Saturday, 25 January 2014

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य अध्याय दहावा

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित
परमरहस्य


अध्याय दहावा

।।श्रीशिवाय नम:।।
नवम अध्यायीं जंगमस्वरूप। वर्णिलें स्वामी तुम्ही अमूप। परि मम हृदयींचा संकल्प। उरलाचि असे।।१।।


देव्युवाच-
शिवयोगिस्वरूपस्य जंगमार्यस्य के गुणा:।
स्वरूपं च तथाचार: श्रोतुमिच्छामि सांप्रतम्।।१।।

जो शिवयोगी जंगमलिंग असे। त्याचे गुण निरोपा कैसे। त्याचा आचार कवणे स्थिति वसे। हे निरोपा स्वामी।।२।। आणिक विचारूं मुख्य खूण। जंगमाचें कवण चिन्ह। इच्छा उदेली मजलागून। पूर्ण करी कृपाळुत्वें।।३।।
शिव उवाच-
जंगमं लिंगमाख्यातं द्वयमेवास्ति तत्तथा।
द्वयमेव समायुक्तं श्रेष्ठं तल्लिंगजंगमम्।।२।।

जंगम लिंग एकचि असे। बाहेरी नामाचा भेद दिसे। ऐसा जाणोनि भेद समरसे। तो उत्तम जंगम।।४।। जंगम लिंगांत लिंग जंगमांत। एवं येरयेरांतें मिश्रित। अभेद भेद उभयांत। जाणोनि वर्ते तो जंगम।।५।। जैसें पुष्प परिमळांत। कीं परिमळ पुष्पांत। भेद नाहीं येरयेरांत। तेवि लिंग-जंगमीं।।६।। रस जळांत कीं जळ रसांत। गूळ गोडींत कीं गोडी गुळांत। तीळ तेलांत कीं तेल तिळांत। भिन्न भेद दिसेना।।७।। तेवि लिंग-जंगमातें। भेद नाहीं सर्वथा उभयातें। ऐसा ऐक्यभावें निभ्रांते। तोचि शुद्ध जंगम बोलिजें।।८।। जंगम आणि स्थावर। बोलती द्वय विचार। भेद कैसा वर्ते साचार। ऐक शक्ति सावधपणें।।९।। एकरूपी लिंग जंगम। असती जाण सप्रेम। म्हणोनि गुरुत्वाचा नेम। तया प्राप्त झाला कीं।।१०।। सद्योजातादि पंचवदन। मम मुखें असती प्रसिद्ध जाण। तेथून उद्भवले तीच खूण। जंगमलिंगाची असे पैं।।११।। जंगम आणि लिंग एक। बाह्य नामाचा भेद देख। परि असे ते व्यापक। सर्वाठायीं सर्वदा।।१२।। त्याच्या दर्शनमात्रेंकरून। अष्टोत्तरशत तीर्थें होतीं पावन। तो सकळां श्रेष्ठ पूज्यमान। उत्तम जंगम बोलिला।।१३।।
मुखे मंत्रो हृदि ध्यानं मस्तके लिंगधारणम्।
शिखारुद्राक्षभस्मानि ह्येतज्जंगमलक्षणम्।।३।।

मुखीं मंत्र हृदयीं गुरूचें ध्यान। प्राणासीं लिंगासीं एकचि आसन। इष्ट प्राण मिश्रित करोन। वर्ते तोचि जंगम।।१४।। इष्टलिंग तो अर्च्य लिंग। प्राणलिंग तो ध्यान अंग। समाधिस्थ राहे कदा नोव्हे भंग। जंगमप्राणी जाण तो।।१५।। त्याचें हृदय तें गुरूचें भुवन। विश्रांतीचें तेंचि स्थान। त्याचें हृदय तें गुरूचें वदन। म्हणोनि भोक्ता तो सर्वांसीं।।१६।। त्याचे चालीं गुरु चालत। त्याचे बोलीं गुरु बोलत। ऐसा जंगम जो योगयुक्त। तो मुकुटमणि माझा।।१७।।
नि:शब्दं स्थावरं प्रोक्तं समंत्रो जंगमो भवेत्।
लोकपुण्यपरं श्रेष्ठं दैवतं लिंगजंगमम्।।४।।

स्थावरासीं शब्द मंत्र नाहीं। त्याची जंगममंत्रें स्थापना पाही। जीवनकळा त्याचे ठायी। ए-हवीं ते स्थावर।।१८।। तो जंगम सर्व लोकांस। पूज्यमान होय भाविकांस। तया पुजितां होय स्वयंप्रकाश। निजभक्तांसीं।।१९।। सद्भावें पुजितां तयासीं। नाश होय तत्काळ अविद्येशीं। तो पावे शिवरूपासीं। जो पुजी कां विश्वासें।।२०।। विश्वास कैसा म्हणसी। सदा शिव भावे तयासीं। पूजोनि तीर्थप्रसादासीं। सेविजें विश्वासूनि।।२१।। विश्वासेविण पुजितां। ती पूजा पावे निष्फळता। जंगमलिंगाविण निजभक्तां। अन्य दैवत नाहीं।।२२।। विश्वासें न पुजी गुरु। तो कदा नोहे पैलपारु। जंगमलिंगाचा महिमा थोरु। किती म्हणोनि वर्णावा।।२३।। देवाधिदेव जाणोन। जंगमलिंगां करी पूजन। तो स्वरूपीं शिव होय आपण। तया जंगमाचें लक्षण ऐक देवी।।२४।।
नि:संगत्वं निराभासं नि:सीमं निरुपाधिकम्।
निर्देहं निर्मलं नित्यं एतज्जंगमलक्षणम्।।५।।

तो नि:संग सर्व संगाचे ठायीं। भोईभार नव्हेचि कांहीं। भासमान पण तेंहि। आगळेंचि असें।।२५।। नि:सीम म्हणिजे मिति नाहीं। नसें आधिनत्व तें कोठेंहि। उपाधीचा लेशु तोहि। अंगीं नसे तयाच्या।।२६।। देहीं असूनि विदेही। सदा निर्मल नित्य पाही। स्वत:सिद्ध पालटु नाहीं। येणें लक्षणें लक्षित तो।।२७।। तो नि:संग कां म्हणसी तरी ऐक। संगास्तव होय जन्मदु:ख। अंतकाळीं जो संग आठवे देख। तेचि होणें न चुके त्या।।२८।। जरी असें गुरूचें ध्यान। तरी अंतकाळीं तेंचि स्मरण। झालिया गुरुरूप होणें आपण। न चुके पाही।।२९।। म्हणोनि ज्याचा संगध्यास असे। अंतकाळीं तेचि आठवें विश्वासें। मग देहान्तीं ते होय सावकाशे। न चुके कोण्हां।।३०।। म्हणोनि सर्व संग त्यागून। अखंड गुरुरूपाचें करी पूजन। तेणें अंतकाळीं होय तेचि आठवण। गुरुरूपचि होणें मग।।३१।। जंगमपद तेंचि गुरुपद जाणा। ऐक तयाच्या सर्व खुणा। गुरुस्थळापासोनि आपणां। मोक्षप्राप्ती होत असे।।३२।। शरण आलिया जंगमासीं। गुरुपद देत शिष्यांसीं। भेदभाव नसे मानसीं। शुद्ध अंत:करणी जंगम तो।।३३।। जो शिष्य जंगमपद घेऊन। गुरुपणा मिरवी धुडकावून। कृतघ्न qनदी जंगमालागून। अपकीर्ति होय त्याची।।३४।। जंगमकुळीचा कुमार सुदृढ। असावा गुरुपदारूढ। जंगमवेश देऊनि हुड। न मिरवावा सिंहासनीं।।३५।। तेणें होय धर्मभ्रष्ट। पापें आचरतीं अरिष्ट। तयासंगें शिष्य श्रेष्ठ। श्रद्धा त्यागिती धर्ममार्गीं।।३६।।
निष्कलंकं निरपेक्ष निर्दोषं निस्पृहं तथा।
सत्यवाक् सदयं शांतमुक्तं जंगमलक्षणम्।।६।।

निष्कलंक निरपेक्ष गुण दुसरा। निर्दोष निराश सत्यवादी पांचवा खरा। दया शांति सात गुण वो सुंदरा। तया जंगमलिंगाचे।।३७।। अवधारी वो पार्वती। ते सात लक्षण जया अंगीं मिरवती। तो जंगम कैलासपति। स्वयेंचि बोलिजें।।३८।। ते सात लक्षण निर्णय करोनि। एक एक सांगेन विवेचोनि। ते हृदयीं धरोनि वर्ते जनीं। तोचि सत्यशरण।।३९।। निष्कलंक म्हणिजे वासनात्याग। वासनेचा कलंक न धरी अंग। वासनात्यागें निष्कलंक चांग। तोचि उत्तम जंगम।।४०।। निरपेक्ष म्हणिजे अपेक्षा नाहीं। कोणासीं मागणे नाहीं कांहीं। कोणे एके पदार्थाचीहि। अपेक्षा न करी।।४१।। अमृताहूनि अधिक भोग। जरी प्राप्त झाले चांग। तरी अपेक्षेचे अंग। तिळभरी न सेवी तो।।४२।। नित्यतृप्त अखंडित। तया अपेक्षा कैंचा हेत। संतुष्ट स्वानुभवें तृप्त। निरपेक्ष जंगम तो।।४३।। वाटेवरी धन पडिलें असतां। त्यासीं धनी कोणी नसतां। तेहि अपेक्षेत ठेवोनि घेतां। निरपेक्षता ती उडाली।।४४।। मग अपेक्षा करोनि घातें। मेळविजें जे नाना भोगांते। ते कांहीं न घडे सत्यशरणांते। संकटीं अडले जरी।।४५।। एवं निरपेक्षता गुण दुसरा। आतां ऐक निर्दोष गुण तिसरा। मनादि दोषें इंद्रियें अणुमात्रा। लिंपेचिना।।४६।। प्रपंचादि दोष समस्त। परि नातळें जयाचें चित्त। सर्वदोषविरहित। तोचि शुद्ध जंगम।।४७।। नि:स्पृह म्हणिजे स्पृहा नाहीं। कोणाचा संग आसरा न धरी कांहीं। निराश आशा अणुमात्र न करी पाही। कोणां पदार्थाची।।४८।। पाताळादि भोगविलास। ने घे तो ध्यानीं मानस। नाशिवंत जाणोनि सर्वांस। नि:संगत्वें वर्ततसे।।४९।। ऐसा निस्पृह गुण चौथा। पांचवा सत्यवादी निरोपुं आतां। जया लक्षणें मुक्तता। तात्काळ पावे।।५०।। प्राण जात असतां संकटीं। तरी असत्य उमटेना ओठीं। सदा सत्य वाक्य वाहे पोटीं। स्वहितालागीं।।५१।। मा अल्पासाठीं तत्त्वतां। असत्य वदेना सर्वथा। तो सत्यवादी असत्य बोलतां। सत्याची दशा जाय।।५२।। नातरी सत्य बोलोनि इकडे। जीवघात करी जरी तिकडे। तरी वाचा नव्हे लांवचि जाण पुढें। सत्य वदोनि घात केला।।५३।। परमार्थ बोलावा निभ्रांत। परि कोणाचें न दुखवावें चित्त। ज्या वचनें होय घातपात। तें वाक्य काय खरें।।५४।। परमार्थचि बोले वाक्यदीप। दहा जनांसीं होय सुखरूप। एकादोघातें होय दु:खरूप। तरी तो काय परमार्थ।।५५।। एकाचा बुडतां संसार। अथवा सुळीं घालावया नेती चोर। तेथें लटके बोलोनि वाचवी जो नर। तो साचचि जाणिजें।।५६।। नातरी साचचि बोलोनि निश्चितार्थ। येरीकडे होतसे घात। तरी ते साच न मानिती संत। सत्यरूपीं असत्य म्हणोनि।।५७।। जो सत्यवादी पुरुष। कुश्चल दोषयुक्त न बोले कवणास। कपटी काल्पनिक वाक्यास। मुखासीं न आणी कधीं।।५८।। सत्यवाक्य जें गुरूचें। सदा मुखीं उच्चारण त्याचें। अन्यथा घोष न करी वाचें। तें सत्य वाक्यलक्षण पांचवें।।५९।। आतां आईक दयेचें लक्षण। पीडितां देखे परजीवां आपण। नेणो सांडील आपुला प्राण। शुद्ध दया त्या नांव।।६०।। जीवातळीं आपुला जीव आंथुरी। अत्यंत कृपेनें संरक्षण करी। तो कोणासीं न दुखवी अंतरीं। तेंचि दया जाणिजें।।६१।। कां सर्वांभूतीं परमात्माचि असे। म्हणोनि कोण्हासीं दु:ख देत नसे। यालागीं दया नांदतसे। मूर्तिमंत तेथें।।६२।। त्यासीं द्वैतार्थचि नसे पाही। कोण्हाचा घात न करी कांहीं। नेणो आपणचि वर्ते सर्व देहीं। ऐसी दया जयापाशीं।।६३।। आपणचि अवघा झाला। मग कांहीं दु:ख होईल आपणाला। आपुले हातें आपुला डोळा फुटला। तरी काय हात छेदिजें।।६४।। हात छेदितां दोन्ही होती घात। डोळा फुटला गेला हात। हाताचा अन्याय गिळितां निश्चित। तरी एकचि दु:ख।।६५।। तैसे कोणी दु:ख दे आपणांस। आपणहि दुखविजें त्यास। तरी आपणचि वरपडा होईजें दु:खास। कां आपणचि अवघा म्हणोनि।।६६।। यालागीं कोणी करितां हानी। दु:खदायी कोणासीं नोहे झणीं। दु:ख दे त्यासीं सुख चिंती मनीं। त्या नांव दया वो देवी।।६७।। ऐसी दया ज्यापासीं। तो स्वामी होय आम्हांसीं। तो जगीं श्रेष्ठ होय सकळांसीं। दयानिधि जाणिजें।।६८।। आतां शांति तें सातवें लक्षण। तें अंगीं बाणलें संपूर्ण। जैसा अथांगीं गुंडा जाय बुडोन। तैसा परवाक्यां क्षोभेना।।६९।। पराचे शब्द तीक्ष्ण बाण। ते लागती धरूनि वर्मसंधान। परि न डळमळें जयाचें समाधान। ते शुद्ध शांति वो।।७०।। काम क्रोध दंभ अहंकार। ते असोनि शांतीचा बडिवार। मिरवी तो मूर्ख साचार। सोंग लौकिक नाटक।।७१।। पूर्ण शांति आली जाणिजें केव्हां। नीचाचे नीच बोल साहे जेव्हां। कधीं नुठी अहंभावा। ते जे तेंचि शांति।।७२।। जेथें विकाराची समाप्तता। केलें सुकृत न मिरवी सर्वथा। जाणीव शाहणीव ज्ञानाभिमानता। नाहीं जया तेंचि शांति।।७३।। सर्व करितां अपहारास। तरी न धरी अल्प क्रोधास। ऐसी शांति जया योगियास। तो शुद्ध जंगम वो देवी।।७४।। शांति बाणली ऐसी ज्यासीं। कामक्रोध निमाले त्यापासीं। मी माझे पदवी बैसवी त्यासी। तो पूज्यमान आम्हां।।७५।। स्वधर्माचा कंटाळा ज्यास। त्याचें ज्ञान भ्रष्ट विशेष। त्यासीं भाषण न करी उदास। शांति तया बोलिजें।।७६।। ऐसी शांति आदि सात लक्षणें। ज्याच्या अंगीं बाणलीं भाग्यगुणें। तोचि जंगम मी म्हणे। येर ते वेषधारी।।७७।। हें सप्तहि ज्याच्या अंगीं लक्षण। त्यासीं कळिकाळ येई शरण। तेथें भव भय बापुडे कोण्या मुखेकरोन। सन्मुख येती।।७८।। या लक्षणीं जो जंगम भूषित। त्या आधीन मी कैलासनाथ। त्याचे चरणीं तीर्थें नांदती समस्त। काशी आदि करोन।।७९।। तो जिकडे पाहे सहज दृष्टीं। तिकडे होय सुखाची वृष्टी। त्यासीं वंदी तो उठाउठीं। ईश्वरु होय।।८०।। तो ज्यासीं सुखी राहे म्हणे। त्यासीं म्यां अगत्य उद्धरणें। तो ज्यासीं देववी त्यासीं देणें। त्याचिया वचनें पार्वती।।८१।। आतां आणिक एक लक्षण। जंगमाचें निरोपुं आपण। तें ऐकतां होईजें पावन। निजभक्त जनीं।।८२।।
मुग्धत्वं मूर्तिमंतत्वं मदमोहादिवर्जितम्।
मायादित्रिमलं नास्ति यस्यासौ जंगम: स्मृत:।।७।।

मुग्धमौन होवोनि असे। कोण्हासीं सर्वथा बोलणेंचि नसे। मा गदारोळ करोनि बडबडीतसे। हें केवि घडें।।८३।। तयासीं अधिक बोलणें नाहीं। जरी बोलो लागेहि कांहीं। तरी अमृताहूनि गोड पाही। तेहि मपितचि बोलणें।।८४।। नातरी पडसादीचीं उत्तरें। जें बोलिजेती तेंचि उमटती अक्षरें। कोणी न बोलतां मौनाकारें। उगेचि असिजें जैसें।।८५।। तेवि जो जितुके बोले बोलणें। तेणेंसीं तितुकेचि वदिजें वचनें। परि कोण्हासीं अधिक उणे। न बोले मौन।।८६।। विकाराचा शब्द मुखां नाणी। निंदा कुश्चित न वदे वचनीं। शिवमूर्ति शांत होवोनि। असे तोचि जंगम तारक।।८७।। स्थिरबुद्धि सदा मदमोहातीत। कुबुद्धि विकारासीं विरहित। मायाममता देहबुद्धि नातळत। व्योमातीत तो।।८८।। तो त्रिमळाविरहित असे। त्रिमळां कधीं आतळत नसे। तो जंगम मजभीतरीं असे। मी तया आंतबाहेरी।।८९।। म्हणसी ते त्रिमल कोण। प्रथम आणव मल जाण। दुसरा तो मायीय मल कुलक्षण। आला असे मायावशें।।९०।। आतां तिसरा तो अवधारी। कर्मज म्हणोनि कार्मिक म्हणती एकसरी। त्याचा कर्ता जीव निर्धारी। बोलिला असे सर्वज्ञें।।९१।। ऐसिया त्रिमळातें त्यागून। स्वस्वरूपीं असे रममाण। ऐसिया शिवदासां जंगमपण। सहजचि प्राप्त होय।।९२।।
माता नास्ति पिता नास्ति नास्ति नाम कुलस्य च।
अयोनिसंभवं शुद्धमुत्तमं जंगमस्थलम्।।८।।

