधारं निर्मलं स्थिरमेव च। जगद्वंदितपादाय तस्मै श्रीगुरवे नम:।।७।।
पृथ्वी पर्वत वृक्ष स्थावर बोलिजें। चालतेबोलते जंगम म्हणिजें। या समस्तांसीं आधार जे जे। तें गुरुपद बोलिलें।।५८।। जो निर्मल त्रिगुण मलासी। जो स्थिर गंभीर व्यापक सर्वांसीं। त्रिलोक वंदिती ज्या पदांसीं। तया सद्गुरूसीं नमो नमो।।५९।।
स्थावरं निर्मलं शांतं जंगमं स्थिरमेव च। व्याप्तं येन जगत्सर्वं तस्मै श्रीगुरवे नम:।।८।।
स्थावर निर्मल आणि शांत। जंगम स्थिर समस्त। या सर्व जगासीं जो व्याप्त। तया श्रीगुरूसीं नमो नमो।।६०।।
ज्ञानशक्तिसमारूढस्तत्त्वमालाविभूषित:। अज्ञानांधतमस्सूर्यस्तस्मै श्रीगुरवे नम:।।९।।
जो ज्ञानशक्तीं आरूढ होऊन। लेऊन तत्त्वमालांचें भूषण। जो अज्ञानांधकार छेदितभान। तया श्रीगुरूसीं नमो नमो।।६१।।
अखंडमंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्। तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:।।१०।।
जी वस्तु अखंड मंडळाकार। ती व्यापूनि असे चराचर। तें पद दाखवी जो निरंतर। तया सद्गुरूसीं नमो नमो।।६२।Ÿ।
ब्रह्माविष्णुश्च रुद्रश्च ईश्वरश्च सदाशिव:। एते गर्भगता यस्य तस्मै श्रीगुरवे नम:।।११।।
ब्रह्मा विष्णु आणि ईश्वर। सदाशिवादि सर्व अवतार। सृष्टिकर्ते गण साचार। शिवापासूनि उद्भवले।।६३।। हे सर्व गुरूचे सेवक। म्हणोनि सर्वां ज्ञानदायक। तेहि गुरुकृपेंस्तव देख। गर्र्भां येती श्रीगुरूच्या।।६४।। ऐसा श्रीगुरु समर्थ। ज्याचे गर्भीं विश्वनाथ। सदा राहे आनंदांत। तया गुरूसीं नमो नमो।।६५।।
गुरुदेवो महादेवो गुरुदेव: सदाशिव:। गुरुतत्त्वात्परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नम:।।१२।।
गुरु तोचि महादेव। गुरु तोचि सदाशिव। गुरुपरता नाहीं देव। म्हणोनि श्रीगुरूसीं भजिजें।।६६।। ब्रह्मा विष्णु महेश। हेहि श्रीगुरूचेचि अंश। तेहि ध्याती श्रीगुरूस। यालागीं गुरूसीं नमो नमो।।६७।।
अज्ञानतिमिरांधस्य ज्ञानांजनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:।।१३।।
अज्ञान त्रिगुण अंधकार। ज्ञानांजन लावून केला दूर। ज्ञानचक्षु प्रकाशिला निरंतर। तया श्रीगुरूसीं नमो नमो।।६८।।
भवारण्यप्रविष्टस्य मोहदिग्भ्रान्तचेतस:। येन मे दर्शित: पंथास्तस्मै श्रीगुरवे नम:।।१४।।
संसाररूपी अरण्यवनीं। अहंभ्रांqत भुलतां दिशा भुलोनि। तेथें काम-क्रोध qसह-व्याघ्र वेढूनि। ग्रासूं आरंभिले।।६९।। तेथें भेटले अदृष्ट कृपादानी। ज्याने दुष्ट श्वापदें टाकिली छेदूनि। सुपंथीं लाविले शुद्ध बोधूनि। तया श्रीगुरूसीं नमो नमो।।७०।।
अनेकजन्मसंप्राप्तकर्मेन्धनविदाहिने। ज्ञानानलप्रभावेन तस्मै श्रीगुरवे नम:।।१५।।
अनंत जन्म प्राप्त कां म्हणसी। कर्मधर्महीन वर्ततां जनांसीं। दु:ख भोगणें प्राप्त तयासीं। म्हणोनि होती जन्मफेरे।।७१।। यालागीं सद्गुरूसीं शरण जातां। उपदेशी तो शिवबोध तत्त्वतां। अष्टावरणाची महत्ता। क्रियेसहित सांगे तो।।७२।। गुर्वाज्ञेनें स्वधर्मीं वर्ततां। ज्ञानानळें कर्मकाष्ठां समस्तां। उभेचि दग्ध करी तत्त्वतां। तया श्रीगुरूसीं नमो नमो।।७३।।
नमामि श्रीगुरुं शांतं प्रत्यक्षशिवरूपिणम्। शिरसा योगपीठस्थं शीघ्रं मोक्षप्रदायकम्।।१६।।
जो श्रीगुरु परमशांत। ब्रह्मरंध्रीं योगपीठीं विराजित। जो कां प्रत्यक्ष उमानाथ। मोक्षदायक भक्तांसीं।।७४।। हालवूनि नवचक्रमेळा। दाखवी महामायेच्या खेळा। दासां उद्धरी अवलीला। तया श्रीगुरूसीं नमूं।।७५।।
देव्युवाच-
केन मार्गेण भो स्वामिन् जीवो ब्रह्ममयो भवेत्। कथमज्ञाननिवृत्तिस्तत्सर्वं कथयस्व मे।।१७।।

पार्वती म्हणे जगदीश्वरा। जे प्राणी देहधारी अवधारा। ब्रह्म केqव होती चरेश्वरा। तें गुह्य सांगा मज।।७६।। जेणें प्राप्त होय शिवयोग। जेणें समरसे qलगीं अंग। ऐसें गूढ तत्त्व अव्यंग। निरोपा मजलागीं।।७७।।
शिव उवाच-
यस्य देवे पराभक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ। तस्यैते कथिता: ह्यर्था: प्रकाशन्ते महात्मन:।।१८।।

ईश्वर म्हणे वो पार्वतीŸ। गुरु तोचि देव जाणतीŸ। सद्भावें सदा अर्चितीŸ। ते जाणती निजतत्त्वांŸ।।७८।।
प्रात: शिरसि शुक्लाब्जे द्विनेत्रं द्विभुजं गुरुम्। वराभयकरं शांतं स्मरेत्तन्नामपूर्वकम्।।१९।।
प्रात:काळीं उठोन। आसनीं बैसावें सावचित्त होऊन। मग भावें करावें ध्यान। श्रीगुरूचें।।७९।। जे कां शुभ्र सहस्रदळ कमळ। त्याची जी कलिका शुद्ध निर्मळ। तया ठायीं अविकळ। ध्यान करावें प्रेमभरें।।८०।। आणिक सांगतो तुज एक। जो द्विभुज द्विनेत्र देख। वर द्यावया आवश्यक। एकमुख शोभतसे।।८१।। जरी अनेक वदनें असती। तरी वर न पावे निश्चिती। म्हणोनिया आत्ममूर्ति। जगामाजीं प्रवर्तली।।८२।। गुरुपादोदकेंकरून। नित्य देहाचें होय क्षालन। तरी जन्मांतरीचीं पापें जळून। दिव्य शरीर होय पैंŸ।।८३।।
