Wednesday, 24 July 2013
Tuesday, 23 July 2013
400 साल तक बर्फ के नीचे दबा था केदारनाथ मंदिर
400 साल तक बर्फ के नीचे दबा था केदारनाथ मंदिर..... !!
केदारनाथ मंदिर की एक और ऐसी हकीकत जिससे कम लोग ही वाकिफ होंगे। वैज्ञानिकों के मुताबिक केदारनाथ मंदिर 400साल तक बर्फ के नीचे दबा था, लेकिन फिर भी उसे कुछ नहीं हुआ। इसीलिए जियोलॉजिस्ट और वैज्ञानिक इस बात से हैरान नहीं हैं कि ताजा जलप्रलय में केदारनाथ मंदिर बच गया। 400 सालतक बर्फ के नीचे दबा था केदारनाथ मंदिर, चार सौ साल तक ग्लेशियर से ढंका था केदारनाथ मंदिर। चार सौ साल तक ग्लेशियर के भयानक बोझ को सह चुका है केदारनाथ मंदिर।
जी हां, ये कहना है देहरादून के वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिकों का। शायद यही वजह है कि केदारनाथ मंदिर को जल प्रलय के थपेड़ों से कोई नुकसान नहीं हुआ।
केदारनाथ मंदिर के पत्थरों पर पीली रेखाएं हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक ये निशान दरअसल ग्लेशियर के रगड़ से बने हैं। ग्लेशियर हर वक्त खिसकते रहते हैं और जब वो खिसकते हैं तो उनके साथ न सिर्फ बर्फ का वजन होता है बल्कि साथ में वो जितनी चीजें लिए चलते हैं वो भी रगड़ खाती हुई चलती हैं। अब सोचिए जब करीब 400 साल तक मंदिर ग्लेशियर से दबा रहा होगा तो इस दौरान ग्लेशियर की कितनी रगड़ इन पत्थरों ने झेली होगी ??
वैज्ञानिकों के मुताबिक मंदिर के अंदर की दीवारों पर भी इसकेसाफ निशान हैं। बाहर की ओर पत्थरों पर ये रगड़ दिखती है तो अंदर की तरफ पत्थर ज्यादा समतल हैं जैसे उन्हें पॉलिश किया गया हो।
दरअसल 1300 से लेकर 1900 ईसवीं के दौर को लिटिल आईस एज यानि छोटा हिमयुग कहा जाता है। इसकी वजह है इस दौरान धरती के एक बड़े हिस्से का एक बार फिर बर्फ से ढंक जाना। माना जाता है कि इसी दौरान केदारनाथ मंदिर और ये पूरा इलाका बर्फ से दब गया और केदारनाथ धाम का ये इलाका भी ग्लेशियर बन गया।
केदारनाथ मंदिर की उम्र को लेकर कोई दस्तावेजी सबूत नहीं मिलते। इस बेहद मजबूत मंदिर को बनाया कईओं ने इसे लेकर कई कहानियां प्रचलित हैं। कुछ कहते हैं कि 1076 से लेकर 1099 विक्रमसंवत तक राजकरने वाले मालवा के राजा भोज ने ये मंदिर बनवाया था। तो कुछ कहते हैं कि आठवीं शताब्दीमें ये मंदिर आदिशंकराचार्य ने बनवाया था।
बताया जाता है कि द्वापर युग में पांडवों ने मौजूदा केदारनाथ मंदिर के ठीक पीछे एक मंदिर बनवाया था। लेकिन वो वक्त के थपेड़े सह न सका। वैसे गढ़वाल विकास निगम के मुताबिक मंदिर आठवीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य ने बनवाया था। यानि छोटे हिमयुग का दौर जो कि 1300 ईसवी से शुरू हुआ उससे पहले ही मंदिर बनचुका था।