त्यासीं मातापिता नास्ति गोत। त्यासीं नाम नाहीं कूळ जात। अयोनिसंभव सदोदित। चिन्मय चिद्रूप तो।।९३।। जंगमस्थलाची ऐक थोरी। माता पिता नास्ति जन्मांतरीं। अयोनिज निर्मिला त्रिपुरारी। जंगमवंशाकारणें।।९४।। याचा महिमा पूर्ण। पाहा शिखामणीची खूण। दुजें पाशुपत प्रमाण। असें सत्य अवलोकी।।९५।। तेणें होय तें समाधान। स्वधर्मीं राहे अभिमान। धर्मोपदेशकांचें मन। आनंद पावे तेणेंचि।।९६।। जो जंगम अभिमानी प्रचंड। गुरुस्थलां जाणावया शोधी ब्रह्मांड। तो मूळ स्थळाचा दोर्दंड। पार करी भवार्णवा।।९७।। स्वधर्मीं निष्ठा ठेवलिया। भवसागरा तरावया। तरी तयाच्या पूर्णकार्या। विघ्नबाधा न होय पैं।।९८।। गुरु शास्त्रें असत्य मानितां। तरी नरक प्राप्त होय तत्त्वतां। जंगममूळ शोधोनि भजतां। क्रिया राहे अचूक तेथें।।९९।। क्रियेस्तव शोधावें मूळ। एèहवीं वृथा न करी छळ। वेष पाहिलिया तत्काळ। उत्थान द्यावें भक्तीनें।।१००।। जो भाव राखी गुरुपदासीं। जो क्रिया भंगू न दे मानसीं। तोचि गुरुपुत्र अविनाशी। पद पावेल सत्वर।।१०१।। वेषधारी जंगम होती। भ्रष्टाचारें ज्ञातींत वर्तती। ते उभय कुल नरकां नेती। अधर्माभिमानें करोनिया।।१०२।। याकरितां जंगमकुळीचा जंगमोत्तम। त्यासींच गुरुपदाचा नेम। म्यां निरोपिला स्वमुखें सुगम। तंत्रांतरीं वेळोवेळां।।१०३।।
स्वधर्मनिरता माता पिता यस्य तथैव च।
तस्यापि जांगमी दीक्षा गुरुसूत्रक्रमेण हि।।९।।

शंकर म्हणे हिमनगबाळा। म्यां तुज निवेदिले जंगमकुळां। शुद्ध जंगमाचाचि पुतळा। योग्य असे गुरुपदां।।१०४।। कोणी गादीस नवस करिती। पुत्र झालिया गादीस अर्पिती। त्याची दीक्षा करोनि सोडिती। सेवाधारी म्हणोनिया।।१०५।। त्यानें त्यजूनिया संसार। घेऊन जंगमवेष निर्धार। गुरुसेवा करावी फार। आत्महिताकारणें।।१०६।। सेवाधारीस दीक्षा असणें। हें तंव शास्त्राज्ञेप्रमाणें। परि पदारूढ होऊन त्यानें। गुरुपद घेऊं नये।।१०७।। जरी गुरुपद घे कपटें धरून। तरी तया कृतघ्नता घडे जाण। अधर्मी म्हणूनि तयालागून। विश्वास त्याचा न धरावा।।१०८।। आपण बुडोन दुसèयास बुडवी। स्वधर्माचा अभिमान सोडवी। तेणें तया अधोगतीची पदवी। मिळेल सत्य पार्वती।।१०९।।
आसप्तमकुलं शुद्धं यस्य चोभयपक्षकम्।
तस्य जंगमवंशस्य दीक्षा माहेश्वरी शुभा।।१०।।

याकरितां सत्शिष्य जाण। सप्तकुळ्या शुद्ध पाहून। जंगमदीक्षा तयालागून। द्यावी सत्य उद्धारा।।११०।। जंगमकुळीचाच शिष्य। पदीं घ्यावयास निर्दोष। उत्तम कूळ शुद्ध विशेष। माहेश्वर पूज्य तोचि।।१११।। स्वधर्मीचे ठायीं रत। मातापितरांसहित। भूरुद्र अवतार सत्य। गुरुस्थळां जाणावें।।११२।। गुरुस्थलाचें माहात्म्य। पूर्वाध्यायीं शिवागमें। वर्णिलें तें अनुपमें। श्रोत्यांलागीं सादर।।११३।।
ये पुनर्भुवाबाह्यास्ते न ग्राह्या: संकरास्तथा।
प्रमादात् प्राप्तदीक्षोऽसौ वर्जयेत् श्वानवद् बुधै:।।११।।

माहेश्वरी दीक्षाकारणें। सप्तकुळ्या विवाहित असणें। तरीच माहेश्वरी दीक्षेते पावणें। पुनर्विवाह माता वर्ज।।११४।। संकर जाति असतां। तरी माहेश्वरदीक्षा नाहीं तत्त्वतां। चुकोनि दीक्षा प्राप्त होतां। त्याचा त्यागचि करावा।।११५।। जैसा श्वानाचा स्पर्श पाही। तैसा धरावा भ्रष्ट देही। दीक्षा झाली म्हणोनि कांहीं। शंका न धरावी तेथें।।११६।। गुरुस्थलापासोनि जन्म। त्यासींच क्रियेचा नित्यनेम। तोचि स्वधर्माचा धरी प्रेम। पूर्वोघाकारणें।।११७।। नेमें करी त्रिकाळ स्नान। तैसेच भस्म-उधळण। न स्वीकारी पर-अन्न। सदा कर्मीं पवित्र।।११८।।
देहो नास्ति कुलं नास्ति नास्ति जिव्हारुचिस्तथा ।
नास्त्यासंग: संगो न श्रेष्ठं तज्जंगमस्थलम्।।१२।।

जेथें देहचि नास्ति। तेथें कुळयातीस कैसी गति। सर्वव्यापक स्वयंभू मूर्ति। परि मूर्तीचा साक्षी तो।।११९।। मूर्ति-अमूर्तिविरहित। वर्णाश्रमांसी अतीत। दर्शनाभिमानां नातळत। शुद्ध जंगम तो।।१२०।। पांची इंद्रियें हातीं न धरी। काम्य कर्मेंद्रियां कैंची उरी। तेथें लंपट जिव्हारुचीवरी। काय होईल वो।।१२१।। तयासीं भुकेचिया तोंडा। मिळो कोंडा अथवा मांडा। परि दु:खां नसे वरपडा। रसनेसाठीं।।१२२।। जो संतुष्ट सदा जंगमqलग। तो न करी हकहक न इच्छी भोग। ऐसा सत्यशरण जो चांग। तो त्रैलोक्यांसीं वंद्य।।१२३।। संग कुसंगासीं न धरी। नि:संग एकाकी निर्विकारी। ऐसा जंगमस्थळीं निर्धारी। उत्तम जंगम तो।।१२४।।
शांत्यैव भस्ममुद्धूल्य शुचित्वमणिभूषणम्।
विषयान् शिक्षितुं दंडं परतत्त्वं चं खर्परम्।।१३।।

शांत निवांत ते शरण। नित्य करी भस्मस्नान। सदा शुचित्व असे अंत:करण। गंगाजळाहूनि।।१२५।। नातरी त्रिकाळ स्नान करी। द्वादश टिळे लावी शरीरीं। जरी त्रिगुण मळकट अंतरीं। तरी ते विटंबना कीं।।१२६।। म्हणोनि अंतरीं ज्ञानें शुद्ध झाला। बाहेरी क्रियेनें क्षाळिला। शुद्ध शुचित्व बोलिला। शिवाचारसंपन्न तो।।१२७।। ऐसें शुचित्वलक्षण। तें रुद्राक्षमाळा भूषण। सुवर्ण हिरे रत्न मुक्ताफळ जाण। हें भूषण नोव्हे त्यासी।।१२८।। त्याचें भूषण तें शुचित्वलक्षण। येर ते तया तृणासमान। विवेकाचा दंड करोन। विषयासीं दंडी सदा।।१२९।। धरोनि विवेकाचा दंड करी। विकारा पशुत्वातें निवारी। परमतत्त्वाची हाती खापरी। येणें भूषणें भूषित तो।।१३०।।
रूपारूपं समाख्यातं कामनिष्काम एव च।
मायानिवारणेनोक्तमेतज्जंगमलक्षणम्।।१४।।
रूपा अरूपत्वें मानी। चांगलें वोखटें न करी कडसणी। जें जें दिसे तें तें शिवार्चनीं। निंदास्तुति दोन्ही न करी।।१३१।। काम निष्काम नाहीं भावना। माया सांडोनि निर्माय झाला हे आठवेना। निराकार निर्माय जाणा। वस्तु आपण।।१३२।। हेचि भावी भावनेरहित। मा निर्मायेसीं नातळत। परात्पर होवोनि असत। येणें लक्षणें।।१३३।।
पंचाक्षरं पंचवक्त्रं प्रणवं मूर्तिसंयुतम्।
परत्वस्य परित्राणं श्रेष्ठं तज्जंगमस्थलम्।।१५।।

पंचाक्षरी पंचमुखी जाण। ती पंचमुखें ओंकारापासून। ओंकार परतत्त्वापासून उत्पन्न। तें परतत्त्व जो जाणें।।१३४।। तें परतत्त्व गुरुमुखें जाणोनि। मग तेंचि असे होवोनि। जागृती सुषुप्ति स्वप्नीं। पालटु नाहीं जया।।१३५।। तो मनुष्यदेही ही भावना। न भावून वस्तुत्वे भावी आपणा। तोचि जंगम श्रेष्ठ जाणा। शिवाचारासीं गुरु होय।।१३६।।
आचारो वाप्यनाचारो सीमा नि:सीमवर्जित:।
गमनागमनं नास्ति स एवोत्तमजंगम:।।१६।।

त्यासी आचार अनाचार नाहीं। कोण्ही म्हणती तें बोलणें कांहीं। तरी याचा निर्णय पाही। निरोपुं वो देवी।।१३७।। तो आचार करोनि अकर्ता। म्हणोनि आचार नाहीं सर्वथा। अनाचार तरी तत्त्वतां। आचरेचि ना।।१३८।। म्हणोनि आचार अनाचार नाहीं। बोलिलो तेहि अनुभवें पाही। ए-हवीं आचार सोडो नये कांहीं। जरी वस्तुरूप झाला।।१३९।। हरपली वस्तु तरी दीपु पाहिजे। सापडलिया मग दीपु त्यागिजे। येणेंपरी क्रिया त्यागिली म्हणिजें। तरी न मानिती संत या बोलां।।१४०।। क्रिया करितां वस्तुचि जरी झाला। तरी न त्यागिजें आचाराला। जरी आचारत्यागी तरी मोडिला। भक्तिपंथ आपणचि।।१४१।। येथें त्याग-अत्यागाचा सोस नाहीं। जरी गुरुकृपें आपणचि वस्तु होई। तरी सहजचि ढाळे ढाळे राही। आचारक्रिया।।१४२।। तो आचारक्रिया करोनि अकर्ता। फळहेत नाहीं त्याचें चित्तां। तेथ मी मा न मा कोण म्हणतां। माझें तुझें।।१४३।। तया गमनागमन तरी नाहीं। जरी गमन करी तरी ठायीचा ठायीं। देह हिंडतां आपण पाही। स्थिर अढळ असे तो।।१४४।। कुंभाराचे चाकाखालील। खुंटा जैसा असे अढळ। तैसा गमनागमनीं निश्चळ। मेरु जैसा।।१४५।। त्याचे इतुकेचि अर्थवर्म। जे अकर्ता केवळ परब्रह्म। सृष्टीं विचरे भक्ताचें प्रेम। घ्यावयालागीं।।१४६।।
जंगमे गमनं नास्ति स्याच्चेत्तद् भक्तमन्दिरम्।
अन्यस्य गृहमिच्छेद्य: सद्यो गोमांसभक्षणम्।।१७।।

जंगमासीं नाहीं गमनागमन। जरी उठेचि मनीं गमनकारण। तरी भक्ताचे गृहीं जाणें जाण। निराशपंथें।।१४७।। अभक्त भवीच्या गृहासीं। जावयाची इच्छा धरी मानसीं। तरी गोमांसभक्षण घडे त्यासीं। पातकिया होय तो।।१४८।। अभक्त भवि म्हणिजे कवणासीं। पंचकळश दीक्षा नाहीं ज्यासीं। गुरूविण जीवे त्या निगुरीयासीं। अभक्त भवि बोलिजें।।१४९।। शिवभक्त म्हणवी आपणासीं। पुजी आन दैवतासीं। अभक्त भवि बोलिजें त्यासीं। अनाचारी म्हणोनि।।१५०।। तीर्थप्रसादाची वार्ता। कधी कोणे काळीं नेणें सर्वथा। लिंगपूजनीं नावडी चित्ता। तो गे तोचि भक्त भविया।।१५१।। ऐसिया भवीच्या घरासीं। जरी इच्छा धरी मानसीं। तरी आमिषभक्षण घडे त्यासीं। यालागीं भविसंग त्यागिजें।।१५२।। पंचकलश दीक्षा शिवमंत्र ज्यासीं। एक जाणे गुरु-लिंग-जंगमासीं। तीर्थप्रसादी प्रेम भक्त बोलिजें त्यासीं। त्याच्या घरां सुखें जाणें।।१५३।।
भक्तेन सुखगोष्टि: स्याद् धनं भक्तप्रतिग्रहम्।
भक्तै: सह वसेन्नित्यं भक्तानां गृहसंगभाक्।।१८।।

ऐसिया शिवभक्ताचे घरीं जाईजें। त्यासीं गुह्य गोष्टी बोलिजें। त्याचें अन्न धन दान प्रतिग्रह घेईजें। गुरुकरजात म्हणोनि।।१५४।। जो एकभावें पुजी गुरु-लिंग-जंगम। ज्यासीं तीर्थप्रसादीं नित्यनेम। त्याचा संग कीजें उत्तम। भविसंग त्यागोनिया।।१५५।।
भक्तस्त्रीभक्तहस्तेभ्य: शुचिरन्नं प्रतिग्रह:।
भक्तकायनिवेद्यं च इत्येतज्जंगमस्थलम्।।१९।।

भक्ताचे स्त्रीचे हस्ताकुन। सेवा घेईजे प्रेमभक्तिकुन। भक्ताघरींचें अन्नपाणी सेवन। क्रियामुखें कीजें देवी।।१५६।। ज्या भक्तें तन मन धन अर्पण। त्याची काया कीजें पावन। ऐसें हें जंगमस्थान। निरोपण करी शिव भक्तीं।।१५७।। वीरशैवाचे संस्कार। गर्भादि अंतकालावर। लिंगधारीनें सत्वर। गुरुहस्तें करवावें।।१५८।। गुरु तोचि असे देख। उपगुरूचा वंशक। तया हस्तें ही मांत्रिक। क्रिया करावी शास्त्राज्ञें।।१५९।। शिवाचारासीं जंगम गुरु। ऐसा आगम गर्जे मेरु। तोचि करील भवपारु। वीरशैवांलागूनि।।१६०।।
लिंगार्पितं न कर्तव्यं कर्तव्यं जंगमार्पितम्।
लिंगजंगमसंयुक्तं जंगमस्य विशेषत:।।२०।।

जंगममुखेविण अर्पण। लिंगासीं नोव्हे हो जाण। समीप जंगम न होता नैवेद्यन। स्वमुखें कीजें तें ऐका।।१६१।। अन्नावरोनि हात फिरवोनि लिंगासीं दाविजें। तोचि हस्त मुखां लाविजें। येणेंचि परी तीन वेळां कीजें। निवेदन लिंगासीं।।१६२।। लिंगजंगमसंयुक्तेकुन। प्रसाद कीजें विश्वासेकुन। तोचि जंगम त्रिजगती पावन। मजहि पूज्यमान तो।।१६३।। लिंगासीं दाविल्याविण तृणकाडी। न सेवी सर्वथा थोडी। विष अथवा अमृतगोडी। विसरोन तो न घाली मुखीं।।१६४।। हे कां म्हणसी तरी ऐक। गुरु लिंग जंगम तिन्ही एक। म्हणोनि लिंगासीं पुजितां देख। गुरुचि पुजिला होय।।१६५।। तैसाचि जंगम पुजितां देख। गुरु पुजिला होय विशेख। म्हणोनि गुरु-लिंग-जंगम एक। भावें पुजी तो जंगम अथवा भक्त।।१६६।। कोणी म्हणती जंगम तो परब्रह्म। त्यासीं पूजेचा कायसा नेम। वस्तु झालिया क्रियाकर्मधर्म। कायसा तयासीं।।१६७।। तरी यदर्थी उत्तर ऐकिजें। शिव शिवेचि यजिजे। हें उत्तर श्रुतिशास्त्रीं बोलिजें। जाणती शिवशरण।।१६८।। देव होवोनि देवां भजिजें। आपुलिया भक्तिसुखां आपण घेईजें। आपणचि भक्तिसुखां वाढविजें। आपुलिया सुखासाठीं।।१६९।। जेणें जीवासीं दिधलें शिवपण। आणि रंकासीं रावपण। म्हैशासीं सिंहपण। दिधलें ज्या गुरूने।।१७०।। त्या गुरूची न कीजें कैशी भक्ति। न करितां जाय अधोगति। सायुज्याचे माथां नांदती। गुरुभक्ति वो देवी।।१७१।। भक्तीविण नुसतें ज्ञान। तें जैसें नासिकेविण मुख जाण। यालागीं भक्तिवैराग्यज्ञान-। संपन्न तो उत्तम जंगम।।१७२।।
स्थावरार्पितनैवेद्यं न मे स्यात् तृप्तिकारकम्।
जंगमार्पितनैवेद्यं मम तृप्तिकरं परम्।।२१।।

स्थावरीं करितां निवेदन। तेणें मी तृप्त नोव्हे त्रिनयन। जंगमलिंगीं करितां अर्पण। मी तृप्त होय वो देवी।।१७३।। ज्यासीं नाहीं शिवाचार। त्यानें पुजिजें स्थावर। ज्याचें हृदयस्थळीं शंकर। त्यानें स्थावर पुजूं नये।।१७४।। अमान्य करोनिया हृदयींचें लिंग। जो धरी स्थावरीं भक्ति-अंग। तो शिवभक्त नोव्हे केवळ सोंग। बहुरूपियाचें।।१७५।। इष्टलिंग लोळतसे उराखालीं। अन्य स्थावरां दंडवत घाली। त्याचें मुख देखतां अंघोळी। वस्त्रांसहित करावी।।१७६।। गळां असोनिया त्रिनयन। जो अन्य देवताचें करी उपासन। तो भवीहून परता जाण। लिंगनिष्ठा नाहीं म्हणोनिया।।१७७।। यालागीं लिंगीं निष्ठा धरिजे। जंगमहि तद्रूप मानिजें। जंगममुखें लिंगासीं अर्पिजें। तेणेंपरी तृप्त वो पार्वती।।१७८।।
निराकारं च साकारं निर्विकारं सुखावहम्।
साक्षान्मुक्तिप्रदं भावमुत्तमं जंगमस्थलम्।।२२।।

