संतशिरोमणी श्रीमन्मथस्वामी |
परमरहस्य
अध्याय दहावा
।।श्रीशिवाय नम:।।
नवम अध्यायीं जंगमस्वरूप। वर्णिलें स्वामी तुम्ही अमूप। परि मम हृदयींचा संकल्प। उरलाचि असे।।१।।
देव्युवाच-
शिवयोगिस्वरूपस्य जंगमार्यस्य के गुणा:।
स्वरूपं च तथाचार: श्रोतुमिच्छामि सांप्रतम्।।१।।
जो शिवयोगी जंगमलिंग असे। त्याचे गुण निरोपा कैसे। त्याचा आचार कवणे स्थिति वसे। हे निरोपा स्वामी।।२।। आणिक विचारूं मुख्य खूण। जंगमाचें कवण चिन्ह। इच्छा उदेली मजलागून। पूर्ण करी कृपाळुत्वें।।३।।
शिव उवाच-
जंगमं लिंगमाख्यातं द्वयमेवास्ति तत्तथा।
द्वयमेव समायुक्तं श्रेष्ठं तल्लिंगजंगमम्।।२।।
जंगम लिंग एकचि असे। बाहेरी नामाचा भेद दिसे। ऐसा जाणोनि भेद समरसे। तो उत्तम जंगम।।४।। जंगम लिंगांत लिंग जंगमांत। एवं येरयेरांतें मिश्रित। अभेद भेद उभयांत। जाणोनि वर्ते तो जंगम।।५।। जैसें पुष्प परिमळांत। कीं परिमळ पुष्पांत। भेद नाहीं येरयेरांत। तेवि लिंग-जंगमीं।।६।। रस जळांत कीं जळ रसांत। गूळ गोडींत कीं गोडी गुळांत। तीळ तेलांत कीं तेल तिळांत। भिन्न भेद दिसेना।।७।। तेवि लिंग-जंगमातें। भेद नाहीं सर्वथा उभयातें। ऐसा ऐक्यभावें निभ्रांते। तोचि शुद्ध जंगम बोलिजें।।८।। जंगम आणि स्थावर। बोलती द्वय विचार। भेद कैसा वर्ते साचार। ऐक शक्ति सावधपणें।।९।। एकरूपी लिंग जंगम। असती जाण सप्रेम। म्हणोनि गुरुत्वाचा नेम। तया प्राप्त झाला कीं।।१०।। सद्योजातादि पंचवदन। मम मुखें असती प्रसिद्ध जाण। तेथून उद्भवले तीच खूण। जंगमलिंगाची असे पैं।।११।। जंगम आणि लिंग एक। बाह्य नामाचा भेद देख। परि असे ते व्यापक। सर्वाठायीं सर्वदा।।१२।। त्याच्या दर्शनमात्रेंकरून। अष्टोत्तरशत तीर्थें होतीं पावन। तो सकळां श्रेष्ठ पूज्यमान। उत्तम जंगम बोलिला।।१३।।
मुखे मंत्रो हृदि ध्यानं मस्तके लिंगधारणम्।
शिखारुद्राक्षभस्मानि ह्येतज्जंगमलक्षणम्।।३।।
मुखीं मंत्र हृदयीं गुरूचें ध्यान। प्राणासीं लिंगासीं एकचि आसन। इष्ट प्राण मिश्रित करोन। वर्ते तोचि जंगम।।१४।। इष्टलिंग तो अर्च्य लिंग। प्राणलिंग तो ध्यान अंग। समाधिस्थ राहे कदा नोव्हे भंग। जंगमप्राणी जाण तो।।१५।। त्याचें हृदय तें गुरूचें भुवन। विश्रांतीचें तेंचि स्थान। त्याचें हृदय तें गुरूचें वदन। म्हणोनि भोक्ता तो सर्वांसीं।।१६।। त्याचे चालीं गुरु चालत। त्याचे बोलीं गुरु बोलत। ऐसा जंगम जो योगयुक्त। तो मुकुटमणि माझा।।१७।।
नि:शब्दं स्थावरं प्रोक्तं समंत्रो जंगमो भवेत्।
लोकपुण्यपरं श्रेष्ठं दैवतं लिंगजंगमम्।।४।।
स्थावरासीं शब्द मंत्र नाहीं। त्याची जंगममंत्रें स्थापना पाही। जीवनकळा त्याचे ठायी। ए-हवीं ते स्थावर।।१८।। तो जंगम सर्व लोकांस। पूज्यमान होय भाविकांस। तया पुजितां होय स्वयंप्रकाश। निजभक्तांसीं।।१९।। सद्भावें पुजितां तयासीं। नाश होय तत्काळ अविद्येशीं। तो पावे शिवरूपासीं। जो पुजी कां विश्वासें।।२०।। विश्वास कैसा म्हणसी। सदा शिव भावे तयासीं। पूजोनि तीर्थप्रसादासीं। सेविजें विश्वासूनि।।२१।। विश्वासेविण पुजितां। ती पूजा पावे निष्फळता। जंगमलिंगाविण निजभक्तां। अन्य दैवत नाहीं।।२२।। विश्वासें न पुजी गुरु। तो कदा नोहे पैलपारु। जंगमलिंगाचा महिमा थोरु। किती म्हणोनि वर्णावा।।२३।। देवाधिदेव जाणोन। जंगमलिंगां करी पूजन। तो स्वरूपीं शिव होय आपण। तया जंगमाचें लक्षण ऐक देवी।।२४।।
नि:संगत्वं निराभासं नि:सीमं निरुपाधिकम्।
निर्देहं निर्मलं नित्यं एतज्जंगमलक्षणम्।।५।।