प्रसन्नवदनाक्षं च सर्वदेवस्वरूपिणम्। तत्पादोदकधाराश्च निपतन्ति स्वमूर्धनि।।२०।।
श्रीगुरुमूर्ति शांत सगुण। अद्वितीय प्रसन्नवदन। सर्वदेवस्वरूप म्हणोन। पूर्ण ब्रह्मरूप तोŸ।।८४।। गुरुपादोदकाची धार। पडतसे स्वमस्तकीं वारंवार। ऐसी भावना सत्वर। करावी शिष्यवर्यें।।८५।। तया अमृतधारेंकरूनŸ। होय गुरुबीजाक्षराचें संजीवनŸ। नित्य नवे बोधांकुर जाणŸ। प्रगट होय अंतरींŸ।।८६।।
तीर्थानि दक्षिणे पादे वेदास्तन्मुखमाश्रिता:। पूजयेदर्चिततनुं तदभिधानपूर्वकम्।।२१।।
तयाचे दक्षिण चरणीं। वसती सर्व तीर्र्थेंे जावोनि। वेदमुखाचा आश्रय करोनि। राहे तेथेंचि आनंदें।।८७।। ऐसिया सद्गुरुनाथाचें। भावें पूजन करावें साचे। नाम स्मरतां जन्माचें। सार्थक होय तत्त्वतां।।८८।।
काशीक्षेत्रनिवासोऽसौ जान्हवीचरणोदकम्। गुरुर्विश्वेश्वर: साक्षात् तारकं ब्रह्म निश्चितम्।।२२।।
भूकैलास वाराणसी। पुरी विराजित काशी। सप्तपुरीयांत अविनाशी। महातीर्थ वंद्य जें।।८९।। तेथें असे विश्वेश्वर। तैसाच मानिला गुरु साचार। उभय चरण स्पर्शी नीर। तेंच तीर्थ मानिलेंसे।।९०।। गुरुचरणीचें जें तीर्थ। जान्हवी सारिखेचि निश्चित। त्यावेगळा भावार्थ। करूं नये गुरुभक्तें।।९१।। ज्या ज्या तीर्थीं आहे पाणी। तीं तीं शिवाची पायधुणी। परि तेंचि उत्तम म्हणोनि। अभिषेकिती देवातें।।९२।। तैसेंचि गुरुचरणींचें उदक। परमपवित्र पावन देख। त्याचा करिता अभिषेक। संतोषित गौरी मी।।९३।। आतां सांगणें निश्चित एक। भावें जाणिल्या तीर्थ तारक। तैसें नोव्हे गुरुपादोदक। साक्षात् ब्रह्मदायक असे।।९४।। येथें संपवूनि गुरुमहिमा। पुढें रहस्या वदवी परमात्मा। तया श्रोतियां प्रत्यगात्मा। होवोनिया तुष्टवी।।९५।। जो असेल साच वीर। तया हा ग्रंथ भवपार। करोनि देईल मुक्ति थोर। सायुज्य ती निर्वाण।।९६।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। उमामहेश्वरसंवादीं वर्तत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृत्य मन्मथ।।९७।।
। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे श्रीगुरुमाहात्म्यवर्णनं नाम प्रथमोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक २२, ओव्या ९७.

(संगणकीय अक्षरलेखन : सौ. उषा पसारकर, केतकी फ़ोटो टाईप सेटर्स, सोलापूर)

मराठी वाङ्मयातील बसव-दर्शन

                                     मराठी वाङ्मयातील बसव-दर्शन



धर्माचा आधार घेऊन ज्यांनी लोकप्रबोधन केले, अशा महान समाजसुधारकांमध्ये म० बसवेश्वरांना अग्रस्थान द्यावे लागते. स्त्रीमुक्ती, पददलितांचा स्वीकार, कायकतत्त्वाचा पुरस्कार, वचनसाहित्याची निर्मिती अशा विविध पुरोगामी पैलूंची किनार त्यांच्या व्यक्तिमत्त्वाला लाभली होती. कर्मकांड, अंधश्रद्धा, विषमता यांविरुद्ध त्यांनी बंड पुकारले होते. तमिळनाडूतील ६३ नायन्मार संतांनी निर्मिलेल्या भक्तिवाङ्मयाचा आदर्श त्यांच्यासमोर होता. भक्तिक्षेत्रात सर्वांना समान मानले जाते, मग सामाजिक क्षेत्रातच विषमता का? या प्रश्नाचे उत्तर त्यांनी हरळय्या-मधुवरस यांच्या मुला-मुलीच्या विवाहाला मान्यता देऊन दिले आणि त्यातूनच कल्याणक्रांतीचा जन्म झाला. रूढीदासांनी पेटवलेल्या आगडोंबामुळे शिवशरणांना वचनसाहित्य घेऊन परागंदा व्हावे लागले. झालेला प्रकार विषण्णतेने पाहात बसवेश्वरांना समाधी घ्यावी लागली. आजच्या महाराष्ट्राच्या सीमेलगत आठ शतकांच्या आधी घडलेल्या ह्या घटना समोर ठेवूनच महाराष्ट्रातील संतांनी सावधपणे पाऊल उचलले. त्यांनी जातिकूळ अप्रमाण मानले, पण समतेला भक्तिक्षेत्रापुरतेच मर्यादितही ठेवले.
कर्नाटक-महाराष्ट्राच्या सीमा अलीकडे, १९६० मध्ये आखल्या गेल्या. पण त्याआधी ही भूमी एकसंधच होती. एकाच राज्यकत्र्याच्या अमलाखाली होती. आजच्या महाराष्ट्रातील मंगळवेढा या गावी बसवेश्वरांचे २१ वर्षे वास्तव्य होते. जात्यभेदातीत समाजनिर्मितीचा विचार त्यांच्या मनात याच ठिकाणी रुजला असावा. बसवेश्वरांचा नवविचार आणि वचनसाहित्य यांचा कर्नाटकामध्ये अधिक प्रचार आहे, हे खरे असले तरी, बसवेश्वरांची पहिली जयंती मात्र महाराष्ट्रात अमरावतीला, कर्नाटकातून आलेल्या शंकरमृगेंद्र स्वामी यांच्या प्रेरणेने, देशभक्त ना० रा० बामणगावकर यांच्या नेतृत्वाखाली, लोकमान्य टिळकांचे कट्टर अनुयायी दादासाहेब खापर्डे यांच्या हस्ते, १ मे १९११ रोजी साजरी झाली. देशातील पहिली बसवजयंती साजरी करण्याचा मान महाराष्ट्राने घेतला.
बसवेश्वरविषयक विपुल वाङ्मय मराठी भाषेत निर्माण झाले आहे. त्यामध्ये पद्यग्रंंथ, स्फुट रचना, गद्यग्रंथ आणि बसववचनांचा भावानुवाद अशी विभागणी करता येते. ह्या समग्र वाङ्मयाचा आढावा येथे घेता येणे शक्य नसले तरी काही ठळक कृतींचा परिचय येथे करून देत आहे.