जंगमस्थळ तें निराकार। तेंचि बोलिजें साकार। साकार होवोनि निर्विकार। षडविकारविरहित।।१७९।। ते षडविकार म्हणसी कोण। जायते स्थिति विवर्धते तीन। चौथा विपरिणमते पांचवा अपक्षियते जाण। मृत्यु तो साहवा विकार।।१८०।। या विकारांचा निर्णय सांगेन। जायते म्हणिजे जन्मला आपण। अज अजन्मा आत्मा असोन। मी जन्मलो हा विकार वाहे।।१८१।। स्थिति म्हणिजे मी एक इथें आहे-। नाहीं हें आत्म्यास नाहीं पाहे। तो सदोदित अस्ति नास्ति होय ना जाये। ऐसें असोनि मी एक आहे म्हणे।।१८२।। मी एक आहे म्हणिजे स्थिति। तो मी नाहीं होईन हेहि वाटे कीं चित्तीं। असे नसे मी हा विकार दुसरा स्थिति। श्रुति बोलती ग्वाही।।१८३।। तिसरा विवर्धते विकार। म्हणे मी वाढतो होतो लहान झालो थोर। आत्म्यास वाढणें लहान थोर आकार। घडे काय तो।।१८४।। आत्म्यासीं विवृद्धि वाढणें नाहीं। तो जैसा तैसा असे तिहीं अवस्थांच्या ठायीं। ऐसे असतां म्हणे मी वाढतो देहीं। हा विकार वाहे नसतांचि।।१८५।। विपरिणमते विकार चौथा। मी तरुण विषयविलासभोक्ता। ऐसी तारुण्याची वाहे अवस्था। विसरोनि आपणिया।।१८६।। आत्मस्वरूप तें तरी स्वत:सिद्ध। त्यास कैसें बाल्य तारुण्य वृद्ध। ऐसा असोनि निजबोध। मी तरुण हा विकार वाहे।।१८७।। अपक्षीयते तो विकार पांचवा जाण। म्हणे मी म्हातारा मज वृद्धपण। आतां मज येणार मरण। ही घोकणीच राहे चित्तीं।।१८८।। वृद्ध-अवस्था आत्मत्वीं न लगे। तंव मृत्यु-अवस्था कैसी लागे। मी मरेन हा विकार वाहे अंगे। नाथिलाचि देहबुद्धि।।१८९।। आत्मा जरी जरामरणातीत। त्यासीं जन्मला ही स्थिति वाढवीत। तारुण्य वार्धक्य मृत्यु भावीत। हे साही विकार नसतांचि।।१९०।। ऐसिया षडविकारांसीं नातळत। म्हणोनि सदा सुखरूप सदोदित। तोचि उत्तम जंगम जगभरित। सद्गुरु बोलिजें त्यासीं।।१९१।। तो साक्षात् प्रभु साक्षिभूत। त्यासीं चा-ही मुक्ति शरणागत। तो पावला निर्गुण मुक्ति निभ्रांत। हेंहि बोलणें न्यून वो देवी।।१९२।। बद्ध म्हणिजे बांधिला। मुक्त म्हणिजे सुटला। बंधमुक्तीचा निर्णय केला। हाच कीं साधुजनीं।।१९३।। जो मुळीच बांधला नाहीं। त्यासी सुटला म्हणणें काई। म्हणोनि बद्धमुक्तावेगळा पाही। जंगम तोचि जाणिजें।।१९४।। स्वप्नीं राजा मोळीविक्या झाला। जागृति आलिया पाहो लागला। तंव राज्यपदीं देखे आपणाला। स्वप्न मिथ्या जाहलें।।१९५।। जरी राजा स्वप्नीं मोळीविक्या झाला। तरी राजपदां काय मुकला। निद्रेस्तव भास जो भासला। तो लटिका नसताचि।।१९६।। तैसें लटिकेचि बांधलेपण। तें सत्यत्वें भासे संकल्पें जाण। तो गुरुकृपें संकल्प गेलिया निमोन। मग कोण बद्ध मुक्त म्हणे।।१९७।। ऐसा बंधमुक्तीसीं विरहित। षडविकारांसीं अतीत। ऐसिया जंगमाचें मी करीत। ध्यान वो देवी।।१९८।। तो धीर गंभीर अचल अढळ। अकूळ अमूळ अद्वैत अकळ। अव्यक्त अविनाश अमळ। त्रिमळाविरहित।।१९९।। अनाम अगम्य अगोचर। अनुपम्य अलक्ष अपरंपार। अकल्पित असंग अगणित अपार। नेणवे कोणां।।२००।। निर्गुण निराकार निजरूप। निर्धुत निरामय निर्विकल्प। निष्प्रपंच नि:संग निष्पाप। निर्वेर सर्वांभूतीं।।२०१।। निराश निश्वास निराभास। निर्गम्य निरुपम निजानंद नि:शेष। निश्चळ निरिच्छ निर्दोष। निरंजनमूर्ति जंगम।।२०२।। जगदाकार जगन्निवास। जगद्रूप जगन्नायक जगदीश। जगज्जीवन जनीं वनीं वास। सर्वत्र जयाचा।।२०३।। व्यापून सकळ ब्रह्मांडास। सर्वत्र असे जयाचा वास। परब्रह्म पुरुष अविनाश। जंगम तो।।२०४।। परब्रह्म परमेश्वर परमानंद। परवस्तु परात्पर प्रसिद्ध। परमगहन परंधाम निजानंद। परमपावन जंगम तो।।२०५।। चिद्रूप चैतन्य चिद्घन। चिदानंद चिन्मात्र पूर्ण। चिदैक चिद्विलास चैतन्यघन। सच्चिदानंद तो।।२०६।। सदोदित सबराभरीत। सद्रूप सदोदित सदा शांत। सत्स्वरूप सद्बोध सुमत। कुमतातीत जो जंगम।।२०७।। जो स्वयें प्रभुरूप झाला। पुन: काय वर्णावें तयाला। अमृतां गोड ऐसें बोलतां बोलां। बोलचि लाजे।।२०८।। कां गोडचि त्यासीं गोड म्हणणें। म्हणतां म्हणणिया उणे। गोडचि त्यासीं गोडपणें। काय स्तविजें।।२०९।। तैसें अनुपम्य वस्तु पूर्णपणें। जें असें तें आपण झाला गुरुकृपेनें। त्यासीं काय वर्णावें कवणें। तेथें वेदश्रुति थकित।।२१०।। ऐसा जंगम तो शिवमूर्ति। निराभास भासेना कोणाप्रति। अढळ ढळेना प्रळयकल्पांतीं। म्हणोनि निश्चळ सदा तो।।२११।।
नादं निश्चललिंगस्य बिंदुर्निश्चलजंगम:।
नादबिंदुसमायुक्तं श्रेष्ठं तज्जंगमस्थलम्।।२३।।

लिंगासीं नाहीं जैसा नादु। तैसा जंगमासीं नाहीं बिंदु। नादबिंदुसमायुक्तं ऐसा बोधु। जंगम-लिंगासीं असे।।२१२।। लिंग नादाविण मौन केवळ। न बोले कोणासीं असे निश्चळ। तैसा जंगमहि न बोले कोणासीं निवळ। होवोनि असे तो।।२१३।। तयासीं बोलणें तरी नाहीं। परि परोपकारार्थ बोले जरी कांहीं। ज्या बोलें सुख होय परदेही। तैसें बोलणें बोलें।।२१४।। म्हणोनि नादबिंदूसीं अतीत। नाद तें बोलणें नाहीं बहुत। नाद जिंतिला मौनें निश्चित। होवोनि ठेला।।२१५।। परि आपुलें क्रियाकर्मे करी। केलियाची सय न धरी अंतरीं। प्रवृत्ती लौकिक बोल जिव्हाग्रीं। नाणी कदा तो।।२१६।। म्हणोनि नादातीत जंगम। बिंदु तरीच तो नि:सीम। तो शिवभक्तिरूप देखे परब्रह्म। तंव बिंदु कैंचा तया।।२१७।। यालागीं नादबिंदुकलाज्योति-। विरहित जो परब्रह्ममूर्ति। हें उत्तम स्थळ वो पार्वती। निरोपिलें तुज।।२१८।। ही जंगमलक्षण स्थिति। देवी निरोपिली तुजप्रति। हे ऐकोनि ऐसे जे होती। ते धन्य होती संसारीं।।२१९।। जंगम ऐसें म्हणवावें। आणि या लक्षणीं न वर्तावें। तरी तें सोंग जाणावें। मैंदाचिये घरीचें।।२२०।। यालागीं धन्य तोचि जंगम। जो येणें लक्षणें वर्ते उत्तम। तोचि जाणिजें परब्रह्म। मीहि वंदी तयातें।।२२१।। हें जंगमस्थळ पतितपावन। पार्वती तुज निरोपिलें प्रेम जाणोन। ऐकतां सद्भाव धरोन। शिवलोकां पाविजें।।२२२।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। शिवगौरीसंवादीं वर्तत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृत्य मन्मथ।।२२३।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे जंगमस्थलनिरूपणं नाम दशमोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक २३, ओव्या २२३.

(संगणकीय अक्षरलेखन : सौ. उषा पसारकर, केतकी फ़ोटो टाईप सेटर्स, सोलापूर)
 

Monday, 20 January 2014

‘श्रीसिद्धान्तशिखामणि-अभंगामृत‘- शे. दे. पसारकर, सोलापूर या आगामी ग्रंथातून लिंगधारणस्थल -१-

लिंगधारणस्थल
-१-
स्फटिक, पाषाण, मणी चंद्रकांत। बाण, सूर्यकांत याच्यातून।।१।।
घडवावे लिंग देखणे सुबक। शास्त्रयुक्त एक लक्षणांनी।।२।।
पंचगव्य-पंचामृताने करावे। शुद्ध नि पूजावे बेलपुष्पे।।३।।
पंचाक्षरी मंत्रे संस्कार करावे। शिष्यकरी द्यावे श्रीगुरूने।।४।।
शिष्यमस्तकीच्या शिवकलांप्रत। लिंगाठायी स्थित करूनिया।।५।।
शिवकलापूर्ण लिंगास प्राणात। शिष्याच्या स्थापित करावे हो।।६।।
शिव-जीवकलासामरस्ययुक्त। शिष्याच्या करात लिंग द्यावे।।७।।
शेष म्हणे असे लिंग विधिपूर्ण। करावे धारण निष्ठायुक्त।।८।।
-२-
‘शिष्या, लिंग तुझे प्राणलिंग जाण। करावे धारण प्राणासम।।१।।
शरीरावर ते सदैव असावे। वियुक्त नसावे किंचित्काल।।२।।
अनवधानाने पडे भूमीवर। तत्काल तू कर प्राणत्याग।।३।।
तुला मोक्ष प्राप्त तेधवा होईल। पण अशी वेळ येऊ नये।।४।।
जसे प्राणाला रे जपतो माणूस। तसेच लिंगास जपावे बा‘।।५।।
शेष म्हणे असा गुरू उपदेश। करिती शिष्यास स्पष्टपणे।।६।।
-३-
शिवयोगियाने मूलाधारस्थानी। लिंग सुवर्णवर्णी कल्पावे हो।।१।।
पोवळ्यासारखे हृदयी कल्पावे। भ्रूमध्यात ध्यावे शुभ्रवर्ण।।२।।
अशी अंतरंगी लिंगाची धारणा। त्यास नाव जाणा निरुपाधिक।।३।।
बाह्यलिंगापेक्षा कोटीपट श्रेष्ठ। म्हणती वरिष्ठ शिवयोगी।।४।।
अंतरी करिती लिंग जे धारण। त्यास पुन्हा जन्म नाही नाही।।५।।
शेष म्हणे लिंगधारण पवित्र। करिता त्रिनेत्र संतोषतो।।६।।
-४-
मस्तकी, कंठात, कक्ष-वक्षावर। किंवा पोटावर, तळहाती।।१।।
ईश्वरस्वरूपी लिंगाचे धारण। भक्ते आमरण करावे हो।।२।।
नाभीस्थानी, जटेवर, पाठीवर। मूलस्थानावर लिंग नको।।३।।
करपीठी लिंग ठेवूनि पूजितो। परिशुद्धच तो शेष म्हणे।।४।।
-५-
नाही तपश्चर्या, पक्व नाही मन। वैराग्य रुसून गेलेले ते।।१।।
शिवसंस्काराचा मुळी लेश नाही। विवेकही नाही नित्यानित्य।।२।।
ज्यास नाही गुरुकारुण्यही प्राप्त। राहिला वंचित दीक्षेतून।।३।।
त्याने इष्टलिंग घेऊनि विकत। आपल्या गळ्यात घालू नये।।४।।
गुरुदीक्षेविण लिंगाचे धारण। पापाचे कारण शेष म्हणे।।५।।
-६-
लिंगधारणेचे व्रत हे महान। देहावर जाण देव आहे।।१।।
असे भान नित्य भक्ताने ठेवावे। सर्वस्व अर्पावे लिंगाठायी।।२।।
लिंगासाठी वेषभूषा, खाणे-पिणे। लिंगासाठी जिणे सर्वकाळ।।३।।
सुखदु:खभोग आणि हर्ष-खेद। लिंगाचा प्रसाद मानावा हो।।४।।
असा सर्वस्वाने लिंगरूप झाला। सफल जहाला जन्म त्याचा।।५।।
शेष म्हणे लिंग हाच जीवप्राण। वर्तावे मानून वीरशैवे।।६।।
- शे. दे. पसारकर, सोलापूर

Monday, 13 January 2014

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य अध्याय नववा

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी
संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित
परमरहस्य