वाडिया इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने केदारनाथ इलाके की लाइकोनोमेट्रिक डेटिंग भी की, लाइकोनोमेट्रिक डेटिंग एक तकनीक है जिसके जरिए पत्थरों और ग्लेशियर के जरिए उस जगह की उम्र का अंदाजा लगता है। ये दरअसल उस जगह के शैवाल और कवक को मिलाकर उनके जरिए समय का अनुमान लगाने की तकनीक है। लाइकोनोमेट्रिक डेटिंग के मुताबिक छोटे हिमयुग के दौरान केदारनाथ धाम इलाके में ग्लेशियर का निर्माण 14वीं सदी के मध्य में शुरू हुआ। और इस घाटी में ग्लेशियर का बनना 1748 ईसवीं तक जारी रहा।
अगर 400 साल तक ये मंदिर ग्लेशियर के बोझ को सह चुका है और सैलाब के थपेड़ों को झेलकर बच चुका है तो जाहिर है इसे बनाने की तकनीक भी बेहद खास रही होगी। जाहिर है शायद इसे बनाते वक्त इन बातों का ध्यान रखा गया होगा कि ये कहाँ है क्या ये बर्फ, ग्लेशियर और सैलाब के थपेड़ों को सह सकता है।
दरअसल केदारनाथ का ये पूरा इलाका चोराबरी ग्लेशियर का हिस्सा है। ये पूरा इलाका केदारनाथ धाम और मंदिर तीन तरफ से पहाड़ों से घिरा है। एक तरफ है करीब 22 हजार फीट ऊंचा केदारनाथ। दूसरी तरफ है 21,600 फीट ऊंचा खर्चकुंड। तीसरी तरफ है 22,700 फीट ऊंचा भरतकुंड। न सिर्फ तीन पहाड़ बल्कि पांच नदियों का संगम भी है यहां मंदाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा, सरस्वती और स्वर्णद्वरी।
वैसे इसमें से कई नदियों को काल्पनिक माना जाता है। लेकिन यहां इस इलाके में मंदाकिनी का राज है यानि सर्दियों में भारी बर्फ और बारिश में जबरदस्त पानी। जब इस मंदिर की नींव रखी गई होगी तब भी शिव भाव का ध्यान रखा गया होगा। शिव जहां रक्षक हैं वहीं शिव विनाशक भी हैं।
इसीलिए शिव की आराधना के इस स्थल को खास तौर पर बनाया गया। ताकि वो रक्षा भी कर सके और विनाश भी झेल सके। 85 फीट ऊंचा, 187 फीट लंबा और 80 फीट चौड़ा है केदारनाथ मंदिर। इसकी दीवारें 12 फीट मोटी हैं और बेहद मजबूत पत्थरों से बनाई गई हैं। मंदिर को 6 फीट ऊंचे चबूतरे पर खड़ा किया गया है।
ये हैरतअंगेज है कि इतने साल पहले इतने भारी पत्थरों को इतनी ऊंचाई पर लाकर, यूं तराश कर कैसे मंदिर की शक्ल दी गई होगी। जानकारों का मानना है कि केदारनाथ मंदिर को बनाने में, बड़े पत्थरों को एक दूसरे में फिट करने में इंटरलॉकिंग तकनीक का इस्तेमाल किया गया होगा। ये तकनीक ही नदी के बीचों- बीच खड़े मंदिरों को भी सदियों तक अपनी जगह पर रखने में कामयाब रही है।
लेकिन ताजा जल प्रलय के बाद अब वैज्ञानिकों को इस बात का खतरा सता रहा है कि लगातार पिघलते ग्लेशियर की वजह से। ऊपर पहाड़ों में मौजूद सरोवर लगातार बढ़ते जा रहे हैं और जैसा कि केदारनाथ में हुआ। गांधी सरोवर ज्यादा पानी से फट कर नीचे सैलाब की शक्ल में आया। वैसा आगे भी हो सकता है और अगर मंदिर पहाड़ों से गिरे इस चट्टानों के लीधे ज़द में आ गया तो उसे बड़ा नुकसान हो सकता है। साथ ही ये खतरा केदारनाथ घाटी पर हमेशा के लिए मंडराता रहेगा...
