शिवालय का आध्यात्मिक मर्म
महर्षि पतंजलि के अनुसार चित्तवृत्ति के निरोध का नाम योग है (योगश्चितवृत्तिनिरोध:)। इसकी स्थिति और सिद्धि के निमित्त कतिपय उपाय आवश्यक होते हैं जिन्हें 'अंग' कहते हैं और जो संख्या में आठ माने जाते हैं। अष्टांग योग के अंतर्गत प्रथम पांच अंग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार) 'बहिरंग' और शेष तीन अंग (धारणा, ध्यान, समाधि) 'अंतरंग' नाम से प्रसिद्ध हैं। बहिरंग साधना यथार्थ रूप से अनुष्ठित होने पर ही साधक को अंतरंग साधना का अधिकार प्राप्त होता है।
शिवालय में यही अष्टांग योग को मूर्त स्वरूप दीया गया है ।
शिवालय के बाहर भैरव कि मूर्ति होती है । भैरव यम का प्रतीक है । यम का अर्थ है संयम जो पांच प्रकार का माना जाता है : (क) अहिंसा, (ख) सत्य, (ग) अस्तेय (चोरी न करना अर्थात् दूसरे के द्रव्य के लिए स्पृहा न रखना),। योग मार्ग में प्रवेश करनेवाले इन्सान को प्राणिमात्र के साथ अपना सम्बन्ध सुद्ध रखना चाहिए । यम दूसरों के साथ प्रकट होती सच्चाई और सौम्यता है । ये बहिरंग साधना है । भैरव के खडग से अहंकार का वध ना हो और उसके खप्पर में अपनी सारी ममता कि आहुति दी नहीं जाती तबतक शिवालय में सच्चा प्रवेश हो नहीं सकता ।
यम के बाद आता है नियम । नियम के भी पांच प्रकार होते हैं : शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय (मोक्षशास्त्र का अनुशलीन या प्रणव का जप) तथा ईश्वर प्रणिधान (ईश्वर में भक्तिपूर्वक सब कर्मों का समर्पण करना)। कछुआ नियम का प्रतीक है । कछुआ जैसे अपने अंग सिकुड लेता है वैसे नियमों के द्वारा आत्मनिमग्न होते जाना है । गीता भी में कृष्ण ने यदा संहरते चायं कुर्मोगानीव सर्वश: कहके इन्द्रियों के विषयो से इन्द्रियों को हटाने कि बात कहते हुए कछुआ को याद किया है ।
यम और नियम – अन्दर और बाहर - के व्यवहार कि भूमिका शुद्ध करके मनुष्य को साधना के लिए बैठ जाना चाहिए । सो अब आता है योग का तीसरा अंग आसन । आसन से तात्पर्य है स्थिर और सुख देनेवाले बैठने के प्रकार (स्थिर सुखमासनम्) जो देहस्थिरता की साधना है। नंदी आसन का प्रतीक है । नंदी आसन बनके परमतत्व को स्थापने कि प्रेरणा देता है ।
शिवालय के गर्भगृह में प्रवेश के पहले एक ओर हनुमान और एक ओर गणपति के दर्शन होते है । योग का चौथा अंग है प्राणायाम । वायुपुत्र हनुमान प्राणायाम का प्रतीक है । आसन जप होने पर श्वास प्रश्वास की गति के विच्छेद का नाम प्राणायाम है। बाहरी वायु का लेना श्वास और भीतरी वायु का बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है। प्राणायाम प्राणस्थैर्य की साधना है। इसके अभ्यास से प्राण में स्थिरता आती है और साधक अपने मन की स्थिरता के लिए अग्रसर होता है। मरुतजय चित को वश करने कि शुद्ध करने कि और निर्मल विवेक ज्ञान प्राप्त करने कि प्रथम भूमिका है । तत: क्षीयते प्रकाश आवरणम ।
गजानन कि मूर्ति प्रत्याहार के लिए सुयुक्त और सूचक है । प्राणस्थैर्य और मन:स्थैर्य की मध्यवर्ती साधना का नाम 'प्रत्याहार' है। प्राणायाम द्वारा प्राण के अपेक्षाकृत शांत होने पर मन का बहिर्मुख भाव स्वभावत: कम हो जाता है। फल यह होता है कि इंद्रियाँ अपने बाहरी विषयों से हटकर अंतर्मुखी हो जाती है। इसी का नाम प्रत्याहार है (प्रति=प्रतिकूल, आहार=वृत्ति)। गण के अधिपति गणपति द्वारा इन्द्रियगण का विजय सूचित किया गया है । तत: परम वश्यतेन्द्रियायाणाम – प्रत्याहार कि सिद्धि से इन्द्रियों को परम् जय होता है ।
अब मन की बहिर्मुखी गति निरुद्ध हो जाती है और अंतर्मुख होकर स्थिर होने की चेष्टा करता है। इसी चेष्टा की आरंभिक दशा का नाम धारणा है। देह के किसी अंग पर (जैसे हृदय में, नासिका के अग्रभाग पर) अथवा बाह्यपदार्थ पर (जैसे इष्टदेवता की मूर्ति आदि पर) चित्त को लगाना 'धारणा' कहलाता है (देशबन्धश्चितस्य धारणा; योगसूत्र 3.1)। धारणा अंतरंग साधना है , जो अविनाशी आत्मलोक में प्रवेश का संकेत है । शिवलिंग से लिपटा हुआ सर्प धारणा का प्रतीक है ।
ध्यान इसके आगे की दशा है। जब उस देशविशेष में ध्येय वस्तु का ज्ञान एकाकार रूप से प्रवाहित होता है, तब उसे 'ध्यान' कहते हैं। धारणा और ध्यान दोनों दशाओं में वृत्तिप्रवाह विद्यमान रहता है, परंतु अंतर यह है कि धारणा में एक वृत्ति से विरुद्ध वृत्ति का भी उदय होता है, परंतु ध्यान में सदृशवृत्ति का ही प्रवाह रहता है, विसदृश का नहीं। शिवालय के गर्भगृह में रही पार्वती कि मूर्ति ध्यान का प्रतीक है । ध्यान की परिपक्वास्था का नाम ही समाधि है। चित्त आलंबन के आकार में प्रतिभासित होता है, अपना स्वरूप शून्यवत् हो जाता है और एकमात्र आलंबन ही प्रकाशित होता है। यही समाधि की दशा कहलाती है। अंतिम तीनों अंगों का सामूहिक नाम 'संयम' है जिसके जिसके जीतने का फल है विवेक ख्याति का आलोक या प्रकाश। समाधि के बाद प्रज्ञा का उदय होता है और यही योग का अंतिम लक्ष्य है।
जहा ध्यान , ध्याता और ध्येय एक हो जाते है हो समाधी अवस्था का ध्योतक शिवलिंग है ।
इस तरह शिवालय में असतंग योग को मूर्त स्वरुप दीया गया है । जो परमतत्व योगिओ के चित में भी बड़ी मुश्किल से आता है ओ पथ्थर में दिखाने का भगीरथ प्रयास है शिवमंदिर । गीता ने जगत को दू;खालयम् अशाश्वातम कहा है । ओ क्षणभंगुर दू;खालयम् में से शाश्वत शिवालय में प्रवेश करने का मार्ग है शिवमंदिर । कितनी करुणा कि है हमारे पूर्वजो ने !!
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