अध्याय नववा

।। श्रीगणाधिपाय नम: ।।

अष्टम अध्यायाचे अंतीं। निरूपिली तपश्चर्येची स्थिति। संतोषोनि गिरिजा शिवाप्रति। काय पुसे ते ऐका।।१।।
देव्युवाच-
के भेदा भक्तिमार्गस्य गुणा: के तस्य वै शुभा:।
तद्रूपं न हि जानामि कथयस्व महेश्वर।।१।।
पार्वती म्हणे देवोत्तमा। ज्या भक्तीची सांगता एवढी महिमा। त्या भक्तस्थळाची भेदगरिमा। निरोपा स्वामी।।२।। ज्या भक्तीचिया सामुग्री आतुडा तुम्ही। म्हणतसा भक्ताचे घरीं अंगें राबे मी। त्या भक्ताचे गुणभेद स्वामी। निरोपावें मजलागीं।।३।।
शिव उवाच-
सदाचार: शिवेभक्तिर्लिंगजंगमएकधी:।
लांछने लीनभावश्च भक्तस्थलमुदीरितम्।।२।।
शिव म्हणे वो पार्वती। भक्तस्थळ निरोपुं तुजप्रति। जें ऐकतां पावन त्रिजगती। चराचर होय।।४।। महापापाच्या झाल्या असतां राशी। जें ऐकतांच जाती क्षयासी। ऐसें भक्तस्थळ तुजपासीं। निरोपीन वो देवी।।५।। सदाचारें शिवभक्तीनें वर्तिजें। गुरुलिंगजंगम ऐक्यभावें मानिजे। परि आधी गुरु कीजें। दीक्षा घेईजें सद्भावें।।६।। सद्भावें विश्वास गुरुचरणीं। तोचि भाव लिंगपूजनीं। जंगमहि तेचि भावी मनीं। तोचि उत्तम भक्त जाणिजें।।७।। जेथें देखे गुरुलांछन। तेथ सद्भावें करी शरण। निरभिमानी होऊन। करी भक्ति।।८।। एकभावें धरी प्रेम। वंदी सदा गुरु लिंग जंगम। त्यासीं तीर्थप्रसादाचा नेम। नित्याचारें वर्ते तो।।९।। जंगम देखूनि भावें वंदावें। माझें तुझें बगीचें न म्हणावें। रूप देखोनि शरण जावें। हें गुरुभक्तिलक्षण।।१०।। जंगमाचे गुण अवगुण। न उच्चारावे आपण। तो कैसा तरी असो परि वंदन। भावें कीजें।।११।। जंगमाचे पूर्वज न विचारिजें। तो गुरुरूपचि मानिजे। आवडी नावडी न धरिजे। जंगमलिंगाचे ठायीं।।१२।। जें जें आपणां आवडत। तें तें जंगमलिंगीं अर्पित। ज-ही हातां आलें अमृत। तरी न वंची तो।।१३।। मुखीं षडक्षरी मंत्र सतत। लल्हाटीं विभूति शोभत। कंठीं रुद्राक्षमाळा मिरवत। भक्तरायाच्या।।१४।। तीर्थप्रसादाची आवडी मोठी। सेवितां पडो नेदी भवीच्या दृष्टी। शिवाचार परिपाठीं। आणिकाहि लावीतसे।।१५।। जंगम देखतांचि दृष्टीं। धांवोनि सद्भावें घाली मिठी। लिंगयुक्त शरण लल्हाटीं। चरणरज लावी।।१६।। प्राण गेला तरी जावो। परि न सांडी निष्ठाभावो। तोचि निजभक्तीसीं ठावो। शुद्ध भक्तस्थळ या नांव।।१७।। तनु मन धन अर्पितां। शीण न मानी सर्वथा। म्हणे ज्याचें त्यासीं देतां। मी कां कुंथो।।१८।। उदयकाळीं उठतां। हीच मनीं वाहे चिंता। कीं जंगमलिंगां अर्पितां। तरी भाग्य बरवें।।१९।। लिंगार्चितासीं जंगम आलिया। धांवोनि विश्वासें लागे पायां। शीतल विभूति पुढें करोनिया। म्हणे स्वामी कृपा करा।।२०।। नेवोनि बैसवी सिंहासनावरी। भावें बरवी पादार्चना करी। तीर्थ अर्पोनि प्रसाद स्वीकारी। उत्तम भक्त या नांवें।।२१।। भोजनोत्तर मुखशुद्धि। तांबूल अर्पितसे सुबुद्धि। भावें करूनि त्रिशुद्धि। शरण होत प्रीतीनें।।२२।। जे सुखभोग ते जंगमलिंगाचे। जे कष्ट ते प्रारब्धाचे। ऐसा भाव धरोनि वर्ते साचे। तोचि भक्त जाणावा।।२३।।
भृत्याचारसमाचारो लिंगजंगमरूपिणी।
द्वयोरैक्यसमायुक्तो भक्तराज: सुबुद्धिमान्।।३।।
सेवकभाव अंगीं धरोनि। भक्तीचा अभिमान सांडोनि। एक भाव लिंगजंगमपूजनीं। करी तोचि उत्तम भक्त।।२४।। लिंगजंगमीं भिन्न भाव धरितां। केली भक्ति निर्फळ होय तत्त्वतां। मा मुक्ति सायुज्यता। तयासी कैंची।।२५।।
किंकरवाणीसमायुक्तो लिंगरूपेण जंगमम्।
मनसा भावयत्येव भक्तस्थलसमन्वित:।।४।।
qककरवाणी वृत्ति धरोनि। शांतिरूपी मन लीन होऊनि। लिंग जंगम एकरूप मानूनि। सद्भावें पुजी जो।।२६।। तो माझा मुकुटमणि जाण। महाभक्त शिवाचारसंपन्न। त्याचेनि माझें शिवपण। मिरवतसें।।२७।। तो भक्त भक्तस्थळालागीं। जीवन जीववयालागीं। आहे म्हणोनि सर्वांग संगीं। भक्ति नांदतसे उल्हासें।।२८।।
अर्थप्राणाभिमानं च गृहदारादिकं तथा।
अर्पयेत् परया भक्त्या भक्तस्थली सुबुद्धिमान्।।५।।
अर्थ प्राणाभिमान। पुत्रदारादि गृह जाण। ही सर्वहि कीजें अर्पण। लिंग-जंगमीं भक्तीनें।।२९।। कायावाचामनेंकरोन। उदार व्हावें भक्तीलागोन। एकभावें तल्लीन होऊन। समर्पावें लिंग-जंगमीं।।३०।। अमृताहूनि अधिक। प्रसाद मानी तो देख। सकळ तीर्थां विशेख। पादतीर्थां मानी।।३१।। त्यासीं शिवलिंग जंगम प्राण। होऊनि सत्यत्वें असे जाण। ही खूण जाणती सत्यशरण। जे भक्तिपंथा लाधले।।३२।।
गुरुधर्माभिमानी स्यात् लिंगनिष्ठो हि जंगम:।
उपाचार्य: सदाचारी भक्तिमान् सुदृढव्रती।।६।।
स्वधर्माभिमान असावा गुरूसीं। भावें पाळीत शास्त्राज्ञेसीं। कदापि न चुकती वचनासीं। धर्माभिमानी सत्य ते।।३३।। लिंगाचा इच्छित हेतु। पूर्ण करितां जंगम भक्तु। तया वेगळी मातु। नसे जाण दुसरी।।३४।। यालागीं वीरशैवीं। दुजी सेवा न करावी। इष्टलिंगासीं अर्पावी। शुद्ध कर्में आपुलीं।।३५।। अमृताहूनि अधिक। प्रसाद मानिती देख। पंक्तिभोजन आवश्यक। इच्छीतसे भक्त पैं।।३६।। शिव सांगे गणांप्रति। जे शिवाचारें वर्तती। तया नसे अधोगति। सत्य जाणा वचन हें।।३७।। भक्त तयासीच नांव। येरां नसे अनुभव। भवाचें भय सावेव। स्वप्नीं नसे सद्भक्तां।।३८।।
प्रभाते मुखप्रक्षाल्य हस्तपादौ च क्षालयेत्।
दंतधावनशौचादि कृत्वा नित्यं शुचिर्भवेत्।।७।।
प्रात:काळीं उठूनि सत्वर। शौचमार्गें मौन धरूनि साचार। न बोलतां परस्पर। परतोनि यावे स्वगृहीं।।३९।। ऐसे स्तब्ध येण्याचा काय हेतु। स्वमस्तकांतील ज्ञानतंतु। खर्ची घालूं नये व्यर्थु। योग्य विचारां योजावे।।४०।। जो जो बोलण्याचा व्यापार। तो तो ज्ञानतंतु होती जर्जर। निद्रेअंतीं तयाचे अंकुर। सतेज पुन्हां होती पैं।।४१।। म्हणोन तया खर्ची व्यर्थ। घालू नये हें यथार्थ। शिक्षक गुरु समर्थ। सांगतसे शिष्यांतें।।४२।। मौनें घरीं येतां परतून। सप्त मृत्तिका करांसीं लावून। वर उदक दुस-याकडोन। घ्यावें तेणें क्रिया शुद्ध।।४३।। पादप्रक्षाळन करून। मग लिंगोदकें मुखमंडन। दंताचा मल धुवून। टाकी सत्य प्रतिदिनीं।।४४।। येणेंपरी मुखमार्जन कीजें। मग लल्लाटावरून हस्त उतरिजे। परि मुखीं घेऊन न घालिजें। शीतळ लल्लाटावरी।।४५।। आत्मस्थान असें भ्रूस्थानीं। म्हणोनि न घालिजें मुखपाणी। तेथेंहि देवाची मिळणी। सदा असे।।४६।। म्हणोनि अर्ध मुखीं अर्ध करीं। ऐसें जल न घालिजें लल्लाटावरी। ऐसे न विचारोनि घालिजे जरी। तरी दोषी होईजे।।४७।। येणेंपरी मुखमार्जन करून। मग करावें भस्मधारण। पूजासामुग्री मेळवून। शुचिर्भूत असावें सदा।।४८।।
मज्जनं च त्रिकालेषु शुचिपाकसदासुधी:।
भविसंगपरित्याग इत्येतद् हितकारकम्।।८।।
मग शुद्ध स्नान करोन। नेसावें शुक्ल धौत वसन। वरी उत्तरीय धारण करोन। प्रवर्तावें पूजनीं।।४९।। ऐक लिंगपूजेचें विधान। लिंगाचें त्रिकाळ कीजें पूजन। एकान्त स्थळ पाहोन। शिवपूजा कीजें सावध।।५०।। आधी दोन्ही हात प्रक्षाळून। मग पात्रार्चन करोन। विभूति शीतळ पात्रासीं लावून। मग लिंगासीं काढिजें।।५१।। लिंग करस्थळीं धरोन। लिंगमुखीं शीतल घालून। तयाचें कीजें मुखमार्जन। आचमनादिकीं पैं।।५२।। मग आरंभिजें शिवलिंगार्चन। बैसिजें मन आकर्षित करोन। शुद्धासनीं बैसून। करावें ध्यान शिवाचें।।५३।। आधी लिंगासीं विभूति अवधरिजे। बोटीं शेष उरले ते मस्तकीं लाविजे। मग त्रिपुंड्र चर्चिजें। ललाटभरी।।५४।। परि तें मंत्रीं शुद्धि करून। ऊध्र्वमुखीं ललाटीं लावून। गंध धूप दीप नैवेद्य निवेदून। घंटासंयुक्त कीजे।।५५।। शंख चवरे दर्पण। आणिकहि जें पूजेचें भूषण। तें तें समुदाय घेऊन। लिंगार्चना पैं कीजे।।५६।। ऐसी लिंगाची पूजा त्रिकाळ। जो करी सद्भावें होऊन निर्मळ। जाणावें शुद्ध भक्तिस्थळ। उत्तम साच तें।।५७।। ते त्रिकाळ म्हणशील कोण कोण। प्रात:काळीं उदय होतां अरुण। ते काळीं कीजें लिंगार्चन। तैसेचि मग माध्यान्हीं।।५८।। चांदणी निघाली नसतां। आणि सूर्य अस्तमान होतां। त्या सायंकाळीं लिंग पुजतां तत्त्वतां। यया त्रिकाळीं लिंगार्चन होय।।५९।। ऐसें त्रिकाळ लिंगार्चन। वरी शुद्ध शुचि पाक करून। लिंगासीं कीजें निवेदन। न देखतां भवि।।६०।। स्नान केल्याविणे स्वयंपाक। केलिया अनाचार पातक। घडें ऐसें शास्त्रादिक। सांगती धर्मग्रंथीं।।६१।। स्त्रिया शुचिर्भूत असाव्या सदा। भविस्पर्श करू नये कदा। जरी संसारीं असे आपदा। तरी आचारां सोडूं नये।।६२।। स्वधर्माचारें वर्ततां। इंद्रसंपत्ति ये हातां। खोटें नाहीं हो सर्वथा। स्वधर्मनिष्ठा श्रेष्ठ।।६३।। पाक झालिया पात्रशुद्धि। करावी भस्मधारणेआधी। जंगम पंक्ति सत्यविधि। भोजनालागीं असावा।।६४।। लिंगपूजा होतां क्षणीं। नैवेद्य अर्पण मंत्रेंकरूनि। लिंगार्पित प्रसाद मानूनि। ग्रहण करी सदा।।६५।। वीरशैवाघरींचें अन्न। पवित्र असें परिपूर्ण। तयाचा अंश घरांतून। बाहेर कदा न जावा।।६६।। यास्तव तयाचा स्पर्श। घेतां देतां जेवितां विशेष। आसन-वस्त्रां अंगां लेश। लागूं देतां दोष घडे।।६७।। ऐसी क्रिया लिंगधर्मीं। पाळी तो विशेष मर्मीं। तयाची वाढतसे नित्य लक्ष्मी। क्रमानें।।६८।। भवि देखतां शिवातें अर्पण। न कीजें ऐसें नीलकंठीचें प्रमाण। म्हणोनि भविसंग त्यागोन। भक्तिमार्गी वर्तिजें।।६९।। ऐसा शिवार्चनाचा नेम। तेंचि भक्तस्थळ उत्तम। परि भवि म्हणावें कवण तो नेम। ऐक वो देवी।।७०।। ज्यासीं पंचकलश दीक्षा नाहीं। तीर्थप्रसाद तो नेणेंचि कांहीं। तोचि भवि पार्वती पाही। गुरुविण नांदे म्हणोनि।।७१।। त्याचा संग त्यागावा। शिवमंत्र नाहीं म्हणोनि बोलावा। तोचि प्राणी भवि म्हणावा। अनंत जन्माकारणें।।७२।। म्हणोनि धन्य ते शिवभक्त। जे झाले गुरुकरजात। आणि भविसंग न करीत। शिवभक्त शुद्ध ते।।७३।। वीरशैव सदाचार स्थिति। जाणे तो एक जंगममूर्ति। जनां संस्काराची स्फूर्ति। प्रगट कीजे सत्वर।।७४।। ऐसे जे भक्त असती। ते माझे मुकुटमणि वो पार्वती। तो आत्मा मी देह ऐसी प्रीति। भक्ताची मज।।७५।। ऐसें भक्तिस्थळ उत्तम। तुज निरोपिलें जाणोनि तुझें प्रेम। ऐसें आचरे तेंहि वर्म। तुज दाखविलें वो देवी।।७६।। ऐकोनि भक्तस्थळ पार्वती। पूर्ण संतोषली चित्तीं। मग नमस्कार करोनि पुसती। झाली कांहीं आणिक।।७७।। वीरशैव सदाचार स्थिति। जाणे तो एक जंगममूर्ति। जन्मसंस्काराची स्थिति। प्रगट कीजे सत्वर।।७८।।
गर्भाधानं पुंसवनं सीमंतं जातकर्म च।
तथा दीक्षाप्रभावेन लिंगनिष्ठा भवेद् ध्रुवम्।।९।।
गर्भाधान हा संस्कार। सर्वांसींच असावा साचार। त्याचा न करावा अनादर। पंचाचार विधीनें कीजे तो।।७९।। हाचि जाणावा संस्कार प्रथम। दुजा तो डोहाळे इच्छा काम। तिसराहि पुण्य पराक्रम। जननापूर्वी होतसे।।८०।। चौथा तो जातकर्म जाण। जन्मकालीं लिंगधारण। ऐसें शास्त्र बोलें वचन। वीरशैवधर्माचें।।८१।। ऐसे हे चार गर्भसंस्कार। वीरशैव धर्माचे प्रकार। तया धर्माध्यक्ष वारंवार। श्रुत करी लिंगायतां।।८२।। नामकरण बारावे दिवशीं। उत्साहेकरोनि बालकासीं। नांव ठेवणेंचि अनायासी। आप्तगोत्रां कळावया।।८३।। अन्नभक्षणाचा विधि। धर्मनीति दिनशुद्धि। पाहूनिया उदय संधी। ग्रह शुभ स्थानासीं।।८४।। उपनिष्क्रम म्हणती। जेथें असे ती परमभक्ति। शिशूसीं चालावयाची शक्ति। आणूं पाहती आवडी।।८५।। चौल संस्कार आठवा। देहस्थितीचा मानावा। सुखदु:खाचा वानवा। कळतसे तेणें पैं।।८६।। सर्व संस्कारांचा राजा। जयाचेनि योगें शिवपूजा। करितां घडे पुण्यकाजा। स्वधर्मनिष्ठा ती।।८७।। दीक्षासंस्कारावांचून। लिंगायतचि नव्हे जाण। ज्ञातिधर्माची असे खूण। सत्य जाण पार्वती।।८८।। लिंगायतां हा संस्कार। लागू असे शास्त्राधार। तयावांचून क्रियाचार। शुद्ध नसे साक्षिपें।।८९।। जंगमदीक्षा असे दुसरी। अगाध असे तयेची थोरी। महेश्वरी अधिक तिसरी। वंद्य देख देवादिकां।।९०।। या दोही दीक्षा जाण। गुरुपदाचें भूषण। स्वधर्माचा अभिमान। जेणें राहे सत्य पैं।।९१।। म्हणोनिया धन्य ते भक्त। जे झाले गुरुकरजात। तेचि वीरशैव सद्भक्त। अन्य धर्मांवेगळे।।९२।। येथें झाले नऊ संस्कार। पुढें विवाहाचा होय प्रकार। गोत्र सूत्र वधु कुलाचार। पाहोनिया योजावा।।९३।। हे ऐसे दश संस्कार। तयापुढें धर्म पर। सांगोनि अंतीं विचार। मुख्य संस्कार हे।।९४।। याचे परि उपसंस्कार। षोडश संख्या समग्र। त्याचा विधिमंत्र फार। लिहिला असे धर्मशास्त्रीं।।९५।। ते पाहून लिंगधारी। सर्व विधि प्रेमें करी। असत्य मानी तो भिकारी। जन्मोजन्मीं होईल।।९६।। जो याच नेमें जाणे स्वधर्म। कदा न होय तया चिंताभ्रम। सावधान आणि सप्रेम। निष्ठा असे धर्मावरी।।९७।। यावरील संस्काराचे मंत्र। महाशुद्ध आणि पवित्र। तयावेगळे स्वतंत्र। दुजे मंत्रचि नसती।।९८।। हे मंत्र उपाचार्यमुखीं। वसती सदा पुण्यश्लोकीं। त्यावेगळी मिरवी शेखी। तया अज्ञान मानावें।।९९।। उपाचार्यें आपुलें कर्म। सांभाळावें मुख्य धर्म। तयांचें मंत्रापासीं प्रेम। सर्वकाळ असावें।।१००।। उपाचार्य जंगम असती। ते लिंगायताप्रति पाळिती। आचारधर्माची काळजी वाहती। सावरिती वेळोवेळीं।।१०१।।
देव्युवाच-
जंगमस्य कथं रूपं जंगमस्य च के गुणा:।
जंगमस्य च के भेदा ब्रूहि मे परमेश्वर।।१०।।
पार्वती पुसे शंकरासीं। जंगमाचें रूप निरोपा मजसीं। जंगम म्हणावें कवणासीं। कैसा लक्षणभेद त्याचा।।१०२।। कैसें आचरण कोण स्थिति। कैसी नीलकंठी कोण वृत्ति। ते निरोपा कैलासपति। आवडी माझिये।।१०३।।
शिव उवाच-
ज्ञानं जंगमरूपं स्यात् सोपाधिनिरुपाधिकम्।
भक्तप्राणसमायुक्तं एतज्जंगमलक्षणम्।।११।।
सदाशिव म्हणे मेनके ऐक। जंगमाचें रूप ज्ञान एक। ज्ञानावांचून आणिक। शोभेचिना।।१०४।। ज्ञान म्हणसी ते कोण। तरी वस्तूचें जाणपण। जाणोनि स्वयेचि झाला आपण। तोचि जंगम जाणिजे।।१०५।। वस्तु होवोनि सदा असत। सदा शिवानंदें डुल्लत। करी ना तो करवीत। कर्ता ना अकर्ता तो।।१०६।। मीतूंपणाचा भास तयासीं। नु-हेचि कोणे काळेसीं। उपाधिनिरुपाधीसीं। विरहित तोचि जंगम।।१०७।। तो स्वतंत्र विधीनें असे। कोणाआधीन तो नसे। गुरुबुद्धिविण कांहीं करीतु नसे। तोचि जंगम उत्तम।।१०८।। तोचि गुरु मोक्षदाता। मोक्षहि होय पायां लागतां। न मानी तो सर्वथा। श्लाघ्यता कांहीं।।१०९।। मुक्त म्हणिजे सुटिला। बद्ध म्हणिजे बांधिला। जो मुळीच बांधिला नाहीं त्याला। सुटला म्हणावें काई।।११०।। कां जो बंधमोक्षातीत। वस्तुरूपचि असे साक्षिभूत। वस्तूसीं बंध मोक्ष म्हणता संत। हासती ऐकोनिया।।१११।। तो स्वयें स्वरूपचि होओन। असे निर्विकल्प निर्गुण। निराश निजभरित निर्वाण। तोचि जंगम उत्तम।।११२।। तो ध्येय-ध्याता-ध्यानासीं। अतीत ज्ञेय-ज्ञाता-ज्ञानासीं। भोक्ता-भोग्य-भोगासीं। विरहित जंगम।।११३।। कर्ता-कार्य-कारणासीं। अतीत दृश्य-द्रष्टा-दर्शनासीं। सत्त्व-रज-तम त्रिगुणांसीं। विरहित तो जंगम।।११४।। ऐसा जंगम तो वीरशैव। तोचि भक्ताचा सगुण जीव। न धरी कदापि द्वेषभाव। स्वधर्मीं जनां तारक।।११५।।
अंगमिश्रितमाचार आचार: प्राणमिश्रित:।
तत्प्राणमिश्रितं लिंगं लिंगं जंगममिश्रितम्।।१२।।
अंग आचारासीं मिश्रित असें। आचार प्राणासीं मिश्रित वसे। प्राण तो लिंगासीं आश्रित असे। लिंग जंगमीं मिश्रित।।११६।। एवं परस्पर येरयेरांस। मिश्रित होओनि असती समरस। येणें विधि वर्ते जो गुरुरूप त्यास। बोलिजें शुद्ध जंगम।।११७।।
कामक्रोधविनिर्मुक्तो लोभमोहविवर्जित:।
सर्वसंगपरित्यागी सर्वश्रेष्ठस्तु जंगम:।।१३।।
कामक्रोधादि विरहित। मोहदंभासीं अतीत। सर्व संगासीं विनिर्मुक्त। तोचि जंगमश्रेष्ठ बोलिजें।।११८।। आतां कामक्रोध कोण्या रीति। लोभ मोह कवणां म्हणती। त्याग म्हणिजे कोण स्थिति। जाणोनि मग त्यागिजे।।११९।। काम तो बहुतांपरी असे। एक काम स्वर्गसुख मानसीं वसें। स्वर्गांगनाभोग अमृतपान असे। त्यासाठीं कामीं लुब्धती।।१२०।। एक काम राज्यादि भोगासीं। इच्छिताती गजान्त लक्ष्मीसीं। एक पाताळादि भोगासीं। इच्छितो काम।।१२१।। एक काम विषय-इच्छा धरी। वरपडा पडे दाही विषयांवरी। एक काम फळ-इच्छा अंतरीं। पुढें भोगूं म्हणोनि।।१२२।। येणेंपरी काम असें बहुतांपरीसीं। त्यानें नाडिलें थोरथोरांसीं। तया त्यागून जो राहे त्यासी। शुद्ध जंगम बोलिजे।।१२३।। स्त्रीकाम महाबाधक। त्यातें त्यागितां असें महासुख। त्या कामासीं भिती ब्रह्मादिक। दुर्धर म्हणोनि।।१२४।। यालागीं धन्य त्याचें जाणपण। जेणें सर्व काम टाकिलें थुंकून। तोचि एक जंगम जाण। शिवाचारासीं तारक।।१२५।। ऐक क्रोधाची खूण। बरवेपण पराचें देखून। वाटें करावें तयाचें नाशन। त्या नांव क्रोध जाणिजें।।१२६।। इच्छिलें काम पूर्ण न होतां चित्तें। महा चरफडीचें यें भरतें। शुद्ध क्रोध म्हणो तयातें। कामाचा पुत्र क्रोध तो।।१२७।। कामाचा होता हरास। तरी ठाव नुरेचि क्रोधास। त्यां दोहीसीं अतीत जो त्यास। शुद्ध जंगम बोलिजें।।१२८।। लोभें लोभोनि मोहित। मोहिलें नुखळें चित्त। लोभें स्त्रीबाळें समस्त। आपुली म्हणूनि मोहिला।।१२९।। बरवा पदार्थ देखोन। तेथें लोभ मोह न धरोन। जो निरपेक्ष सत्यशरण। तोचि लोभमोहातीत।।१३०।। तो वरपडा नव्हे षड्विकारावरी। दर्शनमानें फुगारा न धरी। माझें तुझें भेदासीं अंतरीं। थारा नेदीच तो।।१३१।। विषयातें विष मानी। स्वर्गादि सुख तुच्छ गणीं। स्वयें गुरुरूपचि होवोनि। असे तो उत्तम जंगम।।१३२।। कोणासीं न करी कचकच। कोणासीं न बोलें उच्चनीच। लटिके त्यागूनि वदे साच। तो उत्तम जंगम।।१३३।। कुचेष्टा कुचाळी। न करी कदा रळींरांगोळीं। कुवाक्यें कोणां न सळीं। तोचि उत्तम जंगम।।१३४।। जो परजीवाची न करी हिंसाŸ। परनिंदा न करी कांहीं आशा। परस्त्रिया मानी मातेशा। तोचि जंगम उत्तम।।१३५।। तो निर्मळ तरी कैसा। पाताळगंगेचा ओघ जैसा। राव रंक जया सरिसा। तोचि उत्तम जंगम।।१३६।। तो परमानंदभरित। कधीं नाहीं हकहकित चित्त। कोणासीं न परिहासित। तोचि जंगम उत्तम।।१३७।। सहजस्थिति तेणें असणें। भक्तीविना न राहणें। परापेक्षा घेणें देणें। तोचि जंगम उत्तम।।१३८।। सर्व त्यागूनि विरक्त असणें। अन्नवस्त्रां लोलुप नसणें। वैराग्यवृत्ति सदा राहणें। जंगमोत्तमाचे।।१३९।। सर्व त्यागावें हें श्लोकीचें पद। तरी काय त्यागावें ऐक भेद। सर्व दोषांचा उपडिजें मूळ कंद। अहंकार तो।।१४०।। एकला अहंकार त्यागितां। सर्व त्यागिले होय तत्त्वतां। जेवि मुळीहूनि वृक्ष उन्माळितां। शाखापल्लव उन्माळिलें।।१४१।। तेवि अहंकार त्यागितां सर्व। त्यागिले होय भवभाव। तोचि जंगम जाणिजें देवाधिदेव। आम्हांसीं वंद्य तो देवी।।१४२।। त्याचें दर्शन स्पर्शन। जरी घडें संभाषण। तरी भक्ति मुक्ति वोळंगे अंगण। कल्पांतवरी।।१४३।। तो पाहे जयाकडे कृपादृष्टीं। तरी होय तया आनंदाची सृष्टी। स्वानंदां चढे पुष्टी। उठाउठीं तत्काळ।।१४४।। त्याची भेटी व्हावयासीं। कांहीं पुण्य असावें गाठीसीं। पुण्यावांचून न भेटें कवणासीं। सत्यशरण तो।।१४५।। पदरीं कांहीं पुण्याची असेल जोडी। तरीच जंगमलिंगीं होय आवडी। अन्य तो जाणावा कबाडी। संसारीं बद्ध तो।।१४६।। सुखपदार्थ दृष्टीं देखोनि। त्याची इच्छा करी लोभ धरोनि। कीं कुकर्मासीं आश्रय देऊनि। वर्ते त्या जंगमां सोडावें।।१४७।। स्वत: न पाळी शास्त्रनीति। सांगे तया विपरीत बोलती। अधर्में कुळें नरका जाती। सत्य जाण वो देवी।।१४८।। स्वधर्माची जो करी निंदा। स्वकर्णें ऐके मुदां। प्रत्युत्तर न देत कदा। जंगमवंश नव्हेचि तो।।१४९।। ज्ञाति जंगम असून। जो न धरी स्वधर्माभिमान। तो श्वान-शूकरयोनी जाण। भोगी देवी कल्पवरी।।१५०।। जो अखंड स्वधर्मातें। प्रतिपादितसे सदर्थें। करी धर्मप्रसिद्धि जगातें। जंगमवंश तोचि जाण।।१५१।। ऐसा आतां जो निरोपिला जंगम। तोचि वीरशैवमार्ग उत्तम। तुझें स्वरूप हें तुझें वर्म। तुज निरोपिलें वो देवी।।१५२।। श्रीशंकरानें पार्वतीप्रति। निरोपिली जंगमस्थिति। ही वीरशैव धर्माची स्तुति। उच्चारिता पुण्य बहु।।१५३।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। शिव-गौरीसंवादीं वर्तत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृत्य मन्मथ।।१५४।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे भक्तमार्गजंगमस्वरूपवर्णनं नाम नवमोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक १३, ओव्या १५४.
(संगणकीय अक्षरलेखन : सौ. उषा पसारकर, केतकी फ़ोटो टाईप सेटर्स, सोलापूर)