तो नि:संग सर्व संगाचे ठायीं। भोईभार नव्हेचि कांहीं। भासमान पण तेंहि। आगळेंचि असें।।२५।। नि:सीम म्हणिजे मिति नाहीं। नसें आधिनत्व तें कोठेंहि। उपाधीचा लेशु तोहि। अंगीं नसे तयाच्या।।२६।। देहीं असूनि विदेही। सदा निर्मल नित्य पाही। स्वत:सिद्ध पालटु नाहीं। येणें लक्षणें लक्षित तो।।२७।। तो नि:संग कां म्हणसी तरी ऐक। संगास्तव होय जन्मदु:ख। अंतकाळीं जो संग आठवे देख। तेचि होणें न चुके त्या।।२८।। जरी असें गुरूचें ध्यान। तरी अंतकाळीं तेंचि स्मरण। झालिया गुरुरूप होणें आपण। न चुके पाही।।२९।। म्हणोनि ज्याचा संगध्यास असे। अंतकाळीं तेचि आठवें विश्वासें। मग देहान्तीं ते होय सावकाशे। न चुके कोण्हां।।३०।। म्हणोनि सर्व संग त्यागून। अखंड गुरुरूपाचें करी पूजन। तेणें अंतकाळीं होय तेचि आठवण। गुरुरूपचि होणें मग।।३१।। जंगमपद तेंचि गुरुपद जाणा। ऐक तयाच्या सर्व खुणा। गुरुस्थळापासोनि आपणां। मोक्षप्राप्ती होत असे।।३२।। शरण आलिया जंगमासीं। गुरुपद देत शिष्यांसीं। भेदभाव नसे मानसीं। शुद्ध अंत:करणी जंगम तो।।३३।। जो शिष्य जंगमपद घेऊन। गुरुपणा मिरवी धुडकावून। कृतघ्न qनदी जंगमालागून। अपकीर्ति होय त्याची।।३४।। जंगमकुळीचा कुमार सुदृढ। असावा गुरुपदारूढ। जंगमवेश देऊनि हुड। न मिरवावा सिंहासनीं।।३५।। तेणें होय धर्मभ्रष्ट। पापें आचरतीं अरिष्ट। तयासंगें शिष्य श्रेष्ठ। श्रद्धा त्यागिती धर्ममार्गीं।।३६।।
निष्कलंकं निरपेक्ष निर्दोषं निस्पृहं तथा।
सत्यवाक् सदयं शांतमुक्तं जंगमलक्षणम्।।६।।
निष्कलंक निरपेक्ष गुण दुसरा। निर्दोष निराश सत्यवादी पांचवा खरा। दया शांति सात गुण वो सुंदरा। तया जंगमलिंगाचे।।३७।। अवधारी वो पार्वती। ते सात लक्षण जया अंगीं मिरवती। तो जंगम कैलासपति। स्वयेंचि बोलिजें।।३८।। ते सात लक्षण निर्णय करोनि। एक एक सांगेन विवेचोनि। ते हृदयीं धरोनि वर्ते जनीं। तोचि सत्यशरण।।३९।। निष्कलंक म्हणिजे वासनात्याग। वासनेचा कलंक न धरी अंग। वासनात्यागें निष्कलंक चांग। तोचि उत्तम जंगम।।४०।। निरपेक्ष म्हणिजे अपेक्षा नाहीं। कोणासीं मागणे नाहीं कांहीं। कोणे एके पदार्थाचीहि। अपेक्षा न करी।।४१।। अमृताहूनि अधिक भोग। जरी प्राप्त झाले चांग। तरी अपेक्षेचे अंग। तिळभरी न सेवी तो।।४२।। नित्यतृप्त अखंडित। तया अपेक्षा कैंचा हेत। संतुष्ट स्वानुभवें तृप्त। निरपेक्ष जंगम तो।।४३।। वाटेवरी धन पडिलें असतां। त्यासीं धनी कोणी नसतां। तेहि अपेक्षेत ठेवोनि घेतां। निरपेक्षता ती उडाली।।४४।। मग अपेक्षा करोनि घातें। मेळविजें जे नाना भोगांते। ते कांहीं न घडे सत्यशरणांते। संकटीं अडले जरी।।४५।। एवं निरपेक्षता गुण दुसरा। आतां ऐक निर्दोष गुण तिसरा। मनादि दोषें इंद्रियें अणुमात्रा। लिंपेचिना।।४६।। प्रपंचादि दोष समस्त। परि नातळें जयाचें चित्त। सर्वदोषविरहित। तोचि शुद्ध जंगम।।४७।। नि:स्पृह म्हणिजे स्पृहा नाहीं। कोणाचा संग आसरा न धरी कांहीं। निराश आशा अणुमात्र न करी पाही। कोणां पदार्थाची।।४८।। पाताळादि भोगविलास। ने घे तो ध्यानीं मानस। नाशिवंत जाणोनि सर्वांस। नि:संगत्वें वर्ततसे।।४९।। ऐसा निस्पृह गुण चौथा। पांचवा सत्यवादी निरोपुं आतां। जया लक्षणें मुक्तता। तात्काळ पावे।।५०।। प्राण जात असतां संकटीं। तरी असत्य उमटेना ओठीं। सदा सत्य वाक्य वाहे पोटीं। स्वहितालागीं।।५१।। मा अल्पासाठीं तत्त्वतां। असत्य वदेना सर्वथा। तो सत्यवादी असत्य बोलतां। सत्याची दशा जाय।।५२।। नातरी सत्य बोलोनि इकडे। जीवघात करी जरी तिकडे। तरी वाचा नव्हे लांवचि जाण पुढें। सत्य वदोनि घात केला।।५३।। परमार्थ बोलावा निभ्रांत। परि कोणाचें न दुखवावें चित्त। ज्या वचनें होय घातपात। तें वाक्य काय खरें।।५४।। परमार्थचि बोले वाक्यदीप। दहा जनांसीं होय सुखरूप। एकादोघातें होय दु:खरूप। तरी तो काय परमार्थ।।५५।। एकाचा बुडतां संसार। अथवा सुळीं घालावया नेती चोर। तेथें लटके बोलोनि वाचवी जो नर। तो साचचि जाणिजें।।५६।। नातरी साचचि बोलोनि निश्चितार्थ। येरीकडे होतसे घात। तरी ते साच न मानिती संत। सत्यरूपीं असत्य म्हणोनि।।