भगवान शंकर का सर्वाधिक प्रभावी एवं सरल मंत्र
भगवान शंकर का सर्वाधिक प्रभावी एवं सरल मंत्र
पंचाक्षर-नम: शिवाय
शिवपुराणके अनुसार, भगवान शंकर का सर्वाधिक प्रभावी एवं सरल मंत्र पंचाक्षर-नम: शिवायहै। यह पंचाक्षरमंत्र समाज के सभी वर्गो के लोगों के लिए समान रूप से फलदायीहै। इसलिए कोई भी स्त्री या पुरुष इस पंचाक्षर मंत्र को नित्य भक्तिपूर्वकजप सकता है। इस मंत्र के पांच अक्षरों में पंचानन (पांच मुख वाले) महादेव की सभी शक्तियां सन्निहित हैं।
पंचाक्षर मंत्र-नम: शिवायके जप में कोई जटिलता नहीं है। इससे पंचतत्वों से निर्मित मानव देह की शुद्धि होती है तथा बडे से बडे संकटका निवारण बडी सरलता से हो जाता है।जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने पंचाक्षर मंत्र के प्रत्येक अक्षर की महिमा का प्रतिपादन करने के लिए श्रीशिव पंचाक्षर स्तोत्र बनाया था। इसका संतजनबडे आदर से पाठ करते हैं। आशुतोष महादेव परम दयालु और बहुत जल्दी खुश होने वाले हैं। इनकी उपासना करने से सारे कष्ट दूर होते हैं और भक्त निर्भय हो जाता है।
शिव पंचाक्षर स्त्रोत
नागेंद्रहाराय त्रिलोचनाय भस्मांगरागाय महेश्वराय|
नित्याय शुद्धाय दिगंबराय तस्मे"न" काराय नमः शिवायः॥
हे महेश्वर! आप नागराज को हार स्वरूप धारण करने वाले हैं। हे (तीननेत्रों वाले) त्रिलोचन आप भष्म से अलंकृत, नित्य (अनादि एवं अनंत) एवं शुद्ध हैं। अम्बर को वस्त्र सामान धारण करने वाले दिग्म्बर शिव, आपके न् अक्षर द्वारा जाने वाले स्वरूप को नमस्कार ।
मंदाकिनी सलिल चंदन चर्चिताय नंदीश्वर प्रमथनाथ महेश्वराय|
मंदारपुष्प बहुपुष्प सुपूजिताय तस्मे "म" काराय नमः शिवायः॥
चन्दन से अलंकृत, एवं गंगा की धारा द्वारा शोभायमान नन्दीश्वर एवं
प्रमथनाथ के स्वामी महेश्वर आप सदामन्दार पर्वत एवं बहुदा अन्य स्रोतों से
प्राप्त्य पुष्पों द्वारा पुजित हैं। हे म् स्वरूप धारी शिव, आपको नमन है।
शिवाय गौरी वदनाब्जवृंद सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय |
श्री नीलकंठाय वृषभद्धजाय तस्मै"शि" काराय नमः शिवायः॥
हे धर्म ध्वज धारी, नीलकण्ठ, शि अक्षर द्वारा जाने जाने वाले महाप्रभु, आपने ही दक्ष के दम्भ यज्ञ का विनाश किया था। माँ गौरी केकमल मुख को सूर्य सामान तेज प्रदान करने वाले शिव, आपको नमस्कार है।
वषिष्ठ कुभोदव गौतमाय मुनींद्र देवार्चित शेखराय|
चंद्रार्क वैश्वानर लोचनाय तस्मै"व" काराय नमः शिवायः॥
देवगणो एवं वषिष्ठ, अगस्त्य, गौतम आदि मुनियों द्वार पुजित देवाधिदेव! सूर्य, चन्द्रमा एवं अग्नि आपके तीन नेत्र सामन हैं। हे शिव आपके व् अक्षर द्वारा विदित स्वरूप कोअ नमस्कार है।
यज्ञस्वरूपाय जटाधराय पिनाकस्ताय सनातनाय|
दिव्याय देवाय दिगंबराय तस्मै "य" काराय नमः शिवायः॥
हे यज्ञस्वरूप, जटाधारी शिव आप आदि, मध्य एवं अंत रहित सनातन हैं। हे दिव्य अम्बर धारी शिव आपके शि अक्षर द्वारा जाने जाने वाले स्वरूप को नमस्कारा है।
पंचाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेत शिव सन्निधौ|
शिवलोकं वाप्नोति शिवेन सह मोदते॥
जो कोई शिव के इस पंचाक्षर मंत्र कानित्य ध्यान करता है वह शिव के पून्य लोक को प्राप्त करता है तथा शिव के साथ सुख पुर्वक निवास करता है।
भगवान शिव क्यों कहलाते हैं रूद्र.....???