पद्यग्रंथ
बसवपुराण (शिवदास), बसवपुराण (शंभु तुकाराम), बसवगीतापुराण (मोगलेवार), बसवेश्वराख्यान (पंचाक्षरी स्वामी), बसवेश्वरस्तोत्र (शंकर मृगेंद्र) अशी पद्यरचना बसवेश्वरांच्या चरित्रावर अनेक कवींनी केली आहे. अर्थात ह्या रचनांना आधारभूत ग्रंथ संस्कृत-कन्नड या भाषांतील आहेत.
१. बसवपुराण : शिवदास हे टोपण नाव घेतलेल्या संतकवीने सुमारे दोनशे वर्षांपूर्वी, शके १७३८ (इ०स० १८१६) मध्ये सोलापुरातील सिद्धेश्वरमंदिरात बसवपुराण या ओवीबद्ध ग्रंथाची निर्मिती केली. पाल्कुरिकी सोमनाथ, भीमकवी, शंकराराध्य आणि येळंदुर षडक्षरस्वामी ह्या चार पूर्व बसवचरित्रकारांचे त्यांनी प्रारंभी स्मरण केले आहे. परंतु आपल्या रचनेसाठी त्यांनी संस्कृत बसवपुराणाचा आधार घेतला आहे. आपली निर्मिति-प्रेरणा स्पष्ट करताना ते म्हणतात:--
ते असता संस्कृत पुराणŸ। कां हे प्राकृत केले कथनŸ।
तरी ती भाषा गीर्वाणŸ। बोध होणे कठीण कीŸ।। १.१०३
आता हा महाराष्ट्रदेश पावनŸ। व्हावा म्हणोनि हे पुराणŸ।
मी आरंभितो आणि माझेहि कल्याणŸ। होईल जाण अनायासेŸ।। १.१०८
मराठी जनांना बसवचरित्राची ओळख करून देणे, हा त्यांचा रचनेचा उद्देश आहे. सोलापुरातील सिद्धेश्वरमंदिरात ही रचना केल्याचा स्पष्ट उल्लेखही त्यांनी शेवटच्या अध्यायात केलेला आहे. या ग्रंथात एकूण ४३ अध्याय असून ओवीसंख्या ७९६३ एवढी आहे. शिवदासांची शैली अलंकारप्रचुर, भारदस्त आणि प्रवाही अशी आहे. (याच शिवदासांनी राघवांकांच्या कन्नड ग्रंथाधारे मराठीत सिद्धेश्वरपुराण हा ग्रंथ रचला आहे.)
२. बसवपुराण : पूर्वीच्या निजामहद्दीतील काटगाव (आता जि० उस्मानाबाद) ह्या गावचे रहिवासी असलेल्या शंभु तुकाराम आवटे या कवीने शके १८३९ (इ०स० १९१७) मध्ये मराठीत ओवीछंदात बसवपुराणाची रचना केली. ४३ अध्याय आणि ६०५५ ओव्या असलेल्या या ग्रंथाला अगस्ती-षडानन यांच्या संवादाची बैठक आहे. या कवीनेही आपल्या रचनेसाठी संस्कृत बसवपुराणाचा आधार घेतला आहे. वीरशैव मताला समाजाभिमुख करून पुन्हा प्रतिष्ठा प्राप्त करून देणाèया बसवेश्वरांचे व्यक्तिमत्त्व आणि अन्य शिवशरणांच्या भक्तिकथा यात चितारलेल्या आहेत. ‘शैवमार्गा दिसे दुकाळङ्क अशी तक्रार नारद घेऊन येतात तेव्हा शिव नंदीला
हे सुमुखा नंदिकेशाŸ। जई जई पावे धर्म èहासाŸ।
तई तई घेशी अवतार ऐसाŸ। ओघ आहे सुजाणाŸ।। २.४३
याहीवेळी अवतार घेईŸ। वेदवचना मान देईŸ।
पवित्र धर्म लवलाहीŸ। स्थापी बापा सुजाणाŸ।। २.४४
अशी आज्ञा करतात, आणि त्यानुसार नंदी मादांबेच्या उदरी बसवरूपाने जन्म घेतात. या ग्रंथातील आशय शिवदासकृत बसवपुराणासारखाच आहे.
३. बसवेश्वराख्यान : नागपूरचे पेंटय्यास्वामी पल्लेकार ऊर्फ पंचाक्षरीस्वामी (इ०स० १८६९-१९३३) यांनी इ०स० १९१५ च्या आसपास बसवेश्वराख्यान ह्या वृत्तबद्ध काव्याची रचना केली. अगस्ती-कुमारसंवादाची बैठक या काव्यालाही आहे. qदडी, साकी, श्लोक, ओवी, आर्या, कामदा, कटिबंध अशा विविध वृत्तांतून कवीने ही कथा वर्णिली आहे. यामध्ये संपूर्ण बसवचरित्र नसून केवळ बसवजन्मापर्यंतचेच कथानक आलेले आहे. शब्दयोजना प्रौढ आणि गंभीर आहे. वानगीदाखल यातील एक श्लोक पाहा:--
तोचि नंदिश तव उदरी प्रवेशोनीŸ।
ध्यात आनंदे सदा शूलपाणीŸ।।
प्राणायामादिक योग साधुनियाŸ।
राहिलासे षट्चक्र भेदोनियाŸ।।
४. बसवगीतापुराण : नागपूरचे सुधाकर मोगलेवार यांनी ओवीछंदात बसवगीतापुराण रचून ते १९६७ मध्ये प्रकाशित केले. सहजसुंदर प्रासादिक रचना हे या ग्रंथाचे वैशिष्ट्य ठरावे. ११ अध्याय आणि केवळ ५१० ओव्या, असा हा छोटा आटोपशीर ग्रंथ आहे. बसवजन्म, मुंज, विवाह, राज्यानुशासन, बसवलीला, प्रभुदेव-वरप्रदान, बसवमाहात्म्य, अनुभवमंटप व महादेवीकथा, हरळय्याचरित्र, प्रधानमंत्रिपदत्याग, बिज्जलवध व शिवैक्य एवढाच कथाभाग यामध्ये आलेला आहे.
वीरशैवांची इच्छा म्हणूनŸ। बसवगीतापुराणलेखनŸ।
भाष्यकारांना साक्षी ठेवूनŸ। बोलली वाणीŸ।। १.१५
असे रचनेचे प्रयोजन कवीने स्पष्ट केले आहे. अल्ल-मधुपाच्या हत्येनंतरचे वर्णन कवीने बहारदारपणे केले आहे:--
वसुंधरेला अश्रू आलेŸ। आकाश फाटू लागलेŸ।
मेघ गर्जित चाललेŸ। दश दिशांनीŸ।। १०.६
शूरांचे शौर्य खचलेŸ। वीरांचे धैर्य भंगलेŸ।
योगी-हृदय छेदलेŸ। दु:ख करताŸ।। १०.१८
आचारांचे सागरŸ। विचारांचे आगरŸ।
समाचारांचे नगरŸ। उद्ध्वस्त झालेŸ।। १०.२१
स्फुट रचना
बसवेश्वरांवर मराठीत स्तोत्र, अभंग, कथात्मक अभंग, पाळणा, आरती, श्लोक, गीते अशी विविध प्रकारची स्फुट रचना झालेली आढळते. ‘बसवेश्वरविषयक मराठी वाङ्मयङ्क हा स्वतंत्र प्रबंधाचा विषय आहे. येथे वानगीदाखल स्फुट रचनेची काही उदाहरणे नोंदवीत आहे.