५७।। जो सत्यवादी पुरुष। कुश्चल दोषयुक्त न बोले कवणास। कपटी काल्पनिक वाक्यास। मुखासीं न आणी कधीं।।५८।। सत्यवाक्य जें गुरूचें। सदा मुखीं उच्चारण त्याचें। अन्यथा घोष न करी वाचें। तें सत्य वाक्यलक्षण पांचवें।।५९।। आतां आईक दयेचें लक्षण। पीडितां देखे परजीवां आपण। नेणो सांडील आपुला प्राण। शुद्ध दया त्या नांव।।६०।। जीवातळीं आपुला जीव आंथुरी। अत्यंत कृपेनें संरक्षण करी। तो कोणासीं न दुखवी अंतरीं। तेंचि दया जाणिजें।।६१।। कां सर्वांभूतीं परमात्माचि असे। म्हणोनि कोण्हासीं दु:ख देत नसे। यालागीं दया नांदतसे। मूर्तिमंत तेथें।।६२।। त्यासीं द्वैतार्थचि नसे पाही। कोण्हाचा घात न करी कांहीं। नेणो आपणचि वर्ते सर्व देहीं। ऐसी दया जयापाशीं।।६३।। आपणचि अवघा झाला। मग कांहीं दु:ख होईल आपणाला। आपुले हातें आपुला डोळा फुटला। तरी काय हात छेदिजें।।६४।। हात छेदितां दोन्ही होती घात। डोळा फुटला गेला हात। हाताचा अन्याय गिळितां निश्चित। तरी एकचि दु:ख।।६५।। तैसे कोणी दु:ख दे आपणांस। आपणहि दुखविजें त्यास। तरी आपणचि वरपडा होईजें दु:खास। कां आपणचि अवघा म्हणोनि।।६६।। यालागीं कोणी करितां हानी। दु:खदायी कोणासीं नोहे झणीं। दु:ख दे त्यासीं सुख चिंती मनीं। त्या नांव दया वो देवी।।६७।। ऐसी दया ज्यापासीं। तो स्वामी होय आम्हांसीं। तो जगीं श्रेष्ठ होय सकळांसीं। दयानिधि जाणिजें।।६८।। आतां शांति तें सातवें लक्षण। तें अंगीं बाणलें संपूर्ण। जैसा अथांगीं गुंडा जाय बुडोन। तैसा परवाक्यां क्षोभेना।।६९।। पराचे शब्द तीक्ष्ण बाण। ते लागती धरूनि वर्मसंधान। परि न डळमळें जयाचें समाधान। ते शुद्ध शांति वो।।७०।। काम क्रोध दंभ अहंकार। ते असोनि शांतीचा बडिवार। मिरवी तो मूर्ख साचार। सोंग लौकिक नाटक।।७१।। पूर्ण शांति आली जाणिजें केव्हां। नीचाचे नीच बोल साहे जेव्हां। कधीं नुठी अहंभावा। ते जे तेंचि शांति।।७२।। जेथें विकाराची समाप्तता। केलें सुकृत न मिरवी सर्वथा। जाणीव शाहणीव ज्ञानाभिमानता। नाहीं जया तेंचि शांति।।७३।। सर्व करितां अपहारास। तरी न धरी अल्प क्रोधास। ऐसी शांति जया योगियास। तो शुद्ध जंगम वो देवी।।७४।। शांति बाणली ऐसी ज्यासीं। कामक्रोध निमाले त्यापासीं। मी माझे पदवी बैसवी त्यासी। तो पूज्यमान आम्हां।।७५।। स्वधर्माचा कंटाळा ज्यास। त्याचें ज्ञान भ्रष्ट विशेष। त्यासीं भाषण न करी उदास। शांति तया बोलिजें।।७६।। ऐसी शांति आदि सात लक्षणें। ज्याच्या अंगीं बाणलीं भाग्यगुणें। तोचि जंगम मी म्हणे। येर ते वेषधारी।।७७।। हें सप्तहि ज्याच्या अंगीं लक्षण। त्यासीं कळिकाळ येई शरण। तेथें भव भय बापुडे कोण्या मुखेकरोन। सन्मुख येती।।७८।। या लक्षणीं जो जंगम भूषित। त्या आधीन मी कैलासनाथ। त्याचे चरणीं तीर्थें नांदती समस्त। काशी आदि करोन।।७९।। तो जिकडे पाहे सहज दृष्टीं। तिकडे होय सुखाची वृष्टी। त्यासीं वंदी तो उठाउठीं। ईश्वरु होय।।८०।। तो ज्यासीं सुखी राहे म्हणे। त्यासीं म्यां अगत्य उद्धरणें। तो ज्यासीं देववी त्यासीं देणें। त्याचिया वचनें पार्वती।।८१।। आतां आणिक एक लक्षण। जंगमाचें निरोपुं आपण। तें ऐकतां होईजें पावन। निजभक्त जनीं।।८२।।
मुग्धत्वं मूर्तिमंतत्वं मदमोहादिवर्जितम्।
मायादित्रिमलं नास्ति यस्यासौ जंगम: स्मृत:।।७।।