भगवान शिव क्यों कहलाते हैं रूद्र.....???
भगवान शिव के अनगिनत रूप हैं। क्योंकि सारी प्रकृति को ही शिव स्वरूप माना गया है। इन रूपों में ही एक है रुद्र। रुद्र का शाब्दिक अर्थ होता है - रुत यानि दु:खों को अंत करने वाला। यही कारण है कि शिव को दु:खों को नाश करने वाले देवता के रुप में पूजा जाता है। व्यावहारिक जीवन में कोई दु:खों को तभी भोगताहै, जब तन, मन या कर्म किसी न किसी रूप में अपवित्र होते हैं। शिव के रुद्र रूप की आराधना का महत्व यही है कि इससे व्यक्ति का चित्त पवित्र रहता है और वह ऐसे कर्म और विचारों से दूर होता है, जो मन में बुरे भाव पैदा करे। शास्त्रों के मुताबिक शिव ग्यारह अलग-अलग रुद्र रूपों में दु:खों का नाश करते हैं। यह ग्यारह रूप एकादश रुद्र के नाम से जाने जाते हैं।
जानते हैं ऐसे ही ग्यारह रूद्र रूपों को
1- शम्भू
शास्त्रों के मुताबिक यह रुद्र रूप साक्षात ब्रह्म है। इस रूप में ही वह जगत की रचना, पालन और संहार करते हैं।
2- पिनाकी
ज्ञान शक्ति रुपी चारों वेदों के के स्वरुप माने जाने वाले पिनाकी रुद्र दु:खों का अंत करते हैं।
3- गिरीश
कैलाशवासी होने से रुद्र का तीसरा रुप गिरीश कहलाता है। इस रुप में रुद्र सुख और आनंद देने वाले माने गए हैं।
4- स्थाणु
समाधि, तप और आत्मलीन होने से रुद्रका चौथा अवतार स्थाणु कहलाता है। इस रुप में पार्वती रूप शक्ति बाएं भाग में विराजित होती है।
5- भर्ग
भगवान रुद्र का यह रुप बहुत तेजोमयी है। इस रुप में रुद्र हर भय और पीड़ा का नाश करने वाले होते हैं।
6- भव
रुद्र का भव रुप ज्ञान बल, योग बल और भगवत प्रेम के रुप में सुख देने वाला माना जाता है।
7- सदाशिव
रुद्र का यह स्वरुप निराकार ब्रह्मका साकार रूप माना जाता है। जो सभी वैभव, सुख और आनंद देने वाला माना जाता है।
8- शिव
यह रुद्र रूप अंतहीन सुख देने वाला यानि कल्याण करने वाला माना जाता है। मोक्ष प्राप्ति के लिए शिव आराधना महत्वपूर्ण मानीजाती है।
9- हर
इस रुप में नाग धारण करने वाले रुद्र शारीरिक, मानसिक और सांसारिक दु:खों को हर लेते हैं। नाग रूपी काल पर इन का नियंत्रण होता है।
10- शर्व
काल को भी काबू में रखने वाला यह रुद्र रूप शर्व कहलाता है।
11- कपाली
कपाल रखने के कारण रुद्र का यह रूप कपाली कहलाता है। इस रुप में ही दक्ष का दंभ नष्ट किया। किंतु प्राणीमात्र के लिए रुद्र का यही रूप समस्त सुख देने वाला माना जाता है।
प्रातकाल शिव मंदिर में जाने की विधि
प्रातकाल शिव मंदिर में जाने की विधि
शिवमहापुराण== दसम खंड==अध्याय ---दूसरा