१. स्तोत्र : बसवेश्वरांवर अनेक कवींनी स्तोत्रे लिहिली आहेत. त्यांपैकी एक प्रमुख स्तोत्रकार अमरावतीचे शंकरमृगेंद्र स्वामी (मृत्यू १९२२) यांनी ४३ ओव्यांतून बसवेश्वरस्तोत्र गायिले आहे. ७ मे १९१० रोजी या स्तोत्राची रचना झाली. ‘बसव पाहिमामङ्क हे पालुपद ते प्रत्येक ओवीतून आळवतात. उदा०:--
म्हणे दुष्टा, पापी नष्टाŸ। शैवद्रोही क्रियाभ्रष्टाŸ।
मृत्युलोकी जन्म कष्टाŸ। बसव पाहिमामŸ।।६Ÿ।।
सहस्रशास्त्री एक झालेŸ। व्यासी वादयुद्ध केलेŸ।
ब्रह्मसूत्र निषेधिलेŸ। बसव पाहिमामŸ।।२२Ÿ।।
करून बौद्धमार्ग खंडŸ। qलगधारी मत प्रचंडŸ।
स्थापिले उडवोनि बंडŸ। बसव पाहिमामŸ।।३२Ÿ।।
स्तोत्राची निर्मिती श्रद्धाभावनेतून झाली असून त्याची रचना प्रासादिक आहे.
२. अभंग : बसवेश्वरांवर चरित्रपर व स्तुतिपर असे अनेक अभंग मराठीत रचले गेले आहेत. प्रातिनिधिक कवी म्हणून आष्टी (जि० जालना) येथे होऊन गेलेले वीरशैव संतकवी लक्ष्मण महाराज (इ०स० १८०८-१८७८) यांचा उल्लेख करता येईल. लक्ष्मण महाराजांनी बसवेश्वरांवर स्तुतिपर असे ४७ अभंग रचले आहेत. भगवान शंकराच्या नंदीगणाशी बसवेश्वरांचे ऐक्य कल्पूनच त्यांनी अभंगरचना केली आहे. काही अभंगांत बसवण्णांना परब्रह्म आणि शिव असेही संबोधिले आहे:--
शिव तोचि बसवेश्वरŸ। बसवेश्वर तोचि ईश्वरŸ।।
अवघा आपणचि नटलाŸ। अनंत रूपे करितो लीलाŸ।।
(श्रीलक्ष्मणगाथा, अभंग २४९५)
शिवगणांचा आत्मा, भक्तिमार्गस्थापक, वैराग्याचा निधी, ज्ञानाचा अब्धी, ज्ञानमूर्ती, शिवसखा, भक्तकैवारी अशा अनेक विशेषणांनी लक्ष्मण महाराजांनी बसवेश्वरांना गौरविले आहे. ‘कल्याणी अवतार घेतला प्रभोनेŸ। धर्मसंरक्षण केले तातेŸ।।ङ्क (श्रीलक्ष्मणगाथा, २५२७) असा त्यांच्या अवतारित्वाचा आणि धर्मरक्षकरूपाचा उल्लेख केला आहे. ‘बसव दयाळू कृपेचे आगरङ्क (२५२९), ‘बसव कर्माचे करितो खंडनङ्क (२५३३), ‘बसव आमुचे जीवीचे जीवनङ्क (२५३४) अशा शब्दांत त्यांचे गुणगान करून बसवनामाचे माहात्म्यही वर्णिले आहे:--
बसव अक्षर जपती जे शूरŸ। पापांचा संहार होय नामेŸ।। (२४९२)
बसव त्रिअक्षरी जपा सुख होय ...(२४९३)
त्रिअक्षरी बसव त्रितापांते वारीŸ... (२५२६)
बसवा बसवा बसवा बसवाŸ। जीवाचा विसावा ध्या हो वेगीŸ।। (२५३७)
बसव आपल्याला अंर्तबाह्य व्यापून राहिला आहे, असे लक्ष्मण महाराज म्हणतात आणि स्वत:ला त्यांचा दास समजून अतीव श्रद्धेने त्यांना वंदन करतात:--
नमो नमो ज्ञानमूर्तीŸ। बसवेश्वरा कृपामूर्तीŸ।।
तुझे वैभव अपारŸ। आहेसी सिद्धांचे माहेरŸ।।
स्वयंप्रकाश अजरामरŸ। काय वर्णू मी पामरŸ।।
लक्ष्मण हा तुमचाŸ। करा सांभाळ दीनाचाŸ।। (२५०१)
बसवेश्वरांवर केवळ स्तुतिपर अभंग लिहूनच लक्ष्मण महाराज थांबले नाहीत, तर त्यांनी बसवपुराणातील शरणांच्या कथांवर मराठी अभंगांचा साज चढविला. बिज्जमहादेवी, रुद्रपशुपती, शिवभक्त बालिका, धनगरपुत्र, ह्या बसवपुराणातील शिवभक्तांच्या कथा त्यांनी अनेक अभंग रचून खुलवून-रंगून सांगितल्या आहेत. कथेच्या शेवटी ‘बसवपुराणात आहे हे चरित्रŸ।ङ्क, ‘बसवपुराणात आहे ही हो कथाŸ।ङ्क, ‘बसवपुराणी हे चरित्र सुरसŸ।ङ्क असे बसवपुराणाचे दाखलेही दिले आहेत.
याशिवाय बसवqलगस्वामी (अंदाजे सतराव्या शतकाचा उत्तरार्ध) यांचे म० बसवेश्वरजन्माचे अभंग; शिवगुरुदास (इ०स० १८७३-१९१९) यांचे बसवेश्वरावरील अभंग; बसवदास (इ०स० १८८७-१९२४) यांचा बसवपाठ, बसवलीलामृत व बसवेश्वरजन्माचे अभंग; गुरुदास (इ०स० १८७९-१९५३) यांचा बसवपाठ इत्यादी वाङ्मयदेखील प्रकाशित झाले आहे.
३. पाळणा : बसवेश्वरांवर मराठीत काही पाळणेही लिहिले गेले आहेत. कोल्हापूर जिल्ह्यातील कागल या गावचे अप्पाराव धुंडीराज मुरतुले ऊर्फ कवी सुमंत (इ०स० १८८१-१९३९) यांनी एक पाळणा रचलेला आहे. वानगी म्हणून त्याचा थोडा भाग आपल्यासमोर सादर करतो:--
श्री नंदीश्वर अवताराŸ। जो जो जो बसवकुमाराŸ।।धृ०Ÿ।।
वेदान्ती वाखाणियलीŸ। जी वीरशैवमत महतीŸ।
तिज काळगतीने आलीŸ। मृतकळा छळाने जगतीŸ।
कर्माने गिळिले ज्ञानŸ। तम जमले तेजाभवतीŸ।
निद्रेचा अंमल चढलाŸ। जन अवनत घोरत पडलाŸ।
तुजचि मात्र जागर घडलाŸ। qलगायत धर्मोद्धाराŸ।
बाळा जो जो रे बसवकुमाराŸ।।
यापुढे qहगुलीपुरात मादिराज-मादांबेच्या उदरी जन्म, शिवदीक्षा, शैवमताचा प्रसार, गंगांबेशी विवाह, बिज्जलाला ज्ञानदान अशा प्रसंगांचे सुरेख वर्णन करून
त्या वीरशैवधर्माचेŸ। हे सुधासार सेवावेŸ।
लाभेल अमरता तेणेŸ। देऊनि दिव्यदृक् देणेŸ।
झालास शिवाचे लेणेŸ। पात्र तूच तव अधिकाराŸ।
बाळा जो जो रे बसवकुमाराŸ।।
अशा शब्दांत पाळणा संपविला आहे. याशिवाय अनेक कवींनी बसवेश्वरांवर रचलेले पाळणे उपलब्ध झाले आहेत.