मुग्धमौन होवोनि असे। कोण्हासीं सर्वथा बोलणेंचि नसे। मा गदारोळ करोनि बडबडीतसे। हें केवि घडें।।८३।। तयासीं अधिक बोलणें नाहीं। जरी बोलो लागेहि कांहीं। तरी अमृताहूनि गोड पाही। तेहि मपितचि बोलणें।।८४।। नातरी पडसादीचीं उत्तरें। जें बोलिजेती तेंचि उमटती अक्षरें। कोणी न बोलतां मौनाकारें। उगेचि असिजें जैसें।।८५।। तेवि जो जितुके बोले बोलणें। तेणेंसीं तितुकेचि वदिजें वचनें। परि कोण्हासीं अधिक उणे। न बोले मौन।।८६।। विकाराचा शब्द मुखां नाणी। निंदा कुश्चित न वदे वचनीं। शिवमूर्ति शांत होवोनि। असे तोचि जंगम तारक।।८७।। स्थिरबुद्धि सदा मदमोहातीत। कुबुद्धि विकारासीं विरहित। मायाममता देहबुद्धि नातळत। व्योमातीत तो।।८८।। तो त्रिमळाविरहित असे। त्रिमळां कधीं आतळत नसे। तो जंगम मजभीतरीं असे। मी तया आंतबाहेरी।।८९।। म्हणसी ते त्रिमल कोण। प्रथम आणव मल जाण। दुसरा तो मायीय मल कुलक्षण। आला असे मायावशें।।९०।। आतां तिसरा तो अवधारी। कर्मज म्हणोनि कार्मिक म्हणती एकसरी। त्याचा कर्ता जीव निर्धारी। बोलिला असे सर्वज्ञें।।९१।। ऐसिया त्रिमळातें त्यागून। स्वस्वरूपीं असे रममाण। ऐसिया शिवदासां जंगमपण। सहजचि प्राप्त होय।।९२।।
माता नास्ति पिता नास्ति नास्ति नाम कुलस्य च।
अयोनिसंभवं शुद्धमुत्तमं जंगमस्थलम्।।८।।
त्यासीं मातापिता नास्ति गोत। त्यासीं नाम नाहीं कूळ जात। अयोनिसंभव सदोदित। चिन्मय चिद्रूप तो।।९३।। जंगमस्थलाची ऐक थोरी। माता पिता नास्ति जन्मांतरीं। अयोनिज निर्मिला त्रिपुरारी। जंगमवंशाकारणें।।९४।। याचा महिमा पूर्ण। पाहा शिखामणीची खूण। दुजें पाशुपत प्रमाण। असें सत्य अवलोकी।।९५।। तेणें होय तें समाधान। स्वधर्मीं राहे अभिमान। धर्मोपदेशकांचें मन। आनंद पावे तेणेंचि।।९६।। जो जंगम अभिमानी प्रचंड। गुरुस्थलां जाणावया शोधी ब्रह्मांड। तो मूळ स्थळाचा दोर्दंड। पार करी भवार्णवा।।९७।। स्वधर्मीं निष्ठा ठेवलिया। भवसागरा तरावया। तरी तयाच्या पूर्णकार्या। विघ्नबाधा न होय पैं।।९८।। गुरु शास्त्रें असत्य मानितां। तरी नरक प्राप्त होय तत्त्वतां। जंगममूळ शोधोनि भजतां। क्रिया राहे अचूक तेथें।।९९।। क्रियेस्तव शोधावें मूळ। एèहवीं वृथा न करी छळ। वेष पाहिलिया तत्काळ। उत्थान द्यावें भक्तीनें।।१००।। जो भाव राखी गुरुपदासीं। जो क्रिया भंगू न दे मानसीं। तोचि गुरुपुत्र अविनाशी। पद पावेल सत्वर।।१०१।। वेषधारी जंगम होती। भ्रष्टाचारें ज्ञातींत वर्तती। ते उभय कुल नरकां नेती। अधर्माभिमानें करोनिया।।१०२।। याकरितां जंगमकुळीचा जंगमोत्तम। त्यासींच गुरुपदाचा नेम। म्यां निरोपिला स्वमुखें सुगम। तंत्रांतरीं वेळोवेळां।।१०३।।
स्वधर्मनिरता माता पिता यस्य तथैव च।
तस्यापि जांगमी दीक्षा गुरुसूत्रक्रमेण हि।।९।।
शंकर म्हणे हिमनगबाळा। म्यां तुज निवेदिले जंगमकुळां। शुद्ध जंगमाचाचि पुतळा। योग्य असे गुरुपदां।।१०४।। कोणी गादीस नवस करिती। पुत्र झालिया गादीस अर्पिती। त्याची दीक्षा करोनि सोडिती। सेवाधारी म्हणोनिया।।१०५।। त्यानें त्यजूनिया संसार। घेऊन जंगमवेष निर्धार। गुरुसेवा करावी फार। आत्महिताकारणें।।१०६।। सेवाधारीस दीक्षा असणें। हें तंव शास्त्राज्ञेप्रमाणें। परि पदारूढ होऊन त्यानें। गुरुपद घेऊं नये।।१०७।। जरी गुरुपद घे कपटें धरून। तरी तया कृतघ्नता घडे जाण। अधर्मी म्हणूनि तयालागून। विश्वास त्याचा न धरावा।।१०८।। आपण बुडोन दुसèयास बुडवी। स्वधर्माचा अभिमान सोडवी। तेणें तया अधोगतीची पदवी। मिळेल सत्य पार्वती।।१०९।।
आसप्तमकुलं शुद्धं यस्य चोभयपक्षकम्।
तस्य जंगमवंशस्य दीक्षा माहेश्वरी शुभा।।१०।।
याकरितां सत्शिष्य जाण। सप्तकुळ्या शुद्ध पाहून। जंगमदीक्षा तयालागून। द्यावी सत्य उद्धारा।।११०।। जंगमकुळीचाच शिष्य। पदीं घ्यावयास निर्दोष। उत्तम कूळ शुद्ध विशेष। माहेश्वर पूज्य तोचि।।१११।। स्वधर्मीचे ठायीं रत। मातापितरांसहित। भूरुद्र अवतार सत्य। गुरुस्थळां जाणावें।।११२।। गुरुस्थलाचें माहात्म्य। पूर्वाध्यायीं शिवागमें। वर्णिलें तें अनुपमें। श्रोत्यांलागीं सादर।।११३।।
ये पुनर्भुवाबाह्यास्ते न ग्राह्या: संकरास्तथा।
प्रमादात् प्राप्तदीक्षोऽसौ वर्जयेत् श्वानवद् बुधै:।।११।।