ब्रह्मा जी ने कहा की हे नारद प्रातकाल उठकर नित्यकर्म करने के उपरांत सर्वप्रथम प्रसंतापुर्वक शिव मंदिर में जाकर भगवान सदाशिव की स्तुति करनी चाहिए,तदपुरांत व्रत धारण करने वाले को पवित्रतापूर्वक अपने हाथ में पानी लेकर ये संकल्प करना चाहिए की हे भगवान सदाशिव मैं आपका व्रत कर रहा हूँ उसमे किसी प्रकार का कोई विघन न पड़े,इस प्रकार संकल्प करने के उपरांत व्रतधारी को चाहिए की वो पूजन की सामग्री को एकत्रित कर उस स्थान पर दक्षिण तथा पशिचिम की और आसन बिछाकर पूजन की सामग्री को वहां रखे,जहाँ कोई प्रसिद शिवलिंग स्थापित हो,इसके उपरांत व्रतधारी कोउचित है की वो अपनी सामर्थ्यानुसार श्रेस्ठ वस्त्र को पहन कर आसन पर बैठे और तीन बार आचमनकरने के उपरांत शिव जी का पूजन आरम्भ करे,
हे नारद व्रतधारी को उचित है की शिवरात्रि केमहात्मे को या तो स्वएं पढ़े अथवा किसी अन्य के दुवारा श्रवण करे, प्रातकाल स्तुति करने के उपरांत व्रतधारी को भगवान सदाशिव के प्रति ये विनती करनी चाहिए की हे प्रभु मैंनेश्रधापुर्वक आपके व्रत में अपना मन लगाया है अस्तु आप मुझे अपना सेवक जानकर प्रसन हों तथामेरे सम्पूरण मनोरथों को पूरा करें,इतना कहकर शिवजी के ऊपर पुष्पांजलि छोडनी चाहिए,इस प्रकार व्रत की क्रियाएं सम्पूरण हो जाने के पश्चात खुश होकर ब्राह्मणों को दान देना चाहिए,तथा अपनी समर्था के अनुसार शिव भक्तों,ब्राह्मणों तथा यतियों को श्रेस्ठ भोजन ,दान आदि दुवारा प्रसन करना चाहिए,
रात को शिव भजन करने चाहिए और मनन में सिर्फ शिव के नाम का जप्प करना चाहिए और सुबह प्रातकाल उठकर शनान करके शिव मंदिर जाना चाहिए और शिव लिंग के ऊपर जल अर्पित करके शिव स्तुति करनी चाहिए और धुप -दीप आदि जलाकर भगवान शिव की आरती उतरनी चाहिए फिर घर आकर भगवान सूर्य को जल अर्पण करना चाहिए और उसके बाद अपने खाने का पहला हिस्सा निकालकर गऊमाता को या बैल को देना चैये फिर खुद भोजन करना चाहिए
बोलिए भगवान भूतभावन सदाशिव शंकर भगवान जी की= जय
Monday, 22 July 2013
गुरु पूर्णिमा आषाढ़ की पूर्णिमा को ही क्यों,,.,.,.???
गुरु पूर्णिमा आषाढ़ की पूर्णिमा को ही क्यों
आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मानने का क्या राज़ है? धर्म जीवन को देखने का काव्यात्मक ढंग है। सारा धर्म एक महाकाव्य है। अगर यह तुम्हें खयाल में आए, तो आषाढ़ की पूर्णिमा बड़ी अर्थपूर्ण हो जाएगी। अन्यथा आषाढ़ में पूर्णिमा दिखाई भी न पड़ेगी। बादल घिरे होंगे, आकाश खुला न होगा। और भी प्यारी पूर्णिमाएं हैं, शरद पूर्णिमा है, उसको क्यों नहीं चुन लिया? लेकिन चुनने वालों का कोई खयाल है, कोई इशारा है। वह यह है कि गुरु तो है पूर्णिमा जैसा, और शिष्य है आषाढ़ जैसा। शरद पूर्णिमा का चांद तो सुंदर होता है, क्योंकि आकाश खाली है। वहां शिष्य है ही नहीं, गुरु अकेला है। आषाढ़ में सुंदर हो, तभी कुछ बात है, जहां गुरु बादलों जैसा घिरा हो शिष्यों से। शिष्य सब तरह के हैं, जन्मों-जन्मों के अंधेरे को लेकर आ छाए हैं। वे अंधेरे बादल हैं, आषाढ़ का मौसम हैं। उसमें भी गुरु चांद की तरह चमक सके, उस अंधेरे से घिरे वातावरण में भी रोशनी पैदा कर सके, तो ही गुरु है। इसलिए आषाढ़ की पूर्णिमा! वह गुरु की तरफ भी इशारा है और उसमें शिष्य की तरफ भी इशारा है। और स्वभावत: दोनों का मिलन जहां हो, वहीं कोई सार्थकता है।गुरु पूर्णिमा का महत्व