४. आरती : पाळण्याप्रमाणेच काही कवींनी बसवेश्वरांवर आरत्याही लिहिल्या आहेत. लक्ष्मण महाराजांनी लिहिलेल्या तीन आरत्या प्रकाशित झाल्या आहेत. ‘आरती बसवेशाŸ। परात्पर परेशाŸ।।ङ्क (४०७२), ‘जयजयजी बसवेशाŸ। शुद्धबुद्ध अविनाशाŸ।।ङ्क (४०७१) व ‘आरती ओवाळू बसवेशाŸ। शंकरा महेशाŸ। आरती ओवाळूŸ।।ङ्क (४०७३) अशा या तीन आरत्या असून त्यांमध्ये बसवेश्वर हे शिवभक्त, योगी, पूर्णकाम, शिवस्वरूप असून प्रत्यक्ष परब्रह्मच आहेत, असे वर्णन केलेले आहे. ही सर्व रचना पारंपरिक स्वरूपाची आहे. याशिवाय अनेक कवींच्या आरत्या उपलब्ध आहेत.
५. गीते : म० बसवेश्वरांवर मराठीत चरित्रपर सलग गीते व स्फुट गीते पुष्कळ लिहिली गेली आहेत. कुमार कोठावळे (सोलापूर), सुधाकर मोगलेवार (नागपूर), शे० दे० पसारकर (सोलापूर) ही काही कवींची ठळक नावे होत. गीत बसवेश्वर नामक ४४ पृष्ठांच्या पुस्तिकेत कुमार कोठावळे (इ०स० १९२०-१९९८) यांनी बसवेश्वरांची वाङ्मयीन पूजा बांधली आहे. प्रारंभी गद्य भाष्य आणि नंतर गीत अशा प्रकारे २५ गीतांत त्यांनी बसवेश्वरांचे चरित्र गुंफले आहे. त्यामधील काही नमुने पाहा.
निपुत्रिका मादांबिकाŸ जातवेदमुनींसमोर आपली मनोव्यथा पुढील शब्दांत सांगते:--
मुक्त हास्य ते कधी पाहीन
हृदयाशी त्या कधि कवटाळीन
‘जो जो बाळाङ्क कधी गाईन
नेत्रही आसुसले...
बसवाच्या बाळलीला सांगताना मादांबेच्या वत्सलतेला असे उधाण येते:--
काय सांगू बाई याच्या लीला मी तुम्हाला
पहाटे उठुनिया झटे पदराला
दुध हवे जणु सांगे मुक्याने मातेला...
बसव गृहत्याग करतो तेव्हा मातेचा आकांत अशा शब्दांत व्यक्त होतो:--
यासाठीच का केला नवसŸ। भरली माझी देवाने कुसŸ।
गाईपासुनी तुटे पाडसŸ। अश्रू ये निखळून
बसवा, जाऊ नको सोडून...
मधुवय्या-हरळय्या यांची हत्या झाल्याप्रसंगी कवी लिहितो:--
धर्मक्रांतीच्या वादळि डोले डगमग जीवननैय्या
अमर जाहले दोन हुतात्मे मधुवय्या-हरळय्या
धृपदात मध्यवर्ती कल्पना आणि कडव्यांतून वेगवेगळी उदाहरणे देत ही गीते कथानक पुढे पुढे नेतात. रसांचा परिपोष, अलंकारांचा नेमका वापर, मधुर शब्दकळा ही कुमार कोठावळे यांच्या गीतरचनेची वैशिष्ट्ये होत.
सुधाकर मोगलेवार यांनी बसवगौरवगीते हा गीतसंग्रह (२००५) प्रकाशित केला. यामध्ये सुधाकर मोगलेवार, प्रभाकर मांजरखेडे, दिवाकर मोगलेवार, आनंद मांजरखेडे, वसंत ठमके यांच्या गीतरचना संग्रहित केलेल्या आहेत. एक नमुना असा:--
जातिपातीचे जोखड उतरले मानेवरूनी ।
गळू लागले शेंदूर दगडाच्या देवावरूनी
देह असे देवालय मानव जाणू लागला ।
माणसामाणसात तो शिव पाहू लागला...
शे० दे० पसारकर यांचीही काही स्फुट गीते प्रकाशित झाली आहेत. त्यांपैकी
समतेचा qडडिम गर्जला, अरुणोदय झाला
तुझ्या रूपे श्रीबसवा, भूवरि नवा मनू आला...
हे गीत विशेष प्रसिद्ध आहे.
गद्यग्रंथ
(अ) चरित्रपर ग्रंथ
म० बसवेश्वरांचे चरित्रकथन करणारे आणि त्यांच्या क्रांतिकार्याचा वेध घेणारे अनेक ग्रंथ मराठीतून प्रकाशित झाले आहेत. एस० एम० कल्याणशेट्टी याचा जगज्ज्योती बसवेश्वर (१९३८), म० गो० माईणकर व रा० द० गुरव यांचा श्रीबसवेश्वर (१९४७), रघुनाथ लोहार यांचा श्रीबसवेश्वर (१९४७), जोशी यांचा श्रीबसवेश्वर (१९६२) हे चरित्रग्रंथ प्रकाशित झाले असून ते आता दुर्मीळ आहेत. अलीकडे अशोक कामत, अशोक मेनकुदळे, प्रभाकर पाठक यांनी बसवचरित्रावर केलेले लेखन प्रकाशित झाले आहे. एम० चिदानंदमूर्ती व एच० तिप्पेरुद्रस्वामी यांच्या कन्नड बसवचरित्रांचेही मराठीतून अनुवाद झाले आहेत. याशिवाय बसवेश्वरांवर लेखरूपाने पुष्कळ फुटकळ लेखन प्रसिद्ध झाले आहे, आणि होत आहे.
१. महात्मा बसवेश्वर : काळ, व्यक्ती, वचनसाहित्य आणि शरणकार्य : पुण्याचे डॉ० अशोक प्रभाकर कामत यांनी लिहिलेला हा ग्रंथ सत्संग प्रतिष्ठान, पुणे यांनी १९९९ मध्ये प्रकाशित केला. बसवेश्वरांचा काळ, राजकीय-सामाजिक-धार्मिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक वातावरण, म० बसवेश्वर आणि महाराष्ट्र, म० बसवेश्वर : जीवनचरित्र, म० बसवेश्वरांचे वचनदर्शन, म० बसवेश्वरांचा शरण-परिवार, निवडक वचने आणि विवरण अशा प्रकरणांतून कामत यांनी बसवेश्वरांच्या चरित्राचा, क्रांतिकार्याचा आणि वचनांचा वेध घेतलेला आहे. परिशिष्टात संदर्भसाधने, चित्रावली आणि कालपट दिलेला आहे. अनिमिषदेव, अल्लमप्रभू, अक्कमहादेवी, चन्नय्या, मुद्दय्या, सोड्डळ बाचरस, शंकरदासिमय्या, किन्नरी बोमय्या, शिवप्रिया, रामण्णा, अमुगीदेव, रायम्मा, संकण्णा, मोळीगेय मारय्या, पद्मावती, रुद्रमुनी, कक्कय्या, सिद्धरामेश्वर, हाविनहाळ कल्लय्या आदी शरण-शरणींची उपलब्ध माहितीही त्यांनी नेमक्या शब्दांत नोंदविलेली आहे. बसवेश्वरांच्या निवडक वचनांचे विवरण त्यांनी सुमधुर भाषेत केले आहे.