Friday, 10 January 2014

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य अध्याय आठवा

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी
संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित
परमरहस्य

अध्याय आठवा
।। श्रीगणाधिपतये नम:।।

 
सप्तमीं निरूपिली वस्तुकळा। जी अतक्र्य ब्रह्मादि सुरां सकळां। तिचें परमगुह्य दयाळा। श्रवण केलें सादर।।१।।


देव्युवाच-
बाह्यांगे दृश्यते लिंगं प्राणो देहस्य मध्यत:।
कथं प्राणस्य लिंगेन संबंधो भवति तद्वद।।१।।
पार्वती विनवी जी त्रिपुरारी। लिंगासीं देह मिश्रित कवणेंपरी। प्राण असे देहाभीतरीं। तो देहासीं मिश्रित कैसा।।२।। लिंग देह प्राण तिन्ही। येरयेरासीं मिश्रित होवोनि। कैसे असती जी शूलपाणि। तें निरोपा मज।।३।।
शिव उवाच-
यथा प्राणस्य संबंधो विद्यते इंद्रियै: सह।
व्याप्यव्यापकभावेन सलिले पावको यथा।।२।।

जैसा प्राणलिंग सिद्ध झाला। तो सर्वेंद्रिय व्यापूनि राहिला। व्याप्य-व्यापकत्वें देहीं भरला। जळीं अग्निसम पैं।।४।। जैसें जळ उष्ण होय अग्नीसंगें। तैसें देह मिश्रित लिंगार्चनयोगें। प्राण तरी सहज अंगे। एकचि असे।।५।। तरी लिंगासीं देह मिश्रित कोणेपरी। पूर्वील देहबुद्धि अव्हेरी जरी। दाही इंद्रियें लिंगार्चन करी। अखंड लाविजें।।६।। ऐसी ज्याची सर्व संबंधे तुटली। त्याची लिंगकळेसी बुद्धि बांधिली। तया प्राणलिंग पदवी आली। तो अंश होय माझाचि।।७।।
घटमध्ये स्थितं तोयं वन्हिर्ज्वलति बाह्यत:।
वन्हिज्वालासुसंयोगात् उष्णं भवति वार्यपि।।३।।

जळ तरी घटामाजीं असे। अग्नि तो बाहेरीच दिसे। परि घटाग्निसंयोगें होत असें। जळ तप्त।।८।। घट तप्त होतां जळ तप्त। मग तिन्हीहि अग्निरूप होत। एकमेकांचें संयोगें मिश्रित। होती तात्काळ पैं।।९।। तेवि सत्क्रिया आणि लिंगार्चन। करिती गुरुत्वें पूजन। लिंगसंगें देह झाला लिंगरूप जाण। मग भेद कैंचा।।१०।। लिंगसंगें देह एक होतां। देहसंगें सहज प्राणऐक्यता। एवं देह प्राणलिंग एकरूपता। गुरुकळा बिंबे।।११।। ऐसे तिन्ही भावें करी एकार्चन। तोचि भक्त शिवाचारसंपन्न। अथवा जंगम झाला तरी भजन। येणेंचि भावें करावें।।१२।। इष्ट प्राण भाव जाण। लिंगरूपाची मुख्य खूण। गुरुमंत्रातें आठवून। पुजितां पुण्य विशेष।।१३।। जो ऐक्यभावें न करी पूजन। जरी भाव धरी भिन्न भिन्न। तरी तो भक्त असे परि जाण। पूजा त्याची निर्फळ।।१४।। सांडोनिया लिंगार्चना। जो करी आन देवतापूजना। तो शिवभक्त नोव्हे त्याचिया वदना। अवलोकूं नये।।१५।। आणखी सांगतो सोय एक। शिवलिंगपूजा न सोडावी देख। प्राणहानी झाली तरी नेमिक। व्रत न सोडावें पूजेचें।।१६।। लिंगपूजा सोडूनि मानव। जरी भोगी राज्यवैभव। तोहि पावे नरकार्णव। प्रायश्चित्ताकारणें।।१७।। जो सर्व देवांसीं असे श्रेष्ठ। सर्व ऋषिमुनींसीं वरिष्ठ। तो लिंग हृदयीं असोनि नष्ट। आन देवतांसीं पुजितो।।१८।। ज्यासीं हरि विरंचि ध्याती। हरीनें नयन वाहिलें जयाप्रति। तो इष्टलिंग हृदयीं असूनि पुजिती। देवतांतरा मूढ।।१९।। गण-गंधर्व-इंद्रादिकांसीं। वरिष्ठ शेष-कूर्म-वराहासीं। तो शिव सांडोनि देवतांतरांसीं। भजे तो मूर्ख जाणावा।।२०।। शिवभक्त म्हणविणें। परि शिवासीं न पुजणें। तरी निरयासीं जाणें। क्रियाभ्रष्ट म्हणोनिया।।२१।। थोरीव मिरवी शिवाचाराची। क्रिया राहटे आणिकाची। व्यभिचारिणी सेवा करी पतीची। परपुरुषीं जावया।।२२।। आपुला आचार सांडून। पर-आचारीं वर्ते रात्रंदिन। श्वान-सूकरयोनी जाण। भोगील कल्पवरी।।२३।। आणखी सांगणें तुज एक। कुलवधूची रीति देख। प्राण गेलिया न पाहें मुख। परपुरुषाचें।।२४।। सति पति सदाचारें वर्तती। तैसीच वीरशैवधर्म स्थिति। एकनिष्ठें भजावी लिंगमूर्ति। दुजी भक्ति दोषिक।।२५।।
अंतऱ्ज्ञान क्रियाबाह्यं एकीभावं भवत्यपि।
यथा कुंभोदकं तप्तं भवत्यग्निप्रभावत:।।४।।

यालागीं आपुली क्रिया न सांडिजें। गुरुकृपें ज्ञान साधिजें। ज्ञान आंतरबाह्य क्रिया कीजे। बरवी निपुण।।२६।। अंतरीं ज्ञान बाहेर क्रिया। दोन्ही एकचि झालिया। मग कैंचा प्रपंच कैची माया। तया सत्य शांत शरणांतें।।२७।।
यथा कुंभजलं देवि दह्यते अग्निवेधत:।
तथा ज्ञानक्रियावेधाद्देहो लिंगमयो भवेत्।।५।।

बाह्य क्रिया अंतरीं ज्ञान। दोहीचें कैसें होय एकपण। तयासीं दृष्टान्त देईन। तो परिस देवी।।२८।। अग्नि तरी असे बाहेरी। जळ असे घटाभीतरीं। घट तप्त होय अग्निकरी। तंव जळ तप्त होय।।२९।। तेवि क्रिया करितां निपुण। इष्टलिंगां करितां अष्टविधार्चन। एवं क्रियायोगें देह प्राण। लिंगकळा पावती कीं।।३०।। यालागीं स्वक्रिया न सांडावी। गुरुकृपें अंतऱ्ज्ञानकळा धुंडावी। ऐसी एकविध भक्ति होआवी। वीरशैवीं निश्चळ।।३१।।
शिवप्रसादसंपत्त्या जातनिर्मलदेहिनाम्।
पंचेंद्रियप्रवृत्ति: स्यात् पंचतनुप्रतर्पणम्।।६।।

प्राणाची मलिनता गेलियाविण। प्राणलिंगीं लिंगकळा न ये जाण। म्हणोनि दश इंद्रियें दमून। स्वाधीन ठेविजें।।३२।। प्राणाचें भोक्तव्य असें जें जें। तें आधी लिंगासीं अर्पिजें। मग आपण आरोगिजें। ऐसा नेम असावा।।३३।। यापरी क्रिया आचरण। हें प्राणलिंगीचें लक्षण। क्रिया आणि ज्ञानाविण। न पावे मोक्षमार्ग।।३४।। ऐसे पूर्व अवगुण जातां सहज। प्राणलिंगकळेचें प्रकाशेल तेज। मग देह होय प्राणलिंगी सहज। लिंगलक्षण अंगां ये।।३५।। तें कैसें म्हणसी तरी ऐक। ईश्वराचीं जीं पंचमुखें नेमक। पंचेद्रियें अर्पिजें सुख। जें जें होईल तें तें।।३६।। येणेंपरी क्रिया आचरण। होतां सहजचि प्राणलिंगां अर्पण। म्हणोनि क्रिया ज्ञान उभयांविण। न साधे वस्तु।।३७।। क्रियाहीन ज्ञानेकुन। वस्तु साधू म्हणती अज्ञान। अथवा क्रियेनेंचि साधू ज्ञानेविण। भाविती तेहि मूर्ख।।३८।।
न क्रियारहितं ज्ञानं न ज्ञानरहिता क्रिया।
उभयोर्योग एवास्य जन्तोर्बंधनमोचक:।।७।।

क्रियेविण न शोभें ज्ञान। ज्ञानेविण न शोभे क्रिया जाण। म्हणोनि दोहींसीं अनुलक्षून। वर्तिजें भावें संसारीं।।३९।। जैसें प्रकृति पुरुष दोन्ही। एकचि मतें होऊनि। सृष्टिकर्म अनुदिनी। चालविती तैसें हें।।४०।। क्रियेविण ज्ञान दुर्बल। ज्ञानाविण क्रिया निर्फळ। उभययोग होतां प्रबळ। वस्तु येत निजहातां।।४१।। यासीं दृष्टान्त सांगतसे एक। जेणें संदेह फिटे देख। आपले मनीचा संकल्प। सुटोनि जाय तत्क्षणीं।।४२।।
प्रदीप्तपावके देशे अन्धपंगुसुसंगतौ।
परस्परसहायेन दु:खान्मुक्तौ बभूवतु:।।८।।

एक अंध एक पंगु तत्त्वतां। उभय एका स्थळीं असतां। तेथ अनल लागला तत्त्वतां। तो देखिला पंगूनें।।४३।। पंगु तें ज्ञान जाणें डोळस। अंध तो क्रिया करी दृष्टी नाहीं त्यास। परि पंगूनें देखिलें अग्नीस। गृह जळतां।।४४।। परि क्रिया-पायाविण अडला। तेथून न निघवे सुखस्थळाला। मग अंधासीं विचार मांडिला। पंगूनें कैसा।।४५।। पंगु म्हणे अंधालागूनि। काय निश्चिंत अससी गृहीं लागला अग्नि। आतां मी तूं एक होवोनि। जाऊं निघोनि वेगेसीं।।४६।। पंगु म्हणें अंधालागून। मी तुझे खांदीं बैसोन। जिकडे जिकडे मार्ग दावीन। तिकडे तिकडे चालावें।।४७।। हा विचारु जरी न कीजें। तरी दोघेहि जळोन जाईजें। एकेविण एक न पाविजें। सुखस्थळातें।।४८।। तंव ते दोघे एक होऊनि। पावले गुरुकृपें सुखस्थानीं। तेवि ज्ञान क्रिया एकपणीं। वस्तु पाविजे वो देवी।।४९।। यालागीं येरयेराविण। स्वहित साधू म्हणती तें अज्ञान। न प्रकाशें चैतन्यघन। कल्पांतीहि पार्वती।।५०।। तेलवातीविण कैसे प्रकाशे ज्योती। वाद्ये वाजविल्याविण नाद काय उमटती। मेघभूमीविण निपजती। धान्यबीज काई।।५१।। यालागीं क्रिया-ज्ञानाविण। न प्रकाशें चैतन्यघन। म्हणोनि न विसंबती सज्ञान। उभयांसीं जाण पां।।५२।। दोही पंखांविण पक्ष्यासीं। न उडवे जेवि आकाशीं। तेवि क्रिया-ज्ञानेविण वस्तूसीं। न पाविजे कदा।।५३।। शतयोजन एक पक्ष असे। तरी पक्षी उडो लाहे काय कैसे। तेवि ज्ञान अथवा क्रिया एकचि असे। तरी तो तरे काई।।५४।। म्हणोन ज्ञान क्रिया दोहीविण। न तरे पार्वती सत्य जाण। दो पक्षांविण उड्डाण। न घडें पक्ष्यासीं।।५५।। क्रियाकर्म बरवे करिती। परि वस्तुज्ञान नेणती। तरी ते सरते न होती। शिवस्वरूपीं।।५६।। अथवा ज्ञान वस्तूचें बरवें जाणती। आणि क्रियाकर्म न करिती। तरी तेहि न तरती। म्हणोनि दोन्ही युक्त असिजें।।५७।।
गवां सर्पिशरीरस्थं न करोत्यात्मपोषणम्।
विकृतं कर्मरचितं पुनस्तासां तु भेषजम्।।९।।

गाईचें जें दिव्य घृत। अप्रत्यक्षपणें तियेचें शरीरीच वर्तत। परि ते पोषण न करी यथार्थ। तया गोदेहाचें।।५८।। दोहन करोनि दुग्धाचें। अग्निसंगें तापवून तयाचें। विरझण घालावें साचें। मग दधि होय पैं।।५९।। दधिमंथनेकरून। नवनीत बाहेर ये निघोन। तें कढवितां परिपूर्ण। घृत हातां येतसें।।६०।। तें घृत देतां गाईस। परित: पुष्टी करी तियेस। औषधरूप आले देहस्थ घृतास। क्रियेचेनि योगें।।६१।। शुद्धकर्म ती गाय जाण। तिचें भरणपोषण करून। बुद्धिविवेकें घेईजें दोहून। क्षीर तियेचें।।६२।। तें क्षीर लक्ष लावून ताविजें। निश्चयार्थ विरझण घालिजें। मग तें विवेकें घुसळिजें। निज नवनीत हातां।।६३।। तेंहि ताविजें स्वानुभवेकरून। मग तें घृत चिदानंदघन। तें दिनेंदिनें करीत आरोगण। पुष्टी चढे अनुपम्य।।६४।। नातरी घृत घेऊनि त्यागितां गाईसीं। मग घृतलेश कैसा येर दिवशीं। ऐसें न करावें करितां निजसुखासीं। मुकिजेल सत्य पैं।।६५।। ऐसी क्रिया घृतदात्री कळली। तीस विसंबूं नये पाहिजे पाळिली। मग दिनेंदिनें घेईजें नव्हाळी। निजघृताची।।६६।। घृत नासे कांहीं काला। अक्रिय ज्ञान तैसें बाळा। दुर्गंध सर्पीचा कंटाळा। तैसें जाण ज्ञान तें।।६७।। म्हणोनि नित्य गाईचें दोहन। तद्घृतेंचि होय शुद्ध अन्न। बहु दिवसाचें करवी वमन। तेवि ज्ञान अक्रियेचें।।६८।। यास्तव एका ज्ञानेंकरून। न होय सत्य योगसाधन। क्रिया आचरतां निर्वाण। विज्ञान येई हातां।।६९।। ऐसी क्रियेची आहे थोरी। केवळ ज्ञान न करी बरोबरी। क्रिया ज्ञान होतां एकसरी। विज्ञान प्राप्त।।७०।। विज्ञान तें कैसें ऐक। जेथ खुंटला विवेक। चिद्रूप ब्रह्म नैष्ठिक। स्वस्वरूपीं बिंबलें।।७१।। तेणें बाणें पूर्ण समाधान। अन्य विद्येमाजीं असे अभिमान। जेणें गर्वित करी भाषण। तें ज्ञान निंद्य जाणावें।।७२।। यालागीं प्रामाणिक क्रिया करिजें। मग सम्यक् ज्ञान होईल सहजें। दोहीविण कदापि न होईजें। प्राणलिंगसंबंध।।७३।।
देव्युवाच-
स्थावरं केन संमिश्रं जंगमं केन वा पुन:।
संबंधो ब्रूहि मे देव कृपया भूतभावन।।१०।।

पार्वती प्रश्न करीतसे। स्वामी स्थावर जंगम मिश्रित कैसे। हें निरोपावें प्रकाशें। ज्ञानाचेनि।।७४।।
शिव उवाच-
भक्तो माहेश्वरश्चैव प्रसादी स्थावरं भवेत्।
प्राणलिंगी शरण्यश्च लिंगैक्यो जंगमस्तथा।।११।।

तंव शंकर म्हणे गिरिजे। साही स्थळ जें बोलिजें। तें तीन तीन वाटणी म्हणिजे। स्थावर जंगम।।७५।। तें षट्स्थल म्हणसी कोण। भक्त माहेश्वर प्रसादी जाण। ते तिन्ही मिश्रित होऊन। स्थावर बोलीं बोलिजें।।७६।। प्राणलिंगी शरण ऐक्य जाणिजें। हे तिन्ही मिश्रित जंगम बोलिजें। येणेंचि परी षड् लिंग वोजें। मिश्रित स्थावरजंगमीं।।७७।।
आचारं गुरुलिंगं च स्थावरं शिवलिंगकम्।
चरलिंगं प्रसादं च महालिंगं च जंगमम्।।१२।।