गुरु पूर्णिमा का महत्व
गुरु पूर्णिमा का महत्व
गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु र्गुरूदेवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥
व्यास जयन्ती ही गुरुपूर्णिमा है। गुरु को गोविंद से भी ऊंचा कहा गया है। गुरुपरंपरा को ग्रहण लगाया तो सद्गुरु का लेबिल लगाकर धर्मभीरुता की आड़ में धंधा चलाने वाले ‘‘कालिनेमियों ने। शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरु’ कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। ‘व्यास’ का शाब्दिक संपादक, वेदों का व्यास यानी विभाजन भी संपादन की श्रेणी में आता है। कथावाचक शब्द भी व्यास का पर्याय है। कथावाचन भी देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप पौराणिक कथाओं का विश्लेषण भी संपादन है। भगवान वेदव्यास ने वेदों का संकलन किया, 18 पुराणों और उपपुराणों की रचना की। ऋषियों के बिखरे अनुभवों को समाजभोग्य बना कर व्यवस्थित किया। पंचम वेद ‘महाभारत’ की रचना इसी पूर्णिमा के दिन पूर्ण की और विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रंथ ब्रह्मसूत्र का लेखन इसी दिन आरंभ किया। तब देवताओं ने वेदव्यासजी का पूजन किया। तभी से व्यासपूर्णिमा मनायी जा रही है। ‘‘तमसो मा ज्योतिगर्मय’’ अंधकार की बजाय प्रकाश की ओर ले जाना ही गुरुत्व है। आगम-निगम-पुराण का निरंतर संपादन ही व्यास रूपी सद्गुरु शिष्य को परमपिता परमात्मा से साक्षात्कार का माध्यम है। जिससे मिलती है सारूप्य मुक्ति। तभी कहा गया- ‘‘सा विद्या या विमुक्तये।’’ आज विश्वस्तर पर जितनी भी समस्याएं दिखाई दे रही हैं, उनका मूल कारण है गुरु-शिष्य परंपरा का टूटना। श्रद्धावाॅल्लभते ज्ञानम्। आज गुरु-शिष्य में भक्ति का अभाव गुरु का धर्म ‘‘शिष्य को लूटना, येन केन प्रकारेण धनार्जन है’’ क्योंकि धर्मभीरुता का लाभ उठाते हुए धनतृष्णा कालनेमि गुरुओं को गुरुता से पतित करता है। यही कारण है कि विद्या का लक्ष्य ‘मोक्ष’ न होकर धनार्जन है। ऐसे में श्रद्धा का अभाव स्वाभाविक है। अन्ततः अनाचार, अत्याचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचारादि कदाचार बढ़ा। व्यासत्व यानी गुरुत्व अर्थात् संपादकत्व का उत्थान परमावश्यक है।
गुरू पूर्णिमा
गुरू पूर्णिमा
[1]
यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे।
[2]
शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है।
[3]
अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। [क] बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।
[4]