२. बाराव्या शतकातील आद्य समाजसुधारक : महात्मा बसवेश्वर : यवतमाळचे डॉ० अशोक गंगाधर मेनकुदळे यांचा हा ग्रंथ सुविद्या प्रकाशन, सोलापूर यांनी २००३ मध्ये प्रकाशित केला. बाराव्या शतकातील दक्षिण भारत, म० बसवेश्वरांचा जीवनपट, म० बसवेश्वरांची धार्मिक कार्ये, सामाजिक सुधारणा व समाजप्रबोधन, आर्थिक सुधारणा, कायक व दासोह विचार, बसवबोध : अंतरंगशुद्धी, बहिरंगशुद्धी, बसवेश्वरांच्या अनुयायांचे सामाजिक कार्य, qसहावलोकन, म० बसवेश्वर आणि म० बसवेश्वरांच्या नंतरची चळवळ अशा अकरा प्रकरणांतून त्यांनी या ग्रंथाची मांडणी केली आहे. परिशिष्टात बसवचरित्राची अभ्याससाधने, बसवेश्वरांचा काळ व महत्त्वाच्या घटनांची वर्षे, कलचुरी घराण्याच्या राज्यातील व्याप्त प्रदेश, कल्याणक्रांतीतील हुतात्मे, अनुभवमंटपातील वचनकार, अनुभवमंटपातील स्त्री-वचनकार, श्रद्धेय व्यक्तींसाठी कन्नड-तेलुगू संबोधने आणि शरणांच्या नाममुद्रा या विषयांवरील माहिती दिली आहे. म० बसवेश्वरांच्या लोकोत्तर व्यक्तिमत्त्वाचा आणि त्यांच्या कार्याचा मार्मिक वेध लेखकाने या ग्रंथात घेतला आहे.
३. चेतनाqचतामणी श्रीबसवेश्वर : सोलापूरचे डॉ० प्रभाकर पाठक यांचा हा ग्रंथ सुविद्या प्रकाशन, सोलापूर यांनी २००५ मध्ये प्रकाशित केला. मराठीतून प्रकाशित झालेल्या उपरोल्लेखित दोन ग्रंथांचा आणि अन्य मराठी ग्रंथांचा आधार घेऊन लेखकाने हा ग्रंथ सिद्ध केला आहे. श्रीबसवेश्वरपूर्व व समकालीन परिस्थिती, दैदिप्यमान चरित्र, प्रवृत्ती व निवृत्तीचा अतिरेक टाळणारे श्रीबसवेश्वर, संघटनेचे तत्त्व व अवलंब, सामाजिक सुधारणेचे क्रांतिकार्य, चेतनाqचतामणीच्या दिव्य शलाका, श्रीबसवेश्वरांचे तत्त्वqचतन, लोकभाषा कानडीचा पुरस्कार आणि उपसंहार अशा नऊ प्रकरणांतून या ग्रंथाची मांडणी केलेली आहे. बसवेश्वरांच्या वचनांच्या आधारे त्यांचे तत्त्वज्ञान सांगण्याचा प्रयत्न लेखकाने येथे केला आहे.
४. गाऊ त्यांना आरती : अशोक मेनकुदळे यांच्या ग्रंथाचा आधार घेऊन सोलापूरच्या वासुदेव देशपांडे यांनी ललितरम्य भाषेत बसवेश्वरांचे चरित्र गायिले आहे. परंतु हे चरित्र अजून अप्रकाशित असून त्याचे हस्तलिखित माझ्या संग्रही आहे. बसवचरित्रातील पात्रांच्या तोंडी संवाद घालून लेखकाने चरित्राची रमणीयता वाढविली आहे.
५. बसवेश्वर : एम० चिदानंद मूर्ती यांच्या कन्नड पुस्तकाचा रवींद्र किम्बहुने यांनी केलेला हा मराठी अनुवाद होय. नॅशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया यांनी १९९१ मध्ये हा अनुवाद प्रकाशित केला. बसवेश्वरांचा काळ, बालपण, मुक्त जगात, पुनश्च समाजाकडे, कल्याण, बंडखोर आणि सुधारक, मुमुक्षू, बसव आणि त्याचे समकालीन, अखेरचे दिवस, वाङ्मयनिर्माता बसव, उपसंहार अशा अकरा प्रकरणांतून बसवेश्वरांचा जीवनपट वाचकांसमोर उलगडत जातो. यात अनुवादित केलेल्या वचनांत बसवेश्वरांचे ‘कूडलसंगमेश्वरङ्क हे अंकित ‘कुडाळ संगमेश्वरङ्क असे छापलेले आहे हे विशेष.
६. बसवेश्वर : एच० तिप्पेरुद्र स्वामी यांच्या कन्नड पुस्तकाचा रोहिणी तुकदेव यांनी हा मराठी अनुवाद केला असून तो साहित्य अकादमी, नवी दिल्ली यांनी २००३ मध्ये प्रसिद्ध केला आहे. जीवनकथा, भक्तिभंडारी, बंडखोर संत, कायकाचा संदेश, श्रेष्ठ कवी अशा पाच प्रकरणांतून बसवेश्वरांचे जीवनकार्य कथन केले आहे. या पुस्तकात कन्नड वचनांचा मराठी भावानुवाद फार सुरेख केलेला आढळतो. एक उदाहरण पाहावे:--
बोलायचे असेल तर शब्द हवेत
जणू धाग्यात गुंफलेले मोती!
बोलायचे असेल तर शब्द हवेत
जणू लखलखते माणिक!
बोलायचे असेल तर शब्द हवेत
जशी निळाईला छेदणारी स्फटिकरेषा ...
शि० बा० संकनवाडे यांचे महात्मा बसवेश्वर (१९८८) व माते महादेवी यांचे विश्वविभूती बसवण्णा (अनुवाद- शशिकला मडकी, १९९३) ही चरित्रेही प्रसिद्ध झाली आहेत. याशिवाय बसवचरित्रावर मराठीतून अनेक लहान लहान पुस्तिका प्रकाशित झाल्या आहेत.
(आ) नाटके
म० बसवेश्वरांचे समग्र जीवन म्हणजे एक नाट्यवस्तूच होय. ते केवळ समाजसुधारक नव्हते, तर एक प्रेषित आणि श्रेष्ठ असे आध्यात्मिक पुरुष होते. त्यांच्या जीवनातील नाट्यात्मकतेने काही लेखकांना खुणावले आणि त्यांच्या चरित्रावर दोन नाटके सिद्ध झाली. सुधाकर मोगलेवार आणि कुमार कोठावळे हे ते दोन नाटककार होत.