आचार आणि गुरुलिंग। शिवलिंगहि असें स्थावरांग। चरप्रसाद महालिंग। जंगमांगीं वसती सदा।।७८।।
स्थावरं जंगमं चैव द्विविधं लिंगमुच्यते।
जंगमस्यावमानेन स्थावरं निष्फलं भवेत्।।१३।।

स्थावर आणि जंगम। हीं दोन लिंगें उत्तम। परि चरलिंग पूजा नेम। विशेष पुण्याकारणें।।७९।। स्थावरलिंगां संस्कारून। अर्चिती शिवकळा कल्पून। चरलिंग आहे याहून भिन्न। जंगम म्हणती जया।।८०।। स्थावराचे होय जंगम। जंगमाचे स्थावर हा भ्रम। न कळे गुरूवांचोनि वर्म। स्थिर चर काय तें।।८१।। स्थावर जंगम एक तरी न मानिजें। जंगम उदरोनि स्थावर पुजिजें। तरी ते पूजा निष्फळ जाणिजे। भेदवादी म्हणोनिया।।८२।।
स्थावरं जंगमं चैव एकरूपं तु मूलत:।
इति भेदपरिज्ञानं दुर्लभं श्रुणु पार्वति।।१४।।

सव्य वाम दिसती दोन्ही भाग। परि दोन्ही मिळोनि एकचि अंग। तेवि स्थावर जंगम एकचि लिंग। ऐसें जाणें तो दुर्लभ।।८३।। स्थावरजंगमाचीं स्थानें। तुज सांगूं पूर्णपणें। भक्त माहेश्वर प्रसादी जाणें। स्थावरांग जयाचें।।८४।। प्राणलिंगी शरण आणि ऐक्य। हें माझें सर्वदा प्राणाधिक्य। तयावेगळा मी राहणें अशक्य। ते जंगमरूप जाणावें।।८५।। ही माझी आत्मशक्ति। मी तुज सांगितली समूळ युक्ति। तैसीच आचरावी पार्वती। तरीच योग्य भक्त तो।।८६।।
देव्युवाच-
दासोऽहं भावक: को वा सोऽहं भावश्च कीदृश:।
भेदो भावद्वयस्येह ब्रूहि मे परमेश्वर।।१५।।

पार्वती प्रश्न करी सहजें। सोऽहंभाव कोणासीं म्हणिजें। आणि दासोऽहंभाव बोलिजें। कवणासीं पैं।।८७।। या उभयांसीं भेद कांहीं। असे अथवा मुळीचि नाहीं। बरवा अर्थ निरूपिजें लवलाही। कैलासपति देवराया।।८८।।
शिव उवाच-
दासोऽहं भक्तभावश्च सोऽहं भावश्च जंगम:।
भेदो भावद्वयोर्नास्ति प्रकृतिप्रतिबिंबवत्।।१६।।

शिव म्हणे वो पार्वती। तुज निरोपुं भावस्थिति। ते ऐकोन धरी चित्तीं। सावधपणें तत्त्वां।।८९।। दासोऽहं म्हणिजे भक्तोत्तम। सोऽहं म्हणिजे तो जंगम। या उभयां भेद नाहीं हें वर्म। गुरुमुखें जाणिजें।।९०।। बिंब आणि प्रतिबिंबासीं। जैसा भेद नाहीं दोहोसीं। तैसा भक्त आणि जंगमासीं। भेद नाहीं वो देवी।।९१।। मीचि भक्त मीचि जंगम जाण। आपुलिया सुखालागीं झालो दोन। परि भंगलें नाहीं एकपण। जाणती खूण ज्ञानी ते।।९२।। सोनें भूषणपणा आलें। तरी काय सोनेपण भंगलें। तैसें देव भक्त होवोनि ठेलें। माझें स्वरूप।।९३।।

सोऽहं दासोऽहंमाख्यातं केवलं नामभेदत:।
वस्तुभावद्वयं नास्ति प्रतिqबबसमं मतम्।।१७।।
सोऽहं दासोऽहं हें केवळ नामचि दोन। जैसे बिंब प्रतिबिंब असती अभिन्न। तैसें देव-भक्तां नाहीं दुजेपण। देहीं आत्मा जैसा।।९४।। म्हणोनि भक्त माझा आत्मा जाण। भक्त असे माझें हृदयींचें ध्यान। भक्त माझें जीवाचें जीवन। जाणावी खूण पार्वती।।९५।। मज ईश्वरा ईश्वरपण। तें भक्तेंचि दिधलें जाण। मी मिरवतो दैवतपण। तें भक्तांचेनि योगें।।९६।। मज भक्तांचेनि येथें असणें। भक्तांचेनि योगें माझें जिणें। मी भक्तांचेनि महिमानें। श्लाघ्यतु असे।।९७।। भक्तांचेनि मज भूषणें। भक्तांचेनि मज लेणें नेसणें। भक्तांचेनि आज्ञावचनें। मी वर्तत असे वो देवी।।९८।। भक्तांचेनि कार्यगुणें। मज निराकारां आकारणें। मी निर्गुण परि गुणासीं येणें। भक्तांचि लागीं।।९९।। मी भक्ताचे प्रीतिभक्तीपायीं। संतोषोनि तुजहि देवी पाही। रावणासीं देतां मागें पुढें कांहीं। पाहिलें काय म्यां।।१००।। नाना भक्ताची मज अत्यंत प्रीति। म्हणोनि तुज भक्ताचे हातीं। देतां भिन्न भाव चित्तीं। मज न उपजेचि।।१०१।। मी प्रसन्न होतो भक्तातें। भक्त फिरोनि पडती मातें। परि मी घातपात त्याते। विचारीत नाहीं।।१०२।। तुझेचि देखतां पार्वती। मी प्रसन्न झालो भस्मासुराप्रति। तो माझ्याचि मस्तकीं हात ठेवूं पाहे चित्तीं-। विकल्प धरोनि।।१०३।। आपण त्याचा क्षय करावा। कीं मियांचि तयाचा फळभोग भोगवावा। ऐसें विचारून धरिता शांतभावा। स्वगुणेंचि भस्म जाहला तो।।१०४।। येथवरी मज भक्ताची प्रीति। मी सर्वस्वें असे भक्तांचे हातीं। भक्तांवांचून या त्रिजगतीं। प्रिय नाहीं मज अन्य।।१०५।। भक्त माझें ध्येय मी त्यांचा ध्याता। भक्त माझें ज्ञेय मी त्यांचा ज्ञाता। भक्त माझें भोग्य मी त्यांचा भोक्ता। ऐसा पढियंता आम्हां तो।।१०६।। मी त्याचा देह तो माझा आत्मा जाण। तयाचें हृदयीं माझी सेज सुखासन। येराविण येर एक क्षण। न राहो आम्ही।।१०७।। आम्ही भक्तिभावाचे पाहुणे। भक्तीविण नावडती शाहणे। जे फुगती भक्ति-अभिमानें। ते प्रिय न होती मज।।१०८।। करिती माझी भक्ति प्रीति। परि माझिया भक्तां निंदिती। ते नावडती मज जरी प्रीति। निंदकु म्हणोनि।।१०९।। माझी अत्यंत भक्ति करिती। येरीकडे हिंसा करी जीवघातीं। ती भक्ति नव्हे माझिया घाताप्रति। प्रवर्तला तो।।११०।। तरी त्याची भक्ति घडे कैसी। मुखीं घालोनि पंचामृतासीं। मग वरोनि हाणी डांगेसीं। मस्तकावरी।।१११।। माझी अत्यंत भक्ति करी। कामक्रोधासीं थारा अंतरीं। चित्ताचें अनुसंधान विषयांवरी। तरी तोहि नावडे।।११२।। म्हणोनि सांडोनि अभिमान। अखंड माझे करितां अनुसंधान। मग मीचि तो आपण। होऊनि ठाके।।११३।। मी भक्तिभावाचा विकला। मी भक्तिभावें होय जोडिला। भक्ताचे अंकित होय त्याचिया बोलां-। माजीं वर्तत।।११४।। म्हणोनि भक्ता मज वेगळीक। नाहीं दोघे मिश्रित असो एकीएक। अष्ट महासिद्धि दासी त्यांच्या देख। घरी राबती मुक्ति चाऱ्ही।।११५।। मुक्ति राबती हें नवल काई। मी अंगें राबें पार्वती पाही। यापरतें विशेष नवल कांहीं। सांगावें चोज।।११६।। जैसें मृत्युकाळीं अमृत गोड। कीं दुष्काळीं भणंगां मिष्टान्नाचें कोड। याहून भक्तीची मज आवड। अत्यंत गोड वो देवी।।११७।। परि क्रिया शुद्ध असे ज्याची। पूर्ण भक्ति मानूं त्याची। ज्ञान क्रिया उभयाची। मेळणी असावी तेथेंहि।।११८।। ही माझी आत्मशक्ति। मी तुज सांगितली समूळ युक्ति। तैसीच आचरावी पार्वती। तरी योग्य धर्म तो।।११९।। लिंगांगीं धर्म अति सूक्ष्म। क्रियाहि तैसीच तीक्ष्णक्रम। उत्तम धर्माचा हा नेम। कठिणचि जाणिजे।।१२०।। वीरशैवमतां बोधी। इतर धर्माची न लगे उपाधि। शिवतत्त्व सर्वज्ञ संबोधी। असे उत्तम धर्म हा।।१२१।। त्यामाजीं हा परमरहस्य। ग्रंथ उभवी श्रीपरमेश। लिंगाईत धर्माचे अधीश। बोधिती जनां संक्षेपें।।१२२।। हा ग्रंथ अति उत्तम। लिंगभक्तीचा नित्यनेम। तयासाठीं अनुपम। निर्मियलें ज्ञान पैं।।१२३।। जो येथ न धरी विश्वास। त्याचा सदा होईल कार्यनाश। आदरें रूढवी जगास। लिंगभक्ति थोर पैं।।१२४।। शील क्रिया भक्ति धर्म। नम्रपणें वर्ततां विक्रम। परधर्माचा तुटे भ्रम। स्वधर्मांकुर विरूढलिया।।१२५।। स्वधर्माचें करावें मंडन। परधर्माचें होय खंडन। अशी दृढ शास्त्रांतून। वाक्यें शोधून पाहावीं।।१२६।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। ईश्वरपार्वतीसंवादीं वर्तत। त्याचा साद्यंत मथितार्थ। आदरें श्रुत केला मन्मथें।।१२७।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे स्थावरजंगमनिर्णयनिरूपणं नाम अष्टमोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक १७, ओव्या १२७.

Wednesday, 8 January 2014

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य अध्याय सातवा

 संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी
संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित
परमरहस्य
   
अध्याय सातवा
।। श्रीगुरुवे नम:।। 
 
सहावे अध्यायीं संपूर्ण। कथिलें षड्चक्र ज्ञान। पंचाक्षर षडक्षर महिमान। अत्युत्तम वर्णिलें।।१।। षड् लिंगाचे भेद सहा। दाखविले कृपें पाहा। त्यामाजीं चित्हृदगुहां। प्रवेशले स्वभावें।।२।। तेणें वस्तूची लागली गोडी। न उठे दृष्टी झाली वेडी। परात्परां पाहातां थोकडी। बुद्धि वैखरी निमग्न।।३।।
 
देव्युवाच-
किंवा वस्तु कथं जातं ग्राह्यं वा केन तत्पुन:।
कलास्थानं तथा रूपं ब्रूहि मे परमेश्वर।।१।।

वस्तु म्हणजे कोण कैसी। कवणें परी जाणावें तियेसीं। कैसी कळा स्थान सकळांसीं। तें निरोपावें स्वामी।।४।। जी कळा अगम्य सकळां। ती मज निरोपावी दयाळा। म्हणोनि ती हिमनगबाळा। चरणीं लागली सांबाच्या।।५।।
शिव उवाच-
वस्तुत्वगम्यमव्यक्तं निर्गुणं निश्चलं तथा।
अगम्यं वेदशास्त्रैश्च तत् कलापि च पार्वति।।२।।

शंकर म्हणे वो गिरिजे ऐक। तुवां प्रश्न केला सुखदायक। माझें उल्हासलें निजसुख। तुझ्या प्रश्नेंकरोनिया।।६।। कोण्ही म्हणती प्रश्नें सुख उल्हासलें। पहिलें काय होतें तें मुरालें। यया बोलां अखंडत्व खंडलें। तया चित्-सुखाचें।।७।। तरी यास दृष्टान्त देईन। जैसा कुंडामाजीं असे अग्न। घृतधारा पडतां तो हुताशन। दैदिप्यमान होय पैं।।८।। जरी कुंडामाजीं अग्नि नसे। तरी घृतें रक्षा काय प्रकाशे। असे म्हणोनिचि प्रकाशतसे। घृतधारेसरिसा।।९।। तैसें पार्वती-प्रश्नाचेनि मिषें। उल्हासलें वस्तुज्ञान प्रकाशें। तया वस्तुकळेस उल्हासें। निरोपितां झाला।।१०।। शंकर म्हणे पार्वतीस। तुवां वस्तु पुसिली व्यापक सर्वांस। परि ते सद्गुरूवांचोनि कोणास। न कळेचि सर्वथा।।११।। अग्निचक्राचे पैलतीरीं। मसूरप्राय छिद्राभीतरीं। विलोकितां अमरपुरी। दृष्टिगोचर होतसे।।१२।। तेंचि पाहतां पाहतां जाण। अचल भासे वस्तु निर्गुण। सांगता नये गूढ मौन। गुरुकृपें ओळखावें।।१३।। ती वस्तुकळा अगम्य अगोचर। ती व्यक्तातीत अव्यक्त अपार। ती निरवयव निराकार। वस्तु पुसिली त्वां।।१४।। ती वस्तु निरामय निर्गुण। अढळ ढळेना निश्चळ जाण। अनंत कोटी निमाले भान। जया वस्तुप्रकाशीं।।१५।। जेथें वेदशास्त्रांसीं पडें मौन। जें ज्ञानातीत विज्ञान। तें अनिर्वाच्य न वदवें वाचेकडून। नये जपतपधारणेसीं।।१६।। वस्तु देहामाजीं अमरत्वें असत। परि देहीं असूनि देहासीं अतीत। गुरुकृपें प्रगटलिया निभ्रांत। देहबुद्धि नाशीत।।१७।। जैसा अग्नि काष्ठीं असतां। परि तो काष्ठांसीं न दाही तत्त्वतां। अरणीमिषें प्रगटलिया नासिता। होय सगळीया काष्ठांते।।१८।। तेवि गुरुकृपा-अरणीसंबंधें। वस्तुकळा प्रगटे स्वानंदें। मग देहबुद्धि नासे स्वच्छंदें। क्षणामाजीं तत्त्वतां।।१९।।
यथाऽग्नौ दाहकत्वं च यथा क्षीरे घृतं स्थितम्।
यथा तिले स्थितं तैलं सर्वस्थाने तथा कला।।३।।

म्हणोनि काष्ठीं जेवि अग्नि असे। कीं घृत क्षीरामाजीं वसें। तेवि वस्तु सर्व देहीं दिसे। ज्ञानियांसीं।।२०।। जेवि तिळांमाजीं तैल। कीं पुष्पीं असें परिमळ। तेवि वस्तुकळा सकळ। व्याप्त असे साकारीं।।२१।। आकार तो भ्रम भासत। पाहतां निराकारचि असत। जरी थिजोनि घृत आकारत। तरी घृतपणा मुकेल काय।।२२।। तैसी वस्तु वस्तुपणेंचि असे। आकार तो भ्रमबुद्धि भासे। जैसें निद्रेचेनि सौरसें। काय एक न देखिजें।।२३।। परि तें जागृतीसरिसें। स्वप्नीचा सर्वहि आभास नासे। तेवि आकार जो जो दिसे। तो नासे वस्तु प्रकटलिया।।२४।। ती वस्तुकळा प्रकटे कैसी। म्हणसी तरी ऐक त्या विवेकासी। एका ज्ञानियावांचोन कोणासीं। न कळेचि वस्तु ती।।२५।। तूं म्हणसी बाळियां भोळियांसीं। ज्ञान कैसें होय त्या अबलांसीं। तोहि उपाय निरोपिन तुजसी। अभ्यासयोगें।।२६।। अष्ट प्रहरांमाजीं एक निमिष। एकनिष्ठें भजिजें धरूनि विश्वास। मग निमिषोनिमिषीं प्रकाश। लाहिजे अभ्यासें।।२७।। जें निमिषें निमिषें भजनसुख घडें। तितुकेचि भवदु:ख विघडें। इकडे भजन जितुकें चढें। तितुकें झडें पापहि।।२८।। भानु निमिषें निमिषें पैं चढे। तैसा तैसा प्रकाश मांडे। मांडतां मांडतां माध्यान्हीयाकडे। पाहो शके कोण तो।।२९।। तेवि भजन नित्य नित्य चढतां। शिवत्वाच्या माध्यान्हीं येत तत्त्वतां। मग त्याकडे सर्वथा। कळिकाळ पाहूं न शके।।३०।। निमिषोनिमिषीं भजतां। तो सुख चढतसें चित्तां। मग चित्त चैतन्य तत्त्वतां। होवोनि ठाकें।।३१।। नदी चढतां तरी दिसत नाहीं। परि चढतां भेदी दरडिया पाही। आच्छादूनि कांहीं ना बाही। पाणी चालें अमाप।।३२।। तेवि निमिषें भजन दिसें थोडें। परि संतोषें चढतां होय गाढें। तेणें भजनें परमात्मा आंतुडे। मा ज्ञान बापुडें न यें केवि।।३३।। तरी एक निमिष लक्ष लावोन। एकचित्तें केलिया स्मरण। तितुकियानेंच होय पावन। ऐसें न घडेचि कां।।३४।। जैसें कीजें नामस्मरण। तैसी येई अंगीं शांति पूर्ण। शांतियोगें अक्षय ज्ञान। येई हातां क्रमानें।।३५।। भाव ठेवोनिया पूर्ण। जें जें कीजें नामस्मरण। तें तें कीजें गुरूसीं अर्पण। निष्कामबुद्धि।।३६।। येणेंपरी भजनभक्ति करितां। सहज वस्तुकळा ये हातां। मग स्वयें होय वस्तुतां। परि भजन न सोडिजें।।३७।। भजन करोनिया काय। जरी जीवां दु:ख देणें होय। तरी तें भजनचि न होय। विषम पडे म्हणोनि।।३८।। इकडे माझी पूजा करोनि बरवेपरीं। तिकडे जीवाची हिंसा करी। तरी त्याची पूजा कैसी घेऊ अवधारी। मुखीं घांस माथीं डांग।।३९।। म्हणोनि सर्व जीवीं निर्वैर व्हावें। सर्व जीवीं वस्तूसीं देखावें। कायावाचां सुख द्यावें। सर्व जीवांसीं।।४०।। सर्वत्र व्यापक वस्तूची कळा। सर्व जीवां वस्तूचा जिव्हाळा। काष्ठीं अग्नीची ज्वाला। गुप्त जैसी।।४१।। तैसी वस्तूची कळा जाण। सर्व देहीं असे व्यापून। क्षीरीं घृत कीं तिळीं तैल भरोन। सर्वांगीं असे।।४२।। तैसी वस्तु सर्वत्र असे। ऐसें जाणोनि भजे विश्वासें। मग वस्तुच होईजें अपैसें। भक्तिमार्गें वो देवी।।४३।। म्हणोनि भक्तिमार्गीं वर्ततां। वस्तु सहजचि ये हातां। मग स्वयेंचि होय वस्तुतां। श्रीगुरुकृपेनें।।४४।। ती वस्तु सर्वत्र व्यापक असे। सर्व देहीं तिची कळा वसे। तुज सूक्ष्मत्वे सांगतसे। व्यापक वस्तु ती।।४५।।
ज्वालाकालानलाभासा तडित्कांचनसुप्रभा।
तत्कोटिभास्वरा दिव्या चिद्रूपा परमा कला।।४।।
जैसी अग्निज्वाला सूक्ष्म असे। प्रकाशरूपें लखलखीत दिसे। तैसी वस्तुकळा सर्वत्र वसे। चिद्रूपाकार।।४६।। ती वस्तुकळा सर्व ज्ञानरूप। होवोनि असें सूक्ष्मत्वें अमूप। परि श्रीगुरूविण निजस्वरूप। न भासें कोणांसीं।।४७।। न भासें म्हणो तरी काय एकांग दिसें। एकांग न भासें तरी काय नसें। ऐसें विषमत्व काई असें। वस्तूसीं त्या।।४८।। वस्तु तरी सबराभरीत। आपादशिखापर्यंत। भरिली असे सदोदित। भरिलेपणेविणें।।४९।। भरिले म्हणो तरी रिते होते काये। तरी भरलेपण म्हणो लाहे। पाहतां रिते भरिले आहे। वस्तूसीं काय।।५०।। म्हणोनि ते भरीवचि आहे सर्वांगें। परि भरिला ऐसें जें बोलिलो मागें। तें बोलावेचि लागे निरूपणांगें। बोधावया नि:संशय।।५१।।
वाचातीतमनोतीतं वर्णातीतं च तत्पदम् ।
ज्ञानातीतं निरंजन्यं कलासौक्ष्म्यं तु भावयेत्।।५।।