माहेश्वरी दीक्षाकारणें। सप्तकुळ्या विवाहित असणें। तरीच माहेश्वरी दीक्षेते पावणें। पुनर्विवाह माता वर्ज।।११४।। संकर जाति असतां। तरी माहेश्वरदीक्षा नाहीं तत्त्वतां। चुकोनि दीक्षा प्राप्त होतां। त्याचा त्यागचि करावा।।११५।। जैसा श्वानाचा स्पर्श पाही। तैसा धरावा भ्रष्ट देही। दीक्षा झाली म्हणोनि कांहीं। शंका न धरावी तेथें।।११६।। गुरुस्थलापासोनि जन्म। त्यासींच क्रियेचा नित्यनेम। तोचि स्वधर्माचा धरी प्रेम। पूर्वोघाकारणें।।११७।। नेमें करी त्रिकाळ स्नान। तैसेच भस्म-उधळण। न स्वीकारी पर-अन्न। सदा कर्मीं पवित्र।।११८।।
देहो नास्ति कुलं नास्ति नास्ति जिव्हारुचिस्तथा ।
नास्त्यासंग: संगो न श्रेष्ठं तज्जंगमस्थलम्।।१२।।
जेथें देहचि नास्ति। तेथें कुळयातीस कैसी गति। सर्वव्यापक स्वयंभू मूर्ति। परि मूर्तीचा साक्षी तो।।११९।। मूर्ति-अमूर्तिविरहित। वर्णाश्रमांसी अतीत। दर्शनाभिमानां नातळत। शुद्ध जंगम तो।।१२०।। पांची इंद्रियें हातीं न धरी। काम्य कर्मेंद्रियां कैंची उरी। तेथें लंपट जिव्हारुचीवरी। काय होईल वो।।१२१।। तयासीं भुकेचिया तोंडा। मिळो कोंडा अथवा मांडा। परि दु:खां नसे वरपडा। रसनेसाठीं।।१२२।। जो संतुष्ट सदा जंगमqलग। तो न करी हकहक न इच्छी भोग। ऐसा सत्यशरण जो चांग। तो त्रैलोक्यांसीं वंद्य।।१२३।। संग कुसंगासीं न धरी। नि:संग एकाकी निर्विकारी। ऐसा जंगमस्थळीं निर्धारी। उत्तम जंगम तो।।१२४।।
शांत्यैव भस्ममुद्धूल्य शुचित्वमणिभूषणम्।
विषयान् शिक्षितुं दंडं परतत्त्वं चं खर्परम्।।१३।।
शांत निवांत ते शरण। नित्य करी भस्मस्नान। सदा शुचित्व असे अंत:करण। गंगाजळाहूनि।।१२५।। नातरी त्रिकाळ स्नान करी। द्वादश टिळे लावी शरीरीं। जरी त्रिगुण मळकट अंतरीं। तरी ते विटंबना कीं।।१२६।। म्हणोनि अंतरीं ज्ञानें शुद्ध झाला। बाहेरी क्रियेनें क्षाळिला। शुद्ध शुचित्व बोलिला। शिवाचारसंपन्न तो।।१२७।। ऐसें शुचित्वलक्षण। तें रुद्राक्षमाळा भूषण। सुवर्ण हिरे रत्न मुक्ताफळ जाण। हें भूषण नोव्हे त्यासी।।१२८।। त्याचें भूषण तें शुचित्वलक्षण। येर ते तया तृणासमान। विवेकाचा दंड करोन। विषयासीं दंडी सदा।।१२९।। धरोनि विवेकाचा दंड करी। विकारा पशुत्वातें निवारी। परमतत्त्वाची हाती खापरी। येणें भूषणें भूषित तो।।१३०।।
रूपारूपं समाख्यातं कामनिष्काम एव च।
मायानिवारणेनोक्तमेतज्जंगमलक्षणम्।।१४।।
रूपा अरूपत्वें मानी। चांगलें वोखटें न करी कडसणी। जें जें दिसे तें तें शिवार्चनीं। निंदास्तुति दोन्ही न करी।।१३१।। काम निष्काम नाहीं भावना। माया सांडोनि निर्माय झाला हे आठवेना। निराकार निर्माय जाणा। वस्तु आपण।।१३२।। हेचि भावी भावनेरहित। मा निर्मायेसीं नातळत। परात्पर होवोनि असत। येणें लक्षणें।।१३३।।
पंचाक्षरं पंचवक्त्रं प्रणवं मूर्तिसंयुतम्।
परत्वस्य परित्राणं श्रेष्ठं तज्जंगमस्थलम्।।१५।।
पंचाक्षरी पंचमुखी जाण। ती पंचमुखें ओंकारापासून। ओंकार परतत्त्वापासून उत्पन्न। तें परतत्त्व जो जाणें।।१३४।। तें परतत्त्व गुरुमुखें जाणोनि। मग तेंचि असे होवोनि। जागृती सुषुप्ति स्वप्नीं। पालटु नाहीं जया।।१३५।। तो मनुष्यदेही ही भावना। न भावून वस्तुत्वे भावी आपणा। तोचि जंगम श्रेष्ठ जाणा। शिवाचारासीं गुरु होय।।१३६।।
आचारो वाप्यनाचारो सीमा नि:सीमवर्जित:।
गमनागमनं नास्ति स एवोत्तमजंगम:।।१६।।
त्यासी आचार अनाचार नाहीं। कोण्ही म्हणती तें बोलणें कांहीं। तरी याचा निर्णय पाही। निरोपुं वो देवी।।१३७।। तो आचार करोनि अकर्ता। म्हणोनि आचार नाहीं सर्वथा। अनाचार तरी तत्त्वतां। आचरेचि ना।।१३८।। म्हणोनि आचार अनाचार नाहीं। बोलिलो तेहि अनुभवें पाही। ए-हवीं आचार सोडो नये कांहीं। जरी वस्तुरूप झाला।।१३९।। हरपली वस्तु तरी दीपु पाहिजे। सापडलिया मग दीपु त्यागिजे। येणेंपरी क्रिया त्यागिली म्हणिजें। तरी न मानिती संत या बोलां।।१४०।। क्रिया करितां वस्तुचि जरी झाला। तरी न त्यागिजें आचाराला। जरी आचारत्यागी तरी मोडिला। भक्तिपंथ आपणचि।।