१. बसवराज : सुधाकर मोगलेवार यांचे हे तीन अंकी नाटक १९६२ मध्ये प्रकाशित झाले. वीरशैव संस्कृतीच्या प्रभावक्षेत्रापासून दूर असलेल्या वीरशैवांना म० बसवेश्वरांचे, अनुभवमंटपाचे कार्य आणि कल्याणक्रांतीमागची पाश्र्वभूमी समजावी, हे या नाट्यकृतीचे प्रयोजन आहे. कथानकाच्या सोयीसाठी मुग्ध व शिवनाग अशा दोन काल्पनिक पात्रांची निर्मिती नाटककाराने केली आहे. बसवेश्वरांची तेजोमय व्यक्तिरेखा आणि बिज्जलाची कर्मठ, परंपरावादी व्यक्तिरेखा ह्या दोनही व्यक्तिरेखा लेखकाने ताकदीने उभ्या केल्या आहेत. संवादाचेही चांगले नमुने येथे आढळतात. उदा०:-
‘उच्चनीच सर्वांचं शरीर एकाच हाडामांसाचं, लाल रक्ताचंच असतं. विष कोणाच्याही अंगात असत नाही.ङ्क
‘पोटाची qचता मिटल्याशिवाय शिवसेवेची आस माणसाला लागणंच फुकट आहे.ङ्क
२. महात्मा बसवेश्वर : कुमार कोठावळेलिखित हे नाटक १९६६ मध्ये अ०भा० वीरशैव संघ, बेळगावतर्फे प्रकाशित झाले. म० बसवेश्वरांचे जीवनकार्य मराठी लोकांपुढे ठेवणे हा याही नाटकाचा उद्देश आहे. संस्कृत नाट्यपरंपरेप्रमाणे पहिल्या प्रवेशात सूत्रधार व नटी यांचा संवाद आहे. बसवजन्म, मुंजीला विरोध व जातवेदमुनीच्या आश्रमातील विद्यार्जन या प्रसंगानंतर पहिला अंक संपतो. दुसèया अंकात बसवेश्वरांकडून ताम्रपटवाचन, कोषागारमंत्री म्हणून नियुक्ती, कर्णदेव-मंचण्णा यांचे कारस्थान व बसवेश्वरांच्या वाड्यात घुसलेला चोर हे प्रसंग लेखकाने सजीव केले आहेत. तिसèया अंकात हरळय्याच्या पादत्राणांचा अस्वीकार, मधुवय्याच्या अंकाचा दाह, अनुभवमंटपाचे कार्य, महादेवीचा प्रवेश, कसपय्या-मंचण्ण-कर्णदेव यांचे विरोधी कारस्थान, मधुवय्या-हरळय्याच्या मुला-मुलीचा विवाह, त्यांना देहान्तशासन, बिज्जलवध व बसवेश्वरांचे qलगैक्य हे प्रसंग दाखवून नाटकाचा शेवट केला आहे. कोठावळेंची भाषा ते कवी असल्यामुळे अधिक ललितरम्य आहे.
...‘जगाला हसवायला येणारे जन्मल्याबरोबर स्वत: कसे रडतील?ङ्क
...‘श्रीमंतीच्या डौलापेक्षा मायेचा शब्द अधिक मोलाचा.ङ्क
या नाट्यकृतीतील सर्व पात्रांच्या व्यक्तिरेखा उठावदार झालेल्या दिसतात.
बसववचनांचा भावानुवाद
म० बसवेश्वरांच्या कन्नड वचनांचे मराठी भावानुवाद अनेक कवींनी आपापल्या परीने केलेले आहेत. काही कवींची पुस्तके प्रसिद्ध झाली, तर काहींनी विविध नियतकालिकांमधून स्फुट स्वरूपात वचनानुवाद प्रकाशित केले. काही प्रमुख अनुवादांची संक्षिप्त ओळख पुढे करून दिली आहे.
१. सटीक व सार्थ श्रीबसवबोध : बसवेश्वरांच्या १०८ वचनांचा ओवीबद्ध मराठी अनुवाद सिद्धमल्लप्पा कल्याणशेट्टी वकील, सोलापूर यांनी १९३६ मध्ये, संपादून प्रसिद्ध केला. देवनागरी लिपीत मूळ कन्नड वचन देऊन नंतर त्याचा ओवीबद्ध अनुवाद व गद्य स्पष्टीकरण दिले आहे. कन्नड वचनांचा मराठी अनुवाद रंगनाथ पंढरीनाथ लोहार यांनी केला असून या पुस्तकाला बॅ० एम० एस० सरदार यांनी प्रस्तावना लिहिली आहे. ‘तुप्पद सविगे...ङ्क या वचनाचा हा अनुवाद पाहा:--
असिधारा लागेŸ। जरी काही तूपŸ। चाटिता ते श्वानŸ। जिव्हा छेदीŸ।।
तैसे माझे मनŸ। श्वानाच्या समानŸ। त्याचे उन्मूलनŸ। करी देवाŸ।।
२. बसववाणी : गदगचे द० वा० चाफेकर (इ०स० १८९४-१९६७) यांनी आपल्या हयातीत केलेला हा अनुवाद त्यांच्या निधनानंतर खूप उशिरा, १९९१ मध्ये कर्नाटक राज्य मराठी साहित्य परिषद, गुलबर्गा यांनी प्रकाशित केला. मराठी अनुवादात सर्वत्र अंजनीगीत या वृत्ताचा अवलंब केलेला आहे. ‘कल्लनागर कंडरेङ्क या वचनाचा मराठी अनुवाद पाहावा:--
दगडी देखे नाग कोरिलेŸ। दूध ओतिती त्यावर भावेŸ।।
जिता देखता मारू धावेŸ। कूडलसंगमदेवाŸ।।
जंगम जेवूनि तृप्ती पावेŸ। दारी येता त्या हाकलावे?Ÿ।
जड qलगा नैवेद्या द्यावे?Ÿ। कूडलसंगमदेवाŸ।।
३. बसववचनामृत : जयदेवीताई लिगाडे (इ०स० १९१२-१९८६) यांनी १०८ बसववचनांचा केलेला हा अनुवाद बसव समिती, बेंगळुरू यांनी १९६८ मध्ये प्रकाशित केला. शेवटी टिपा व अकारविल्हे सूची जोडली आहे. अनुवादाचा एक नमुना असा:--
चकोर पक्ष्यास चंद्रम्याच्या चांदण्याची qचता!
कमळास सूर्यकिरणाची आतुरता!
भ्रमरास उमलल्या फुलाच्या परिमळाची qचता!
आम्हास आमच्या कूडलसंगमाच्या qचतनाची qचता!