जी सर्वत्र जाणती कळा। तीचि ही साजे अत्यंत सूक्ष्म कळा। तीमाजीं निमग्न सकळा। वाचादिकां सर्वहि।।५२।। परा पश्यंति मध्यमा वैखरी। वाचा निमाल्या जेथे चाऱ्ही। आतां विचारावें कवणें अक्षरीं। विचारी पां।।५३।। जेथ पन्नास अक्षरां पुसिली लीप। मा कैंचा तेथ वेदस्वरूप। श्रुतिस्मृतिहि माप। करूं सरली।।५४।। मा शास्त्र आणि पुराणांतें। कोण पुसे हो तेथें। वाचावें सांगावें ज्या मनादिकाचे हातें। तें मनचि निमालें।।५५।। आतां वर्ण व्यक्तीचा लकारु। केवि साजे हा भेदविकारु। तें तत्पद निर्विकारु। ज्ञानासीं अतीत।।५६।। अज्ञानछेद करी। म्हणोनि कीं ज्ञानाची थोरी। जेथ अज्ञानचि नाहीं मा ज्ञान कोणेपरी। मिरवूं शके तें।।५७।। सूर्यासीं अंधार मुळीचि नाहीं। मा सायास करावें कांहीं। अंधकार दूर करावा ठायीं। ठायावरूनि।।५८।। तेवि वस्तूचे ठायीं काय अज्ञान आहे। मा तेथें ज्ञान मिरवूं लाहे। म्हणोनि निरंजनकळा पाहे। ज्ञानासीं अतीत ते।।५९।। जी अत्यंत सूक्ष्म कळा जाण। तीमाजीं गेले सर्व निमोन। ऐसी वस्तुकळा लिंगाची विवेचून। निरोपिली तुज देवी।।६०।।
एषा वस्तुकला देवि सद्गुरु: शिष्यमस्तके।
हस्ताभिमर्षणं कृत्वा बोधयेत्तत्त्वरूपत:।।६।।

ऐसी सूक्ष्म वस्तूची कळा जाण। गुरु उपदेशिती मस्तकीं हस्त ठेवोन। जैसा हस्त तैसी कळा उत्पन्न। होय शिष्यां चैतन्य।।६१।। जैसी अंधकारीं लागली ज्योति। तैसीच होय देहस्थिति। अज्ञान जाऊनि मागुति। ज्ञानबुद्धि उपजत असे।।६२।। ज्या गुरूची जैसी उपदेशकळा। शिष्यां तैसीच ये भावलीला। जैसें बीज तैसें येतसें फळां। वृक्ष जेवि।।६३।। घरोघरीं गुरु म्हणविती। शिष्यां स्वार्थें उपदेशिती। परि वस्तुकळा जे बोधिती। ते सद्गुरु जाणावें।।६४।।
यथा कला तथा भावो यथा भावस्तथा मन:।
यथा मनस्तथा दृष्टिर्यथा दृष्टिस्तथा लय:।।७।।

म्हणोनि जैसा उपदेशी गुरु भेटे। तैसीच ती कळा प्रगटे। जैसी कळा तैसा भाव उमटे। शिष्यचैतन्यीं।।६५।। जैसा भाव तैसेंचि होय मन। जैसें मन तैसी दृष्टी होय जाण। तैसीच लयगत राहे होऊन। स्मरणीं भजनीं।।६६।। एवं भाव मन दृष्टी तिन्ही। एकमतें वर्तती म्हणोनि। लय लागे निश्चयेकरूनि। शुद्धकर्मीं जीवांसीं।।६७।। जैसें भजन तैसें फळ घेईजें। जैसें फळ तैसे भोग भोगिजें। जैसा भोग तैसें पाविजें। सुख अथवा दु:ख।।६८।। या सर्वांसीं मूळ कारण। श्रीगुरुचि असे जाण। आपला कुलधर्म जाणोन। सद्गुरु कीजें स्वधर्मीचा।।६९।। गुरु अनेक कळेचे असती। तरी त्यांसीं गुरुचि म्हणती। परि जे ज्ञानकळा जाणती। तेंचि सद्गुरु जाणावे।।७०।।
कर्णे वाक्यं करे लिंगं दत्वा संबोधयेद्गुरु:।
इष्टप्राणस्तथा भावलिंगानामैक्यतत्त्वत:।।८।।

सत्शिष्याचिया कर्णद्वारीं उपदेशिती। महावाक्यबीज निश्चिती। मग हस्तकीं लिंग देती। कृपाळुत्वें श्रीगुरु।।७१।। श्रीगुरु इष्टलिंग देऊनि पाहे। काय बोलती शिष्यां स्वहित लाहे। हा इष्ट आणि प्राणलिंग पाहे। भावलिंग तिसरा तो।।७२।। या तिही लिंगां ऐक्यभावें । याच्या ठायीं गुरुत्वेंचि भजावें। भेद सांडोनि राहावें । गुरुवचनीं निष्ठा धरोनि।।७३।।
देव्युवाच-
लिंगभक्तिरितिख्याता गुरुहस्तसमुद्भवा।
कथं प्राणेन संमिश्रा कथयस्व ममानघ।।९।।

गुरूच्या हस्तकीं लिंगभक्ति। उत्पन्नली तिची निरोपा ख्याती। तेथें कैसे मिश्रित असती। देह प्राण आणि लिंग।।७४।।
शिव उवाच-
वपुर्यदा समुत्पन्ना तदा प्राणेषु मिश्रिता।
गुरुकरजातलिंगं तु शिष्यप्राणेषु मिश्रितम्।।१०।।

प्राण देहसंयोगें उत्पन्नला। तो प्राण देहसंयोगें मिश्रित झाला। त्या देहीं संयोग घडला। इष्टलिंगाचा।।७५।। जो गुरुहस्तकीं लिंग जन्मला। त्यासीं देहसंयोगें प्राण मिश्रित केला। तोचि भक्तिसंयोग झाला। जाणिजें वो पार्वती।।७६।।
तत्प्राणो लिंगदेहश्च जातो गुरुकरेऽप्यथ।
ज्ञात्वैक्यमेत यो: सम्यक् भजते ज्ञानवान् पुमान्।।११।।

प्राणलिंग गुरुहस्तकीं जो जन्मला। त्यासीं ऐक्य जो लिंगदेही बोलिजे त्याला। यापरि लिंगभक्ति लाधला। तोचि ज्ञानी पुरुष।।७७।। त्या पुरुषानें षडलिंगीं भावें। ऐक्यत्वें पूजन करावें। मिश्रित होवोनि भजे स्वभावें। तो गुरुकरजात बोलिजें।।७८।।
आचारं गुरुलिंगं च जंगमं च प्रसादकम्।
महालिंगं तु विज्ञेयं षडविधं स्थलभेदत:।।१२।।

तें षडलिंग म्हणसी कोण कोण। आचारलिंग गुरुलिंग जाण। शिवलिंग जंगमलिंग ओळखण। चतुर्थाचि बोलिजें।।७९।। प्रसादलिंग प्राणलिंग नेमून। हीं महालिंगें बरवी जाणून। जो मिश्रभावें करी पूजन। तोचि भक्त जंगम तोचि।।८०।।
मिश्रभावसमायुक्तं पूजागुह्यं तु तत्त्वत:।
अज्ञात्वा कुरुते यस्तु पूजा तस्य च निष्फला।।१३।।

जो हा मिश्रपूजनाचा प्रकार। अति रहस्यमय साचार। जाणोनि करिजे पूर्ण आचार। गुरुमुखेंकरोनि।।८१।। जो न जाणताचि पूजा करी। त्याची व्यर्थ जाय पूजापत्री। त्याचा प्रसाद तोहि अवधारी। निष्फळ होय।।८२।। जो आचारसंपन्न शिवगण। तो वीरशैव शिवयोगी पूर्ण। तोचि जाणतो या मार्गाची खूण। येरां न कळे वो देवी।।८३।। जो करी प्राण लिंगीं मिश्रित। तिन्ही मिश्रित करोनि वर्तत। तोचि जाणिजे शिवभक्त। सत्य सत्य पार्वती।।८४।।
देव्युवाच-
भगवन् तापसश्रेष्ठ तपोमार्गं निरूपय।
येन पाशनिवृत्तिस्याद्वीरशैवाध्वर्त
िनाम्।।१४।।
देवी म्हणे देवाधिदेवा। तपश्चर्येचा मार्ग दाखवा। ज्या नियमें उद्धार व्हावा। पशुजीवांचा।।८५।।
शिव उवाच-
त्रिदीक्षासंयुतो मत्र्य: शांतिदांतिसमन्वित:।
गृहं त्यक्त्वा वनं गच्छेत्तपस्तप्तुमथारभेत्।।१५।।

श्रीशंकर हास्यवदनेंकरून। सांगूं लागले तपोविज्ञान। पार्वती तें सावधान श्रवण। चित्त देऊनि करीतसे।।८६।। तपश्चर्या योग कठीण। न साधे संसारीं राहून। त्याकारणें सेवावें वन। योगसिद्धि होय मग।।८७।। तपश्चर्येकारणें प्राणी। असावे सावधान अंत:करणीं। घ्यावया लिंगपूजेची आवरणी। दीक्षेप्रति साधिती।।८८।। त्या दीक्षा त्रिविधा असती। क्रिया मांत्री वेधा निगुती। गुरुकृपें सहजस्थिति। प्राप्त होती कुलक्रमें।।८९।। शिवदीक्षा झाल्याविण। जो मूढ करी शिवपूजन। तो पामर जीव म्हणून। देव पूजन न घेती त्याचें।।९०।। दीक्षावंत भक्त पवित्र। सदा मुखीं जपे शिवमंत्र। तो असे स्वतंत्र। शिवानुष्ठानाकारणें।।९१।। तेणें आसन ध्यान भस्मधारण। गळां शोभें रुद्राक्षाभरण। सदा शुचि वस्त्रपरिधान। करावा जप महामंत्रें।।९२।। मंत्रजपालागीं जाण। तपनीं घाली आसन। नित्यनेम झालियाविण। स्थान चालन न करावें।।९३।। उत्तम आसनीं बैसून। करावें मन तें उन्मन। चित्त चैतन्यां व्यापून। ज्ञानमुद्रा साधावी।।९४।। तेणें होय ज्ञानदृष्टी। सम पाहावी सर्व सृष्टी। तेणें कर्म सुटें उठाउठीं। जन्मलिया वेळीचें।।९५।। निष्कर्म जीव होता जाण। न करी कोणासीं संभाषण। शत्रु मित्र जया समान। उदारशीळ तापसी।।९६।। जयाचे वैखरीं शिव शिव। हृदयीं मुराला अहंभाव। सवेचि विज्ञान संभव। आकळून राहतसे।।९७।। कर्तुमाकर्तुमन्यथा कर्तुमाची शक्ति। प्राप्त होय सहजगति। तया सत्य देव मानिती। पूर्ण वस्तु म्हणोनिया।।९८।। हा माझा राजयोग उत्तम। मानावा शिवप्राप्तीचा क्रम। सांगितला तुज पूर्ण नेम। आचरावा सत्य पैं।।९९।। दुसरा मार्ग असे भजन। निर्भयपणें आनंदून। करीत असावें रात्रंदिन। दुजी चिंता नसावी।।१००।। अबला जनां हें सुलभ। गर्वरहित होवोनि गर्जवी नभ। तनुमनधनें करितां दुर्लभ। सिद्धि प्राप्त होती त्यां।।१०१।। स्वधर्मीं ठेवितां विश्वास। पुण्य घडें तया विशेष। मोक्षप्राप्ती अविनाश। होईल पां वरानने।।१०२।। येणेंपरी संचलें संचित। तें वाचें उच्चारूं नये निभ्रांत। अर्पण करावें हें उचित। शिवालागीं सत्वर।।१०३।। हा महिमा परम अद्भुत। लिंगधारी आचरती व्रत। तपयोग त्यासींच घडत। जंगमभक्तीकारणें।।१०४।। स्त्रिया लिंगपूजा करिती। त्यासीं नसे हो अधोगति। दीक्षावंत सती पवित्र असती। लिंगाईत धर्मनिष्ठ।।१०५।। ऐसें हें रहस्य सुंदर। अपर्णेसीं बोधी श्रीशंकर। पुढें करील प्रश्नोत्तर। श्रोते सावधान परिसावें।।१०६।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृतार्थ मन्मथ। सप्तमोऽध्याय संपूर्ण हा।।१०७।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे वस्तुकलानिरूपणं नाम सप्तमोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक १५, ओव्या १०७.
(संगणकीय अक्षरलेखन : सौ. उषा पसारकर, केतकी फ़ोटो टाईप सेटर्स, सोलापूर)
 

Friday, 3 January 2014

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित परमरहस्य अध्याय सहावा

संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी
संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी-विरचित
परमरहस्य


अध्याय सहावा

।।श्रीगणेशाय नम:।।
जयजय सद्गुरु परशिवा। सत् चित् सुखात्मका भवोद्भवा। परब्रह्मीचा तूं निज ठेवा। तुज नमूं।।१।। पंचम अध्यायाचे अंतीं। तुवां निरोपिलें मुक्तीप्रति। पुढील ग्रंथश्रवणीं प्रीति। विरूढली हृदयीं मम।।२।। ऐसें विनवूनि उठाउठीं। गिरिजा अंकीं बैसोनि गोमटी। आदरें प्रार्थूनिया धुर्जटी। प्रश्न करी।।३।।
देव्युवाच-
को वा प्रकृतिकायश्च ज्ञानकाया यथा भवेत्।
भेदं च किं द्वयोर्देव किं बीजं कथयस्व मे।।१।।

गिरिजा प्रश्न करी शंभूसीं। प्रकृतिकाया ती कैसी। ज्ञानकाया म्हणिजे कोण्हासी। हा बीजभेद निरोपा स्वामी।।४।। दोन्ही कायेचे सविस्तर। मज सांगावें भेदाकार। बीजाक्षराचाहि विचार। प्रकट कीजें मजलागीं।।५।।
शिव उवाच-
विकल्पहीनशिष्यस्य श्रोत्रे बीजं च सद्गुरु:।
अव्यक्तं प्रोक्तवान् शुद्धं ज्ञानांगं तत् समीरितम्।।२।।

ईश्वर म्हणें अंबेप्रति। तुझे प्रश्न गहन असती। परि अज्ञान जनाचे चित्तीं। प्रेमभाव प्रगटेल।।६।। जो शिष्य शुद्ध प्राज्ञिक। सुज्ञ सुबुद्धि सुचित्त चोख। निरभिमानी सात्त्विक। भजनशीळ पैं।।७।। ऐशा सानुराग शिष्यास। श्रीगुरु निरोपिती श्रोत्रीं बीजास। मग अविद्याकल्पनेचा होय नाश। ते ज्ञानलक्षणयुक्त काया।।८।। तरीच गुरुमंत्र बीज। तयाचे कर्णीं राहे सहज। धर्मनीतीचे उदकें काज। होती अंकुर बीजांतें।।९।। बीज विरूढता कर्णीं। पातकाची होय हानी। अव्यक्त ज्ञान मुरूनि। ज्ञानांगें दृढ होय।।१०।।
शिवमंत्राक्षरं बीजं प्राप्तं येन गुरोर्मुखात्।
स प्राणी ज्ञानकायश्च प्रकृतिप्रति बिंबवत्।।३।।

शिवमंत्र बीजाक्षर बरवे। ते उपदेशिले श्रीगुरुदेवें। शुद्ध काया म्हणोनि सद्भावें। बिंबले तेथें।।११।। तें सद्गुरूचें बीजाक्षर। जेथें बिंबलें तेथें झालें ब्रह्माकार। प्रपंचाचा झाला संहार। म्हणोनि ज्ञानकाया बोलिजे।।१२।। श्रीगुरु-उपदेशेंकरून। अंतर्बाह्य गुरुचि झाला आपण। मग प्रकृतिकाया विरोन। ज्ञानकाया जाहली।।१३।। जैसें प्रथम होतें सघन वन। नाना वृक्षवेष्टित ऐंचण। तें शुद्ध कीजें सर्व छेदून। क्षेत्रालागीं कृषकें।।१४।। पिकाचि लागीं असे कृषि। नांगरोनि मोगडोनि धरी कुळवाडीसीं। मग वनपण जाय क्षेत्र म्हणिजें त्यासीं। बीजायोग्य म्हणूनिया।।१५।। तैसें अरण्य म्हणिजें। प्रकृतिकाया ती बोलिजे। षड् विकार वृक्ष सहजें। वन केलें तेणें हें।।१६।। ते अनुतापकुऱ्हाडी धरून। षड् विकारादि वृक्षसंहरण। करोनि शेतीचें आरंभण। पालव्या छेदून आशामनिशेचिया।।१७।। बुद्धिकुदळीं खणोन। कामक्रोधादि खुंटे टाकिली छेदून। मग ज्ञाननांगर धरोन। वनाचें क्षेत्र केलें।।१८।। गुरूनें बीज देऊनि पिकविलें। वनासीं शेत हें नांव पावलें। तैसें प्रकृतिशरीर ज्ञानकाया झाले। श्रीगुरुकृपेंकरोनिया।।१९।। ते जाणिजे शुद्ध काया। न करी कर्मेंद्रियांची दया। सदा शुद्धभावें गुरुराया। शरण असे वरिष्ठ।।२०।। जया शुद्ध कायेभीतरीं। गुरुकृपेनें बीजाक्षरीं। मंत्र संपादण्याची थोरी। देवादिका दुर्लभ।।२१।। मंत्र साध्य झालियाविण। ज्ञानकाया नोव्हे जाण। मंत्रामाजीं पंचानन। शिवमंत्र असे पैं।।२२।।
प्रकृतिज्ञानकायश्च तथा भेदसमन्वित:।
तत्तद् गुणेन भावेन ज्ञानकायस्तथा भवेत्।।४।।