१४१।। येथें त्याग-अत्यागाचा सोस नाहीं। जरी गुरुकृपें आपणचि वस्तु होई। तरी सहजचि ढाळे ढाळे राही। आचारक्रिया।।१४२।। तो आचारक्रिया करोनि अकर्ता। फळहेत नाहीं त्याचें चित्तां। तेथ मी मा न मा कोण म्हणतां। माझें तुझें।।१४३।। तया गमनागमन तरी नाहीं। जरी गमन करी तरी ठायीचा ठायीं। देह हिंडतां आपण पाही। स्थिर अढळ असे तो।।१४४।। कुंभाराचे चाकाखालील। खुंटा जैसा असे अढळ। तैसा गमनागमनीं निश्चळ। मेरु जैसा।।१४५।। त्याचे इतुकेचि अर्थवर्म। जे अकर्ता केवळ परब्रह्म। सृष्टीं विचरे भक्ताचें प्रेम। घ्यावयालागीं।।१४६।।
जंगमे गमनं नास्ति स्याच्चेत्तद् भक्तमन्दिरम्।
अन्यस्य गृहमिच्छेद्य: सद्यो गोमांसभक्षणम्।।१७।।
जंगमासीं नाहीं गमनागमन। जरी उठेचि मनीं गमनकारण। तरी भक्ताचे गृहीं जाणें जाण। निराशपंथें।।१४७।। अभक्त भवीच्या गृहासीं। जावयाची इच्छा धरी मानसीं। तरी गोमांसभक्षण घडे त्यासीं। पातकिया होय तो।।१४८।। अभक्त भवि म्हणिजे कवणासीं। पंचकळश दीक्षा नाहीं ज्यासीं। गुरूविण जीवे त्या निगुरीयासीं। अभक्त भवि बोलिजें।।१४९।। शिवभक्त म्हणवी आपणासीं। पुजी आन दैवतासीं। अभक्त भवि बोलिजें त्यासीं। अनाचारी म्हणोनि।।१५०।। तीर्थप्रसादाची वार्ता। कधी कोणे काळीं नेणें सर्वथा। लिंगपूजनीं नावडी चित्ता। तो गे तोचि भक्त भविया।।१५१।। ऐसिया भवीच्या घरासीं। जरी इच्छा धरी मानसीं। तरी आमिषभक्षण घडे त्यासीं। यालागीं भविसंग त्यागिजें।।१५२।। पंचकलश दीक्षा शिवमंत्र ज्यासीं। एक जाणे गुरु-लिंग-जंगमासीं। तीर्थप्रसादी प्रेम भक्त बोलिजें त्यासीं। त्याच्या घरां सुखें जाणें।।१५३।।
भक्तेन सुखगोष्टि: स्याद् धनं भक्तप्रतिग्रहम्।
भक्तै: सह वसेन्नित्यं भक्तानां गृहसंगभाक्।।१८।।
ऐसिया शिवभक्ताचे घरीं जाईजें। त्यासीं गुह्य गोष्टी बोलिजें। त्याचें अन्न धन दान प्रतिग्रह घेईजें। गुरुकरजात म्हणोनि।।१५४।। जो एकभावें पुजी गुरु-लिंग-जंगम। ज्यासीं तीर्थप्रसादीं नित्यनेम। त्याचा संग कीजें उत्तम। भविसंग त्यागोनिया।।१५५।।
भक्तस्त्रीभक्तहस्तेभ्य: शुचिरन्नं प्रतिग्रह:।
भक्तकायनिवेद्यं च इत्येतज्जंगमस्थलम्।।१९।।
भक्ताचे स्त्रीचे हस्ताकुन। सेवा घेईजे प्रेमभक्तिकुन। भक्ताघरींचें अन्नपाणी सेवन। क्रियामुखें कीजें देवी।।१५६।। ज्या भक्तें तन मन धन अर्पण। त्याची काया कीजें पावन। ऐसें हें जंगमस्थान। निरोपण करी शिव भक्तीं।।१५७।। वीरशैवाचे संस्कार। गर्भादि अंतकालावर। लिंगधारीनें सत्वर। गुरुहस्तें करवावें।।१५८।। गुरु तोचि असे देख। उपगुरूचा वंशक। तया हस्तें ही मांत्रिक। क्रिया करावी शास्त्राज्ञें।।१५९।। शिवाचारासीं जंगम गुरु। ऐसा आगम गर्जे मेरु। तोचि करील भवपारु। वीरशैवांलागूनि।।१६०।।
लिंगार्पितं न कर्तव्यं कर्तव्यं जंगमार्पितम्।
लिंगजंगमसंयुक्तं जंगमस्य विशेषत:।।२०।।
जंगममुखेविण अर्पण। लिंगासीं नोव्हे हो जाण। समीप जंगम न होता नैवेद्यन। स्वमुखें कीजें तें ऐका।।१६१।। अन्नावरोनि हात फिरवोनि लिंगासीं दाविजें। तोचि हस्त मुखां लाविजें। येणेंचि परी तीन वेळां कीजें। निवेदन लिंगासीं।।१६२।। लिंगजंगमसंयुक्तेकुन। प्रसाद कीजें विश्वासेकुन। तोचि जंगम त्रिजगती पावन। मजहि पूज्यमान तो।।१६३।। लिंगासीं दाविल्याविण तृणकाडी। न सेवी सर्वथा थोडी। विष अथवा अमृतगोडी। विसरोन तो न घाली मुखीं।।१६४।। हे कां म्हणसी तरी ऐक। गुरु लिंग जंगम तिन्ही एक। म्हणोनि लिंगासीं पुजितां देख। गुरुचि पुजिला होय।।१६५।। तैसाचि जंगम पुजितां देख। गुरु पुजिला होय विशेख। म्हणोनि गुरु-लिंग-जंगम एक। भावें पुजी तो जंगम अथवा भक्त।।१६६।। कोणी म्हणती जंगम तो परब्रह्म। त्यासीं पूजेचा कायसा नेम। वस्तु झालिया क्रियाकर्मधर्म। कायसा तयासीं।।