भारत भर में गुरू पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करता था तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतकृत्य होता था। आज भी इसका महत्व कम नहीं हुआ है। पारंपरिक रूप से शिक्षा देने वाले विद्यालयों में, संगीत और कला के विद्यार्थियों में आज भी यह दिन गुरू को सम्मानित करने का होता है। मंदिरों में पूजा होती है, पवित्र नदियों में स्नान होते हैं, जगह जगह भंडारे होते हैं और मेले लगते हैं।
भगवान शिव के 108 नाम
भगवान शिव के 108 नाम
- ॐ भोलेनाथ नमः
- ॐ कैलाश पति नमः
- ॐ भूतनाथ नमः
- ॐ नंदराज नमः
- ॐ नन्दी की सवारी नमः
- ॐ ज्योतिलिंग नमः
- ॐ महाकाल नमः
- ॐ रुद्रनाथ नमः
- ॐ भीमशंकर नमः
- ॐ नटराज नमः
- ॐ प्रलेयन्कार नमः
- ॐ चंद्रमोली नमः
- ॐ डमरूधारी नमः
- ॐ चंद्रधारी नमः
- ॐ मलिकार्जुन नमः
- ॐ भीमेश्वर नमः
- ॐ विषधारी नमः
- ॐ बम भोले नमः
- ॐ ओंकार स्वामी नमः
- ॐ ओंकारेश्वर नमः
- ॐ शंकर त्रिशूलधारी नमः
- ॐ विश्वनाथ नमः
- ॐ अनादिदेव नमः
- ॐ उमापति नमः
- ॐ गोरापति नमः
- ॐ गणपिता नमः
- ॐ भोले बाबा नमः
- ॐ शिवजी नमः
- ॐ शम्भु नमः
- ॐ नीलकंठ नमः
- ॐ महाकालेश्वर नमः
- ॐ त्रिपुरारी नमः
- ॐ त्रिलोकनाथ नमः
- ॐ त्रिनेत्रधारी नमः
- ॐ बर्फानी बाबा नमः
- ॐ जगतपिता नमः
- ॐ मृत्युन्जन नमः
- ॐ नागधारी नमः
- ॐ रामेश्वर नमः
- ॐ लंकेश्वर नमः
- ॐ अमरनाथ नमः
- ॐ केदारनाथ नमः
- ॐ मंगलेश्वर नमः
- ॐ अर्धनारीश्वर नमः
- ॐ नागार्जुन नमः
- ॐ जटाधारी नमः
- ॐ नीलेश्वर नमः
- ॐ गलसर्पमाला नमः
- ॐ दीनानाथ नमः
- ॐ सोमनाथ नमः
- ॐ जोगी नमः
- ॐ भंडारी बाबा नमः
- ॐ बमलेहरी नमः
- ॐ गोरीशंकर नमः
- ॐ शिवाकांत नमः
- ॐ महेश्वराए नमः
- ॐ महेश नमः
- ॐ ओलोकानाथ नमः
- ॐ आदिनाथ नमः
- ॐ देवदेवेश्वर नमः
- ॐ प्राणनाथ नमः
- ॐ शिवम् नमः
- ॐ महादानी नमः
- ॐ शिवदानी नमः
- ॐ संकटहारी नमः
- ॐ महेश्वर नमः
- ॐ रुंडमालाधारी नमः
- ॐ जगपालनकर्ता नमः
- ॐ पशुपति नमः
- ॐ संगमेश्वर नमः
- ॐ दक्षेश्वर नमः
- ॐ घ्रेनश्वर नमः
- ॐ मणिमहेश नमः
- ॐ अनादी नमः
- ॐ अमर नमः
- ॐ आशुतोष महाराज नमः
- ॐ विलवकेश्वर नमः
- ॐ अचलेश्वर नमः
- ॐ अभयंकर नमः
- ॐ पातालेश्वर नमः
- ॐ धूधेश्वर नमः
- ॐ सर्पधारी नमः
- ॐ त्रिलोकिनरेश नमः
- ॐ हठ योगी नमः
- ॐ विश्लेश्वर नमः
- ॐ नागाधिराज नमः
- ॐ सर्वेश्वर नमः
- ॐ उमाकांत नमः
- ॐ बाबा चंद्रेश्वर नमः
- ॐ त्रिकालदर्शी नमः
- ॐ त्रिलोकी स्वामी नमः
- ॐ महादेव नमः
- ॐ गढ़शंकर नमः
- ॐ मुक्तेश्वर नमः
- ॐ नटेषर नमः
- ॐ गिरजापति नमः
- ॐ भद्रेश्वर नमः
- ॐ त्रिपुनाशक नमः
- ॐ निर्जेश्वर नमः
- ॐ किरातेश्वर नमः
- ॐ जागेश्वर नमः
- ॐ अबधूतपति नमः
- ॐ भीलपति नमः
- ॐ जितनाथ नमः
- ॐ वृषेश्वर नमः
- ॐ भूतेश्वर नमः
- ॐ बैजूनाथ नमः
- ॐ नागेश्वर नमः
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