प्रकृतिकाया ज्ञानकायेसीं भिन्न। जैसें पात्रीं वाढिलें अपक्वान्न। क्षुधाक्रांत भक्षितां होय खिन्न। तैसी जाण प्रकृतिकाया।।२३।। तेंचि पक्वान्न पात्रीं वाढितां। जेवि तृप्ति होय तत्त्वतां। तेवि ज्ञानकायेची वार्ता। समाधान पावतसे।।२४।। जरी प्रकृति ज्ञानकाया दिसे भिन्न। ती प्रकृतिकाया लाभें ज्ञान। तरी तेंचि बोलिली पूर्ण। ज्ञानकाया वो देवी।।२५।। ऐसी अज्ञान तें ज्ञानकाया जाहली। तत्त्वमात्र सर्व बोलों ठेलीं। सकळ ब्रह्मत्वें स्थिति झाली। ती ज्ञानकाया बोलिजे।।२६।।
न जाग्रद्वा सुषुप्तोऽथ स्वप्नमज्ञानवृत्ति वा।
दिवारात्रस्य न ज्ञानं न कालस्यापि कल्पनम्।।५।।

ऐसी जे ज्ञानकाया पाही। तया दिनरात्रीं कालकल्पना नाहीं। जरा-मृत्यु-जन्मांतर कांहीं। नुठेचि ते ज्ञानकाया।।२७।। षडूर्मि षड्व विकार। नाहीं तेथें द्वेष मत्सर। निर्लोभ निरहंकार। ती ज्ञानकाया म्हणिजे।।२८।। आशा मनिशा तृष्णा। नाहीं भिन्न भावभावना। अभेदभावें नातळें त्रिगुणा। ती ज्ञानकाया बोलिजे।।२९।। कामक्रोधादि षड् विकार संग। नातळें जयाचें अणुमात्र अंग। नाहीं मीतूंपणा कडसणी सांग। ती ज्ञानकाया बोलिजे।।३०।। समाधानी सदा शांत। सदा संतुष्ट सदोदित। नाहीं हळहळ पूर्णभरित। ती ज्ञानकाया बोलिजे।।३१।।
यद्दिवा यच्च रात्रं च तथा कालस्य कल्पना।
प्रपंचमयभावश्च प्रतिबिंबे दृढस्तथा।।६।।

अज्ञानकाया म्हणिजे ऐक। जेथ स्वरूपाची विस्मृति विशेख। अहंकृति जेथें निष्टंक। ती अज्ञानकाया।।३२।। जे देहीं काळकल्पना असे। दिनरात्र काळकल्पना भासे। सदा प्रपंचाकार वर्ततसे। ती अज्ञानकाया।।३३।। जैसें प्रतिबिंब साच मानणें। तैसी प्रकृतिकाया म्हणे। येणें निश्चतार्थें वर्तणें। ते अज्ञानकाया बोलिजें।।३४।। आतां बहु काय बोलूं ऐका। जें ज्ञानकायेचें लक्षण निरोपिलें देखा। ते ज्या नसती आवश्यका। ती अज्ञानकाया।।३५।। ऐसी ही कर्मब्रह्मसंपदा। तुज निरोपिली सुबुद्धा। तुवांहि असावें गौरी सदा। ज्ञानकाया जाणोनि।।३६।। मजहि असे ज्ञानकायेचें कोड। अत्यंत त्या कायेची आवड। म्हणोनि तुवांहि असावे अखंड। ज्ञानकाया होवोनि।।३७।।
फाले त्रिपुंड्रकं यस्य गले रुद्राक्षमालिका।
वक्त्रे षडक्षरो मंत्र: स रुद्रो नात्र संशय:।।७।।

तैसी जी ज्ञानकाया सुचित। त्या कायेसीं भाळीं त्रिपुंड्र विभूत। चंद्रकोर विशेष शोभत। मद्रूप देवी।।३८।। भाळीं त्रिपुंड्र मुखीं बीजाक्षर मंत्र। कंठीं रुद्राक्षमाळा शोभती पवित्र। ते साक्षात् जाणिजें महारुद्र। यासीं संशय नाहीं।।३९।। मंत्रावांचूनि मुख निर्फळ। मुग्धपणें नसावी तळमळ। अमंत्रें क्षोभें जाश्वनीळ। म्हणोनि समंत्रें पुजी कां।।४०।। षडक्षर मंत्रेंविण। शिवार्चन निष्फळ होय जाण। षडक्षराची उत्पत्ति गुणभेद जाणोन। भजिजें शिव शिवभक्तीं।।४१।।
देव्युवाच-
केन मंत्रेण वा पूजा कर्तव्या साधकोत्तमै:।
केन मंत्रेण सिद्धि: स्यात् जपपूजादिकस्य च।।८।।

कोणत्या मंत्रें करावी पूजा। ऐसें विचारीतसे गिरिजा। कोण मंत्र जपसिद्धिबीजा। नंदिध्वजा सर्व सांगा।।४२।। महामंत्र सप्तकोटी। असती जाण धुर्जटी। तुम्ही कथिलें परमेष्टी। ते श्रवण मज झाले।।४३।।
शिव उवाच-
स्नात्वा अघ्र्यादिसामान्यसंस्थाप्याप्यु
पचारकै:।
पंचाक्षरेण मंत्रेण अर्चितव्यो महात्मभि:।।९।।

शिव म्हणे वो देवी। तुझी पृच्छा असे बरवी। जेणें अज्ञानाची गोवी। जाय गळोनि।।४४।। शुद्ध स्नान करूनि जाण। महामंत्रें करावें ध्यान। अर्घ्य पाद्य पात्रेंकरून। आरंभावें संकल्पां।।४५।। नित्य संकल्प होतां पूर्ण। मग करावें माझें ध्यान। ध्यानासरिसे प्रार्थून। शुभ्रासनीं बैसवावें।।४६।। मग अर्घ्य पाद्य होतां मान्य। घालावें शुद्धोदकें स्नान। वस्त्रालंकारें गौरवून। परिमळ धूपां अर्पावें।।४७।। पात्रीं नैवेद्य षड्रसान्न। समर्पावें भावेंकरून। एकारती दीपां ओवाळून। ध्यान स्वरूपीं लावावे।।४८।। ती पूजा करकमळीं। करीतसे वीरमंडळी। पूजा होतां पुष्पांजळी। वेदमंत्रें करीतसे।।४९।। महामंत्र षडक्षरी। जपालागीं झडकरी। एकाग्रतेचि यापरी। वैखरीनें उच्चारी कां।।५०।। हा मंत्र ऐकता कर्णीं। मी सदा होतसे ऋणी। जी इच्छा जापकाचें मनीं। आनंदें पुरवीतसे।।५१।। पंचाक्षरी महामंत्राची थोरी। वर्णितां न वर्णवे निर्धारी। सप्तकोटी मंत्रांचा पुढारी। उद्धारक जगताचा।।५२।।
देव्युवाच-
पंचाक्षरस्य चोत्पत्ति: पंचाक्षरगुणस्तथा।
पंचाक्षरस्य वा भेदा ब्रूहि मे परमेश्वर।।१०।।

गिरिजा म्हणें जी शंकरा। कैसी षडक्षराची उत्पत्ति दातारा। गुणभेद कोण परमेश्वरा। निरोपा स्वामी।।५३।।
शिव उवाच-
यथा क्षेत्रस्य बीजस्य संबंध: फलदस्तथा।
तथा शिष्यस्य कर्णे तु मंत्र: पंचाक्षरो मत:।।११।।

शंभु म्हणें वो गिरिजे। तुवां गुह्य पुसिलें जें। त्यास दृष्टान्त निरोपिन जे जे। ते तूं बरवे परिस देवी।।५४।। जैसीं क्षेत्रबीजां पडे गाठी। तें पीक असंभाव्य उठी। तेवि षडक्षर श्रोत्रक्षेत्रां भेटी। होतां पिके अपार।।५५।।
तच्छिष्यज्ञानक्षेत्रे तु कर्णद्वारे च सद्गुरु:।
तन्मंत्रबीजमव्यक्तं तच्च क्षेत्रसमन्वितम्।।१२।।

शिष्याचें क्षेत्र ज्ञानदेह जाणिजें। त्याचें श्रोत्र तें द्वार म्हणिजें। तेथें शिवमंत्र बीजाक्षर वोजें। पडतां पिके अपार।।५६।।
तद्बीजं द्विविधं ज्ञेयं मंत्रन्यासविभेदत:। एको दीर्घस्तु य: कुर्यात् पंचमाशक्तिमाश्रयेत्।।१३।।
मंत्रबीज दोन रूपीं। न्यासबीज विघ्नें थोपी। र्हस्वदीर्घ उच्चार अर्पी। पंचमशक्तिकारणें।।५७।। तया बीजाचें रूप द्विविध। पंचाक्षरी षडक्षरी प्रसिद्ध। उभयां एका प्रणवाचा भेद। उत्पत्तीस कारण तोचि पैं।।५८।। न्यासभेदाकुन। बीजभेद झाला जाण। पंचाक्षरी षडक्षर म्हणोन। प्रसिद्धीसी पावले।।५९।। त्या बीजाचें रूप द्विविध भासें। षडक्षरी बोलिला असे। पाहतां पंचाक्षरी मिश्रित वसे। ॐकाराचे पोटीं।।६०।। ॐकारापासूनि अक्षरांच्या हारी। त्यामाजीं निवडून काढिला पंचाक्षरी। तोचि निर्णय निरोपुं अवधारी। ऐक चित्त देवोनिया।।६१।। ॐकारा-पासूनि सर्व वर्ण। उत्पन्न झाले ते बावन्न। तयामध्यें मुख्य जाण। तयाचे दशद्वय भेद।।६२।।
अक्षरादितवर्गान्तं पवर्गान्तं शुभानने।
शिकारोऽथ यवर्गान्तं मवर्गान्तं बभूव तत्।।१४।।

ऐक अक्षराचा भेद। पंचाक्षरी असे संबंध। पन्नास अक्षरांतून बीजबोध। काढिला तो।।६३।। तकाराचा अंत नकार। प वर्णाचा अंत मकार। य वर्गाचा अंत शकार। एवं तिन्हीहि ॐकारापासाव।।६४।। थांतस्थ नकार। तो संयोजिला सह अकार। यवर्गादिस्थ यकार। पंचाक्षरी विनटला।।६५।।
दांतं बांतं च यांतं तु तृतीयस्वरभूषितम्।
लांतं यांतसमायुक्तो मंत्र: पंचाक्षरो भवेत्।।१५।।

द काराचा अंत नकार। य काराचा शेवट तो मकार। य वर्गांतस्थ शकार। इ स्वरानें अंकिला।।६६।। तेवि य वर्गाचा जो अंत्य। अकारादेशें वर्ते सत्य। जेणें घेतलेसे य वर्गाधिपत्य। तोहि येथें घेतला।।६७।। एवं पंचाक्षरी विस्तार। एका प्रणवापासोनि साचार। जे कां सप्तकोटी मंत्राचें सार। वर्णिलें शास्त्रीं।।६८।। ऐसीं हीं पंचाक्षरें गोमटीं। असती प्रणवाचिया संपुटीं। तीं प्रगटलीं भक्तिसुखासाठीं। वीरशैवाकारणें।।६९।।
ह्येष पंचाक्षरो मंत्र: सर्वश्रुतिशिरोगत:।
प्रणवेन समायुक्तो षडक्षर इहोच्यते।।१६।।

आतां निरोपिला जो पंचाक्षरी। तोचि ओंकारासहित षडक्षरी। जैसा द्विविध झाला निर्धारी। ते तुज निरोपुं आतां।।७०।।
त्वदीयं प्रणवं चैव मदीयं प्रणवं तथा।
एतद्धि देवि मंत्राणां शक्तिभूतं न संशय:।।१७।।

षडक्षरासीं तुझी माझी शक्ति। म्हणोनि मंत्रासीं बळ असे निगुती। तो षडक्षर मंत्र बोलिला स्थिति। ॐकारसहित।।७१।। त्या ॐकारां उभयाची शक्ति। अर्ध भाग तूं अर्ध मी निश्चिती। म्हणोनि मंत्रासीं सामर्थ्य स्थिति। प्राप्त असे वो देवी।।७२।।
उकारश्च मकारश्च अकार: प्रणवो मम।
अर्धमात्रा स्वरूपा त्वं शक्तिभूता सनातनी।।१८।।

अकार उकार मकार। हे माझे अंश साचार। परि तुझे संबंधें उच्चार। होत असे मम सत्तें।।७३।। हीं तीन बीजें स्वतंत्र। यापासाव कर्में चालती सर्वत्र। तेथें तुझाहि संबंध असे पवित्र। अर्धमात्रेच्या रूपानें।।७४।। यालागीं प्रणव द्वितीय बोलिजें। माझा अंश संबंधें तुझ्या उच्चारिजें। म्हणोनिचि मंत्र म्हणवी वोजें। ॐकारु हा।।७५।। याचा भेद न कळे कवणासीं। हे दुर्लभ मुमुक्षु जनांसीं। हे जाणे जो जंगम बोलिजें त्यासीं। पवित्र सत्यशरण।।७६।। तया जंगमीं तुझे माझे दिसे। अंश संबंधत्वें तेथ वसे। उभयसंयोगें जंगम असे। सत्य जाण पार्वती।।७७।।
षडक्षरसमाख्यातं षडाननमुदीरितम्।
षड्भेदं यो न जानाति पूजा तस्य तु निष्फला।।१९।।

षडक्षराची उत्पत्ति षण्मुखीं। ती षण्मुखीची ऐकतां निकी। जाणोनि जप करी तो सुखी। जंगम अथवा भक्त।।७८।। षडक्षरी मंत्रासारिखा मंत्र नाहीं। कार्तिकस्वामी सदा जपत राही। षड्भेद जाणोनि लवलाही। पूजा कीजे एकाग्र।।७९।। याचा भेद न कळे कोणां। दुर्लभ असे अज्ञ जनां। गुह्य जाणे शिष्यराणा। जंगममुखें करोनिया।।८०।। एवं लिंगपूजकावांचोन। न होय षडक्षरसाधन। श्रीगुरुमुखें करोनि ग्रहण। करिता जप सिद्धि होय।।८१।। याचा भेद नेणोनि पूजा करी। त्याची पूजा निर्फळ होय अवधारी। तोहि अज्ञानियाचा पुढारी। गुरुपुत्र नव्हे तो।।८२।। षड्चक्राचें स्वरूप सरोभरी। तुवां पुसिलें गौरी। निरोपिन पुढारी। चक्राक्षर भेद ऐक आतां।।८३।।
षडक्षराणि क्रमश: चक्रबीजानि वै यथा।
चक्रबीजाक्षरज्ञाता दुर्लभो भुवि पार्वति।।२०।।

हीं सहा अक्षरें षड्चक्रासीं। आधार असतीं त्या कर्मासीं। तयाविण गति चक्रासीं। कदांकाळीं असेना।।८४।। कोण चक्रीं कोण अक्षर। हा असे शिवयोग विचार। जो वर्ते पूर्ण जाणोनि साचार। दुर्लभ ऐसा सत्यशरण।।८५।। ज्यानें देहीं षड्चक्रें भेदिलीं। तेणें ब्रह्मांडे सर्व जिंकलीं। वर्णाक्षरोत्पत्ति वहिली। ऐक गिरिजे सावध।।८६।।
एकैकाक्षरतो जाता: पंचपंचाक्षरा: पुन: ।
गुह्यं हि परमं ह्येतज्ज्ञायते श्रीगुरोर्मुखात्।।२१।।

एका एका अक्षराचे ठायीं। पांच पांच उद्भवली अव्ययी। संहारकाळीं पावती लयी। पंचाक्षरी सर्व वर्ण।।८७।। ऐसीं हीं अक्षरें पंचप्रकारी। वर्ततां आपुलिया परी। हा भेद जाणावा चतुरीं। श्रीगुरुमुखापासोनि।।८८।। ती पंचाक्षरें परस्पर। पावन करिती चराचर। अंतीं सामावती सत्वर। निजस्वरूपीं सदा।।८९।।
देव्युवाच-
ज्ञानदेह: समाख्यात: षडाधारेण संयुत:।
तद्बीजाक्षरभेदश्च क्रमेण कथयस्व मे।।२२।।

शिवाप्रति पार्वती पुसे। ज्ञानकाया जी षड्चक्रयुक्त असे। तरी कोण्या चक्रीं कोण अक्षर वसें। तें निरोपावें स्वामिया।।९०।। षड्चक्राचें मुख्य बीज। निवडोनि सांगावें जी मज। तरीच होय महत्काज। अपराधी जीवाचें।।९१।।
शिव उवाच-
आधाराख्ये नकारं स्यात् स्वाधिष्ठाने मकारकम्।
शिकारं मणिपुरे च वाकारं तु अनाहते।।२३।।

आधारस्थानामाझारीं। चतुर्दळ कमळाभीतरीं। नकार बीज वस्ती करीं। अपान शक्ति बोलिजें।।९२।। स्वाधिष्ठान असें उत्तम। षड्दल कमल असें अनुपम। मकार बीज सर्वोत्तम। तेथें राहें प्रीतीनें।।९३।। मणिपुरीची ऐक मौज। दशदलावरी पेरिलें बीज। शिकाररूपी वर्ते सहज। समान वायू तेथींचा।।९४।। अनुहत तें हृदय जाण। जेथें वकाराचें अधिष्ठान। द्वादशदळीं अंगुष्ठप्रमाण। प्राणवायु वसतसे।।९५।।
विशुद्धौ तु यकारं स्यादाज्ञायां प्रणव एव हि।
एवं बीजाक्षरस्थानं ज्ञानकाया प्रकीर्तिता।।२४।।

विशुद्धि हेचि तालुमूल। जेथें कमळ असें षोडशदल। यकार बीज हें अमल। उदानें तें रक्षिलें।।९६।। अग्निस्थान तेंचि ललाट। द्विदलें शोंभे श्रीगोल्हाट। ॐकार मूळ औटपीठ। चंद्रप्रभा तयावरी।।९७।। तेथें कोटी सूर्यांची प्रभा। परमहंस शिव उभा। स्वानंदाचा पूर्ण गाभा। दमदमीत।।९८।। देव गंधर्व यक्ष गण। किन्नर नारद तुंबरु जाण। स्तिमित होती तया देखून। स्थिर मौन निचेष्ट पैं।।९९।। ऐसीं हीं साही अक्षरें। तुज निरोपिली नाना प्रकारें। सर्वहि एकवटली एकाकारें। सातवें अक्षरीं।।१००।। सातवें तें निराक्षरीक। ज्या शरीरीं याचा असे विवेक। ती ज्ञानकाया बोलिजे सम्यक्। ऐक आतां शैलात्मजे।।१०१।। जें कां सहस्रदळ कमळ। महालिंग वसें निर्मळ। तेथें समरसे सकळ। ज्ञानकळा।।१०२।। ऐसी ज्ञानकाया ज्या पुरुषाची। तो कळा जाणे वस्तुलिंगाची। तया कळेमाजीं रमे सदा शुचि। उत्तम जंगम तो।।१०३।। ऐसे ऐकतां पाहतां डोळां। परम कळवळे हिमनगबाळा। हं क्षं तत्त्वाचा सोहळा। गर्जे घोष अहं सोऽहं।।१०४।। श्रीपरमरहस्ये ग्रंथानुवादें। उमामहेश्वराच्या संवादें। षडक्षर पंचाक्षर दोन भेदें। वर्णिलें ज्ञान भाविकां।।१०५।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृतार्थ किंकर मन्मथ। सहावा अध्याय संपविला।।१०६।।

।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे पंचाक्षरषडक्षरभेदनिरूपणं नाम षष्ठोऽध्याय: समाप्त:।।

श्लोक २४, ओव्या १०६.

(संगणकीय अक्षरलेखन : सौ. उषा पसारकर, केतकी फ़ोटो टाईप सेटर्स, सोलापूर)