१६७।। तरी यदर्थी उत्तर ऐकिजें। शिव शिवेचि यजिजे। हें उत्तर श्रुतिशास्त्रीं बोलिजें। जाणती शिवशरण।।१६८।। देव होवोनि देवां भजिजें। आपुलिया भक्तिसुखां आपण घेईजें। आपणचि भक्तिसुखां वाढविजें। आपुलिया सुखासाठीं।।१६९।। जेणें जीवासीं दिधलें शिवपण। आणि रंकासीं रावपण। म्हैशासीं सिंहपण। दिधलें ज्या गुरूने।।१७०।। त्या गुरूची न कीजें कैशी भक्ति। न करितां जाय अधोगति। सायुज्याचे माथां नांदती। गुरुभक्ति वो देवी।।१७१।। भक्तीविण नुसतें ज्ञान। तें जैसें नासिकेविण मुख जाण। यालागीं भक्तिवैराग्यज्ञान-। संपन्न तो उत्तम जंगम।।१७२।।
स्थावरार्पितनैवेद्यं न मे स्यात् तृप्तिकारकम्।
जंगमार्पितनैवेद्यं मम तृप्तिकरं परम्।।२१।।
स्थावरीं करितां निवेदन। तेणें मी तृप्त नोव्हे त्रिनयन। जंगमलिंगीं करितां अर्पण। मी तृप्त होय वो देवी।।१७३।। ज्यासीं नाहीं शिवाचार। त्यानें पुजिजें स्थावर। ज्याचें हृदयस्थळीं शंकर। त्यानें स्थावर पुजूं नये।।१७४।। अमान्य करोनिया हृदयींचें लिंग। जो धरी स्थावरीं भक्ति-अंग। तो शिवभक्त नोव्हे केवळ सोंग। बहुरूपियाचें।।१७५।। इष्टलिंग लोळतसे उराखालीं। अन्य स्थावरां दंडवत घाली। त्याचें मुख देखतां अंघोळी। वस्त्रांसहित करावी।।१७६।। गळां असोनिया त्रिनयन। जो अन्य देवताचें करी उपासन। तो भवीहून परता जाण। लिंगनिष्ठा नाहीं म्हणोनिया।।१७७।। यालागीं लिंगीं निष्ठा धरिजे। जंगमहि तद्रूप मानिजें। जंगममुखें लिंगासीं अर्पिजें। तेणेंपरी तृप्त वो पार्वती।।१७८।।
निराकारं च साकारं निर्विकारं सुखावहम्।
साक्षान्मुक्तिप्रदं भावमुत्तमं जंगमस्थलम्।।२२।।
जंगमस्थळ तें निराकार। तेंचि बोलिजें साकार। साकार होवोनि निर्विकार। षडविकारविरहित।।१७९।। ते षडविकार म्हणसी कोण। जायते स्थिति विवर्धते तीन। चौथा विपरिणमते पांचवा अपक्षियते जाण। मृत्यु तो साहवा विकार।।१८०।। या विकारांचा निर्णय सांगेन। जायते म्हणिजे जन्मला आपण। अज अजन्मा आत्मा असोन। मी जन्मलो हा विकार वाहे।।१८१।। स्थिति म्हणिजे मी एक इथें आहे-। नाहीं हें आत्म्यास नाहीं पाहे। तो सदोदित अस्ति नास्ति होय ना जाये। ऐसें असोनि मी एक आहे म्हणे।।१८२।। मी एक आहे म्हणिजे स्थिति। तो मी नाहीं होईन हेहि वाटे कीं चित्तीं। असे नसे मी हा विकार दुसरा स्थिति। श्रुति बोलती ग्वाही।।१८३।। तिसरा विवर्धते विकार। म्हणे मी वाढतो होतो लहान झालो थोर। आत्म्यास वाढणें लहान थोर आकार। घडे काय तो।।१८४।। आत्म्यासीं विवृद्धि वाढणें नाहीं। तो जैसा तैसा असे तिहीं अवस्थांच्या ठायीं। ऐसे असतां म्हणे मी वाढतो देहीं। हा विकार वाहे नसतांचि।।१८५।। विपरिणमते विकार चौथा। मी तरुण विषयविलासभोक्ता। ऐसी तारुण्याची वाहे अवस्था। विसरोनि आपणिया।।१८६।। आत्मस्वरूप तें तरी स्वत:सिद्ध। त्यास कैसें बाल्य तारुण्य वृद्ध। ऐसा असोनि निजबोध। मी तरुण हा विकार वाहे।।१८७।। अपक्षीयते तो विकार पांचवा जाण। म्हणे मी म्हातारा मज वृद्धपण। आतां मज येणार मरण। ही घोकणीच राहे चित्तीं।।१८८।। वृद्ध-अवस्था आत्मत्वीं न लगे। तंव मृत्यु-अवस्था कैसी लागे। मी मरेन हा विकार वाहे अंगे। नाथिलाचि देहबुद्धि।।१८९।। आत्मा जरी जरामरणातीत। त्यासीं जन्मला ही स्थिति वाढवीत। तारुण्य वार्धक्य मृत्यु भावीत। हे साही विकार नसतांचि।।१९०।। ऐसिया षडविकारांसीं नातळत। म्हणोनि सदा सुखरूप सदोदित। तोचि उत्तम जंगम जगभरित। सद्गुरु बोलिजें त्यासीं।।१९१।। तो साक्षात् प्रभु साक्षिभूत। त्यासीं चा-ही मुक्ति शरणागत। तो पावला निर्गुण मुक्ति निभ्रांत। हेंहि बोलणें न्यून वो देवी।।१९२।। बद्ध म्हणिजे बांधिला। मुक्त म्हणिजे सुटला। बंधमुक्तीचा निर्णय केला। हाच कीं साधुजनीं।।१९३।। जो मुळीच बांधला नाहीं। त्यासी सुटला म्हणणें काई। म्हणोनि बद्धमुक्तावेगळा पाही। जंगम तोचि जाणिजें।।