४. वचनामृत बसवेश्वरी : उदगीरचे राजेंद्र जिरोबे यांनी केलेल्या ५०१ बसववचनांचा मराठी अभंगात्मक अनुवाद श्री मृत्युंजय शरणसाहित्य प्रचारक संघ, मुंबई यांनी १९८३ मध्ये प्रकाशित केला. प्रत्येक वचनाला अनुवादकाने स्वत:च शीर्षके दिली आहेत. वानगीदाखल एक अभंगानुवाद पाहा:--
करू नये भक्ती, भक्ती नोहे सोपी
करवतसम कापी, येताजाता
कूडलसंगमदेवा! भुजंगामुखी हात
खचित करी घात, भक्ती ऐसी
५. वचनबसवेश्वर : सोलापूरचे कवी संजीव यांनी, के० बी० पूर्वाचार्य यांची कन्नडवाचनासाठी मदत घेऊन, १०८ वचनांचा भावानुवाद सिद्ध केला. तो प्रकाशित झाला आहे. देवनागरी लिपीमध्ये मूळ कन्नड वचनही दिले आहे. ‘ओलविल्लद पूजे...ङ्क या कन्नड वचनाचा पुढील भावानुवाद पाहण्याजोगा आहे:--
प्रेमहीन पूजाअर्चा,निष्ठाहीन आचरण
फक्त एक आहे चित्र, रेखिलेले छान छान
स्पर्शसुख मिळेल का चित्रा देता आqलगन?
ऊस अहो चित्रातील देइल का रुचि रसपान?
व्यर्थ व्यर्थ पूजा त्याची, भक्तिहीन तांत्रिकपण कूडलसंगमदेव.
६. श्रीगुरू बसवण्णांची वचने : उगारखुर्द येथील शालिनी दोडमनी यांनी १०१Ÿ बसववचनांचा केलेला अनुवाद १९९७ मध्ये प्रकाशित झाला आहे. अनुवादानंतर त्याचा मराठी गद्य भावार्थही दिलेला आहे. त्यांची अनुवादशैली समजावी यासाठी एक उदाहरण पाहावे:--
मडके देव, सूप देव, रस्त्याबाजूचा दगड देव
कंगवा देव, भिल्लीण देव पहा, पातेले देव, वाटी देव पहा
देव देव म्हणून, पाऊल ठेवण्यासही जागा नाही
देव एकच कूडलसंगमदेव.
७. बसवqचतनिका : अमरावतीचे शिवचंद्र माणूरकर (इ०स० १९२८-१९९५) यांनी बसवेश्वरांची निवडक १०८ वचने मराठीत श्लोकबद्ध केली. बसववचने श्लोकबद्ध करण्याचा बहुधा हा पहिला प्रयत्न असावा. त्यांच्या श्लोकरचनेचा एक नमुना पाहा:-
अंग घासून व्यर्थ गंगेत स्नानŸ। कानी धरा अंतर मलीन जाणŸ।।
परस्त्री धन आकांक्षा झिडकारीŸ। त्याविना नच स्नान पावन करीŸ।।
पुस्तकरूपाने प्रकाशित झालेल्या बसववचनांच्या काही निवडक अनुवादांचाच विचार वर केलेला आहे. याशिवाय अनेकांनी बसववचनांचे फुटकळ अनुवाद केलेले आहेत.
वीरशैव मराठी संतकवींच्या अभंगांतही बसववचनांचे प्रतिqबब पडलेले आढळते. शिवqलग (काळ अंदाजे १७-वे शतक) या वीरशैव संतकवीच्या एका अभंगात ‘कल्लनागर कंडरे...ङ्क ह्या बसववचनाचा पडसाद कसा घुमतो आहे, ते पाहा:--
खèया नागोबाचे ठेचिताती तोंडŸ। पूजिताती लंड पाषाणासीŸ।।
सजीव नंदीसी ताडिती झोडितीŸ। पाषाण पूजिती मनोभावेŸ।।
तैसे जंगमासी न भजोनि मूर्खŸ। पाषाणासी मूर्ख पूजितातीŸ।।
शिवqलग म्हणे ऐसे जे का नरŸ। त्यासी उमावर भेटे केवीŸ।।
(पसारकर १९८३, ५४-५५)
शिवqलग हा कवी सतराव्या शतकात होऊन गेल्याचा अंदाज आहे, आणि आपण वर जे बसववचनांचे मराठी भावानुवाद पाहिले ते सर्व विसाव्या शतकातील आहेत. याचा अर्थ असा की, बसववचनाचा मराठी भावानुवाद करण्याचा पहिला मान शिवqलग कवीकडे जातो. यावरून मराठी संतकवींच्या भावविश्वात म० बसवेश्वरांनी कसे आणि किती स्थान मिळविले होते, याची कल्पना आपल्याला येईल.
समारोप
म० बसवेश्वर हे विचार-वचनवैभवाने विश्वाकाशात तळपणारे एक दिव्य नक्षत्रच! बाराव्या शतकातील ह्या महान द्रष्ट्याची दृष्टी पुढली आठ शतके भेदून पलीकडे पोहोचलेली होती. तत्कालीन कर्मठांना त्यांचा नवविचार पेलवला नाही, आणि त्यामुळे कर्नाटकाच्या
इतिहासाची पाने रक्तरंजित झाली, हे दुर्देव. परंतु त्यांच्या वचनसाहित्यातून त्यांचे विचारवैभव पुढील पिढ्यांपर्यंत पाझरत राहिले. मराठी वाङ्मयातही त्याच्या दाट पाऊलखुणा उमटलेल्या दिसतात. या पाऊलखुणांचा साक्षेपी मागोवा कुणी अभ्यासकाने घेतला तर एक शोधप्रबंध सिद्ध होऊ शकतो, याची मला खात्री आहे.

संदर्भसाहित्य :
कराळे, शोभा २००३ : वीरशैव मराठी अभंगकविता : एक विवेचक अभ्यास. शैवभारती शोधप्रतिष्ठान, जंगमवाडी मठ, वाराणसी.
घोणसे, श्यामा २००२ : वीरशैवांचे मराठी-qहदी वाङ्मय : एक अभ्यास. शैवभारती शोधप्रतिष्ठान, जंगमवाडी मठ, वाराणसी.
पसारकर, शे० दे० १९८३ : धांडोळा. महासारंग प्रकाशन, सोलापूर.
पसारकर, शे० दे० २००१ (संपा०) : श्रीलक्ष्मणगाथा. श्रीसिद्धेश्वर प्रकाशन, आष्टी, ता० परतूर, जि० जालना.
पसारकर, शे० दे० २००४ : अध्यक्षीय भाषण. पहिले अ० भा० वीरशैव मराठी साहित्य संमेलन, लातूर.
फास्के, वैजनाथ २००६ : वीरशैव संतकवी शिवदास : एक अभ्यास. शैवभारती शोधप्रतिष्ठान, जंगमवाडी मठ, वाराणसी.
मेनकुदळे, अशोक २००५ : विदर्भातील वीरशैव संप्रदाय : ग्रंथकार व वाङ्मय. शैवभारती शोधप्रतिष्ठान, जंगमवाडी मठ, वाराणसी.
स्वामी, शांतितीर्थ २००५ : वीरशैवांची स्फुट कविता. श्रीकाशीजगद्गुरू विश्वाराध्य वीरशैव विद्यापीठ, जंगमवाडी मठ, वाराणसी.

कन्नड विश्वविद्यालय, हंपी-द्वारा आयोजित राष्ट्रीय चर्चासत्रात वाचलेला शोधनिबंध.
बसवन बागेवाडी, ३० जानेवारी २००८.

डॉ० शे० दे० पसारकर,
उषास्वप्न, १२६ ब, मार्कंडेय नगर, सोलापूर ४१३ ००३ स्थिरभाष : ०२१७ - २६०२३०१ / चरभाष : ९४२० ७८० ५७०