१९४।। स्वप्नीं राजा मोळीविक्या झाला। जागृति आलिया पाहो लागला। तंव राज्यपदीं देखे आपणाला। स्वप्न मिथ्या जाहलें।।१९५।। जरी राजा स्वप्नीं मोळीविक्या झाला। तरी राजपदां काय मुकला। निद्रेस्तव भास जो भासला। तो लटिका नसताचि।।१९६।। तैसें लटिकेचि बांधलेपण। तें सत्यत्वें भासे संकल्पें जाण। तो गुरुकृपें संकल्प गेलिया निमोन। मग कोण बद्ध मुक्त म्हणे।।१९७।। ऐसा बंधमुक्तीसीं विरहित। षडविकारांसीं अतीत। ऐसिया जंगमाचें मी करीत। ध्यान वो देवी।।१९८।। तो धीर गंभीर अचल अढळ। अकूळ अमूळ अद्वैत अकळ। अव्यक्त अविनाश अमळ। त्रिमळाविरहित।।१९९।। अनाम अगम्य अगोचर। अनुपम्य अलक्ष अपरंपार। अकल्पित असंग अगणित अपार। नेणवे कोणां।।२००।। निर्गुण निराकार निजरूप। निर्धुत निरामय निर्विकल्प। निष्प्रपंच नि:संग निष्पाप। निर्वेर सर्वांभूतीं।।२०१।। निराश निश्वास निराभास। निर्गम्य निरुपम निजानंद नि:शेष। निश्चळ निरिच्छ निर्दोष। निरंजनमूर्ति जंगम।।२०२।। जगदाकार जगन्निवास। जगद्रूप जगन्नायक जगदीश। जगज्जीवन जनीं वनीं वास। सर्वत्र जयाचा।।२०३।। व्यापून सकळ ब्रह्मांडास। सर्वत्र असे जयाचा वास। परब्रह्म पुरुष अविनाश। जंगम तो।।२०४।। परब्रह्म परमेश्वर परमानंद। परवस्तु परात्पर प्रसिद्ध। परमगहन परंधाम निजानंद। परमपावन जंगम तो।।२०५।। चिद्रूप चैतन्य चिद्घन। चिदानंद चिन्मात्र पूर्ण। चिदैक चिद्विलास चैतन्यघन। सच्चिदानंद तो।।२०६।। सदोदित सबराभरीत। सद्रूप सदोदित सदा शांत। सत्स्वरूप सद्बोध सुमत। कुमतातीत जो जंगम।।२०७।। जो स्वयें प्रभुरूप झाला। पुन: काय वर्णावें तयाला। अमृतां गोड ऐसें बोलतां बोलां। बोलचि लाजे।।२०८।। कां गोडचि त्यासीं गोड म्हणणें। म्हणतां म्हणणिया उणे। गोडचि त्यासीं गोडपणें। काय स्तविजें।।२०९।। तैसें अनुपम्य वस्तु पूर्णपणें। जें असें तें आपण झाला गुरुकृपेनें। त्यासीं काय वर्णावें कवणें। तेथें वेदश्रुति थकित।।२१०।। ऐसा जंगम तो शिवमूर्ति। निराभास भासेना कोणाप्रति। अढळ ढळेना प्रळयकल्पांतीं। म्हणोनि निश्चळ सदा तो।।२११।।
नादं निश्चललिंगस्य बिंदुर्निश्चलजंगम:।
नादबिंदुसमायुक्तं श्रेष्ठं तज्जंगमस्थलम्।।२३।।
लिंगासीं नाहीं जैसा नादु। तैसा जंगमासीं नाहीं बिंदु। नादबिंदुसमायुक्तं ऐसा बोधु। जंगम-लिंगासीं असे।।२१२।। लिंग नादाविण मौन केवळ। न बोले कोणासीं असे निश्चळ। तैसा जंगमहि न बोले कोणासीं निवळ। होवोनि असे तो।।२१३।। तयासीं बोलणें तरी नाहीं। परि परोपकारार्थ बोले जरी कांहीं। ज्या बोलें सुख होय परदेही। तैसें बोलणें बोलें।।२१४।। म्हणोनि नादबिंदूसीं अतीत। नाद तें बोलणें नाहीं बहुत। नाद जिंतिला मौनें निश्चित। होवोनि ठेला।।२१५।। परि आपुलें क्रियाकर्मे करी। केलियाची सय न धरी अंतरीं। प्रवृत्ती लौकिक बोल जिव्हाग्रीं। नाणी कदा तो।।२१६।। म्हणोनि नादातीत जंगम। बिंदु तरीच तो नि:सीम। तो शिवभक्तिरूप देखे परब्रह्म। तंव बिंदु कैंचा तया।।२१७।। यालागीं नादबिंदुकलाज्योति-। विरहित जो परब्रह्ममूर्ति। हें उत्तम स्थळ वो पार्वती। निरोपिलें तुज।।२१८।। ही जंगमलक्षण स्थिति। देवी निरोपिली तुजप्रति। हे ऐकोनि ऐसे जे होती। ते धन्य होती संसारीं।।२१९।। जंगम ऐसें म्हणवावें। आणि या लक्षणीं न वर्तावें। तरी तें सोंग जाणावें। मैंदाचिये घरीचें।।२२०।। यालागीं धन्य तोचि जंगम। जो येणें लक्षणें वर्ते उत्तम। तोचि जाणिजें परब्रह्म। मीहि वंदी तयातें।।२२१।। हें जंगमस्थळ पतितपावन। पार्वती तुज निरोपिलें प्रेम जाणोन। ऐकतां सद्भाव धरोन। शिवलोकां पाविजें।।२२२।। इति श्रीपरमरहस्यसारामृत। शिवगौरीसंवादीं वर्तत। त्याची टीका करोनि प्राकृत। कृतकृत्य मन्मथ।।२२३।।
।। इति श्रीपरमरहस्ये हरगौरीसंवादे जंगमस्थलनिरूपणं नाम दशमोऽध्याय: समाप्त:।।
श्लोक २३, ओव्या २२३.